इस याचिका में वन अधिकारियों से सुरक्षा और आदेश को रद्द करने की मांग की गई है, जिसमें तर्क दिया गया है कि भूमि के स्वामित्व से इनकार ने समुदाय की आवश्यक आजीविका को आपराधिक बना दिया है।

Illustration: Urvi Sawant /behenbox.com
इलाहाबाद हाई कोर्ट में थारू समुदाय के वन अधिकारों से जुड़ा मामला एक बार फिर अधर में लटक गया है। लखीमपुर खीरी के कजरिया गांव से ताल्लुक रखने वाले थारू अनुसूचित जनजाति के प्रतिनिधियों — संतरी राम राणा और सदाई — द्वारा दायर याचिका में आरोप लगाया गया है कि राज्य सरकार ने 2006 के वन अधिकार अधिनियम के तहत उनके वैध अधिकारों को मनमाने और बिना सोच-विचार के खारिज कर दिया। यह मामला 13 अक्टूबर को सुनवाई के लिए सूचीबद्ध था, लेकिन पीठ के जल्दी उठ जाने के कारण सुनवाई नहीं हो सकी। अब अगली तारीख दिवाली के बाद तय की जाएगी। चौंकाने वाली बात यह है कि पिछली सुनवाई 8 सितंबर को हुई थी, लेकिन इसके बाद भी राज्य सरकार ने अब तक अपना जवाब दाखिल नहीं किया है। राज्य की यह चुप्पी और देरी थारू समुदाय की शिकायतों — जैसे प्रशासनिक उत्पीड़न और अधिकारों की अनदेखी — को लेकर उसकी गंभीरता पर सवाल खड़े करती है। गौरतलब है कि यह मुद्दा थारू समाज की दशकों पुरानी पहचान और अधिकारों की लड़ाई के केंद्र में रहा है।
थारू समुदाय के ऐतिहासिक अधिकारों की यह लड़ाई अब इलाहाबाद हाई कोर्ट तक पहुंच चुकी है। लखीमपुर खीरी के कजरिया गांव में रहने वाले इस अनुसूचित जनजातीय समूह के दो प्रतिनिधि — संतरी राम राणा और सदाई — ने उत्तर प्रदेश सरकार के खिलाफ 2025 में कोर्ट में याचिका दायर की है। याचिका में उन्होंने आरोप लगाया है कि सरकार ने 2006 के वन अधिकार अधिनियम (FRA) के तहत उनके बुनियादी अधिकारों को मनमाने, गैरकानूनी और बेरुखी भरे तरीके से नकार दिया। यह मामला केवल एक कानूनी विवाद नहीं, बल्कि एक पूरे समुदाय की पहचान और उनके जीवन के साधनों को मिटाए जाने के खिलाफ उठाई गई एक निर्णायक आवाज है।
थारू समुदाय की जड़ें जंगलों से गहराई से जुड़ी हुई हैं और इसे आधिकारिक तौर पर भी मान्यता प्राप्त है:
● सरकारी मान्यता: भारत के राष्ट्रपति ने 24 जून 1967 को थारू समुदाय को अनुसूचित जनजाति के रूप में आधिकारिक रूप से मान्यता दी थी।
● स्थायी अधिकार: उनका गांव कजरिया, 1982 की वाइल्डलाइफ़ कंज़र्वेशन ऑर्गनाइज़ेशन की एक्शन प्लान में शामिल किया गया था, जिसमें इसे थारू जनजाति से आबाद गांव के रूप में पहचाना गया। इसके अलावा, इस जमीन को 1975 और 1976 में दो अलग-अलग सरकारी आदेशों के जरिए राजस्व गांव के रूप में मान्यता दी गई थी। याचिका में कहा गया है कि यह समुदाय पिछले सौ साल से भी अधिक समय से इन जंगलों में रह रहा है।
कानूनी आधार: वन अधिकार अधिनियम
याचिकाकर्ता अपनी दावेदारी 2006 के ऐतिहासिक "अनुसूचित जनजातियों और अन्य परंपरागत वनवासियों (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम" (FRA) पर आधारित बताते हैं। यह कानून खास तौर पर ऐसे वनवासी समुदायों — जैसे कि थारू — के अधिकारों को मान्यता देने और उन्हें उनका हक वापस दिलाने के लिए बनाया गया था, जो ऐतिहासिक अन्याय का शिकार रहे हैं।
