71 वर्षीय वकील ने सुप्रीम कोर्ट की लाइव सुनवाई के दौरान CJI बी.आर. गवई पर जूता फेंका। उन्होंने इस कृत्य को ‘धर्म के अपमान के खिलाफ विरोध’ बताया। उन्होंने मॉरीशस में CJI की हालिया टिप्पणी से उपजी नाराज़गी को इसका कारण बताया और दावा किया कि यह कदम "भगवान की प्रेरणा" से उठाया गया था। गिरफ्तारी से रिहाई के बाद भी उन्होंने कोई अफसोस नहीं जताया। रिहाई के बाद उन्हें सरकारी समर्थक मीडिया चैनलों पर स्थान भी मिलने लगा।

भारत की सबसे बड़ी अदालत सुप्रीम कोर्ट में 6 अक्टूबर 2025 की सुबह एक चौंकाने वाली घटना घटी। इस पद तक पहुंचने वाले दूसरे दलित बौद्ध मुख्य न्यायाधीश (CJI) बी.आर. गवई पर एक वकील ने अदालत के खुले सत्र में हमला करने की कोशिश की। 2009 से दिल्ली बार काउंसिल में पंजीकृत 71 वर्षीय अधिवक्ता प्रशांत राकेश किशोर ने कोर्ट नंबर 1 में यह हरकत की। जब मुख्य न्यायाधीश अपने साथी न्यायाधीश न्यायमूर्ति विनोद चंद्रन के साथ बैठे थे, तभी उन्होंने जूता फेंकने की कोशिश की। इस दौरान नारेबाज़ी भी हुई, गार्ड तुरंत सक्रिय हुए और कोर्ट के गरिमामय माहौल में असामान्य हलचल मच गई। इस घटना ने न सिर्फ कोर्ट के भीतर मौजूद लोगों को चौंका दिया, बल्कि वकीलों, जजों, मीडिया और राजनीतिक हलकों में भी बहस छेड़ दी। यह घटना सिर्फ एक हमला नहीं थी, बल्कि इसने उस गहरी सामाजिक सच्चाई को उजागर किया कि आज भी भारत में दलित समुदाय को नफरत और भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है।
एक अदालत कक्ष में हंगामा
सुप्रीम कोर्ट के कोर्ट नंबर 1 में हर दिन की तरह सुबह की "मेंशनिंग" की कार्यवाही चल रही थी, लेकिन कुछ ही मिनटों में वहां अफरा-तफरी मच गई। करीब सुबह 11:35 बजे वकील के पोशाक में अधिवक्ता अचानक खड़े हुए और अपना जूता निकाला (या संभवतः बंडल खोलने की कोशिश की) और पीठ की ओर फेंकने का प्रयास किया। इस हरकत के साथ ही उन्होंने एक उत्तेजक नारा लगाया - "सनातन धर्म का अपमान नहीं सहेगा हिंदुस्तान।"
वकीलों के अनुसार, जो फेंका गया था वह मुश्किल से न्यायाधीशों के मंच (डायस) तक पहुंच पाया — सुरक्षा कर्मी तुरंत हरकत में आ गए। उस वकील को फौरन बाहर ले जाया गया, कार्यवाही को कुछ देर के लिए स्थगित किया गया और फिर दोबारा शुरू किया गया। मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई, जो पूरी तरह संयमित और शांत नजर आ रहे थे, उन्होंने अगले वकील की ओर मुड़ते हुए कहा: “ध्यान न भटकाएं। हमारा ध्यान इससे नहीं भटका है।” इसके बाद अदालत की कार्यवाही जारी रही।
अदालती पोशाक में शख्स : राकेश किशोर
अदालत में हुए इस हंगामे के पीछे जिस व्यक्ति की पहचान हुई, वह थे अधिवक्ता राकेश किशोर। उनकी उम्र 71 वर्ष थी और वे 2009 में दिल्ली बार काउंसिल में पंजीकृत हुए थे। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, उनके पास कई बार एसोसिएशनों की सदस्यता थी जिनमें सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन, शाहदरा बार एसोसिएशन और दिल्ली बार काउंसिल (BCD) शामिल हैं।
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, राकेश किशोर दिल्ली के मयूर विहार फेज़-1 में रहते हैं और पिछले कुछ वर्षों से अपनी हाउसिंग सोसायटी से जुड़े विवादों में सक्रिय रहे हैं। स्थानीय निवासियों का कहना है कि उनकी सोसायटी में काफी समय से चुनाव नहीं कराए गए हैं और किशोर के खिलाफ कई शिकायतें दर्ज हैं, जिनमें एक 2021 में एक वरिष्ठ नागरिक पर कथित हमले की भी है। दिल्ली पुलिस — जो सीधे तौर पर भारत के शक्तिशाली गृह मंत्रालय (MHA) के अधीन काम करती है और जिसे आम नागरिकों पर सख्त निगरानी और कठोर कार्रवाई के लिए जाना जाता है — ने इस मामले में काफी नरमी दिखाई। जहां आमतौर पर विरोध प्रदर्शन करने वाले नागरिकों पर UAPA जैसी कठोर आतंकवाद-रोधी धाराएं लगा दी जाती हैं, वहीं इस मामले में पुलिस ने यह कहकर कार्रवाई से परहेज़ किया कि सुप्रीम कोर्ट रजिस्ट्री द्वारा कोई औपचारिक शिकायत दर्ज नहीं की गई। इसके आधार पर, किशोर को कुछ ही घंटों में रिहा कर दिया गया, यह कहते हुए कि उनके खिलाफ कोई आपराधिक रिकॉर्ड नहीं है। रिहाई के बाद से, सरकार-समर्थक मीडिया द्वारा आरोपी को लगातार इंटरव्यू दिए जा रहे हैं।
“कानून के शासन से ज्यादा आहत या धर्म से?” — निलंबित अधिवक्ता ने CJI के मॉरीशस बयान पर प्रतिक्रिया दी
मुख्य न्यायाधीश (CJI) बी.आर. गवई के एक बयान को लेकर हुई विवादास्पद घटना के पीछे “मकसद” को लेकर खूब अटकलें लगाई जा रही थीं। मीडिया ने तेजी से इस आक्रामकता को उस याचिकाकर्ता से जोड़ा, जिसने खजुराहो में विष्णु की मूर्ति को बदलने की याचिका दायर की थी। खजुराहो एक यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल है और यहां भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) का अधिकार क्षेत्र है। इसके बाद CJI ने खजुराहो मामले में अपने बयान को स्पष्ट किया, सभी धर्मों के प्रति सम्मान जताया और कहा कि सोशल मीडिया पर हुए गलतफहमियों ने विवाद को और बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया है।
हालांकि, निलंबित अधिवक्ता राकेश किशोर, दिल्ली पुलिस द्वारा रिहा किए जाने के बाद, धार्मिक भावना के कारण नहीं, बल्कि मुख्य न्यायाधीश (CJI) द्वारा विदेश यात्रा के दौरान दिए गए एक सार्वजनिक बयान के प्रति अपनी नाराज़गी जाहिर की है।
ANI न्यूज एजेंसी को दिए बयान में उन्होंने कहा कि उन्हें न्यायपालिका से जो उपहास वाला व्यवहार महसूस हुआ, विशेषकर खजुराहो में क्षतिग्रस्त विष्णु मूर्ति से जुड़े मामले में CJI की टिप्पणियों से वे आहत हुए। उन्होंने स्पष्ट किया कि उन्हें कोई पछतावा नहीं है और उनका यह कदम उन्होंने उस अपमान के प्रति प्रतिक्रिया स्वरूप उठाया जो वे सनातन धर्म के अनुयायियों के प्रति समझते हैं।
