जैसे-जैसे भारत में हिन्दू राष्ट्रवाद प्रबल हो रहा है, हमारे राष्ट्रीय आंदोलन और संविधान में अंतर्निहित ‘अधिकारों‘ की अवधारणा का हिन्दुत्व राजनीति द्वारा धीरे-धीरे अवमूल्यन किए जा रहा है.

सामंती समाज से आधुनिक उ़़द्योगों और समानता पर आधारित लोकतांत्रिक समाज बनने की भारत की यात्रा की शुरूआत औपनिवेशिक काल में ही हो गई थी. यह वह काल था जब आधुनिक उद्योगों के उदय से एक कर्मचारी-कामगार वर्ग उभर रहा था. लार्ड मैकाले की शिक्षा सम्बन्धी पहलों से उस शिक्षा प्रणाली की नींव पड़ी जिसमें एक उदार, खुला समाज बनाने की क्षमता थी और जिसमें अधिकारों की अवधारणा भी अंतर्निहित थी. सामंती, अर्ध-सामंती और ऐसे ही अन्य समाजों में आम लोगों के अधिकारों की अवधारणा ही नहीं होती थी और वे समाज के निम्न वर्ग पर राज करने के उच्च वर्गों के ‘दैवीय‘ अधिकार पर आधारित होते थे. इस दौर में वे ताकतें उभरीं जिनसे समाज के उभरते हुए वर्गों के अधिकारों को अभिव्यक्ति मिली.
औपनिवेशिक शासन के विरोध में चले स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व ऐसे नेताओं के हाथों में था जो लोकतान्त्रिक मूल्यों में रचे-बसे थे. सरदार पटेल, महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, मौलाना अबुल कलाम आजाद और सुभाष चन्द बोस ने उन मूल्यों को अभिव्यक्ति दी जिनमें लोगों के अधिकारों की धारणा अंतर्निहित थी. उन्होंने आंदोलन में भागीदारी की व्यक्तिगत तौर पर बड़ी कुर्बानियां दीं. इसका एक उदाहरण था जोतिराव फुले जिन्हें थॉमस पेन की पुस्तक ‘राईट्स ऑफ मेन‘ से प्रेरणा मिली. अंबेडकर जॉन डेवी के प्रबल अनुयायी थे जो लोकतांत्रिक मूल्यों से ओत-प्रोत थे.
हाल में प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने अधिकारों को महत्वपूर्ण बनाने के लिए लार्ड मैकाले की आलोचना करते हुए पारंपरिक ज्ञान प्रणाली की वकालत की और अधिकारों के बजाए कर्तव्यों पर जोर देने को बेहतर बताया.
यहां यह देखना दिलचस्प है कि मोदी जैसे अन्य लोगों और उनसे मिलती-जुलती मुस्लिम लीग दोनों ने ‘अस्त होते राजाओं और नवाबों‘ के मूल्यों को अभिव्यक्ति दी. मोदी का हिन्दुत्व प्राचीन काल का महिमामंडन करता है जिसमें धर्म केन्द्रीय तत्व था जिसके बारे में हिन्दुत्व के पैरोकारों का दावा है कि वह अत्यंत महान था. धर्म मतलब धर्म द्वारा नियत कर्तव्य. हिन्दू विचारकों का दावा है कि अन्य मजहबों में धर्म के तुल्य कोई धारणा नहीं है. शूद्र धर्म है, स्त्री धर्म है, क्षत्रिय धर्म है और अन्य धर्म भी हैं. अर्थात कर्तव्यों ही की समाज में प्रमुख भूमिका थी.
मुस्लिम लीग नवाबों / जमींदारों के बीच से उभरी और उसके नेताओं ने मोहम्मद बिन कासिम, जिसने कुछ समय तक सिंध पर राज किया था, से शुरू करके उसके बाद हुए मुस्लिम राजाओं के महान शासनकाल की तारीफों कें पुल बांधे. उनके आदर्श सामंती मूल्यां पर आधारित थे, जिनमें समाज के निचले तबकों को हेय दृष्टि से देखा जाता था. समाज के शक्तिशाली वर्गों को ‘दैवीय अधिकार‘ हासिल था. हालांकि पाकिस्तान जिन्ना द्वारा दी गई धर्मनिरपेक्षता की शानदार परिभाषा का साक्षी रहा, पर व्यावहारिक तौर पर उनके इर्दगिर्द मौजूद सामंती तत्वों का ही देश में बोलबाला रहा और जिन्ना की मौत के बाद वे खुलकर सामने आ गए और उन्होंने समाज पर अपने सामंती और अर्ध-सामंती मूल्य लाद दिए.
