जस्टिस सुमीत गोयल ने शुरुआती डिजिटल सबूत, नफरत भरे बयानों की गंभीरता और कस्टडी में पूछताछ की जरूरत का हवाला दिया।

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नफरती बयान और सांप्रदायिक रूप से लक्षित करने के आरोपों से संबंधित एक तर्कसंगत आदेश में, पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने पत्रकार-गायक संदीप सिंह अटवाल @ सैंडवी की अग्रिम जमानत ( anticipatory bail) याचिका खारिज कर दी है। अदालत ने माना कि उनके खिलाफ आरोप गंभीर हैं, डिजिटल सामग्री से समर्थित हैं, और सार्वजनिक व्यवस्था को बाधित करने की क्षमता रखते हैं, इसलिए निष्पक्ष जांच के लिए उनका पुलिस हिरासत में पूछताछ किया जाना आवश्यक है।
जस्टिस सुमीत गोयल ने 2 दिसंबर, 2025 को फैसला सुनाते हुए कहा कि FIR, गवाहों के बयानों और इलेक्ट्रॉनिक सबूतों में याचिकाकर्ता का व्यवहार, पहली नजर में लुधियाना में पूर्वांचल समुदाय और प्रवासी मजदूरों के खिलाफ दुश्मनी, नाराजगी और सांप्रदायिक सद्भाव बिगाड़ने में सक्रिय भागीदारी दिखाता है।
यह याचिका BNSS, 2023 की धारा 482 के तहत दायर की गई थी, जिसमें FIR नंबर 270/2025 में गिरफ्तारी से पहले सुरक्षा मांगी गई थी। यह FIR भारतीय न्याय संहिता (BNS), 2023 की धारा 304, 196, 352, 353(1), 3(5) और सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 की धारा 67 के तहत अपराधों के लिए दर्ज की गई थी।
FIR: गाली-गलौज, धमकियां, डराना-धमकाना और अपमानजनक लैंगिक टिप्पणियों के आरोप
यह मामला शिकायतकर्ता ब्रज भूषण सिंह द्वारा दर्ज की गई एक FIR (नंबर 270, तारीख 21.10.2025, पी.एस. डिवीजन नंबर 7, लुधियाना) से शुरू होता है जो पूर्वांचल समुदाय से हैं। उन्होंने आरोप लगाया कि:
● नियमित दुर्व्यवहार और अपमान : दोनों आरोपियों ने नियमित रूप से पूर्वांचल के प्रवासियों, खासकर मजदूरों और सड़क किनारे ठेले लगाने वालों का अपमान किया और उन्हें गालियां दीं।
● गरीब विक्रेताओं को धमकी, ब्लैकमेल और डराना-धमकाना: सह-आरोपी माचन पर आरोप है कि उसने गरीब मजदूरों को धमकी दी, डराया-धमकाया और ब्लैकमेल किया और याचिकाकर्ता भी इस पूरे मामले में शामिल था।
● पूर्वांचल की महिलाओं के बारे में अपमानजनक और लिंग-आधारित टिप्पणियां: शिकायत में कहा गया है कि दोनों आरोपियों ने पूर्वांचल समुदाय की महिलाओं के बारे में साफ तौर पर अपमानजनक टिप्पणियां कीं, जिससे बड़े पैमाने पर गुस्सा और नाराजगी फैली।
● समुदायों के बीच दुश्मनी भड़काने वाले बयान: उन पर आरोप है कि उन्होंने पंजाबी और पूर्वांचल समुदायों के बीच झगड़ा पैदा करने के मकसद से भड़काऊ और नफरत भरे बयान दिए।
आरोपों की विश्वसनीयता को मजबूत करने के लिए, शिकायतकर्ता ने समुदाय के कई सदस्यों द्वारा साइन किया हुआ एक मेमोरेंडम जमा किया, जो सामूहिक चिंता और इसके गंभीर असर को दिखाता है।
डिजिटल सबूत: पेन ड्राइव और वायरल इंटरव्यू
FIR दर्ज होने से पहले जांच के दौरान, शिकायतकर्ता ने एक पेन-ड्राइव सौंपी जिसमें सह-आरोपी माचन द्वारा रिकॉर्ड किया गया एक वीडियो इंटरव्यू था।