मॉरीशस में मुख्य न्यायाधीश (CJI) की टिप्पणी — “भारतीय विधिक प्रणाली कानून के शासन (rule of law) पर आधारित है, बुलडोज़र के शासन (rule of bulldozer) पर नहीं” — का संदर्भ देते हुए किशोर ने प्रतिक्रिया दी, “…CJI को यह समझना चाहिए कि इतने उच्च संवैधानिक पद पर रहते हुए उन्हें ‘माईलॉर्ड’ की गरिमा को बनाए रखना चाहिए… आप मॉरीशस जाकर कहते हैं कि देश बुलडोज़र से नहीं चलेगा। मैं CJI और उन सभी से जो मेरे विरोध में हैं, पूछता हूं: क्या योगी जी द्वारा सरकारी जमीन पर अवैध कब्जा करने वालों के खिलाफ की गई बुलडोज़र कार्रवाई गलत है? मैं आहत हूं और आहत रहूंगा…”
इसके अलावा, किशोर ने “भगवान” का हवाला देते हुए कहा कि वह उस अपमान के बाद चैन से नहीं बैठ सके जिसे उन्होंने महसूस किया। उन्होंने दोहराया कि न तो वह नशे में थे और न ही किसी के प्रभाव में, बल्कि भावनात्मक आघात के कारण ऐसा कर रहे थे। उनकी प्रतिक्रिया किसी विशेष कानूनी सिद्धांत या धार्मिक मुद्दे की बजाय, अधिकतर राजनीतिक झुकाव और व्यक्तिगत अपमान की भावना से प्रेरित लगती है।
मूल कारण: मंदिर की मूर्ति, वायरल टिप्पणी और मॉरीशस में ‘बुलडोजर न्याय’ पर संबोधन
राकेश किशोर के उग्र विरोध की जड़ें गहराई से बैठी जातिवादी नफरत और वैचारिक अपमान की भावना में नजर आती हैं। सितंबर 2025 में सुप्रीम कोर्ट ने खजुराहो स्थित जवारी मंदिर में क्षतिग्रस्त भगवान विष्णु की मूर्ति के पुनर्निर्माण की मांग करने वाली एक जनहित याचिका को खारिज कर दिया। जब मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई की अध्यक्षता वाली पीठ ने यह याचिका अस्वीकार की तो CJI ने टिप्पणी की: “जाइए और देवता से कहिए कि वह कुछ करें।”
हालांकि यह टिप्पणी अदालत की उस राय को उजागर करने के लिए की गई थी कि यह मामला भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) के अधिकार क्षेत्र में आता है, लेकिन इसने इंटरनेट पर भारी विवाद खड़ा कर दिया। इसे बड़े पैमाने पर -और अक्सर तोड़-मरोड़ कर - एक हल्की-फुल्की और धार्मिक भावनाओं के प्रति असम्मानजनक टिप्पणी के रूप में देखा गया। सोशल मीडिया ने इस विवाद को और भड़का दिया, इसे सनातन धर्म के अपमान के रूप में पेश किया गया, जिससे न्यायपालिका की कथित असंवेदनशीलता का एक उग्र नैरेटिव बन गया।
इसके अलावा, CJI गवई के हालिया मॉरीशस भाषण ने इस बहस को और हवा दी, जहां उन्होंने 2024 में अवैध विध्वंस पर दिए गए अपने ऐतिहासिक फैसले का हवाला दिया। उस भाषण में उन्होंने दुनिया को यह याद दिलाया कि देश की सर्वोच्च अदालत अन्याय के खिलाफ खड़ी है। उस फैसले में अदालत ने स्पष्ट रूप से कहा था कि कार्यपालिका न्यायाधीश, जूरी और जल्लाद -तीनों की भूमिका एक साथ नहीं निभा सकती।
इस सिद्धांत का हवाला विदेश में देते हुए, CJI ने कहा, “भारतीय कानूनी प्रणाली कानून के शासन (Rule of Law) से संचालित होती है, बुलडोज़र के शासन से नहीं।” संवैधानिक मूल्यों को फिर से स्थापित करने के उद्देश्य से दिया गया यह बयान भी एक और विवाद का केंद्र बन गया। आलोचकों -विशेष रूप से राकेश किशोर -ने इसे कुछ राज्य-स्तरीय कार्रवाइयों, खासकर उत्तर प्रदेश में की गई कार्यवाहियों पर अप्रत्यक्ष हमला मान लिया। इन दोहरी घटनाओं के बीच, किशोर ने दावा किया कि उन्होंने भावनात्मक आघात और “ईश्वरीय प्रेरणा” के चलते प्रतिक्रिया दी, क्योंकि वे इन दोनों बयानों को अपने धर्म और आस्था के लिए अपमान मानते हैं।
इस पूरे घटनाक्रम में एक और मोड़ जुड़ गया। दशहरा की छुट्टी के दौरान, उत्तर प्रदेश में सुप्रीम कोर्ट की बरेली बेंच की छुट्टियों के बीच, राज्य -जिसे अल्पसंख्यक समुदायों की संपत्तियों और पूजा स्थलों पर आक्रामक बुलडोज़र कार्रवाइयों के लिए काफी आलोचना की गई है - में कई तोड़ फोड़ हुए। इनमें एक अहम घटना शामिल थी: वाराणसी में सड़क चौड़ीकरण अभियान के तहत ओलंपिक गोल्ड मेडलिस्ट और पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित मोहम्मद शाहिद का पुश्तैनी घर भी सितंबर के आखिर में तोड़ दिया गया।
CJI गवई के खिलाफ ऑनलाइन नफरत को बढ़ावा
CJI गवई और उनके प्रतिष्ठित संस्थान तथा उनकी पहचान पर हुआ हमला कोई अलग-थलग नहीं था। उससे कई सप्ताह पहले ही कट्टर दक्षिणपंथी प्लेटफॉर्म पर ऐसे इंटरव्यू चलाए जा रहे थे जो भारत के पहले बौद्ध मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ हिंसा भड़काने वाले थे। राइट-विंग "इन्फ्लुएंसर" अजीत भारती, कौशलेश राय और राइटविंग डिजिटल प्लेटफॉर्म ओपइंडिया के संपादक अनुपम सिंह को CJI के खिलाफ लोगों को हिंसा के लिए उकसाते हुए सुना जा सकता है। बातचीत के दौरान कौशलेश कहते हैं, “मैं गांधीवादी हूं। मैं हिंसा का समर्थन नहीं करता। अगर करता, तो कहता, ‘देखो, अगर गवई जी से लड़ाई हो जाए, वह कोर्टहाउस में रहते हैं और वहां हिंदू वकील हैं। कम-से-कम एक हिंदू वकील गवई जी का सिर पकड़कर उसे दीवार से जोर से मार दे, ताकि वह दो टुकड़ों में फट जाए। पर मैं बिलकुल भी हिंसा का समर्थन नहीं करता।” बातचीत के दौरान अजीत भारती ने न्यायमूर्ति गवई की गाड़ी घेरने का सुझाव भी दिया था। कौशलेश राय आगे कहते हैं, “2 अक्टूबर आ रहा है, जो गोड़से ने किया वह तुम्हारी क्षमता से बाहर है पर तुम गांधी बन सकते हो। गवई के चेहरे पर थूकने पर IPC के तहत अधिकतम सजा क्या है? छह महीने से अधिक नहीं? यह कुछ भी नहीं है। क्या हिंदू लोग यह तक नहीं कर सकते?”