जैसे-जैसे भारत में हिन्दू राष्ट्रवाद प्रबल हो रहा है, हमारे राष्ट्रीय आंदोलन और संविधान में अंतर्निहित ‘अधिकारों‘ की अवधारणा का हिन्दुत्व राजनीति द्वारा धीरे-धीरे अवमूल्यन किए जा रहा है. ऐसे माहौल में ही 'नॉन बायोलॉजिकल' नरेन्द्र मोदी ने अधिकारों की उपेक्षा और कर्तव्यों की प्रधानता की मंजिल की ओर अपनी यात्रा का आगाज किया. लार्ड मैकाले द्वारा स्थापित शिक्षा प्रणाली को घटिया बताते हुए उसे त्यागने का आव्हान इसी दिशा में उठाया गया एक छोटा सा कदम था. 26 नवंबर को संविधान दिवस पर इसकी अधिक खुलकर चर्चा की गई .‘‘संविधान दिवस (26 नवंबर 2025) के अवसर पर नागरिकों को लिखे एक पत्र में उन्होंने नागरिकों द्वारा अपने मूल कर्तव्यों का पालन करने के महत्व पर जोर दिया. उन्होंने कहा कि इन कर्तव्यों का पालन एक सशक्त लोकतंत्र, देश की उन्नति और 2047 तक ‘विकसित भारत‘ बनाने के उनके सपने को पूरा करने के लिए आधारभूत आवश्यकता है‘‘. मोदी ने नागरिकों से आव्हान किया कि ‘देश के प्रति अपने कर्तव्यों के पालन को हम अपने मन में सर्वोच्च स्थान दें‘‘. यह उनके इसके पहले के वक्तव्यों के अनुरूप था जिनमें उन्होंने कहा था कि ‘कर्तव्य और अधिकार एक दूसरे से जुड़े हुए हैं‘‘ और ‘‘वास्तविक अधिकार कर्तव्यों के पालन का ही परिणाम होते हैं‘‘.
उन्होंने ट्वीट किया ‘‘संविधान दिवस पर नागरिक साथियों को पत्र लिखा जिसमें मैंने हमारे संविधान की महानता का जिक्र किया, हमारे जीवन में मूल कर्तव्यों के महत्व का जिक्र किया...‘‘ श्रावस्ती दासगुप्ता ने लिखा ‘‘हालांकि यह पहली बार नहीं था कि मोदी ने नागरिकों के कर्तव्यों पर जोर दिया या यह सुझाया कि कर्तव्य और अधिकार आपस में जुड़े हुए हैं. संविधान बताता है कि दोनों को इस तरह से संबद्ध करना गलत है. संविधान विशेषज्ञों और राजनीति विज्ञानियों के अनुसार कर्तव्यपालन का आव्हान करना, उन्हें अधिकारों की तुलना में अधिक महत्व देना संविधान में रद्दोबदल करने का एक कुटिल प्रयास है, अधिनायकवादी सत्ताओं की तरह अनुपालन सुनिश्चित करने की बात करना लोकतांत्रिक सिद्धांतों के लिए खतरे का संकेत है‘‘.
