जब नेहरु ने एक अम्बेडकरवादी संस्कृत विद्वान को लिखा था पत्र

Written by विद्या भूषण रावत | Published on: May 29, 2018
मेरा ये लेख नेहरु को एक अम्बेडकरवादी साबित करने का प्रयास नहीं है और न ही ये कि उन्होंने कोई दलित अधिकारों के लिए कोई विशेष कार्य किया और यह भी के इस लेख में जो तथ्य बताए गए है उसको सीधे श्रीमती कुमुद पावडे से साक्षात्कार में ज्ञात हुआ. मैं अपनी अम्बेडकरवादी मित्र रजनी तिलक का धन्यवाद करना चाहता हूँ कि उन्होंने मुझे कुमुद के बारे में बताया और फिर उनसे मिलने के लिए प्रेरित किया. ये आलेख कुमुद के साथ उनके नागपुर स्थित निवास स्थान में लिए गए साक्षात्कार पर आधारित है. आप पूरे साक्षात्कार का विडियो भी इस लिंक पर देख सकते है.



कुमुद जी का जन्म फुलेवादी- अम्बेडकरवादी परिवार में नागपुर में 18 नवम्बर 1938 को हुआ. उनके पिता ज्योतिबा फुले के विचारों से बहुत प्रभावित थे और अक्टूबर 14, 1956 को दीक्षा भूमि के कार्यक्रम में बाबा साहेब की अगुवाई में लाखों लोगो में कुमुद और उनके परिवार के सदस्य भी शामिल थे. वह कहती हैं : उस समय मैं 18 वर्ष की थी और स्नातक द्वितीय वर्ष की छात्रा. हम लोग इस बारे में अत्यधिक प्रसन्न थे. हमें बाबा साहेब के हर आन्दोलन की जानकारी होती थी. ये जानकर हम सभी बहुत गौरवान्वित होते थे कि दुनिया का सबसे अधिक पढ़ा लिखा व्यक्ति हमारे आन्दोलन का नेतृत्व कर रहा है. हमने बाबा साहेब को उनके लेखो से जो समता, बहिष्कृत भारत और जनता में छपते थे, के जरिये और अधिक जान लिया था.

कुमुद के मामा शेड्यूल कास्ट फेडरेशन के विदर्भ इकाई के ट्रेजरार थे. उनके विचारों के कुमुद की माता जी पर बहुत असर था और अक्सर वह महिलाओं को पढ़ाने के लिए और गरीब बच्चो की मदद के लिए विभिन्न कार्यक्रमों में जाति थीं. वह कहते हैं : हालाँकि मेरे पिता फुलेवादी थे लेकिन वही लोग अम्बेडकरवादी भी होते हैं. अम्बेडकरवादी लोगो ने ही फुलेवाद का दर्शन जिन्दा रखा है.

वह कहती हैं, ‘ मैं ये मानती हूँ कि दलितों में बाबा साहेब के प्रति असीम श्रद्धा है. महिलाएं उनकी आरती उतारती थीं. महाड सत्याग्रह के समय से उन्होंने हर आन्दोलन में महिलाओं का एक विंग बनाना शुरू कर दिया था. नागपुर में एक कार्यक्रम में उनको सुनने लगभग पच्चीस हज़ार महिलाएं आईं. महिलाएं उनकी कॉल पर कहीं भी जाने को तैयार थीं. ऐसा नहीं था कि महिलाएं केवल उनकी कार्यकर्ता थीं अपितु महत्वपूर्ण पदों पर भी थीं. नासिक की शांता बाई दाने ने शिक्षा के क्षेत्र में बहुत बड़ा काम किया. महिलायें कार्यक्रमों में आई भी और उन्होंने दूसरों को भी प्रभावित किया.

कुमुद पावडे ने संस्कृत भाषा में स्नात्कोत्तर तक अध्ययन किया. मेरे लिए ये सवाल बहुत मजेदार था कि एक अम्बेडकरवादी बुद्धिस्ट परिवार की महिला का संस्कृत के प्रति लगाव कैसे हुआ. कुमुद बताती हैं, “ हमारे घर के पास एक मंदिर था और उसी के पास एक लाइब्रेरी थी जिसमे बहुत सी किताबें थीं. वही ‘मैंने’ बाबा साहेब के बारे में बहुत से पुस्तके पढ़ीं जिसमे एक में जिक्र था कि वह संस्कृत से प्यार करते है लेकिन नहीं पढ़ पाए बस मैंने भी संस्कृत पढने का निर्णय ले लिया. स्कूल में तो कोई दिक्कत नहीं हुई लेकिन स्नातक और स्नात्तकोत्तर के समय उनके ब्राह्मण अध्यापक उन्हें पढ़ाने में कोई दिलचस्पी नहीं लेते थे. कुछ तो ये साफ़ मानते थे कि महार लड़की को संस्कृत से क्या मतलब ये तो केवल ब्राह्मणों का काम है. ये सब वे आपस में बात करते थे लेकिन बावजूद इसके मुझे सबसे अधिक मार्क्स मिले. मैंने टॉप किया. एक ब्राह्मण अध्यापक ने मेरी मदद की और मुझे प्रोत्साहित किया. कुमुद बताती हैं कि उनके संस्कृत पढने से केवल ब्राह्मणों में ही नहीं उनके अपने समाज में भी बहुत परेशानी थी. बहुत से बोले, इस मृत भाषा को सीखकर क्या करोगे.