बार काउंसिल ऑफ इंडिया ने वकील को निलंबित किया
नफरत और अवमानना से भरे इस चौंकाने वाले मामले के कुछ ही घंटों के भीतर बार काउंसिल ऑफ इंडिया (BCI) ने राकेश किशोर का वकालत का लाइसेंस अंतरिम रूप से निलंबित कर दिया। एडवोकेट्स एक्ट, 1961 के तहत जारी इस आदेश में उनके आचरण को “प्रथम दृष्टया न्यायालय की गरिमा के खिलाफ” बताया गया।
आदेश के अनुसार, किशोर को पूरे भारत में किसी भी न्यायालय या प्राधिकरण (ट्रिब्यूनल) में पेश होने, बहस करने, कार्य करने या वकालत करने से प्रतिबंधित कर दिया गया है। सभी न्यायालयों, अधिकरणों और बार एसोसिएशनों को इस निलंबन की सूचना दी जाएगी। साथ ही, उन्हें एक कारण बताओ नोटिस (शो-कॉज़ नोटिस) जारी किया गया है, जिसमें उन्हें 15 दिनों के भीतर यह स्पष्ट करना होगा कि क्यों उनके खिलाफ यह निलंबन आगे भी जारी न रखा जाए।
न्यायालय और उसका परेशान करने वाला रूख
अब तक, सुप्रीम कोर्ट के रजिस्ट्रार जनरल ने आपराधिक कार्यवाही शुरू करने का निर्णय नहीं लिया है। रिपोर्टों के अनुसार, दिल्ली पुलिस ने राकेश किशोर से कुछ घंटों तक पूछताछ करने के बाद उन्हें यह कहते हुए छोड़ दिया कि अदालत की ओर से कोई केस फाइल नहीं मिला है।
खुद सुप्रीम कोर्ट भी सार्वजनिक रूप से मौन रहा। न तो कोई प्रेस विज्ञप्ति जारी की गई और न ही कोई प्राथमिकी (FIR) दर्ज करवाई गई। कुछ कानूनी विशेषज्ञों ने इसे रणनीतिक संयम के रूप में देखा -यह मानते हुए कि इस घटना को तूल न देकर कोर्ट ने जानबूझकर उसे महत्व नहीं दिया। हालांकि, कई लोगों का मानना था कि अगर सर्वोच्च न्यायालय एक ठोस अवमानना कार्यवाही या स्पष्ट सार्वजनिक प्रतिक्रिया देता तो इससे उसकी संस्थागत शक्ति और गरिमा की कहीं बेहतर पुष्टि होती।
कानूनी बिरादरी की निंदा
प्रमुख बार संगठन और वरिष्ठ अधिवक्ताओं ने तेजी से प्रतिक्रिया दी। सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स-ऑन-रिकार्ड एसोसिएशन (SCAORA) ने इस कृत्य को "एक वकील के लिए अनूपयुक्त" बताया और स्व-प्रेरित अवमानना कार्यवाही की मांग की। उन्होंने तर्क दिया कि इस इशारे से "CJI के पद की अपमानना" हो सकती है और इससे जनता का न्यायालय पर विश्वास प्रभावित होगा।
सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन (SCBA) ने इस कृत्य की कड़ी निंदा की और संस्थागत गरिमा, शिष्टाचार और संवैधानिक कर्तव्य पर जोर दिया।
वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल का 6 अक्टूबर को लगभग शाम 5 बजे X (पूर्व में ट्विटर) पर दिया गया ट्वीट नैतिक मानकों को बढ़ाने वाला था, जिसमें उन्होंने प्रधानमंत्री, गृह मंत्री या कानून मंत्री में से किसी की ओर से निंदा न होने पर टिप्पणी की।
वरिष्ठ अधिवक्ता इंदिरा जयसिंह ने एक कदम आगे बढ़कर इस कृत्य को "वैचारिक और जातिवादी" करार दिया और अटॉर्नी जनरल से अदालत की अवमानना की कार्रवाई शुरू करने का आग्रह किया। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों से एक संयुक्त बयान जारी करने का भी अनुरोध किया, जिसमें धर्मनिरपेक्ष न्यायालयों पर वैचारिक हमलों को ठुकराया जाए।
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने ज्यादा संयमित रुख अपनाया। उन्होंने इस कृत्य की निंदा गलत सूचना और सोशल मीडिया के उन्माद का परिणाम बताते हुए की, CJI की शांति की प्रशंसा की और चेतावनी दी कि उनकी संयम को संस्थागत कमजोरी न समझा जाए।
“CJI पर हमला हमारे न्यायपालिका की गरिमा और हमारे संविधान की आत्मा पर हमला है” : राहुल गांधी
राहुल गांधी, विपक्ष के नेता, ने X (पूर्व में ट्विटर) पर CJI पर हुए हमले की कड़ी निंदा की और कहा, “भारत के मुख्य न्यायाधीश पर हमला हमारे न्यायपालिका की गरिमा और हमारे संविधान की आत्मा पर हमला है।”
कांग्रेस ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर आलोचना की, यह बताते हुए कि कई घंटे तक प्रधानमंत्री कार्यालय चुप रहा। कांग्रेस ने एक पोस्ट में प्रधानमंत्री पर तंज किया: “आपकी चुप्पी गूंजती हुई है -यह मिलीभगत की चीख है।”
“भारत के मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई पर आज सुप्रीम कोर्ट में खुलेआम हमला हुआ। फिर भी, प्रधानमंत्री की ओर से अब तक निंदा का एक भी शब्द नहीं। श्री मोदी, आपकी चुप्पी गूंजती हुई है और मिलीभगत की आवाज लगती है। आपको बोलना चाहिए।”
पूर्व पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी ने इस कृत्य को लेकर “गहरी चिंता” जताई और इसे “केवल CJI पर नहीं, बल्कि संविधान पर भी हमला” कहा।