यह कानून केवल एक अधिनियम नहीं, बल्कि एक प्रकार का न्यायिक पुनर्स्थापन (restorative justice) है। याचिका में विस्तार से बताया गया है कि किस तरह जिला स्तरीय समिति (DLC) ने इस कानून की मूल भावना और प्रक्रिया दोनों को नजरअंदाज कर दिया। FRA के तहत अधिकारों की पुष्टि के लिए एक सख्त, तीन-स्तरीय लोकतांत्रिक प्रक्रिया अनिवार्य है, जिसे यहां पूरी तरह दरकिनार किया गया।
1. गांव स्तर (ग्राम सभा / वन अधिकार समिति - FRC): सबसे पहले गांव की ग्राम सभा ने, यानी स्थानीय समुदाय ने ही, 2013 में थारू समुदाय के दावे की जांच कर उसे स्वीकार कर लिया था।
2. उप-खंड स्तर (SDLC): इस स्तर पर अधिकारियों को दावों से जुड़े विवादों को सुलझाना होता है और जांचे गए दावों को आगे भेजना होता है।
3. जिला स्तर (DLC): यह आखिरी और सर्वोच्च कानूनी संस्था है, जिसे भूमि अधिकार (पट्टा) देने का अंतिम फैसला लेना होता है।
आठ साल की जद्दोजहद: सामुदायिक अधिकारों की मांग
थारू समुदाय के याचिकाकर्ताओं की जंगल पर अपने सामुदायिक अधिकार — जैसे जलाऊ लकड़ी, फूस इकट्ठा करना और मवेशियों को चराने का हक — को पाने की लड़ाई दस साल से भी अधिक पुरानी है। लेकिन इस लंबे संघर्ष में उन्हें लगातार सरकारी लापरवाही और चुप्पी का सामना करना पड़ा।
● 2013: कजरिया गांव की ग्राम सभा द्वारा गठित ग्राम स्तरीय वन अधिकार समिति (FRC) ने निर्धारित फॉर्म-सी के तहत याचिकाकर्ताओं के दावे को औपचारिक रूप से स्वीकार कर लिया था।
● 2013 से 2020: सात साल की टालमटोल — 31 जुलाई 2013 को ग्राम सभा द्वारा जांचे गए दावे उप-खंड स्तरीय समिति (SDLC) को भेजे गए। लेकिन इसके बाद पूरे सात साल तक SDLC ने इन दावों पर कोई ठोस निर्णय नहीं लिया। याचिकाकर्ताओं का कहना है कि वन विभाग ने बार-बार "बेमतलब की तकनीकी आपत्तियां" और "अनावश्यक प्रक्रियागत अड़चनें" खड़ी कीं, जिनकी वजह से मामला लगातार लटकता रहा। उनका आरोप है कि यह सब जानबूझकर किया गया ताकि उन्हें उनका हक न मिल सके।
● 26 दिसंबर 2020: शर्तों के साथ मंज़ूरी — काफी लंबी देरी और रुकावटों के बाद, उप-खंड स्तरीय समिति (SDLC) ने आखिरकार थारू समुदाय के दावों को मंजूरी दी और अंतिम निर्णय के लिए उन्हें जिला स्तरीय समिति (DLC) को भेज दिया।
मनमाने तरीके से खारिज करना
इस जद्दोजहद को सबसे बड़ा झटका तब लगा, जब सबसे बड़ी प्रशासनिक संस्था ने फैसला सुनाया:
● 15 मार्च, 2021: विवादित आदेश — अंतिम फैसला लेने वाली संस्था जिला स्तरीय समिति (DLC) ने थारू समुदाय के दावों को ठुकरा दिया। याचिका में इस आदेश को “ग़ैरकानूनी, मनमाना और अधिकार क्षेत्र से बाहर” बताया गया है। यह अस्वीकृति आदेश एक तरह के फॉर्मूले की तरह जारी किया गया था, जो लगभग 20 अन्य थारू गांवों के लिए भी इसी आधार पर दिया गया था।
● उचित प्रक्रिया का उल्लंघन: खारिज करने का यह फैसला एकतरफा लिया गया, बिना याचिकाकर्ताओं को सुनवाई का अवसर दिए और बिना FRA तथा उसके नियमों में बताई गई प्रक्रिया का पालन किए।