कुमुद पावडे ने 36 वर्ष तक संस्कृत पढ़ाई. मोरिस कालेज में आज भी लोग उनको याद रखते हैं. महत्वपूर्ण बात यह कि कुमुद केवल संस्कृत की ही ज्ञाता नहीं थी उन्होंने अंग्रेजी साहित्य में भी एम् ए किया.

मेरे लिए ये जानना महत्वपूर्ण था कि संस्कृत भाषा जो ब्राह्मणों के लिए रिज़र्व है, उन्हें कैसे नौकरी मिली. क्या उनके साथ कभी भेदभाव हुआ. इस बात का उत्तर तो और भी मजेदार है. वह बताती हैं : ‘ मुझे बहुत सी परेशानियों का सामना पड़ा. एम् ए करने के दो साल तक भी मुझे कहीं नौकरी नहीं मिली. समझ आ रहा था कि जाति के कारण ऐसा हो रहा है. इसलिए मैंने बाबू जगजीवन राम को पत्र लिखा और बताया कि आप तो कहते हैं कि हमारे लिए आरक्षण है लेकिन एक मेरिट वाली छात्रा होने के बावजूद भी मुझे कोई नौकरी नहीं मिल रही. बाबू जगजीवन राम ने वह पत्र तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु को फॉरवर्ड कर दिया. कुछ दिनों बाद नेहरु का पत्र कुमुद को प्राप्त हुआ जिसमें उनसे कहा गया कि वह डॉ शंकर दयाल शर्मा से बात करें और वह कोई न कोई इंतज़ाम कर देंगे. पत्र में कुमुद के लिए 250 रुपैया भी भेजा गया था ताकि वह मध्य प्रदेश जाकर इंटरव्यू आदि दे दे. कुमुद ये संस्मरण सुनकर मैं अवाक् रह गया क्योंकि एक प्रधानमंत्री अपना समय निकालकर आपको पत्र लिखे और उसमे सहयोग राशि भी भेजे. जवाहर लाल नेहरु की पॉपुलैरिटी का क्या राज, आज पता चल गया और शायद इसीलिए संघी मानसकिता के लोग उनसे आज भी डरते है. आज के दौर में तो एक कॉर्पोरटर भी चिट्ठी का जवाब नहीं देते.

कुमुद कुछ समय मध्य प्रदेश में कार्य करने के बाद महाराष्ट्र में आई जहा उन्हें अमरावती में कार्य मिला और बाद में उन्हें नागपुर में नौकरी मिली. लेकिन वह कहती हैं कि महाराष्ट्र में ये सब इसलिए हुआ कि उनके पति मोती राम पावडे कुनबी जाति से थे जिसके कारण उन्हें नौकरी मिली क्योंकि जब लोगो को उनके महार होने का पता चलता था तो वो फिर बाते बनाने लगते.

कुमुद और उनके पति मोती राम पावडे ने प्रेम विवाह किया. दोनों के बीच प्यार मोती राम के एक रात्रिकालीन स्कूल में कार्य करने से हुई. एक क्रिस्चियन मिशनरी की प्रेरणा से खोला गया यह स्कूल गरीब महिलाओं को शिक्षा देने के लिए खोला गया. मिशनरी चाहते थे कि जो खुद व्यवस्था का शिकार है उन्हें ही इस स्कूल की शुरुआत करनी चाहिए. इनके पति एक फुलेवादी थे और बाबा साहेब से बहुत प्रभावित थे. अपने कालेज में उन्होंने उस दौर में बाबा साहेब आंबेडकर के फोटो लगाया था. वह एक छात्र नेता भी थे.