जस्टिस गोयल ने कहा कि इस डिजिटल मैटेरियल से यह पता चला:
● साफ तौर पर एक खास समुदाय को निशाना बनाना: याचिकाकर्ता ने कथित तौर पर दावा किया कि उत्तर प्रदेश और बिहार से आए प्रवासी बड़ी मात्रा में गांजा पंजाब लाते हैं और उसे लुधियाना में बेचते हैं।
● लिंग आधारित अपमानजनक बातें और मोरल पुलिसिंग: उसने कथित तौर पर कहा कि पूर्वांचल समुदाय की महिलाएं जिस्मफरोशी के धंधे में शामिल हैं।
● प्रवासियों को खतरा बताने वाले बयान: उसने कथित तौर पर दावा किया कि प्रवासी अब "पंजाब पर राज कर रहे हैं" जो सांस्कृतिक कब्जे या आबादी पर हावी होने का संकेत देता है।
● वायरल सर्कुलेशन और जनता की प्रतिक्रिया: जांच में पता चला कि नफरत भरा इंटरव्यू सोशल
मीडिया पर वायरल हो गया, जिससे पूर्वांचल समुदाय में बड़े पैमाने पर गुस्सा फैल गया और कानून-व्यवस्था बिगड़ने की संभावना पैदा हो गई।
कोर्ट ने कहा कि ये बयान सोशल मीडिया पर वायरल हो गए, जिससे समुदाय में काफी गुस्सा पैदा हुआ और कानून-व्यवस्था बिगड़ने की संभावना बन गई।
रास्ते में रोककर मोबाइल फोन छीनने की कथित घटना
कोर्ट ने सेक्शन 180 BNSS के तहत दर्ज गवाह नितिन कुमार के बयान को भी महत्व दिया। उन्होंने बताया कि 24 सितंबर 2025 को, याचिकाकर्ता, सह-आरोपी मचान और कुछ निहंग लोगों ने:
● उन्हें और मुकेश कुमार को घेर लिया और धमकाया, और
● उनका मोबाइल फोन छीन लिया।
कोर्ट ने पाया कि यह बात दिखाती है कि याचिकाकर्ता का कथित व्यवहार सिर्फ बोलने से जुड़े अपराधों तक ही सीमित नहीं था,बल्कि इसमें शारीरिक प्रताड़ना और रुकावट भी शामिल थी।
याचिकाकर्ता का बचाव: झूठा फंसाना और क्रॉस-वर्जन केस
याचिकाकर्ता के वकील ने कई तर्क दिए:
1. सीधे तौर पर शामिल न होने पर भी झूठा फंसाया गया: याचिकाकर्ता ने दावा किया कि उसे एक सप्लीमेंट्री बयान के जरिए झूठा फंसाया गया है।
2. क्रॉस-वर्जन से पैदा हुआ मामला: यह तर्क दिया गया कि यह घटना पुलिस स्टेशन के बाहर पंजाबी और पूर्वांचल ग्रुप के बीच सिर्फ एक मौखिक कहा-सुनी थी, जिससे दोनों तरफ से FIR दर्ज हुई।
3. किसी रिकवरी की जरूरत नहीं; भागने का कोई खतरा नहीं: उन्होंने यह तर्क दिया कि:
● बरामद करने के लिए कुछ भी ऐसा नहीं बचा था जिससे जुर्म साबित हो,
● कस्टडी में पूछताछ जरूरी नहीं थी,
● उसके भागने या सबूतों से छेड़छाड़ करने की संभावना नहीं थी।
4. आरोप अस्पष्ट और दुर्भावनापूर्ण: बचाव पक्ष ने जोर दिया कि उससे जुड़े बयान अस्पष्ट, मकसद वाले और बढ़ा-चढ़ाकर बताए गए थे।
जस्टिस गोयल ने इन दलीलों पर ध्यान दिया लेकिन जांच सामग्री को देखते हुए उन्हें नाकाफी पाया।
राज्य का पक्ष: जुर्म साबित करने वाला मजबूत सबूत, गवाहों के बयान और आपराधिक पिछला रिकॉर्ड
राज्य ने इस याचिका का जोरदार विरोध किया और इन बातों की ओर इशारा किया:
1. पहली नजर में हेट स्पीच के डिजिटल सबूत: वायरल इंटरव्यू में गाली-गलौज, बेइज्जती, जाति-भेद वाली और सांप्रदायिक बातें थीं।