● खारिज करने के गलत आधार: जिला स्तरीय समिति (DLC) पर आरोप है कि उसने अपने निर्णय में ऐसे कारणों को माना जो मामले से संबंधित नहीं थे। उदाहरण के लिए, उन्होंने माना कि गांव को राजस्व गांव का दर्जा दिया गया है और वह सरकारी कल्याण योजनाओं का लाभ भी ले रहा है। लेकिन वन अधिकार अधिनियम (FRA) स्पष्ट करता है कि राजस्व स्थिति से कोई फर्क नहीं पड़ता, वन अधिकार वैसे ही मिलते हैं। खारिज करने का फैसला सुप्रीम कोर्ट के एक गलत समझे गए अंतरिम आदेश (थिरुमल कपाड़ बनाम भारत संघ) पर भी आधारित था, जिसके बारे में याचिकाकर्ताओं का कहना है कि उनका FRA के तहत मिलने वाला कानूनी अधिकार इससे प्रभावित नहीं हो सकता।
न्याय और सुरक्षा की गुहार
याचिका में अस्वीकृति के बाद न्याय की प्राप्ति हेतु याचिकाकर्ताओं द्वारा किए गए दृढ़ प्रयासों का विस्तृत उल्लेख किया गया है।
● शिकायतों पर कार्रवाई न होना: याचिकाकर्ताओं ने जिला, उपमंडल और राज्य स्तर की समितियों को कई बार अपनी शिकायतें भेजीं, जिनमें 15 अगस्त और 25 नवंबर 2021 की तारीखें शामिल हैं। लेकिन राज्य स्तरीय निगरानी समिति (SLMC), जो इस पूरी मान्यता प्रक्रिया की निगरानी करती है, ने इन शिकायतों पर कोई कदम नहीं उठाया।
● जारी उत्पीड़न: अपने अधिकारों के न मिलने की वजह से थारू समुदाय के याचिकाकर्ताओं को वन विभाग के अधिकारियों से लगातार उत्पीड़न और धमकियों का सामना करना पड़ रहा है। उनका कहना है कि जब वे जलाऊ लकड़ी जैसी आवश्यक वस्तुएं इकट्ठा करने की कोशिश करते हैं, तो उनके खिलाफ झूठी FIR दर्ज कर दी जाती है।
● निगरानी संस्था की नाकामी: याचिकाकर्ताओं ने बार-बार राज्य स्तरीय निगरानी समिति (SLMC) से मदद मांगी, जो FRA के सही अनुपालन की जिम्मेदार संस्था है। लेकिन SLMC ने उनकी शिकायतों को अनसुना कर दिया। यह इस बात का प्रमाण है कि सरकार अपनी जिम्मेदारी निभाने में नाकाम रही है।
याचिका का निष्कर्ष है कि वन अधिकार न देना याचिकाकर्ताओं के मौलिक अधिकार (अनुच्छेद 21) का उल्लंघन है और यह उस ऐतिहासिक अन्याय को जारी रखना है, जिसे FRA दूर करने के लिए बनाया गया था।
राहत देने की मांग
इसलिए, याचिका उच्च न्यायालय से आग्रह करती है कि FRA की प्रतिष्ठा और थारू समुदाय के मौलिक अधिकारों की रक्षा की जाए। वे निम्नलिखित मांगें कर रहे हैं:
1. विवादित आदेश को रद्द करने की मांग: याचिकाकर्ता चाहते हैं कि 15 मार्च 2021 को जिला समिति द्वारा जारी मनमाने निर्णय को रद्द करने के लिए कोर्ट सर्टियोरी रिट जारी करे।
2. पुनर्विचार कर आदेश देना: वे चाहते हैं कि जिला समिति को आदेश दिया जाए कि वह FRA के नियमों के अनुसार समयबद्ध तरीके से उनके दावों का पुनर्विचार करे और नया निर्णय दे।
3. निगरानी सुनिश्चित करें: राज्य स्तरीय निगरानी समिति को उसके कानूनी कर्तव्यों को निभाने के लिए मैंडेमस रिट जारी किया जाए।
4. अंतरिम राहत दें: याचिकाकर्ताओं को याचिका की सुनवाई के दौरान तुरंत अपने समुदाय के वन अधिकार (जैसे जलाऊ लकड़ी, फूल, और चराई) का इस्तेमाल करने की अनुमति दी जाए।
यह याचिका नौकरशाही अत्याचार को खत्म करने और थारू समुदाय के लिए संसद द्वारा मान्यता प्राप्त “ऐतिहासिक अन्याय” को दूर करने का एक सशक्त न्यायिक प्रयास है।