मोदी ने गांधीजी का भी हवाला दिया ‘‘वास्तविक अधिकार कर्तव्यपालन के प्रदर्शन का नतीजा होते हैं‘,‘ गांधीजी को उद्धत करना पूरी तरह अप्रासंगिक है क्योंकि जैसा जेएनयू की पूर्व प्रोफेसर एमरेटिस प्रो. जोया अख्तर बताती हैं ‘‘गांधीजी अक्सर कर्तव्यों की बात करते थे, लेकिन उन्होंने कभी भी उन्हें कर्तव्यों को अधिकारों की जगह नहीं रखा, उन्होंने कभी यह नहीं कहा कि कर्त्तव्य, अधिकारों से ऊपर हैं. उनकी दृष्टि में कर्तव्य एक नैतिक पथ हैं मगर मूल अधिकार अनिवार्य हैं और शासन द्वारा उनकी रक्षा की ही जानी चाहिए. गांधीजी की नजरों में कर्तव्यों के प्रति प्रतिबद्धता किसी भी तरह से अधिकारों को कम नहीं करती.‘‘
प्रसंगवश अधिकारों की अवधारणा पर जोर देने वाले कई कदम यूपीए सरकार (2004-2014) के दौरान उठाए गए थे. इनमें से पहला और एक बड़ा था ‘सूचना का अधिकार‘, जो लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत करने का एक तंत्र था. इसके बाद शिक्षा का अधिकार, भोजन का अधिकार और स्वास्थ्य का अधिकार आए. सन् 2014 में यूपीए सत्ता से बाहर हो गया और भाजपा के पूर्ण बहुमत के साथ एनडीए सत्ता में आया. अधिकार आधारित जन नीतियों के दृष्टिकोण को ताक में रख दिया गया है और कर्तव्यों को राष्ट्रीय नीतियों के केन्द्र में रखा जाने लगा है.
हमारा संविधान भी अधिकारों पर जोर देता है. उदाहरणार्थ, एक तरह से संविधान का अनुच्छेद 21, जो ‘जीवन के अधिकार‘ से संबंधित है, में स्वास्थ्य का अधिकार एवं शिक्षा का अधिकार अंतर्निहित हैं. यूपीए सरकार ने इन्हें बहुत औचित्यपूर्ण तरीके से सामने रखा.
हिन्दू राष्ट्रवाद पूरी तरह से धार्मिक स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति की आजादी व कई अन्य अधिकारों को कुचलता है. इनमें से कई मानवाधिकारों की अवधारणा में भी अंतर्निहित हैं.
श्री मोदी अपने पत्र में जो कह रहे हैं वह एक तरह से 'अधिकारों' की अवधारणा को कुचलता है. इन लोगों की अल्पसंख्यकों को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाने और बुद्धिजीवियों को अर्बन नक्सल करार देने समेत कई ऐसी नीतियां हैं. यहां यह जिक्र करना प्रासंगिक होगा कि अधिनायकवादी देशों के संविधान भी अधिकारों की कीमत पर कर्तव्यों को अधिक महत्व देते हैं.
(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया. लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सेंटर फॉर स्टडी ऑफ़ सोसाइटी एंड सेकुलरिज्म के अध्यक्ष हैं)
अस्वीकृति: यहाँ व्यक्त किए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं, और यह अनिवार्य रूप से सबरंग इंडिया के विचारों का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं।
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औपनिवेशिक शासन के विरोध में चले स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व ऐसे नेताओं के हाथों में था जो लोकतान्त्रिक मूल्यों में रचे-बसे थे. सरदार पटेल, महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, मौलाना अबुल कलाम आजाद और सुभाष चन्द बोस ने उन मूल्यों को अभिव्यक्ति दी जिनमें लोगों के अधिकारों की धारणा अंतर्निहित थी. उन्होंने आंदोलन में भागीदारी की व्यक्तिगत तौर पर बड़ी कुर्बानियां दीं. इसका एक उदाहरण था जोतिराव फुले जिन्हें थॉमस पेन की पुस्तक ‘राईट्स ऑफ मेन‘ से प्रेरणा मिली. अंबेडकर जॉन डेवी के प्रबल अनुयायी थे जो लोकतांत्रिक मूल्यों से ओत-प्रोत थे.
हाल में प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने अधिकारों को महत्वपूर्ण बनाने के लिए लार्ड मैकाले की आलोचना करते हुए पारंपरिक ज्ञान प्रणाली की वकालत की और अधिकारों के बजाए कर्तव्यों पर जोर देने को बेहतर बताया.