दोनों में प्रेम के बाद विवाह तक होने में बहुत कठिनाई आई. हालाँकि दो परिवार अम्बेडकरवादी फुलेवादी होने का दावा करते थे लेकिन महार और कुनबी जातियों का होने के कारण उनमे इस विवाह के प्रति बहुत परेशानी थी. कुमुद के पिता का उनके हर कार्य के प्रति सहयोग और समर्थन था लेकिन उनके जाति में लोगो में गुस्सा था. जगह जगह बैठकें हो रही थी लेकिन उनके पिता ने सभी लोगो को समझा बुझा कर मामला शांत कर दिया लेकिन मोती राम पावडे के परिवार के सदस्य मानने को तैयार नहीं थे. उनके पिता ने इस विवाह को स्वीकार ही नहीं किया हालाँकि उनकी माँ ने अंततः अपने बेटे की खातिर इसे स्वीकार कर लिया.

उनका विवाह वैदिक रीति-रिवाज के साथ हुआ क्योंकि बुद्धिस्ट तरीके से विवाह अभी मान्य नहीं हुए थे और कुमुद नहीं चाहती थीं कि इतनी परेशानियों के बाद उनकी शादी भी कोई कच्चे तरीके से हो. उन्होंने एक विवाह पहले भी देखा था जो परेशानी में रहा इसलिए वह हर बात पक्की कर देना चाहती थीं. क्योंकि एक परिवार विरोध में था और लोगो ने भी खूब लाठिया और तलवार भांजी इसलिए कुमुद नहीं चाहती थी कि विवाह के बाद भी परेशानिया बढे. विवाह अमरज्योति नामक मंदंप में हुई जिसकी बुकिंग उनके पति ने की थी लेकिन जब वह के खाना बनाने वालो, काम काजी महिलाओं को पता चला के दुल्हन महार जाति की है तो सभी काम छोड़ कर चले गए. तब खाना बनाने और अन्य सम्बंधित कार्य कुमुद के परिवार के सदस्यों ने मिलकर किया.

विवाह तो संपन्न हो गया लेकिन हकीकत ये है कि उनकी परेशानिया कम नहीं हुईं क्योंकि उनके ससुर ने उनको स्वीकार नहीं किया. उनके बच्चे को हाथ तक नहीं लगाया और उनके हाथो से पानी तक नहीं पिया. उन्हें अपमानित करने का हर तरीका ढूँढा गया लेकिन धीरे धीरे उनकी सास उनके सास खड़ी हुई और अपने पति के खिलाफ भी केस करना चाहती थी लेकिन कुमुद जी बताती हैं कि उन्होंने अपने घर के मामले को अन्दर तक ही सीमित रखा.

महत्वपूर्ण बात यह की बाद में जब कुमुद का बेटा डाक्टर बन गया और उसके दादा ने उसके उपलब्धियों के बारे में सुना तो फिर ख़ुशी ख़ुशी अपना लिया. यह बात साबित करती है कि सफलता के साथ जुड़ने को हर एक तैयार रहता है.

कुमुद कहती हैं कि ‘जाति अभी भी जिन्दा है. लोग आपको सफलताओं के बावजूद भी स्वीकार नहीं करते. आरक्षण तो जातिगत है. हमने धर्म तो बदल दिया लेकिन अपनी जाति को ढोते रहे. मुसलमानों और इसाइयों में भी दलित है लेकिन बुद्धिज़्म में आने के बाद उपजाति के प्रश्न कम हुए हैं .

आज अम्बेडकरवादी आन्दोलन मज़बूत है और उसमे महिलाएं हर जगह भागीदारी कर रही है, इसका उन्हें गर्व है.  वह कहती है , ‘ हमें बाबा साहेब के भाषण पढने चाहिए और उन पर अमल करना चाहिए. आज हम मनुवादियों को जातीय शोषण के लिए तो गाली देते है लेकिन जब महिलाओं का प्रश्न आता है तो हम स्वयं मनुवादी हो जाते है. महिलाये को स्थिति बहुत ही चिंतनीय है.”

वह आगे कहती हैं : ‘आज दलित महिलाओं को हिन्दू धर्म के खिलाफ लड़ने की आवश्यकता है. हमें पश्चिम के फेमिनिस्म से कुछ नहीं मिलेगा. जो लोग स्त्रीमुक्ति की बात करते हैं वे हमारे परिपेक्ष्य को नहीं समझते. अम्बेडकरवादी होने के नाते हमें मानवमुक्ति की बात करनी होगी जो मात्र स्त्रीमुक्ति से कही ज्यादा बड़ा है. 
मानवमुक्ति का आन्दोलन भगवान गौतम बुद्ध और बाबा साहेब आंबेडकर ने चलाया था और आज अम्बेडकरवादी महिलाओं को मानवमुक्ति आन्दोलन का नेतृत्व करने की आवशयकता है.. अम्बेडकरवादी होने के कारण हमें सभी की मुक्ति का आन्दोलन करना है.”