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इलाहाबाद हाई कोर्ट में थारू समुदाय के वन अधिकारों से जुड़ा मामला एक बार फिर अधर में लटक गया है। लखीमपुर खीरी के कजरिया गांव से ताल्लुक रखने वाले थारू अनुसूचित जनजाति के प्रतिनिधियों — संतरी राम राणा और सदाई — द्वारा दायर याचिका में आरोप लगाया गया है कि राज्य सरकार ने 2006 के वन अधिकार अधिनियम के तहत उनके वैध अधिकारों को मनमाने और बिना सोच-विचार के खारिज कर दिया। यह मामला 13 अक्टूबर को सुनवाई के लिए सूचीबद्ध था, लेकिन पीठ के जल्दी उठ जाने के कारण सुनवाई नहीं हो सकी। अब अगली तारीख दिवाली के बाद तय की जाएगी। चौंकाने वाली बात यह है कि पिछली सुनवाई 8 सितंबर को हुई थी, लेकिन इसके बाद भी राज्य सरकार ने अब तक अपना जवाब दाखिल नहीं किया है। राज्य की यह चुप्पी और देरी थारू समुदाय की शिकायतों — जैसे प्रशासनिक उत्पीड़न और अधिकारों की अनदेखी — को लेकर उसकी गंभीरता पर सवाल खड़े करती है। गौरतलब है कि यह मुद्दा थारू समाज की दशकों पुरानी पहचान और अधिकारों की लड़ाई के केंद्र में रहा है।
थारू समुदाय के ऐतिहासिक अधिकारों की यह लड़ाई अब इलाहाबाद हाई कोर्ट तक पहुंच चुकी है। लखीमपुर खीरी के कजरिया गांव में रहने वाले इस अनुसूचित जनजातीय समूह के दो प्रतिनिधि — संतरी राम राणा और सदाई — ने उत्तर प्रदेश सरकार के खिलाफ 2025 में कोर्ट में याचिका दायर की है। याचिका में उन्होंने आरोप लगाया है कि सरकार ने 2006 के वन अधिकार अधिनियम (FRA) के तहत उनके बुनियादी अधिकारों को मनमाने, गैरकानूनी और बेरुखी भरे तरीके से नकार दिया। यह मामला केवल एक कानूनी विवाद नहीं, बल्कि एक पूरे समुदाय की पहचान और उनके जीवन के साधनों को मिटाए जाने के खिलाफ उठाई गई एक निर्णायक आवाज है।
थारू समुदाय की जड़ें जंगलों से गहराई से जुड़ी हुई हैं और इसे आधिकारिक तौर पर भी मान्यता प्राप्त है:
● सरकारी मान्यता: भारत के राष्ट्रपति ने 24 जून 1967 को थारू समुदाय को अनुसूचित जनजाति के रूप में आधिकारिक रूप से मान्यता दी थी।
● स्थायी अधिकार: उनका गांव कजरिया, 1982 की वाइल्डलाइफ़ कंज़र्वेशन ऑर्गनाइज़ेशन की एक्शन प्लान में शामिल किया गया था, जिसमें इसे थारू जनजाति से आबाद गांव के रूप में पहचाना गया। इसके अलावा, इस जमीन को 1975 और 1976 में दो अलग-अलग सरकारी आदेशों के जरिए राजस्व गांव के रूप में मान्यता दी गई थी। याचिका में कहा गया है कि यह समुदाय पिछले सौ साल से भी अधिक समय से इन जंगलों में रह रहा है।
कानूनी आधार: वन अधिकार अधिनियम
याचिकाकर्ता अपनी दावेदारी 2006 के ऐतिहासिक "अनुसूचित जनजातियों और अन्य परंपरागत वनवासियों (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम" (FRA) पर आधारित बताते हैं। यह कानून खास तौर पर ऐसे वनवासी समुदायों — जैसे कि थारू — के अधिकारों को मान्यता देने और उन्हें उनका हक वापस दिलाने के लिए बनाया गया था, जो ऐतिहासिक अन्याय का शिकार रहे हैं।