उन्होंने कहा, “सुप्रीम कोर्ट में माननीय मुख्य न्यायाधीश भारत पर हुए इस हमले की निंदा के लिए शब्द पर्याप्त नहीं हैं। यह केवल उन पर नहीं, बल्कि हमारे संविधान पर भी हमला है। मुख्य न्यायाधीश गवई ने बहुत संयम दिखाया है लेकिन राष्ट्र को उनके साथ एकजुट होकर गहरी चिंता और गुस्से के साथ खड़ा होना चाहिए।”
प्रधानमंत्री मोदी ने कहा, “हमारे समाज में इस प्रकार के निंदनीय कृत्यों के लिए कोई जगह नहीं है, और यह पूरी तरह से निंदनीय है।”
जब दबाव बढ़ा तो 6 अक्टूबर की देर शाम, प्रधानमंत्री मोदी ने निंदा की। उन्होंने लिखा, “CJI बीआर गवई से बात की। यह कृत्य पूरी तरह निंदनीय है। ऐसे निंदनीय व्यवहार की सभ्य समाज में कोई जगह नहीं होनी चाहिए।” उन्होंने CJI के संयम रहने को न्यायिक गरिमा का प्रमाण बताया।
इसके बावजूद, आलोचकों ने कहा कि प्रधानमंत्री की प्रतिक्रिया तब आई जब सार्वजनिक दबाव बढ़ गया था। इस देरी को राजनीतिक हिचकिचाहट के रूप में देखा गया।
प्रधानमंत्री मोदी ने कहा, “मैंने ऐसे स्थिति में न्यायाधीश गवई द्वारा दिखाए गए संयम की सराहना की। यह उनके न्याय के मूल्यों और हमारे संविधान की आत्मा को मजबूत करने के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को दर्शाता है।”
आंतरिक पहलू: जाति, धर्म और ध्रुवीकरण
यह कृत्य केवल एक चौंकाने वाला सुरक्षा उल्लंघन नहीं था - बल्कि यह वैचारिक, धार्मिक और जातिगत पूर्वाग्रह का हिंसक प्रदर्शन प्रतीत होता था।
CJI गवई बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं और दलित समुदाय से आते हैं। कुछ लोगों ने कहा कि उन्हें “सनातन धर्म” जैसे धार्मिक नारे लगाकर निशाना बनाना साफ तौर पर जाति से जुड़ा हुआ था। ये बात सोचने वाली है कि एक वकील ने धार्मिक अभिमान दिखाते हुए एक दलित जज पर हमला करने की कोशिश की जो असुविधा पैदा करता है।
कानूनी समुदाय में अब सुरक्षा नियंत्रण को लेकर नई तत्परता देखी जा रही है, क्योंकि सवाल उठ रहा है कि एक व्यक्ति जिसके पास प्रॉक्सिमिटी कार्ड था, वह अदालत कक्ष में कैसे प्रवेश कर सका और कोई चीज ला सका।
अडिग न्यायपालिका: मुख्य न्यायाधीश की संतुलित प्रतिक्रिया
जो बात सभी के बीच प्रशंसा का विषय बनी, वह CJI गवई का संयम था। जब थोड़ी देर के लिए अफरा-तफरी मची, उन्होंने कहा शांत रहे और अदालत को निर्देश दिया कि वे विचलित न हों। इस चौंकाने वाले हमले के बीच उनकी यह शांति कानून के समाज और इससे बाहर दोनों क्षेत्रों में सराही गई।
वरिष्ठ अधिवक्ता संजय हेगड़े ने इस असामान्य घटना पर टिप्पणी करते हुए CJI गवई की शांत और संयमित प्रतिक्रिया की सराहना की। उन्होंने कहा कि इस तरह की विचित्र घटनाएं भारतीय न्यायपालिका के लिए नई नहीं हैं।
एक पुराने मामले को याद करते हुए उन्होंने बताया कि नागपुर से ही आने वाले तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश हिदायतुल्लाह के साथ भी एक बार ऐसी ही घटना हुई थी, जब एक असंतुष्ट व्यक्ति ने उन पर जूता फेंका था। उस समय न्यायमूर्ति हिदायतुल्लाह ने बेहद सहजता का परिचय देते हुए कहा था: “वह आदमी अपना केस हार गया है, उसे अपना जूता भी नहीं खोना चाहिए।”
अदालत के भीतर इस घटना के बाद कोई खास रूकावट नहीं आई। सूत्रों के अनुसार, CJI गवई ने दिनभर की निर्धारित सुनवाई जारी रखी। उन्हें मिली यह सराहना सिर्फ उनके व्यक्तिगत संयम की नहीं, बल्कि न्यायपालिका की संस्थागत मजबूती की प्रतीक बन गई, वह भी ऐसे समय में जब उकसावे की आशंका थी।
अब क्या होगा—अवमानना की कार्यवाही? क्या अदालत कोई कार्रवाई करेगी?
SCAORA जैसी कानूनी संस्थाओं और वरिष्ठ अधिवक्ताओं ने सर्वोच्च न्यायालय से स्वतः संज्ञान लेकर अवमानना का नोटिस लेने का आग्रह किया है और इस बात पर जोर दिया है कि न्याय के सर्वोच्च पद पर हमला करने या उसे बदनाम करने की किसी भी कोशिश को यूं ही नहीं रोका जा सकता।
हालांकि मुख्य न्यायाधीश ने उल्लेखनीय संयम दिखाया लेकिन न्यायपालिका अब एक महत्वपूर्ण मोड़ पर है कि क्या संयम बरतें या अपनी संस्थागत सत्ता को बनाए रखने के लिए दृढ़ता से जवाब दें।
अवमानना की कार्यवाही से परे, न्यायालय को कुछ दंड लगाने और अदालती कदाचार के खिलाफ एक स्पष्ट मिसाल कायम करने पर विचार करना चाहिए-खासकर जब यह वैचारिक औचित्य में घिरा हो। ऐसे कदम जनता के विश्वास के लिए जरूरी होंगे, न्यायिक गरिमा की रक्षा करेंगे और यह कड़ा संदेश देंगे कि अदालत की पवित्रता को नुकसान नहीं पहुंचाया जा सकता है। पूरे सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस घटना की एकजुट और स्पष्ट निंदा, समय की सबसे बड़ी जरूरत है।
अब देश देख रहा है कि क्या सर्वोच्च न्यायालय इस क्षण को यूं ही गुजर जाने देगा या इसे समझाने के लिए उठ खड़ा होगा?