2. गवाहों के बयान जो डराने-धमकाने का समर्थन करते हैं: नितिन कुमार की गवाही ने शारीरिक रूप से डराने-धमकाने और मोबाइल छीनने की पुष्टि की।
3. याचिकाकर्ता का आपराधिक इतिहास: याचिकाकर्ता का नाम पहले FIR नंबर 118/2021 (मोहाली) में था, जिसमें IPC की धारा 120-B, 124-A, 153-A, 153-B, 295-A, 298 के तहत अपराध शामिल थे, ये सभी सांप्रदायिक तनाव और पब्लिक ऑर्डर से संबंधित थे।
4. इसमें शामिल अन्य लोगों की पहचान करने की जरूरत: राज्य ने तर्क दिया कि हिरासत में पूछताछ जरूरी थी-
● दूसरे शामिल लोगों की पहचान करना,
● रिकॉर्डिंग के सोर्स को वेरिफाई करना,
● सर्कुलेशन पैटर्न का पता लगाना,
● डिवाइस या डेटा रिकवर करना।
राज्य ने तर्क दिया कि हिरासत में पूछताछ दूसरे शामिल लोगों की पहचान करने, मैटेरियल बरामद करने और इलेक्ट्रॉनिक सबूतों की जांच करने के लिए जरूरी थी। जस्टिस गोयल ने राज्य की दलीलें मान लीं।
कोर्ट का तर्क: बयान, सामाजिक नुकसान और सार्वजनिक व्यवस्था की सीमा
स्पीच एक्ट थ्योरी का एप्लीकेशन: यह फैसला एंटीसिपेटरी बेल के मामले में स्पीच एक्ट थ्योरी (ऑस्टिन और सियरल द्वारा) को पेश करने के लिए खास है। जस्टिस गोयल ने कहा: "कही गई बातों को सिर्फ उनके सीधे मतलब के लिए ही नहीं बल्कि उनके पीछे के इरादे और उनसे होने वाले एक्शन के लिए भी जांचा जाना चाहिए।" (पैरा 6)
उन्होंने स्पीच के तीन स्तर वाले प्रकृति पर जोर दिया:
● लोकुशनरी एक्ट — बयान
● इलोक्यूशनरी एक्ट — बयान के पीछे का इरादा
● परलोक्यूशनरी एक्ट — सुनने वालों पर असर
इस फ्रेमवर्क को लागू करते हुए, कोर्ट ने पाया कि याचिकाकर्ता के कथित बयानों में दुश्मनी भड़काने और सांप्रदायिक शांति भंग करने की परलोक्यूशनरी (perlocutionary) क्षमता थी।
सामग्री सिर्फ़ “सड़क किनारे हुई कहासुनी” तक सीमित नहीं: कोर्ट ने माना कि:
● यह कोई छोटा-मोटा झगड़ा या अलग-थलग गुस्सा नहीं था।
● इसमें सिस्टेमैटिक टारगेटिंग शामिल थी, जिसमें पब्लिक ऑर्डर, कम्युनिटी रिलेशन और सामाजिक शांति को बिगाड़ने की असली संभावना थी।
सप्लीमेंट्री नाम देना सबूतों को कमजोर करने का आधार नहीं: बचाव पक्ष की यह दलील कि याचिकाकर्ता का नाम सिर्फ एक सप्लीमेंट्री बयान के जरिए लिया गया था, जांच से सामने आई डिजिटल और टेस्टिमोनियल सामग्री को खारिज करने के लिए काफी नहीं थी, इसलिए खारिज कर दी गई।
अपराध की गंभीरता और सामाजिक असर: कोर्ट ने जोर देकर कहा कि कथित बयान-
● यह सिर्फ व्यक्तिगत नुकसान तक ही सीमित नहीं था,
● बल्कि इसने पूरे समुदाय में असुरक्षा की भावना पैदा की,
● इसे दोबारा होने से रोकने के लिए एक मजबूत न्यायिक कार्रवाई की जरूरत थी।
कस्टोडियल पूछताछ की जरूरत: कोर्ट ने स्टेट बनाम अनिल शर्मा (1997) पर भरोसा करते हुए दोहराया कि "कस्टोडियल पूछताछ गुणात्मक रूप से ज्यादा जानकारी निकालने वाली होती है... गिरफ्तारी से पहले जमानत की सुरक्षा के साथ पूछताछ अक्सर सिर्फ एक रस्म बनकर रह जाती है।" (पैरा 9)