यहां यह देखना दिलचस्प है कि मोदी जैसे अन्य लोगों और उनसे मिलती-जुलती मुस्लिम लीग दोनों ने ‘अस्त होते राजाओं और नवाबों‘ के मूल्यों को अभिव्यक्ति दी. मोदी का हिन्दुत्व प्राचीन काल का महिमामंडन करता है जिसमें धर्म केन्द्रीय तत्व था जिसके बारे में हिन्दुत्व के पैरोकारों का दावा है कि वह अत्यंत महान था. धर्म मतलब धर्म द्वारा नियत कर्तव्य. हिन्दू विचारकों का दावा है कि अन्य मजहबों में धर्म के तुल्य कोई धारणा नहीं है. शूद्र धर्म है, स्त्री धर्म है, क्षत्रिय धर्म है और अन्य धर्म भी हैं. अर्थात कर्तव्यों ही की समाज में प्रमुख भूमिका थी.
मुस्लिम लीग नवाबों / जमींदारों के बीच से उभरी और उसके नेताओं ने मोहम्मद बिन कासिम, जिसने कुछ समय तक सिंध पर राज किया था, से शुरू करके उसके बाद हुए मुस्लिम राजाओं के महान शासनकाल की तारीफों कें पुल बांधे. उनके आदर्श सामंती मूल्यां पर आधारित थे, जिनमें समाज के निचले तबकों को हेय दृष्टि से देखा जाता था. समाज के शक्तिशाली वर्गों को ‘दैवीय अधिकार‘ हासिल था. हालांकि पाकिस्तान जिन्ना द्वारा दी गई धर्मनिरपेक्षता की शानदार परिभाषा का साक्षी रहा, पर व्यावहारिक तौर पर उनके इर्दगिर्द मौजूद सामंती तत्वों का ही देश में बोलबाला रहा और जिन्ना की मौत के बाद वे खुलकर सामने आ गए और उन्होंने समाज पर अपने सामंती और अर्ध-सामंती मूल्य लाद दिए.
जैसे-जैसे भारत में हिन्दू राष्ट्रवाद प्रबल हो रहा है, हमारे राष्ट्रीय आंदोलन और संविधान में अंतर्निहित ‘अधिकारों‘ की अवधारणा का हिन्दुत्व राजनीति द्वारा धीरे-धीरे अवमूल्यन किए जा रहा है. ऐसे माहौल में ही 'नॉन बायोलॉजिकल' नरेन्द्र मोदी ने अधिकारों की उपेक्षा और कर्तव्यों की प्रधानता की मंजिल की ओर अपनी यात्रा का आगाज किया. लार्ड मैकाले द्वारा स्थापित शिक्षा प्रणाली को घटिया बताते हुए उसे त्यागने का आव्हान इसी दिशा में उठाया गया एक छोटा सा कदम था. 26 नवंबर को संविधान दिवस पर इसकी अधिक खुलकर चर्चा की गई .‘‘संविधान दिवस (26 नवंबर 2025) के अवसर पर नागरिकों को लिखे एक पत्र में उन्होंने नागरिकों द्वारा अपने मूल कर्तव्यों का पालन करने के महत्व पर जोर दिया. उन्होंने कहा कि इन कर्तव्यों का पालन एक सशक्त लोकतंत्र, देश की उन्नति और 2047 तक ‘विकसित भारत‘ बनाने के उनके सपने को पूरा करने के लिए आधारभूत आवश्यकता है‘‘. मोदी ने नागरिकों से आव्हान किया कि ‘देश के प्रति अपने कर्तव्यों के पालन को हम अपने मन में सर्वोच्च स्थान दें‘‘. यह उनके इसके पहले के वक्तव्यों के अनुरूप था जिनमें उन्होंने कहा था कि ‘कर्तव्य और अधिकार एक दूसरे से जुड़े हुए हैं‘‘ और ‘‘वास्तविक अधिकार कर्तव्यों के पालन का ही परिणाम होते हैं‘‘.