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भारत की सबसे बड़ी अदालत सुप्रीम कोर्ट में 6 अक्टूबर 2025 की सुबह एक चौंकाने वाली घटना घटी। इस पद तक पहुंचने वाले दूसरे दलित बौद्ध मुख्य न्यायाधीश (CJI) बी.आर. गवई पर एक वकील ने अदालत के खुले सत्र में हमला करने की कोशिश की। 2009 से दिल्ली बार काउंसिल में पंजीकृत 71 वर्षीय अधिवक्ता प्रशांत राकेश किशोर ने कोर्ट नंबर 1 में यह हरकत की। जब मुख्य न्यायाधीश अपने साथी न्यायाधीश न्यायमूर्ति विनोद चंद्रन के साथ बैठे थे, तभी उन्होंने जूता फेंकने की कोशिश की। इस दौरान नारेबाज़ी भी हुई, गार्ड तुरंत सक्रिय हुए और कोर्ट के गरिमामय माहौल में असामान्य हलचल मच गई। इस घटना ने न सिर्फ कोर्ट के भीतर मौजूद लोगों को चौंका दिया, बल्कि वकीलों, जजों, मीडिया और राजनीतिक हलकों में भी बहस छेड़ दी। यह घटना सिर्फ एक हमला नहीं थी, बल्कि इसने उस गहरी सामाजिक सच्चाई को उजागर किया कि आज भी भारत में दलित समुदाय को नफरत और भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है।
एक अदालत कक्ष में हंगामा
सुप्रीम कोर्ट के कोर्ट नंबर 1 में हर दिन की तरह सुबह की "मेंशनिंग" की कार्यवाही चल रही थी, लेकिन कुछ ही मिनटों में वहां अफरा-तफरी मच गई। करीब सुबह 11:35 बजे वकील के पोशाक में अधिवक्ता अचानक खड़े हुए और अपना जूता निकाला (या संभवतः बंडल खोलने की कोशिश की) और पीठ की ओर फेंकने का प्रयास किया। इस हरकत के साथ ही उन्होंने एक उत्तेजक नारा लगाया - "सनातन धर्म का अपमान नहीं सहेगा हिंदुस्तान।"
वकीलों के अनुसार, जो फेंका गया था वह मुश्किल से न्यायाधीशों के मंच (डायस) तक पहुंच पाया — सुरक्षा कर्मी तुरंत हरकत में आ गए। उस वकील को फौरन बाहर ले जाया गया, कार्यवाही को कुछ देर के लिए स्थगित किया गया और फिर दोबारा शुरू किया गया। मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई, जो पूरी तरह संयमित और शांत नजर आ रहे थे, उन्होंने अगले वकील की ओर मुड़ते हुए कहा: “ध्यान न भटकाएं। हमारा ध्यान इससे नहीं भटका है।” इसके बाद अदालत की कार्यवाही जारी रही।
अदालती पोशाक में शख्स : राकेश किशोर
अदालत में हुए इस हंगामे के पीछे जिस व्यक्ति की पहचान हुई, वह थे अधिवक्ता राकेश किशोर। उनकी उम्र 71 वर्ष थी और वे 2009 में दिल्ली बार काउंसिल में पंजीकृत हुए थे। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, उनके पास कई बार एसोसिएशनों की सदस्यता थी जिनमें सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन, शाहदरा बार एसोसिएशन और दिल्ली बार काउंसिल (BCD) शामिल हैं।
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, राकेश किशोर दिल्ली के मयूर विहार फेज़-1 में रहते हैं और पिछले कुछ वर्षों से अपनी हाउसिंग सोसायटी से जुड़े विवादों में सक्रिय रहे हैं। स्थानीय निवासियों का कहना है कि उनकी सोसायटी में काफी समय से चुनाव नहीं कराए गए हैं और किशोर के खिलाफ कई शिकायतें दर्ज हैं, जिनमें एक 2021 में एक वरिष्ठ नागरिक पर कथित हमले की भी है। दिल्ली पुलिस — जो सीधे तौर पर भारत के शक्तिशाली गृह मंत्रालय (MHA) के अधीन काम करती है और जिसे आम नागरिकों पर सख्त निगरानी और कठोर कार्रवाई के लिए जाना जाता है — ने इस मामले में काफी नरमी दिखाई। जहां आमतौर पर विरोध प्रदर्शन करने वाले नागरिकों पर UAPA जैसी कठोर आतंकवाद-रोधी धाराएं लगा दी जाती हैं, वहीं इस मामले में पुलिस ने यह कहकर कार्रवाई से परहेज़ किया कि सुप्रीम कोर्ट रजिस्ट्री द्वारा कोई औपचारिक शिकायत दर्ज नहीं की गई। इसके आधार पर, किशोर को कुछ ही घंटों में रिहा कर दिया गया, यह कहते हुए कि उनके खिलाफ कोई आपराधिक रिकॉर्ड नहीं है। रिहाई के बाद से, सरकार-समर्थक मीडिया द्वारा आरोपी को लगातार इंटरव्यू दिए जा रहे हैं।
“कानून के शासन से ज्यादा आहत या धर्म से?” — निलंबित अधिवक्ता ने CJI के मॉरीशस बयान पर प्रतिक्रिया दी
मुख्य न्यायाधीश (CJI) बी.आर. गवई के एक बयान को लेकर हुई विवादास्पद घटना के पीछे “मकसद” को लेकर खूब अटकलें लगाई जा रही थीं। मीडिया ने तेजी से इस आक्रामकता को उस याचिकाकर्ता से जोड़ा, जिसने खजुराहो में विष्णु की मूर्ति को बदलने की याचिका दायर की थी। खजुराहो एक यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल है और यहां भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) का अधिकार क्षेत्र है। इसके बाद CJI ने खजुराहो मामले में अपने बयान को स्पष्ट किया, सभी धर्मों के प्रति सम्मान जताया और कहा कि सोशल मीडिया पर हुए गलतफहमियों ने विवाद को और बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया है।
हालांकि, निलंबित अधिवक्ता राकेश किशोर, दिल्ली पुलिस द्वारा रिहा किए जाने के बाद, धार्मिक भावना के कारण नहीं, बल्कि मुख्य न्यायाधीश (CJI) द्वारा विदेश यात्रा के दौरान दिए गए एक सार्वजनिक बयान के प्रति अपनी नाराज़गी जाहिर की है।
ANI न्यूज एजेंसी को दिए बयान में उन्होंने कहा कि उन्हें न्यायपालिका से जो उपहास वाला व्यवहार महसूस हुआ, विशेषकर खजुराहो में क्षतिग्रस्त विष्णु मूर्ति से जुड़े मामले में CJI की टिप्पणियों से वे आहत हुए। उन्होंने स्पष्ट किया कि उन्हें कोई पछतावा नहीं है और उनका यह कदम उन्होंने उस अपमान के प्रति प्रतिक्रिया स्वरूप उठाया जो वे सनातन धर्म के अनुयायियों के प्रति समझते हैं।