जस्टिस गोयल ने कहा कि:
● प्रभावी जांच के लिए कस्टडी में पूछताछ जरूरी है,
● खासकर जब इलेक्ट्रॉनिक सबूत और कई लोग शामिल हों,
● गिरफ्तारी से पहले जमानत का आदेश जांच को बुरी तरह कमजोर कर देगा।
निष्कर्ष: अग्रिम जमानत खारिज, याचिका खारिज
आरोपों की गंभीरता, ठोस डिजिटल सबूत और कस्टडी में पूछताछ की जरूरत को देखते हुए, कोर्ट ने यह नतीजा निकाला कि याचिकाकर्ता अग्रिम जमानत का हकदार नहीं है। कोर्ट ने कहा:
● पहली नजर में मामला साफ तौर पर बनता है।
● इकट्ठा किए गए सबूत कस्टोडियल पूछताछ को सही ठहराते हैं।
● यह मानने का कोई आधार नहीं है कि याचिकाकर्ता को झूठा फंसाया गया था।
● अग्रिम जमानत देने से प्रभावी जांच में रुकावट आएगी और सांप्रदायिक सद्भाव खराब होगा।
● इसलिए, कोर्ट ने आदेश दिया:
“रिकॉर्ड पर मौजूद सबूत और शुरुआती जांच से आरोपों के लिए एक उचित आधार स्थापित होता है। इस प्रकार, याचिकाकर्ता को अग्रिम जमानत देना उचित नहीं है, क्योंकि इससे निश्चित रूप से प्रभावी जांच में रुकावट आएगी।” (पैरा 9)
“आरोपों की गंभीरता, अब तक इकट्ठा किए गए सबूतों की प्रकृति और असरदार जांच की जरूरत और निष्पक्ष और पूरी जांच के लिए कस्टडी में पूछताछ की जरूरत को देखते हुए, यह कोर्ट इस नतीजे पर पहुंचा है कि इस मामले के तथ्यों को देखते हुए याचिकाकर्ता अग्रिम जमानत का हकदार नहीं है।” (पैरा 10)
सभी पेंडिंग एप्लीकेशन भी निपटा दिए गए, कोर्ट ने चेतावनी दी कि उसकी बातों को मामले की मेरिट पर फैसला नहीं माना जाना चाहिए।
पूरा निर्णय यहां पढ़ा जा सकता है।

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नफरती बयान और सांप्रदायिक रूप से लक्षित करने के आरोपों से संबंधित एक तर्कसंगत आदेश में, पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने पत्रकार-गायक संदीप सिंह अटवाल @ सैंडवी की अग्रिम जमानत ( anticipatory bail) याचिका खारिज कर दी है। अदालत ने माना कि उनके खिलाफ आरोप गंभीर हैं, डिजिटल सामग्री से समर्थित हैं, और सार्वजनिक व्यवस्था को बाधित करने की क्षमता रखते हैं, इसलिए निष्पक्ष जांच के लिए उनका पुलिस हिरासत में पूछताछ किया जाना आवश्यक है।
जस्टिस सुमीत गोयल ने 2 दिसंबर, 2025 को फैसला सुनाते हुए कहा कि FIR, गवाहों के बयानों और इलेक्ट्रॉनिक सबूतों में याचिकाकर्ता का व्यवहार, पहली नजर में लुधियाना में पूर्वांचल समुदाय और प्रवासी मजदूरों के खिलाफ दुश्मनी, नाराजगी और सांप्रदायिक सद्भाव बिगाड़ने में सक्रिय भागीदारी दिखाता है।
यह याचिका BNSS, 2023 की धारा 482 के तहत दायर की गई थी, जिसमें FIR नंबर 270/2025 में गिरफ्तारी से पहले सुरक्षा मांगी गई थी। यह FIR भारतीय न्याय संहिता (BNS), 2023 की धारा 304, 196, 352, 353(1), 3(5) और सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 की धारा 67 के तहत अपराधों के लिए दर्ज की गई थी।
FIR: गाली-गलौज, धमकियां, डराना-धमकाना और अपमानजनक लैंगिक टिप्पणियों के आरोप
