केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से आग्रह किया है कि वह कर्नाटक और तमिलनाडु के मंदिरों में 500 साल से चली आ रही उस परंपरा पर प्रतिबंध लगाए जिसमें दलित समुदाय के लोग ब्राह्मणों की जूठन पर लोटते हैं और ऐसा मानते हैं कि इससे उनके त्वचा रोग, संतान न होना और शादी से जुड़ी समस्याएँ हल हो जाती हैं।
Image: asianews.it
सामाजिक न्याय मंत्रालय ने इस परंपरा को अमानवीय और अंधविश्वास से भरा बताया है और कहा है कि ये परंपरा मानवीय गरिमा के खिलाफ है और स्वास्थ्य के लिए भी नुकसानदायक है।
इस परंपरा के समर्थकों का मानना है कि इसमें किसी तरह का जातिभेद नहीं किया जाता और इसमें भाग लेने वाले लोग अपनी मर्जी से आते हैं।
कर्नाटक में ये अनुष्ठान नवंबर-दिसंबर में दक्षिण कनारा जिले कुक्के सुब्रमण्या में तीन दिन के वार्षिक समारोह में इस तरह की प्रथा का पालन किया जाता है।
तमिलनाडु में ये परंपरा हर साल करूर जिले में अप्रैल में नेरूर सदाशिव भरमेंद्राई मंदिर में दोहराई जाती है।
मंत्रालय का कहना है कि इस कुप्रथा को संविधान के तहत मिली धार्मिक स्वतंत्रता के नाम पर बढ़ावा नहीं दिया जा सकता है। केंद्र की तरफ से दिए गए शपथपत्र में कहा गया है- "ये रस्में अपनी इच्छा से होती हैं लेकिन मानव गरिमा और व्यक्तियों का स्वास्थ्य इससे प्रभावित होता हैं। यह प्रथा भारत के संविधान में स्वतंत्रता के अधिकार के अनुच्छेद 25 के तहत न्याय, समानता और मानव गरिमा के संवैधानिक मूल्य के खिलाफ हैं। ये धर्म से संबंधित नहीं हैं।"
2011 में कर्नाटक उच्च न्यायालय ने कहा था कि खुला मंदिर के बाहर केले के पत्ते पर भोजन के जूठन पर सभी देवता की रस्म करने की पेशकश करने के लिए एक इच्छुक भक्त - जाति या धर्म की परवाह किए बगैर रोल कर सकते हैं।
वहीं, कर्नाटक सरकार का कहना है कि मंदिर की यह प्रथा दलित समुदाय से जुड़ी हुई नहीं है। राज्य सरकार का मानना है कि ब्राह्मणों द्वारा केले के जूठे भोजनयुक्त पत्तों पर लेटना श्रद्धालुओं की पूजा की रस्म है। उसका कहना है कि ब्राह्मण भी जूठन के पत्तों पर लोटते हैं।
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सामाजिक न्याय मंत्रालय ने इस परंपरा को अमानवीय और अंधविश्वास से भरा बताया है और कहा है कि ये परंपरा मानवीय गरिमा के खिलाफ है और स्वास्थ्य के लिए भी नुकसानदायक है।
इस परंपरा के समर्थकों का मानना है कि इसमें किसी तरह का जातिभेद नहीं किया जाता और इसमें भाग लेने वाले लोग अपनी मर्जी से आते हैं।
कर्नाटक में ये अनुष्ठान नवंबर-दिसंबर में दक्षिण कनारा जिले कुक्के सुब्रमण्या में तीन दिन के वार्षिक समारोह में इस तरह की प्रथा का पालन किया जाता है।
तमिलनाडु में ये परंपरा हर साल करूर जिले में अप्रैल में नेरूर सदाशिव भरमेंद्राई मंदिर में दोहराई जाती है।
मंत्रालय का कहना है कि इस कुप्रथा को संविधान के तहत मिली धार्मिक स्वतंत्रता के नाम पर बढ़ावा नहीं दिया जा सकता है। केंद्र की तरफ से दिए गए शपथपत्र में कहा गया है- "ये रस्में अपनी इच्छा से होती हैं लेकिन मानव गरिमा और व्यक्तियों का स्वास्थ्य इससे प्रभावित होता हैं। यह प्रथा भारत के संविधान में स्वतंत्रता के अधिकार के अनुच्छेद 25 के तहत न्याय, समानता और मानव गरिमा के संवैधानिक मूल्य के खिलाफ हैं। ये धर्म से संबंधित नहीं हैं।"
2011 में कर्नाटक उच्च न्यायालय ने कहा था कि खुला मंदिर के बाहर केले के पत्ते पर भोजन के जूठन पर सभी देवता की रस्म करने की पेशकश करने के लिए एक इच्छुक भक्त - जाति या धर्म की परवाह किए बगैर रोल कर सकते हैं।
वहीं, कर्नाटक सरकार का कहना है कि मंदिर की यह प्रथा दलित समुदाय से जुड़ी हुई नहीं है। राज्य सरकार का मानना है कि ब्राह्मणों द्वारा केले के जूठे भोजनयुक्त पत्तों पर लेटना श्रद्धालुओं की पूजा की रस्म है। उसका कहना है कि ब्राह्मण भी जूठन के पत्तों पर लोटते हैं।