मॉरीशस में मुख्य न्यायाधीश (CJI) की टिप्पणी — “भारतीय विधिक प्रणाली कानून के शासन (rule of law) पर आधारित है, बुलडोज़र के शासन (rule of bulldozer) पर नहीं” — का संदर्भ देते हुए किशोर ने प्रतिक्रिया दी, “…CJI को यह समझना चाहिए कि इतने उच्च संवैधानिक पद पर रहते हुए उन्हें ‘माईलॉर्ड’ की गरिमा को बनाए रखना चाहिए… आप मॉरीशस जाकर कहते हैं कि देश बुलडोज़र से नहीं चलेगा। मैं CJI और उन सभी से जो मेरे विरोध में हैं, पूछता हूं: क्या योगी जी द्वारा सरकारी जमीन पर अवैध कब्जा करने वालों के खिलाफ की गई बुलडोज़र कार्रवाई गलत है? मैं आहत हूं और आहत रहूंगा…”
इसके अलावा, किशोर ने “भगवान” का हवाला देते हुए कहा कि वह उस अपमान के बाद चैन से नहीं बैठ सके जिसे उन्होंने महसूस किया। उन्होंने दोहराया कि न तो वह नशे में थे और न ही किसी के प्रभाव में, बल्कि भावनात्मक आघात के कारण ऐसा कर रहे थे। उनकी प्रतिक्रिया किसी विशेष कानूनी सिद्धांत या धार्मिक मुद्दे की बजाय, अधिकतर राजनीतिक झुकाव और व्यक्तिगत अपमान की भावना से प्रेरित लगती है।
मूल कारण: मंदिर की मूर्ति, वायरल टिप्पणी और मॉरीशस में ‘बुलडोजर न्याय’ पर संबोधन
राकेश किशोर के उग्र विरोध की जड़ें गहराई से बैठी जातिवादी नफरत और वैचारिक अपमान की भावना में नजर आती हैं। सितंबर 2025 में सुप्रीम कोर्ट ने खजुराहो स्थित जवारी मंदिर में क्षतिग्रस्त भगवान विष्णु की मूर्ति के पुनर्निर्माण की मांग करने वाली एक जनहित याचिका को खारिज कर दिया। जब मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई की अध्यक्षता वाली पीठ ने यह याचिका अस्वीकार की तो CJI ने टिप्पणी की: “जाइए और देवता से कहिए कि वह कुछ करें।”
हालांकि यह टिप्पणी अदालत की उस राय को उजागर करने के लिए की गई थी कि यह मामला भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) के अधिकार क्षेत्र में आता है, लेकिन इसने इंटरनेट पर भारी विवाद खड़ा कर दिया। इसे बड़े पैमाने पर -और अक्सर तोड़-मरोड़ कर - एक हल्की-फुल्की और धार्मिक भावनाओं के प्रति असम्मानजनक टिप्पणी के रूप में देखा गया। सोशल मीडिया ने इस विवाद को और भड़का दिया, इसे सनातन धर्म के अपमान के रूप में पेश किया गया, जिससे न्यायपालिका की कथित असंवेदनशीलता का एक उग्र नैरेटिव बन गया।
इसके अलावा, CJI गवई के हालिया मॉरीशस भाषण ने इस बहस को और हवा दी, जहां उन्होंने 2024 में अवैध विध्वंस पर दिए गए अपने ऐतिहासिक फैसले का हवाला दिया। उस भाषण में उन्होंने दुनिया को यह याद दिलाया कि देश की सर्वोच्च अदालत अन्याय के खिलाफ खड़ी है। उस फैसले में अदालत ने स्पष्ट रूप से कहा था कि कार्यपालिका न्यायाधीश, जूरी और जल्लाद -तीनों की भूमिका एक साथ नहीं निभा सकती।
इस सिद्धांत का हवाला विदेश में देते हुए, CJI ने कहा, “भारतीय कानूनी प्रणाली कानून के शासन (Rule of Law) से संचालित होती है, बुलडोज़र के शासन से नहीं।” संवैधानिक मूल्यों को फिर से स्थापित करने के उद्देश्य से दिया गया यह बयान भी एक और विवाद का केंद्र बन गया। आलोचकों -विशेष रूप से राकेश किशोर -ने इसे कुछ राज्य-स्तरीय कार्रवाइयों, खासकर उत्तर प्रदेश में की गई कार्यवाहियों पर अप्रत्यक्ष हमला मान लिया। इन दोहरी घटनाओं के बीच, किशोर ने दावा किया कि उन्होंने भावनात्मक आघात और “ईश्वरीय प्रेरणा” के चलते प्रतिक्रिया दी, क्योंकि वे इन दोनों बयानों को अपने धर्म और आस्था के लिए अपमान मानते हैं।
इस पूरे घटनाक्रम में एक और मोड़ जुड़ गया। दशहरा की छुट्टी के दौरान, उत्तर प्रदेश में सुप्रीम कोर्ट की बरेली बेंच की छुट्टियों के बीच, राज्य -जिसे अल्पसंख्यक समुदायों की संपत्तियों और पूजा स्थलों पर आक्रामक बुलडोज़र कार्रवाइयों के लिए काफी आलोचना की गई है - में कई तोड़ फोड़ हुए। इनमें एक अहम घटना शामिल थी: वाराणसी में सड़क चौड़ीकरण अभियान के तहत ओलंपिक गोल्ड मेडलिस्ट और पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित मोहम्मद शाहिद का पुश्तैनी घर भी सितंबर के आखिर में तोड़ दिया गया।
CJI गवई के खिलाफ ऑनलाइन नफरत को बढ़ावा
CJI गवई और उनके प्रतिष्ठित संस्थान तथा उनकी पहचान पर हुआ हमला कोई अलग-थलग नहीं था। उससे कई सप्ताह पहले ही कट्टर दक्षिणपंथी प्लेटफॉर्म पर ऐसे इंटरव्यू चलाए जा रहे थे जो भारत के पहले बौद्ध मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ हिंसा भड़काने वाले थे। राइट-विंग "इन्फ्लुएंसर" अजीत भारती, कौशलेश राय और राइटविंग डिजिटल प्लेटफॉर्म ओपइंडिया के संपादक अनुपम सिंह को CJI के खिलाफ लोगों को हिंसा के लिए उकसाते हुए सुना जा सकता है। बातचीत के दौरान कौशलेश कहते हैं, “मैं गांधीवादी हूं। मैं हिंसा का समर्थन नहीं करता। अगर करता, तो कहता, ‘देखो, अगर गवई जी से लड़ाई हो जाए, वह कोर्टहाउस में रहते हैं और वहां हिंदू वकील हैं। कम-से-कम एक हिंदू वकील गवई जी का सिर पकड़कर उसे दीवार से जोर से मार दे, ताकि वह दो टुकड़ों में फट जाए। पर मैं बिलकुल भी हिंसा का समर्थन नहीं करता।” बातचीत के दौरान अजीत भारती ने न्यायमूर्ति गवई की गाड़ी घेरने का सुझाव भी दिया था। कौशलेश राय आगे कहते हैं, “2 अक्टूबर आ रहा है, जो गोड़से ने किया वह तुम्हारी क्षमता से बाहर है पर तुम गांधी बन सकते हो। गवई के चेहरे पर थूकने पर IPC के तहत अधिकतम सजा क्या है? छह महीने से अधिक नहीं? यह कुछ भी नहीं है। क्या हिंदू लोग यह तक नहीं कर सकते?”
