दिल्ली दंगों से जुड़े मामले में तीन आरोपियों को बरी कर दिया गया। अदालत ने गवाहों की विश्वसनीयता और पुलिस जांच पर सवाल उठाए।

फोटो साभार : द हिंदू
दिल्ली की एक अदालत ने फरवरी 2020 में उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हुए दंगों से जुड़े आगजनी और आपराधिक साजिश के मामले में तीन आरोपियों को बरी कर दिया है। अदालत ने गवाहों की विश्वसनीयता पर संदेह और पुलिस जांच में खामियों का हवाला देते हुए यह फैसला सुनाया।
अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश परवीन सिंह दयानंदपुर थाने में दर्ज एक मामले की सुनवाई कर रहे थे, जिसमें अकील अहमद उर्फ पापड़, रहीस खान और इर्शाद पर आरोप था कि वे 25 फरवरी 2020 को उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हुई हिंसा के दौरान एक भीड़ का हिस्सा थे, जिसने वाहनों में आग लगाई और संपत्ति को नुकसान पहुंचाया।
14 अगस्त को दिए गए 40 पृष्ठों के आदेश में अदालत ने कहा, "गवाहों की विश्वसनीयता को लेकर गंभीर संदेह, केस डायरी में संभावित हेरफेर और जांच की लापरवाही को देखते हुए, मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि अभियोजन पक्ष अपनी बात ‘सभी संभावित संदेहों से परे’ साबित करने में विफल रहा है।"
अदालत ने पुलिस गवाही में विरोधाभासों की ओर इशारा करते हुए कहा कि, हालांकि गवाह एक ही थाने में तैनात थे और उनका दावा था कि वे आरोपियों के नाम जानते थे फिर भी उन्होंने जांच अधिकारी को इस संबंध में कोई जानकारी नहीं दी। अदालत के अनुसार, यह गंभीर लापरवाही मामले की जांच की विश्वसनीयता को कमजोर करती है।
अदालत ने यह सवाल भी उठाया कि जिस घटना (हीरो होंडा शोरूम में आगजनी) के आधार पर एफआईआर दर्ज की गई थी, उसकी जांच ही सही ढंग से क्यों नहीं की गई। आदेश में यह भी कहा गया कि घटनाओं के समय को लेकर गंभीर संदेह और गिरफ्तारी की प्रक्रिया की अस्पष्टता ने मामले को और कमजोर कर दिया।
यह बरी किया जाना उन कई मामलों की श्रृंखला में एक और उदाहरण है, जहां अदालतों ने 2020 दिल्ली दंगों की लापरवाह और कमजोर पुलिस जांच पर सवाल उठाए हैं। इन दंगों में 50 से ज्यादा लोगों की जान गई थी और सैकड़ों घायल हुए थे।
हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार, सुनवाई के दौरान अभियोजन पक्ष ने अपना मामला साबित करने के लिए 21 गवाहों की गवाही करवाई।
अदालत ने सबसे पहले जांच अधिकारी (IO) के बयान में हेरफेर की आशंका की ओर संकेत किया।
अदालत ने कहा कि IO का बयान 1 मार्च 2020 को दर्ज किया गया था, लेकिन उस बयान के नीचे तारीख का कोई उल्लेख नहीं था। इसके अलावा, IO का बयान मामले की डायरी की उस किताब में दर्ज किया गया था जो अन्य पुलिस गवाहों की पुस्तिका से अलग थी, जिससे बयान की प्रामाणिकता पर संदेह और गहरा हो गया।
अदालत ने यह भी टिप्पणी की कि अभियोजन पक्ष के किसी भी गवाह -जो ज्यादातर दयालपुर थाने में तैनात पुलिस अधिकारी थे -तीनों घटनाओं के सटीक समय की पुष्टि नहीं कर सके, जिससे गिरफ्तारी की सत्यता पर और अधिक संदेह पैदा हुआ। अदालत ने कहा, "घटनाओं के समय में यह विरोधाभास एक बार फिर इस बात पर सवाल खड़ा करता है कि क्या ये गवाह वास्तव में मौके पर मौजूद थे और क्या उन्होंने आरोपियों की सही पहचान की थी।"