यह मामला शिकायतकर्ता ब्रज भूषण सिंह द्वारा दर्ज की गई एक FIR (नंबर 270, तारीख 21.10.2025, पी.एस. डिवीजन नंबर 7, लुधियाना) से शुरू होता है जो पूर्वांचल समुदाय से हैं। उन्होंने आरोप लगाया कि:
● नियमित दुर्व्यवहार और अपमान : दोनों आरोपियों ने नियमित रूप से पूर्वांचल के प्रवासियों, खासकर मजदूरों और सड़क किनारे ठेले लगाने वालों का अपमान किया और उन्हें गालियां दीं।
● गरीब विक्रेताओं को धमकी, ब्लैकमेल और डराना-धमकाना: सह-आरोपी माचन पर आरोप है कि उसने गरीब मजदूरों को धमकी दी, डराया-धमकाया और ब्लैकमेल किया और याचिकाकर्ता भी इस पूरे मामले में शामिल था।
● पूर्वांचल की महिलाओं के बारे में अपमानजनक और लिंग-आधारित टिप्पणियां: शिकायत में कहा गया है कि दोनों आरोपियों ने पूर्वांचल समुदाय की महिलाओं के बारे में साफ तौर पर अपमानजनक टिप्पणियां कीं, जिससे बड़े पैमाने पर गुस्सा और नाराजगी फैली।
● समुदायों के बीच दुश्मनी भड़काने वाले बयान: उन पर आरोप है कि उन्होंने पंजाबी और पूर्वांचल समुदायों के बीच झगड़ा पैदा करने के मकसद से भड़काऊ और नफरत भरे बयान दिए।
आरोपों की विश्वसनीयता को मजबूत करने के लिए, शिकायतकर्ता ने समुदाय के कई सदस्यों द्वारा साइन किया हुआ एक मेमोरेंडम जमा किया, जो सामूहिक चिंता और इसके गंभीर असर को दिखाता है।
डिजिटल सबूत: पेन ड्राइव और वायरल इंटरव्यू
FIR दर्ज होने से पहले जांच के दौरान, शिकायतकर्ता ने एक पेन-ड्राइव सौंपी जिसमें सह-आरोपी माचन द्वारा रिकॉर्ड किया गया एक वीडियो इंटरव्यू था।
जस्टिस गोयल ने कहा कि इस डिजिटल मैटेरियल से यह पता चला:
● साफ तौर पर एक खास समुदाय को निशाना बनाना: याचिकाकर्ता ने कथित तौर पर दावा किया कि उत्तर प्रदेश और बिहार से आए प्रवासी बड़ी मात्रा में गांजा पंजाब लाते हैं और उसे लुधियाना में बेचते हैं।
● लिंग आधारित अपमानजनक बातें और मोरल पुलिसिंग: उसने कथित तौर पर कहा कि पूर्वांचल समुदाय की महिलाएं जिस्मफरोशी के धंधे में शामिल हैं।
● प्रवासियों को खतरा बताने वाले बयान: उसने कथित तौर पर दावा किया कि प्रवासी अब "पंजाब पर राज कर रहे हैं" जो सांस्कृतिक कब्जे या आबादी पर हावी होने का संकेत देता है।
● वायरल सर्कुलेशन और जनता की प्रतिक्रिया: जांच में पता चला कि नफरत भरा इंटरव्यू सोशल
मीडिया पर वायरल हो गया, जिससे पूर्वांचल समुदाय में बड़े पैमाने पर गुस्सा फैल गया और कानून-व्यवस्था बिगड़ने की संभावना पैदा हो गई।
कोर्ट ने कहा कि ये बयान सोशल मीडिया पर वायरल हो गए, जिससे समुदाय में काफी गुस्सा पैदा हुआ और कानून-व्यवस्था बिगड़ने की संभावना बन गई।
रास्ते में रोककर मोबाइल फोन छीनने की कथित घटना
कोर्ट ने सेक्शन 180 BNSS के तहत दर्ज गवाह नितिन कुमार के बयान को भी महत्व दिया। उन्होंने बताया कि 24 सितंबर 2025 को, याचिकाकर्ता, सह-आरोपी मचान और कुछ निहंग लोगों ने:
● उन्हें और मुकेश कुमार को घेर लिया और धमकाया, और
● उनका मोबाइल फोन छीन लिया।