बार काउंसिल ऑफ इंडिया ने वकील को निलंबित किया
नफरत और अवमानना से भरे इस चौंकाने वाले मामले के कुछ ही घंटों के भीतर बार काउंसिल ऑफ इंडिया (BCI) ने राकेश किशोर का वकालत का लाइसेंस अंतरिम रूप से निलंबित कर दिया। एडवोकेट्स एक्ट, 1961 के तहत जारी इस आदेश में उनके आचरण को “प्रथम दृष्टया न्यायालय की गरिमा के खिलाफ” बताया गया।
आदेश के अनुसार, किशोर को पूरे भारत में किसी भी न्यायालय या प्राधिकरण (ट्रिब्यूनल) में पेश होने, बहस करने, कार्य करने या वकालत करने से प्रतिबंधित कर दिया गया है। सभी न्यायालयों, अधिकरणों और बार एसोसिएशनों को इस निलंबन की सूचना दी जाएगी। साथ ही, उन्हें एक कारण बताओ नोटिस (शो-कॉज़ नोटिस) जारी किया गया है, जिसमें उन्हें 15 दिनों के भीतर यह स्पष्ट करना होगा कि क्यों उनके खिलाफ यह निलंबन आगे भी जारी न रखा जाए।
न्यायालय और उसका परेशान करने वाला रूख
अब तक, सुप्रीम कोर्ट के रजिस्ट्रार जनरल ने आपराधिक कार्यवाही शुरू करने का निर्णय नहीं लिया है। रिपोर्टों के अनुसार, दिल्ली पुलिस ने राकेश किशोर से कुछ घंटों तक पूछताछ करने के बाद उन्हें यह कहते हुए छोड़ दिया कि अदालत की ओर से कोई केस फाइल नहीं मिला है।
खुद सुप्रीम कोर्ट भी सार्वजनिक रूप से मौन रहा। न तो कोई प्रेस विज्ञप्ति जारी की गई और न ही कोई प्राथमिकी (FIR) दर्ज करवाई गई। कुछ कानूनी विशेषज्ञों ने इसे रणनीतिक संयम के रूप में देखा -यह मानते हुए कि इस घटना को तूल न देकर कोर्ट ने जानबूझकर उसे महत्व नहीं दिया। हालांकि, कई लोगों का मानना था कि अगर सर्वोच्च न्यायालय एक ठोस अवमानना कार्यवाही या स्पष्ट सार्वजनिक प्रतिक्रिया देता तो इससे उसकी संस्थागत शक्ति और गरिमा की कहीं बेहतर पुष्टि होती।
कानूनी बिरादरी की निंदा
प्रमुख बार संगठन और वरिष्ठ अधिवक्ताओं ने तेजी से प्रतिक्रिया दी। सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स-ऑन-रिकार्ड एसोसिएशन (SCAORA) ने इस कृत्य को "एक वकील के लिए अनूपयुक्त" बताया और स्व-प्रेरित अवमानना कार्यवाही की मांग की। उन्होंने तर्क दिया कि इस इशारे से "CJI के पद की अपमानना" हो सकती है और इससे जनता का न्यायालय पर विश्वास प्रभावित होगा।
सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन (SCBA) ने इस कृत्य की कड़ी निंदा की और संस्थागत गरिमा, शिष्टाचार और संवैधानिक कर्तव्य पर जोर दिया।
वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल का 6 अक्टूबर को लगभग शाम 5 बजे X (पूर्व में ट्विटर) पर दिया गया ट्वीट नैतिक मानकों को बढ़ाने वाला था, जिसमें उन्होंने प्रधानमंत्री, गृह मंत्री या कानून मंत्री में से किसी की ओर से निंदा न होने पर टिप्पणी की।
वरिष्ठ अधिवक्ता इंदिरा जयसिंह ने एक कदम आगे बढ़कर इस कृत्य को "वैचारिक और जातिवादी" करार दिया और अटॉर्नी जनरल से अदालत की अवमानना की कार्रवाई शुरू करने का आग्रह किया। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों से एक संयुक्त बयान जारी करने का भी अनुरोध किया, जिसमें धर्मनिरपेक्ष न्यायालयों पर वैचारिक हमलों को ठुकराया जाए।
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने ज्यादा संयमित रुख अपनाया। उन्होंने इस कृत्य की निंदा गलत सूचना और सोशल मीडिया के उन्माद का परिणाम बताते हुए की, CJI की शांति की प्रशंसा की और चेतावनी दी कि उनकी संयम को संस्थागत कमजोरी न समझा जाए।
“CJI पर हमला हमारे न्यायपालिका की गरिमा और हमारे संविधान की आत्मा पर हमला है” : राहुल गांधी
राहुल गांधी, विपक्ष के नेता, ने X (पूर्व में ट्विटर) पर CJI पर हुए हमले की कड़ी निंदा की और कहा, “भारत के मुख्य न्यायाधीश पर हमला हमारे न्यायपालिका की गरिमा और हमारे संविधान की आत्मा पर हमला है।”
कांग्रेस ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर आलोचना की, यह बताते हुए कि कई घंटे तक प्रधानमंत्री कार्यालय चुप रहा। कांग्रेस ने एक पोस्ट में प्रधानमंत्री पर तंज किया: “आपकी चुप्पी गूंजती हुई है -यह मिलीभगत की चीख है।”
“भारत के मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई पर आज सुप्रीम कोर्ट में खुलेआम हमला हुआ। फिर भी, प्रधानमंत्री की ओर से अब तक निंदा का एक भी शब्द नहीं। श्री मोदी, आपकी चुप्पी गूंजती हुई है और मिलीभगत की आवाज लगती है। आपको बोलना चाहिए।”
पूर्व पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी ने इस कृत्य को लेकर “गहरी चिंता” जताई और इसे “केवल CJI पर नहीं, बल्कि संविधान पर भी हमला” कहा।
