"यूपी, महाराष्ट्र सहित देश के अलग अलग हिस्सों में बारिश और ओलावृष्टि एक बार फिर किसानों पर आपदा बनकर टूटी है। आंकड़ों के मुताबिक बेमौसम बारिश, ओलावृष्टि और आंधी तूफान यानी प्राकृतिक आपदा, दुनिया भर के किसानों को सालाना 10.2 लाख करोड़ रुपए की चपत लगा रही है। वहीं दूसरी ओर, देश में किसानों पर कर्ज का बोझ भी बढ़ता जा रहा है। भारत के किसानों पर खेती कार्यों के लिए बैंकों का करीब 21 लाख करोड़ रुपए का कर्ज बकाया है। केंद्र शासित प्रदेशों में दादर एवं नगर हवेली के प्रति खाताधारक सर्वाधिक चार लाख रुपये से अधिक का बकाया हैं। इसके बाद दिल्ली के खाताधारकों पर 3.40 लाख रुपये कर्ज है जबकि, चंडीगढ़ में 2.97 लाख व दमन-दीव में प्रति खाताधारक 2.75 लाख रुपये का कर्ज है।"
यही कारण है कि धीरे-धीरे किसानों का खेती-किसानी से लगाव घट रहा है। पिछले दो दशक के दौरान कृषि क्षेत्र से जुड़े श्रम बल में गिरावट देखी आई है। जी हां, खेती-किसानी करना आसान नहीं रह गया है और ऐसे में जब साल दर साल आपदाओं का जोखिम बढ़ रहा है तो खेती करना और भी महंगा सौदा बनता जा रहा है। ऐसे में किसान करें भी तो क्या करें?। डाउन टू अर्थ की एक रिपोर्ट के अनुसार, खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक इन आपदाएं के चलते दुनिया भर के किसानों पर हर साल 10.2 लाख करोड़ रुपए (12,300 करोड़ डॉलर) से ज्यादा की मार पड़ रही है जो वैश्विक स्तर पर कृषि क्षेत्र के वार्षिक सकल घरेलू उत्पाद के करीब पांच फीसदी हिस्से के बराबर है। इतना ही नहीं यदि 1991 से 2021 के पिछले तीन दशकों के आंकड़ों को देखें तो इस दौरान किसानों को बाढ़, सूखा, तूफान, ओला, जैसी आपदाओं के चलते फसल उत्पादन और पशुधन के रूप में किसानों को करीब 316.6 लाख करोड़ रुपए (3.8 लाख करोड़ डॉलर) का नुकसान झेलना पड़ा है। भारत सहित एशिया के किसानों के लिए नुकसान का यह आंकड़ा 143.3 लाख करोड़ रुपए का है।
खैर, भारत के किसानों की ही बात करें तो लोकसभा में एक प्रश्न के जवाब में पेश किए गए राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) के आंकड़े बताते हैं कि देश भर के करीब 15.5 करोड़ किसानों पर 21 लाख करोड़ का कर्ज है। यानी प्रति किसान खाताधारक पर औसतन 1.35 लाख रुपए का बकाया है। कर्जदार खाताधारकों की संख्या तमिलनाडु में सर्वाधिक 2.79 करोड़ है। इन खाताधारकों पर करीब 3 लाख 47 हजार करोड़ रुपए बकाया हैं। इसके अतिरिक्त कर्नाटक के 1 करोड़ 35 लाख खाताधारकों पर करीब 1 लाख 81 हजार करोड़ रुपए की देनदारी शेष है।
राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, तेलंगाना, केरल और आंध्र प्रदेश के किसानों पर 1 लाख करोड़ रुपए से अधिक कर्ज बकाया है। अगर प्रति खाताधारक औसत कर्ज देखें तो पंजाब पहले स्थान पर है। इस राज्य के प्रति कर्जदार खाताधारक पर औसतन 2 लाख 95 हजार रुपए बकाया हैं। दूसरे स्थान पर गुजरात है जहां हर कर्जदार खाताधारक पर करीब 2 लाख 29 हजार रुपए बकाया हैं। हरियाणा और गोवा के प्रति खाताधारक किसान पर भी 2 लाख रुपए से अधिक का कर्ज है।
अगर केंद्र शासित प्रदेशों की बात करें तो दादरा एवं नगर हवेली के प्रति खाताधारक पर सर्वाधिक 4 लाख रुपए से अधिक बकाया हैं। इसके बाद दिल्ली के खाताधारकों पर कर्ज 3 लाख 40 हजार रुपए का औसत कर्ज है। चंडीगढ़ में यह देनदारी 2 लाख 97 हजार रुपए प्रति खाताधारक व दमन-दीव में यह 2 लाख 75 हजार रुपए है। ये आंकड़े सांसद हनुमान बेनीवाल द्वारा लोकसभा में पूछे गए अतारांकित प्रश्न संख्या 2917 के उत्तर में नाबार्ड के हवाले से दिए गए हैं।
कुल कर्ज में भी पंजाब सबसे आगे
कुल कर्ज के लिहाज से देखा जाए तो पंजाब देश का सबसे बड़ा कर्जदार राज्य है। पंजाब ने अपनी जीडीपी का 53.3 फीसदी तक कर्ज ले रखा है। रिजर्व बैंक के मुताबिक, किसी भी राज्य का कर्ज उसकी जीडीपी के 30% से ज्यादा नहीं होना चाहिए। राज्य की आय का एक बड़ा हिस्सा कर्ज चुकाने में खर्च हो रहा है। राज्य के बजट के अनुसार, जीएसडीपी के लिए प्रभावी बकाया ऋण 2023-24 में 46.81 फीसदी होने का अनुमान लगाया गया है। एक अधिकारी ने बताया कि लोकप्रिय घोषणाओं से कर्ज बढ़ता रहा है। यह बढ़कर 2.52 लाख करोड़ से अधिक हो गया है। पंजाब और हरियाणा अपनी कमाई का 21 फीसदी हिस्सा ब्याज में चुका रहे हैं, जो देश में सर्वाधिक है।
खास यह भी है कि भारत में बड़ी संख्या में किसान संस्थागत बैंकों से कर्ज नहीं ले पाते। उन्हें साहूकारों या सूदखोरों से मोटी ब्याज दर पर कर्ज लेना पड़ता है। इस कर्ज का कोई आधिकारिक रिकॉर्ड नहीं है। हालांकि, अच्छी खबर है कि राज्यों के ऋण में गिरावट का अनुमान है। भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने स्टेट फाइनेंसेज : ए स्टडी ऑफ बजट्स ऑफ 2022-23 शीर्षक से प्रकाशित एक अध्ययन में सभी राज्यों के सम्मिलित जीडीपी के अनुपात में राज्यों के ऋण में गिरावट का अनुमान जताया है। रिपोर्ट के मुताबिक, राज्यों पर कर्ज का कुल दबाव 2021-22 के जीडीपी के 31.1 फीसदी से घटकर 2022-23 में जीडीपी का 29.5 फीसदी रह गया है।
भारत सहित एशिया के किसानों को 143.3 लाख करोड़ का नुकसान प्राकृतिक आपदाओं से
प्राकृतिक आपदाओं की मार की बात करें तो साल दर साल आपदाओं का जोखिम बढ़ रहा है तो खेती करना महंगा सौदा बनता जा रहा है। खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक, आपदाओं के चलते दुनिया भर के किसानों पर हर साल 10.2 लाख करोड़ रुपए (12,300 करोड़ डॉलर) से ज्यादा की मार पड़ रही है। जो वैश्विक स्तर पर कृषि क्षेत्र के वार्षिक सकल घरेलू उत्पाद के करीब पांच फीसदी हिस्से के बराबर है। इतना ही नहीं यदि 1991 से 2021 के पिछले तीन दशकों के आंकड़ों को देखें तो इस दौरान किसानों को बाढ़, सूखा, तूफान, ओला, जैसी आपदाओं के चलते फसल उत्पादन और पशुधन के रूप में करीब 316.6 लाख करोड़ रुपए (3.8 लाख करोड़ डॉलर) का नुकसान झेलना पड़ा है।