उन्होंने ट्वीट किया ‘‘संविधान दिवस पर नागरिक साथियों को पत्र लिखा जिसमें मैंने हमारे संविधान की महानता का जिक्र किया, हमारे जीवन में मूल कर्तव्यों के महत्व का जिक्र किया...‘‘ श्रावस्ती दासगुप्ता ने लिखा ‘‘हालांकि यह पहली बार नहीं था कि मोदी ने नागरिकों के कर्तव्यों पर जोर दिया या यह सुझाया कि कर्तव्य और अधिकार आपस में जुड़े हुए हैं. संविधान बताता है कि दोनों को इस तरह से संबद्ध करना गलत है. संविधान विशेषज्ञों और राजनीति विज्ञानियों के अनुसार कर्तव्यपालन का आव्हान करना, उन्हें अधिकारों की तुलना में अधिक महत्व देना संविधान में रद्दोबदल करने का एक कुटिल प्रयास है, अधिनायकवादी सत्ताओं की तरह अनुपालन सुनिश्चित करने की बात करना लोकतांत्रिक सिद्धांतों के लिए खतरे का संकेत है‘‘.
मोदी ने गांधीजी का भी हवाला दिया ‘‘वास्तविक अधिकार कर्तव्यपालन के प्रदर्शन का नतीजा होते हैं‘,‘ गांधीजी को उद्धत करना पूरी तरह अप्रासंगिक है क्योंकि जैसा जेएनयू की पूर्व प्रोफेसर एमरेटिस प्रो. जोया अख्तर बताती हैं ‘‘गांधीजी अक्सर कर्तव्यों की बात करते थे, लेकिन उन्होंने कभी भी उन्हें कर्तव्यों को अधिकारों की जगह नहीं रखा, उन्होंने कभी यह नहीं कहा कि कर्त्तव्य, अधिकारों से ऊपर हैं. उनकी दृष्टि में कर्तव्य एक नैतिक पथ हैं मगर मूल अधिकार अनिवार्य हैं और शासन द्वारा उनकी रक्षा की ही जानी चाहिए. गांधीजी की नजरों में कर्तव्यों के प्रति प्रतिबद्धता किसी भी तरह से अधिकारों को कम नहीं करती.‘‘
प्रसंगवश अधिकारों की अवधारणा पर जोर देने वाले कई कदम यूपीए सरकार (2004-2014) के दौरान उठाए गए थे. इनमें से पहला और एक बड़ा था ‘सूचना का अधिकार‘, जो लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत करने का एक तंत्र था. इसके बाद शिक्षा का अधिकार, भोजन का अधिकार और स्वास्थ्य का अधिकार आए. सन् 2014 में यूपीए सत्ता से बाहर हो गया और भाजपा के पूर्ण बहुमत के साथ एनडीए सत्ता में आया. अधिकार आधारित जन नीतियों के दृष्टिकोण को ताक में रख दिया गया है और कर्तव्यों को राष्ट्रीय नीतियों के केन्द्र में रखा जाने लगा है.
हमारा संविधान भी अधिकारों पर जोर देता है. उदाहरणार्थ, एक तरह से संविधान का अनुच्छेद 21, जो ‘जीवन के अधिकार‘ से संबंधित है, में स्वास्थ्य का अधिकार एवं शिक्षा का अधिकार अंतर्निहित हैं. यूपीए सरकार ने इन्हें बहुत औचित्यपूर्ण तरीके से सामने रखा.
हिन्दू राष्ट्रवाद पूरी तरह से धार्मिक स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति की आजादी व कई अन्य अधिकारों को कुचलता है. इनमें से कई मानवाधिकारों की अवधारणा में भी अंतर्निहित हैं.
श्री मोदी अपने पत्र में जो कह रहे हैं वह एक तरह से 'अधिकारों' की अवधारणा को कुचलता है. इन लोगों की अल्पसंख्यकों को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाने और बुद्धिजीवियों को अर्बन नक्सल करार देने समेत कई ऐसी नीतियां हैं. यहां यह जिक्र करना प्रासंगिक होगा कि अधिनायकवादी देशों के संविधान भी अधिकारों की कीमत पर कर्तव्यों को अधिक महत्व देते हैं.
(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया. लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सेंटर फॉर स्टडी ऑफ़ सोसाइटी एंड सेकुलरिज्म के अध्यक्ष हैं)
अस्वीकृति: यहाँ व्यक्त किए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं, और यह अनिवार्य रूप से सबरंग इंडिया के विचारों का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं।
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