कुमुद कहती हैं हमें महिलाओं को कमतर नहीं आंकना चाहिए. महिलाओं को ज्ञान और प्रज्ञा की देने की आवश्यकता है. हिन्दू धर्म उस कपडे की तरह जो पूर्णतः फट चुका है और जिसे पहना नहीं जा सकता और न ही इसे ठीक किया जा सकता है. बेहतर है कि इसे उतारकर फेंककर हम नया मार्ग चुने जो धम्म का था और जिसे बाबा साहेब आंबेडकर ने हमें बताया.

कुमुद पावडे की आत्मकथा अन्त्स्फोट मराठी में आनंद प्रकाशन औरंगाबाद ने प्रकाशित की है.

वह कहती हैं कि बाबा साहेब के विचार महिलाओं और पुरुषो में भेद नहीं करते. हमें सभी को सम्मान देना चाहिए और जाति उपजाति और लिंग भेद से दूर रहना चाहिए. बुद्धामय भारत के लिए आवश्यक है कम जातियों को ध्वस्त करें और महिलाओ को आगे बढाए.

जब मैंने उनसे पुछा के प्रबुद्ध भारत के लिए क्या बातें आवश्यक है तो कुमुद कहती हैं :

“भारत के प्रबुद्ध राष्ट्र बनने के लिए हमें सभी प्रकार के लोगो की जरुरत है. ये केवल दलितों के अकेले प्रबुद्ध बन्ने से नहीं होगा.  सभी को इसे स्वीकार करना होगा. ये 17% गैर द्विज आबादी का प्रश्न है जिसमे 50% महिलाएं हैं. तीन प्रतिशत द्विज जो बदलने को तैयार नहीं है और जिन्होंने हमारे समाजो के साथ अपना रवैय्या नहीं बदला है और जो अपनी जाति के विशेषाधिकारो को छोड़ने को तैयार नहीं वे हमारे लोग नहीं हो सकते. बुद्ध ने कहा था बहुजन सुखाय बहुजन हिताय और ये ही हमारा मूल मन्त्र होना चाहिए.”  वह यह भी कहती है कि हमें किसी को दुःख नहीं पहुचाना चाहिए और न ही किसी का शोषण करना चाहिए.

कुमुद पावडे अक्टूबर 1996 में रिटायर हुईं और नागपुर विश्विद्यालय की डॉक्टरल कमिटी की सदस्य थीं. वह ऑल इंडिया प्रोग्रेसिव वुमेन ऑर्गेनाइजेशन की अध्यक्ष हैं. उन्होंने दुनिया भर की यात्रा की और सेमिनारो और सम्मेल्लनों में हिस्सा लिया है. 1995 में उन्होने विश्व महिला सम्मेल्लन में बीजिंग में भागीदारी की और 2001 में नस्लभेद के विरुद्ध डरबन सम्मलेन में भी हिस्सा लिया.

कुमुद पावडे का जीवन एक उदहारण है कि कैसे दलित महिलाए घर के अन्दर और बाहर दोनों तक शोषण झेलता है. उनका जीवन ये भी बताता है कि पूर्वाग्रहों से युक्त होकर हम कभी आगे नहीं बढ़ सकते और आपको समान विचारों के लोग हमेशा मिलेंगे. उन्होंने संस्कृत पढ़ी और पढ़ाई लेकिन अपनी अम्बेडकरवादी बुद्धिस्ट अस्मिता और पहचान से कोई समझौता नहीं किया. न्याय प्राप्ति के लिए उन्होंने बाबू जगजीवन राम से लेकर तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु तक को लिखा जो उनके व्यक्तित्व को दर्शाता है कि जब आपका उद्देश्य साफ़ हो तो आपको हर वो जगह और दरवाजा खटखटाना पड़ता है जहां से न्याय और सहायता की उम्मीद होती है. वह जवाहर लाल नेहरु की प्रशंसक बनी लेकिन अम्बेडकरवादी मिशन को पूर्णतः समर्पित रहीं. उनके जीवन से यह भी पता चलता है कि मात्र अम्बेडकरवादी या फुलेवादी कह देने मात्र से हमारे ख़यालात नहीं बदल जाते और ये की परिवार आज भी जाति के बन्धनों को तोड़ने ने बहुत दिक्कत महसूस करते हैं लेकिन फिर भी कुमुद जैसे लोगों ने तो जिन्दगी को अपनी शर्तों पर जिया और समाज के हर ‘नॉर्म’ को चुनौती दी और अपने लिए एक मुकाम बनाया. उनके संघर्षो से हम सभी को अपना जीवन आत्मसम्मान से जीने की प्रेरणा मिलती है.

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