अदालत ने कहा कि यह हैरान करने वाली बात है कि दयालपुर थाने के किसी भी अधिकारी ने तीनों आरोपियों को तलाशने का कोई प्रयास नहीं किया और इस मामले में गिरफ्तारी तब जाकर की गई जब वे एक अन्य मामले में पहले से गिरफ्तार हो चुके थे। अदालत ने टिप्पणी की, "यह गंभीर संदेह पैदा करता है कि इन आरोपियों को वास्तव में कैसे और कब पहचानकर इस मामले में गिरफ्तार किया गया।"
फैसले में यह भी जिक्र किया गया कि चार्जशीट में तीन में से एक प्रमुख घटना की जांच ही नहीं की गई, जबकि वही घटना एफआईआर का आधार बनी थी। अदालत ने कहा, "चार्जशीट और जांच अधिकारियों -दोनों ने ही हीरो होंडा शोरूम में हुई आगजनी की घटना पर पूरी तरह चुप्पी साध रखी है। जिस घटना से यह एफआईआर शुरू हुई, और जिसमें बाद में अन्य घटनाएं जोड़ी गईं, उसकी जांच क्यों नहीं की गई -इस बात की कहीं कोई स्पष्टता नहीं है।"
पिछले पांच वर्षों में, अदालतों ने इस घटना से जुड़ी कई एफआईआर में पुलिस जांच की आलोचना की है और मामलों के सपोर्ट में पर्याप्त सबूतों की कमी पर सवाल उठाए हैं।
ज्ञात हो कि उमर खालिद, शरजील इमाम, सैफी और कई अन्य के खिलाफ भी फरवरी 2020 के दंगों के कथित “मास्टरमाइंड” होने के आरोप में, अवैध गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (UAPA) और भारतीय दंड संहिता (IPC) के तहत मामला दर्ज किया गया है।
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फोटो साभार : द हिंदू
दिल्ली की एक अदालत ने फरवरी 2020 में उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हुए दंगों से जुड़े आगजनी और आपराधिक साजिश के मामले में तीन आरोपियों को बरी कर दिया है। अदालत ने गवाहों की विश्वसनीयता पर संदेह और पुलिस जांच में खामियों का हवाला देते हुए यह फैसला सुनाया।
अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश परवीन सिंह दयानंदपुर थाने में दर्ज एक मामले की सुनवाई कर रहे थे, जिसमें अकील अहमद उर्फ पापड़, रहीस खान और इर्शाद पर आरोप था कि वे 25 फरवरी 2020 को उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हुई हिंसा के दौरान एक भीड़ का हिस्सा थे, जिसने वाहनों में आग लगाई और संपत्ति को नुकसान पहुंचाया।
14 अगस्त को दिए गए 40 पृष्ठों के आदेश में अदालत ने कहा, "गवाहों की विश्वसनीयता को लेकर गंभीर संदेह, केस डायरी में संभावित हेरफेर और जांच की लापरवाही को देखते हुए, मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि अभियोजन पक्ष अपनी बात ‘सभी संभावित संदेहों से परे’ साबित करने में विफल रहा है।"
अदालत ने पुलिस गवाही में विरोधाभासों की ओर इशारा करते हुए कहा कि, हालांकि गवाह एक ही थाने में तैनात थे और उनका दावा था कि वे आरोपियों के नाम जानते थे फिर भी उन्होंने जांच अधिकारी को इस संबंध में कोई जानकारी नहीं दी। अदालत के अनुसार, यह गंभीर लापरवाही मामले की जांच की विश्वसनीयता को कमजोर करती है।