यह कानून केवल एक अधिनियम नहीं, बल्कि एक प्रकार का न्यायिक पुनर्स्थापन (restorative justice) है। याचिका में विस्तार से बताया गया है कि किस तरह जिला स्तरीय समिति (DLC) ने इस कानून की मूल भावना और प्रक्रिया दोनों को नजरअंदाज कर दिया। FRA के तहत अधिकारों की पुष्टि के लिए एक सख्त, तीन-स्तरीय लोकतांत्रिक प्रक्रिया अनिवार्य है, जिसे यहां पूरी तरह दरकिनार किया गया।
1. गांव स्तर (ग्राम सभा / वन अधिकार समिति - FRC): सबसे पहले गांव की ग्राम सभा ने, यानी स्थानीय समुदाय ने ही, 2013 में थारू समुदाय के दावे की जांच कर उसे स्वीकार कर लिया था।
2. उप-खंड स्तर (SDLC): इस स्तर पर अधिकारियों को दावों से जुड़े विवादों को सुलझाना होता है और जांचे गए दावों को आगे भेजना होता है।
3. जिला स्तर (DLC): यह आखिरी और सर्वोच्च कानूनी संस्था है, जिसे भूमि अधिकार (पट्टा) देने का अंतिम फैसला लेना होता है।
आठ साल की जद्दोजहद: सामुदायिक अधिकारों की मांग
थारू समुदाय के याचिकाकर्ताओं की जंगल पर अपने सामुदायिक अधिकार — जैसे जलाऊ लकड़ी, फूस इकट्ठा करना और मवेशियों को चराने का हक — को पाने की लड़ाई दस साल से भी अधिक पुरानी है। लेकिन इस लंबे संघर्ष में उन्हें लगातार सरकारी लापरवाही और चुप्पी का सामना करना पड़ा।
● 2013: कजरिया गांव की ग्राम सभा द्वारा गठित ग्राम स्तरीय वन अधिकार समिति (FRC) ने निर्धारित फॉर्म-सी के तहत याचिकाकर्ताओं के दावे को औपचारिक रूप से स्वीकार कर लिया था।
● 2013 से 2020: सात साल की टालमटोल — 31 जुलाई 2013 को ग्राम सभा द्वारा जांचे गए दावे उप-खंड स्तरीय समिति (SDLC) को भेजे गए। लेकिन इसके बाद पूरे सात साल तक SDLC ने इन दावों पर कोई ठोस निर्णय नहीं लिया। याचिकाकर्ताओं का कहना है कि वन विभाग ने बार-बार "बेमतलब की तकनीकी आपत्तियां" और "अनावश्यक प्रक्रियागत अड़चनें" खड़ी कीं, जिनकी वजह से मामला लगातार लटकता रहा। उनका आरोप है कि यह सब जानबूझकर किया गया ताकि उन्हें उनका हक न मिल सके।
● 26 दिसंबर 2020: शर्तों के साथ मंज़ूरी — काफी लंबी देरी और रुकावटों के बाद, उप-खंड स्तरीय समिति (SDLC) ने आखिरकार थारू समुदाय के दावों को मंजूरी दी और अंतिम निर्णय के लिए उन्हें जिला स्तरीय समिति (DLC) को भेज दिया।
मनमाने तरीके से खारिज करना
इस जद्दोजहद को सबसे बड़ा झटका तब लगा, जब सबसे बड़ी प्रशासनिक संस्था ने फैसला सुनाया:
● 15 मार्च, 2021: विवादित आदेश — अंतिम फैसला लेने वाली संस्था जिला स्तरीय समिति (DLC) ने थारू समुदाय के दावों को ठुकरा दिया। याचिका में इस आदेश को “ग़ैरकानूनी, मनमाना और अधिकार क्षेत्र से बाहर” बताया गया है। यह अस्वीकृति आदेश एक तरह के फॉर्मूले की तरह जारी किया गया था, जो लगभग 20 अन्य थारू गांवों के लिए भी इसी आधार पर दिया गया था।
● उचित प्रक्रिया का उल्लंघन: खारिज करने का यह फैसला एकतरफा लिया गया, बिना याचिकाकर्ताओं को सुनवाई का अवसर दिए और बिना FRA तथा उसके नियमों में बताई गई प्रक्रिया का पालन किए।