कोर्ट ने पाया कि यह बात दिखाती है कि याचिकाकर्ता का कथित व्यवहार सिर्फ बोलने से जुड़े अपराधों तक ही सीमित नहीं था,बल्कि इसमें शारीरिक प्रताड़ना और रुकावट भी शामिल थी।
याचिकाकर्ता का बचाव: झूठा फंसाना और क्रॉस-वर्जन केस
याचिकाकर्ता के वकील ने कई तर्क दिए:
1. सीधे तौर पर शामिल न होने पर भी झूठा फंसाया गया: याचिकाकर्ता ने दावा किया कि उसे एक सप्लीमेंट्री बयान के जरिए झूठा फंसाया गया है।
2. क्रॉस-वर्जन से पैदा हुआ मामला: यह तर्क दिया गया कि यह घटना पुलिस स्टेशन के बाहर पंजाबी और पूर्वांचल ग्रुप के बीच सिर्फ एक मौखिक कहा-सुनी थी, जिससे दोनों तरफ से FIR दर्ज हुई।
3. किसी रिकवरी की जरूरत नहीं; भागने का कोई खतरा नहीं: उन्होंने यह तर्क दिया कि:
● बरामद करने के लिए कुछ भी ऐसा नहीं बचा था जिससे जुर्म साबित हो,
● कस्टडी में पूछताछ जरूरी नहीं थी,
● उसके भागने या सबूतों से छेड़छाड़ करने की संभावना नहीं थी।
4. आरोप अस्पष्ट और दुर्भावनापूर्ण: बचाव पक्ष ने जोर दिया कि उससे जुड़े बयान अस्पष्ट, मकसद वाले और बढ़ा-चढ़ाकर बताए गए थे।
जस्टिस गोयल ने इन दलीलों पर ध्यान दिया लेकिन जांच सामग्री को देखते हुए उन्हें नाकाफी पाया।
राज्य का पक्ष: जुर्म साबित करने वाला मजबूत सबूत, गवाहों के बयान और आपराधिक पिछला रिकॉर्ड
राज्य ने इस याचिका का जोरदार विरोध किया और इन बातों की ओर इशारा किया:
1. पहली नजर में हेट स्पीच के डिजिटल सबूत: वायरल इंटरव्यू में गाली-गलौज, बेइज्जती, जाति-भेद वाली और सांप्रदायिक बातें थीं।
2. गवाहों के बयान जो डराने-धमकाने का समर्थन करते हैं: नितिन कुमार की गवाही ने शारीरिक रूप से डराने-धमकाने और मोबाइल छीनने की पुष्टि की।
3. याचिकाकर्ता का आपराधिक इतिहास: याचिकाकर्ता का नाम पहले FIR नंबर 118/2021 (मोहाली) में था, जिसमें IPC की धारा 120-B, 124-A, 153-A, 153-B, 295-A, 298 के तहत अपराध शामिल थे, ये सभी सांप्रदायिक तनाव और पब्लिक ऑर्डर से संबंधित थे।
4. इसमें शामिल अन्य लोगों की पहचान करने की जरूरत: राज्य ने तर्क दिया कि हिरासत में पूछताछ जरूरी थी-
● दूसरे शामिल लोगों की पहचान करना,
● रिकॉर्डिंग के सोर्स को वेरिफाई करना,
● सर्कुलेशन पैटर्न का पता लगाना,
● डिवाइस या डेटा रिकवर करना।
राज्य ने तर्क दिया कि हिरासत में पूछताछ दूसरे शामिल लोगों की पहचान करने, मैटेरियल बरामद करने और इलेक्ट्रॉनिक सबूतों की जांच करने के लिए जरूरी थी। जस्टिस गोयल ने राज्य की दलीलें मान लीं।
कोर्ट का तर्क: बयान, सामाजिक नुकसान और सार्वजनिक व्यवस्था की सीमा
स्पीच एक्ट थ्योरी का एप्लीकेशन: यह फैसला एंटीसिपेटरी बेल के मामले में स्पीच एक्ट थ्योरी (ऑस्टिन और सियरल द्वारा) को पेश करने के लिए खास है। जस्टिस गोयल ने कहा: "कही गई बातों को सिर्फ उनके सीधे मतलब के लिए ही नहीं बल्कि उनके पीछे के इरादे और उनसे होने वाले एक्शन के लिए भी जांचा जाना चाहिए।" (पैरा 6)
उन्होंने स्पीच के तीन स्तर वाले प्रकृति पर जोर दिया:
● लोकुशनरी एक्ट — बयान
● इलोक्यूशनरी एक्ट — बयान के पीछे का इरादा
● परलोक्यूशनरी एक्ट — सुनने वालों पर असर