उन्होंने कहा, “सुप्रीम कोर्ट में माननीय मुख्य न्यायाधीश भारत पर हुए इस हमले की निंदा के लिए शब्द पर्याप्त नहीं हैं। यह केवल उन पर नहीं, बल्कि हमारे संविधान पर भी हमला है। मुख्य न्यायाधीश गवई ने बहुत संयम दिखाया है लेकिन राष्ट्र को उनके साथ एकजुट होकर गहरी चिंता और गुस्से के साथ खड़ा होना चाहिए।”
प्रधानमंत्री मोदी ने कहा, “हमारे समाज में इस प्रकार के निंदनीय कृत्यों के लिए कोई जगह नहीं है, और यह पूरी तरह से निंदनीय है।”
जब दबाव बढ़ा तो 6 अक्टूबर की देर शाम, प्रधानमंत्री मोदी ने निंदा की। उन्होंने लिखा, “CJI बीआर गवई से बात की। यह कृत्य पूरी तरह निंदनीय है। ऐसे निंदनीय व्यवहार की सभ्य समाज में कोई जगह नहीं होनी चाहिए।” उन्होंने CJI के संयम रहने को न्यायिक गरिमा का प्रमाण बताया।
इसके बावजूद, आलोचकों ने कहा कि प्रधानमंत्री की प्रतिक्रिया तब आई जब सार्वजनिक दबाव बढ़ गया था। इस देरी को राजनीतिक हिचकिचाहट के रूप में देखा गया।
प्रधानमंत्री मोदी ने कहा, “मैंने ऐसे स्थिति में न्यायाधीश गवई द्वारा दिखाए गए संयम की सराहना की। यह उनके न्याय के मूल्यों और हमारे संविधान की आत्मा को मजबूत करने के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को दर्शाता है।”
आंतरिक पहलू: जाति, धर्म और ध्रुवीकरण
यह कृत्य केवल एक चौंकाने वाला सुरक्षा उल्लंघन नहीं था - बल्कि यह वैचारिक, धार्मिक और जातिगत पूर्वाग्रह का हिंसक प्रदर्शन प्रतीत होता था।
CJI गवई बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं और दलित समुदाय से आते हैं। कुछ लोगों ने कहा कि उन्हें “सनातन धर्म” जैसे धार्मिक नारे लगाकर निशाना बनाना साफ तौर पर जाति से जुड़ा हुआ था। ये बात सोचने वाली है कि एक वकील ने धार्मिक अभिमान दिखाते हुए एक दलित जज पर हमला करने की कोशिश की जो असुविधा पैदा करता है।
कानूनी समुदाय में अब सुरक्षा नियंत्रण को लेकर नई तत्परता देखी जा रही है, क्योंकि सवाल उठ रहा है कि एक व्यक्ति जिसके पास प्रॉक्सिमिटी कार्ड था, वह अदालत कक्ष में कैसे प्रवेश कर सका और कोई चीज ला सका।
अडिग न्यायपालिका: मुख्य न्यायाधीश की संतुलित प्रतिक्रिया
जो बात सभी के बीच प्रशंसा का विषय बनी, वह CJI गवई का संयम था। जब थोड़ी देर के लिए अफरा-तफरी मची, उन्होंने कहा शांत रहे और अदालत को निर्देश दिया कि वे विचलित न हों। इस चौंकाने वाले हमले के बीच उनकी यह शांति कानून के समाज और इससे बाहर दोनों क्षेत्रों में सराही गई।
वरिष्ठ अधिवक्ता संजय हेगड़े ने इस असामान्य घटना पर टिप्पणी करते हुए CJI गवई की शांत और संयमित प्रतिक्रिया की सराहना की। उन्होंने कहा कि इस तरह की विचित्र घटनाएं भारतीय न्यायपालिका के लिए नई नहीं हैं।
एक पुराने मामले को याद करते हुए उन्होंने बताया कि नागपुर से ही आने वाले तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश हिदायतुल्लाह के साथ भी एक बार ऐसी ही घटना हुई थी, जब एक असंतुष्ट व्यक्ति ने उन पर जूता फेंका था। उस समय न्यायमूर्ति हिदायतुल्लाह ने बेहद सहजता का परिचय देते हुए कहा था: “वह आदमी अपना केस हार गया है, उसे अपना जूता भी नहीं खोना चाहिए।”
अदालत के भीतर इस घटना के बाद कोई खास रूकावट नहीं आई। सूत्रों के अनुसार, CJI गवई ने दिनभर की निर्धारित सुनवाई जारी रखी। उन्हें मिली यह सराहना सिर्फ उनके व्यक्तिगत संयम की नहीं, बल्कि न्यायपालिका की संस्थागत मजबूती की प्रतीक बन गई, वह भी ऐसे समय में जब उकसावे की आशंका थी।
अब क्या होगा—अवमानना की कार्यवाही? क्या अदालत कोई कार्रवाई करेगी?
SCAORA जैसी कानूनी संस्थाओं और वरिष्ठ अधिवक्ताओं ने सर्वोच्च न्यायालय से स्वतः संज्ञान लेकर अवमानना का नोटिस लेने का आग्रह किया है और इस बात पर जोर दिया है कि न्याय के सर्वोच्च पद पर हमला करने या उसे बदनाम करने की किसी भी कोशिश को यूं ही नहीं रोका जा सकता।
हालांकि मुख्य न्यायाधीश ने उल्लेखनीय संयम दिखाया लेकिन न्यायपालिका अब एक महत्वपूर्ण मोड़ पर है कि क्या संयम बरतें या अपनी संस्थागत सत्ता को बनाए रखने के लिए दृढ़ता से जवाब दें।
अवमानना की कार्यवाही से परे, न्यायालय को कुछ दंड लगाने और अदालती कदाचार के खिलाफ एक स्पष्ट मिसाल कायम करने पर विचार करना चाहिए-खासकर जब यह वैचारिक औचित्य में घिरा हो। ऐसे कदम जनता के विश्वास के लिए जरूरी होंगे, न्यायिक गरिमा की रक्षा करेंगे और यह कड़ा संदेश देंगे कि अदालत की पवित्रता को नुकसान नहीं पहुंचाया जा सकता है। पूरे सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस घटना की एकजुट और स्पष्ट निंदा, समय की सबसे बड़ी जरूरत है।
अब देश देख रहा है कि क्या सर्वोच्च न्यायालय इस क्षण को यूं ही गुजर जाने देगा या इसे समझाने के लिए उठ खड़ा होगा?
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