अदालत ने यह सवाल भी उठाया कि जिस घटना (हीरो होंडा शोरूम में आगजनी) के आधार पर एफआईआर दर्ज की गई थी, उसकी जांच ही सही ढंग से क्यों नहीं की गई। आदेश में यह भी कहा गया कि घटनाओं के समय को लेकर गंभीर संदेह और गिरफ्तारी की प्रक्रिया की अस्पष्टता ने मामले को और कमजोर कर दिया।
यह बरी किया जाना उन कई मामलों की श्रृंखला में एक और उदाहरण है, जहां अदालतों ने 2020 दिल्ली दंगों की लापरवाह और कमजोर पुलिस जांच पर सवाल उठाए हैं। इन दंगों में 50 से ज्यादा लोगों की जान गई थी और सैकड़ों घायल हुए थे।
हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार, सुनवाई के दौरान अभियोजन पक्ष ने अपना मामला साबित करने के लिए 21 गवाहों की गवाही करवाई।
अदालत ने सबसे पहले जांच अधिकारी (IO) के बयान में हेरफेर की आशंका की ओर संकेत किया।
अदालत ने कहा कि IO का बयान 1 मार्च 2020 को दर्ज किया गया था, लेकिन उस बयान के नीचे तारीख का कोई उल्लेख नहीं था। इसके अलावा, IO का बयान मामले की डायरी की उस किताब में दर्ज किया गया था जो अन्य पुलिस गवाहों की पुस्तिका से अलग थी, जिससे बयान की प्रामाणिकता पर संदेह और गहरा हो गया।
अदालत ने यह भी टिप्पणी की कि अभियोजन पक्ष के किसी भी गवाह -जो ज्यादातर दयालपुर थाने में तैनात पुलिस अधिकारी थे -तीनों घटनाओं के सटीक समय की पुष्टि नहीं कर सके, जिससे गिरफ्तारी की सत्यता पर और अधिक संदेह पैदा हुआ। अदालत ने कहा, "घटनाओं के समय में यह विरोधाभास एक बार फिर इस बात पर सवाल खड़ा करता है कि क्या ये गवाह वास्तव में मौके पर मौजूद थे और क्या उन्होंने आरोपियों की सही पहचान की थी।"
अदालत ने कहा कि यह हैरान करने वाली बात है कि दयालपुर थाने के किसी भी अधिकारी ने तीनों आरोपियों को तलाशने का कोई प्रयास नहीं किया और इस मामले में गिरफ्तारी तब जाकर की गई जब वे एक अन्य मामले में पहले से गिरफ्तार हो चुके थे। अदालत ने टिप्पणी की, "यह गंभीर संदेह पैदा करता है कि इन आरोपियों को वास्तव में कैसे और कब पहचानकर इस मामले में गिरफ्तार किया गया।"
फैसले में यह भी जिक्र किया गया कि चार्जशीट में तीन में से एक प्रमुख घटना की जांच ही नहीं की गई, जबकि वही घटना एफआईआर का आधार बनी थी। अदालत ने कहा, "चार्जशीट और जांच अधिकारियों -दोनों ने ही हीरो होंडा शोरूम में हुई आगजनी की घटना पर पूरी तरह चुप्पी साध रखी है। जिस घटना से यह एफआईआर शुरू हुई, और जिसमें बाद में अन्य घटनाएं जोड़ी गईं, उसकी जांच क्यों नहीं की गई -इस बात की कहीं कोई स्पष्टता नहीं है।"
पिछले पांच वर्षों में, अदालतों ने इस घटना से जुड़ी कई एफआईआर में पुलिस जांच की आलोचना की है और मामलों के सपोर्ट में पर्याप्त सबूतों की कमी पर सवाल उठाए हैं।
ज्ञात हो कि उमर खालिद, शरजील इमाम, सैफी और कई अन्य के खिलाफ भी फरवरी 2020 के दंगों के कथित “मास्टरमाइंड” होने के आरोप में, अवैध गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (UAPA) और भारतीय दंड संहिता (IPC) के तहत मामला दर्ज किया गया है।
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