इस फ्रेमवर्क को लागू करते हुए, कोर्ट ने पाया कि याचिकाकर्ता के कथित बयानों में दुश्मनी भड़काने और सांप्रदायिक शांति भंग करने की परलोक्यूशनरी (perlocutionary) क्षमता थी।
सामग्री सिर्फ़ “सड़क किनारे हुई कहासुनी” तक सीमित नहीं: कोर्ट ने माना कि:
● यह कोई छोटा-मोटा झगड़ा या अलग-थलग गुस्सा नहीं था।
● इसमें सिस्टेमैटिक टारगेटिंग शामिल थी, जिसमें पब्लिक ऑर्डर, कम्युनिटी रिलेशन और सामाजिक शांति को बिगाड़ने की असली संभावना थी।
सप्लीमेंट्री नाम देना सबूतों को कमजोर करने का आधार नहीं: बचाव पक्ष की यह दलील कि याचिकाकर्ता का नाम सिर्फ एक सप्लीमेंट्री बयान के जरिए लिया गया था, जांच से सामने आई डिजिटल और टेस्टिमोनियल सामग्री को खारिज करने के लिए काफी नहीं थी, इसलिए खारिज कर दी गई।
अपराध की गंभीरता और सामाजिक असर: कोर्ट ने जोर देकर कहा कि कथित बयान-
● यह सिर्फ व्यक्तिगत नुकसान तक ही सीमित नहीं था,
● बल्कि इसने पूरे समुदाय में असुरक्षा की भावना पैदा की,
● इसे दोबारा होने से रोकने के लिए एक मजबूत न्यायिक कार्रवाई की जरूरत थी।
कस्टोडियल पूछताछ की जरूरत: कोर्ट ने स्टेट बनाम अनिल शर्मा (1997) पर भरोसा करते हुए दोहराया कि "कस्टोडियल पूछताछ गुणात्मक रूप से ज्यादा जानकारी निकालने वाली होती है... गिरफ्तारी से पहले जमानत की सुरक्षा के साथ पूछताछ अक्सर सिर्फ एक रस्म बनकर रह जाती है।" (पैरा 9)
जस्टिस गोयल ने कहा कि:
● प्रभावी जांच के लिए कस्टडी में पूछताछ जरूरी है,
● खासकर जब इलेक्ट्रॉनिक सबूत और कई लोग शामिल हों,
● गिरफ्तारी से पहले जमानत का आदेश जांच को बुरी तरह कमजोर कर देगा।
निष्कर्ष: अग्रिम जमानत खारिज, याचिका खारिज
आरोपों की गंभीरता, ठोस डिजिटल सबूत और कस्टडी में पूछताछ की जरूरत को देखते हुए, कोर्ट ने यह नतीजा निकाला कि याचिकाकर्ता अग्रिम जमानत का हकदार नहीं है। कोर्ट ने कहा:
● पहली नजर में मामला साफ तौर पर बनता है।
● इकट्ठा किए गए सबूत कस्टोडियल पूछताछ को सही ठहराते हैं।
● यह मानने का कोई आधार नहीं है कि याचिकाकर्ता को झूठा फंसाया गया था।
● अग्रिम जमानत देने से प्रभावी जांच में रुकावट आएगी और सांप्रदायिक सद्भाव खराब होगा।
● इसलिए, कोर्ट ने आदेश दिया:
“रिकॉर्ड पर मौजूद सबूत और शुरुआती जांच से आरोपों के लिए एक उचित आधार स्थापित होता है। इस प्रकार, याचिकाकर्ता को अग्रिम जमानत देना उचित नहीं है, क्योंकि इससे निश्चित रूप से प्रभावी जांच में रुकावट आएगी।” (पैरा 9)
“आरोपों की गंभीरता, अब तक इकट्ठा किए गए सबूतों की प्रकृति और असरदार जांच की जरूरत और निष्पक्ष और पूरी जांच के लिए कस्टडी में पूछताछ की जरूरत को देखते हुए, यह कोर्ट इस नतीजे पर पहुंचा है कि इस मामले के तथ्यों को देखते हुए याचिकाकर्ता अग्रिम जमानत का हकदार नहीं है।” (पैरा 10)
सभी पेंडिंग एप्लीकेशन भी निपटा दिए गए, कोर्ट ने चेतावनी दी कि उसकी बातों को मामले की मेरिट पर फैसला नहीं माना जाना चाहिए।
पूरा निर्णय यहां पढ़ा जा सकता है।