● खारिज करने के गलत आधार: जिला स्तरीय समिति (DLC) पर आरोप है कि उसने अपने निर्णय में ऐसे कारणों को माना जो मामले से संबंधित नहीं थे। उदाहरण के लिए, उन्होंने माना कि गांव को राजस्व गांव का दर्जा दिया गया है और वह सरकारी कल्याण योजनाओं का लाभ भी ले रहा है। लेकिन वन अधिकार अधिनियम (FRA) स्पष्ट करता है कि राजस्व स्थिति से कोई फर्क नहीं पड़ता, वन अधिकार वैसे ही मिलते हैं। खारिज करने का फैसला सुप्रीम कोर्ट के एक गलत समझे गए अंतरिम आदेश (थिरुमल कपाड़ बनाम भारत संघ) पर भी आधारित था, जिसके बारे में याचिकाकर्ताओं का कहना है कि उनका FRA के तहत मिलने वाला कानूनी अधिकार इससे प्रभावित नहीं हो सकता।
न्याय और सुरक्षा की गुहार
याचिका में अस्वीकृति के बाद न्याय की प्राप्ति हेतु याचिकाकर्ताओं द्वारा किए गए दृढ़ प्रयासों का विस्तृत उल्लेख किया गया है।
● शिकायतों पर कार्रवाई न होना: याचिकाकर्ताओं ने जिला, उपमंडल और राज्य स्तर की समितियों को कई बार अपनी शिकायतें भेजीं, जिनमें 15 अगस्त और 25 नवंबर 2021 की तारीखें शामिल हैं। लेकिन राज्य स्तरीय निगरानी समिति (SLMC), जो इस पूरी मान्यता प्रक्रिया की निगरानी करती है, ने इन शिकायतों पर कोई कदम नहीं उठाया।
● जारी उत्पीड़न: अपने अधिकारों के न मिलने की वजह से थारू समुदाय के याचिकाकर्ताओं को वन विभाग के अधिकारियों से लगातार उत्पीड़न और धमकियों का सामना करना पड़ रहा है। उनका कहना है कि जब वे जलाऊ लकड़ी जैसी आवश्यक वस्तुएं इकट्ठा करने की कोशिश करते हैं, तो उनके खिलाफ झूठी FIR दर्ज कर दी जाती है।
● निगरानी संस्था की नाकामी: याचिकाकर्ताओं ने बार-बार राज्य स्तरीय निगरानी समिति (SLMC) से मदद मांगी, जो FRA के सही अनुपालन की जिम्मेदार संस्था है। लेकिन SLMC ने उनकी शिकायतों को अनसुना कर दिया। यह इस बात का प्रमाण है कि सरकार अपनी जिम्मेदारी निभाने में नाकाम रही है।
याचिका का निष्कर्ष है कि वन अधिकार न देना याचिकाकर्ताओं के मौलिक अधिकार (अनुच्छेद 21) का उल्लंघन है और यह उस ऐतिहासिक अन्याय को जारी रखना है, जिसे FRA दूर करने के लिए बनाया गया था।
राहत देने की मांग
इसलिए, याचिका उच्च न्यायालय से आग्रह करती है कि FRA की प्रतिष्ठा और थारू समुदाय के मौलिक अधिकारों की रक्षा की जाए। वे निम्नलिखित मांगें कर रहे हैं:
1. विवादित आदेश को रद्द करने की मांग: याचिकाकर्ता चाहते हैं कि 15 मार्च 2021 को जिला समिति द्वारा जारी मनमाने निर्णय को रद्द करने के लिए कोर्ट सर्टियोरी रिट जारी करे।
2. पुनर्विचार कर आदेश देना: वे चाहते हैं कि जिला समिति को आदेश दिया जाए कि वह FRA के नियमों के अनुसार समयबद्ध तरीके से उनके दावों का पुनर्विचार करे और नया निर्णय दे।
3. निगरानी सुनिश्चित करें: राज्य स्तरीय निगरानी समिति को उसके कानूनी कर्तव्यों को निभाने के लिए मैंडेमस रिट जारी किया जाए।
4. अंतरिम राहत दें: याचिकाकर्ताओं को याचिका की सुनवाई के दौरान तुरंत अपने समुदाय के वन अधिकार (जैसे जलाऊ लकड़ी, फूल, और चराई) का इस्तेमाल करने की अनुमति दी जाए।
यह याचिका नौकरशाही अत्याचार को खत्म करने और थारू समुदाय के लिए संसद द्वारा मान्यता प्राप्त “ऐतिहासिक अन्याय” को दूर करने का एक सशक्त न्यायिक प्रयास है।
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