एफएओ के मुताबिक इन आपदाओं का सबसे ज्यादा खामियाजा भारत सहित पूरे एशिया के किसानों को भुगतना पड़ा है, जिन्हें इन तीन दशकों के दौरान करीब 143.3 लाख करोड़ रुपए (1.72 लाख करोड़ डॉलर) का नुकसान हुआ है। इसके बाद अमेरिका, यूरोप और अफ्रीका के किसानों का नुकसान है। इसके विपरीत अफ्रीका, अमेरिका और यूरोप अपने कृषि क्षेत्र के संबंध में आनुपातिक रूप से कहीं अधिक प्रभावित हुए हैं। यदि कृषि क्षेत्र के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के लिहाज से देखें तो इन आपदाओं से अफ्रीका में किसानों पर सबसे ज्यादा गाज पड़ी है। जहां इन आपदाओं की वजह से जीडीपी के करीब 7.7 फीसदी हिस्से के बराबर नुकसान का सामना किसानों को करना पड़ा है। वहीं एशिया में यह आंकड़ा 3.6 फीसदी है।
तेजी से बढ़ी कीटनाशकों की खपत, आधे के लिए अमेरिका जिम्मेवार
खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) ने अपनी इस नई स्टैटिस्टिकल ईयरबुक: वर्ल्ड फूड एंड एग्रीकल्चर 2023 में और भी कई चौंकाने वाले खुलासे किए हैं। अपनी इस रिपोर्ट में एफएओ ने वैश्विक कृषि खाद्य प्रणालियों से जुड़े नवीनतम रुझानों को साझा किया है। इसके साथ ही कृषि क्षेत्र पर पड़ते आपदाओं के प्रभाव के साथ-साथ आम आदमी के लिए स्वस्थ आहार और पोषण की कीमतों और पहुंच पर भी पहली बार प्रकाश डाला है।
रिपोर्ट के मुताबिक धीरे-धीरे किसानों और कृषि श्रमिकों का खेती-किसानी से लगाव घट रहा है। यही वजह है कि पिछले 21 वर्षों में कृषि क्षेत्र से जुड़े लोगों में गिरावट देखी गई है। आंकड़ों की मानें तो जहां साल 2000 में करीब 102.7 करोड़ लोग यानी वैश्विक श्रमबल का करीब 40 फीसदी हिस्सा कृषि से जुड़ा था। जो 2021 में घटकर केवल 27 फीसदी रह गया। मतलब की अब केवल 87.3 करोड़ लोग अपनी जीविका के लिए कृषि पर निर्भर हैं। यदि 2000 से 2021 के बीच कीटनाशकों के उपयोग को देखें तो वो तेजी से बढ़ रहा है। इन 21 वर्षों में कीटनाशकों के वैश्विक उपयोग में करीब 62 फीसदी का इजाफा हुआ है। हालांकि 2021 में दुनिया भर के आधे कीटनाशकों की खपत केवल अमेरिका में हुई थी।
बढ़ती कीमतों के चलते आम आदमी से दूर होता पौष्टिक आहार
इस दौरान प्रमुख फसलों के उत्पादन में भी 54 फीसद की वृद्धि दर्ज की गई है जो 2021 में बढ़कर 950 करोड़ टन तक पहुंच गया है। इस उत्पादन में चार प्रमुख फसलों गेहूं, चावल, मक्का और गन्ना की करीब आधी हिस्सेदारी थी। देखा जाए तो 2030 के लिए जारी सतत विकास के लक्ष्यों को हासिल करने में कृषि और खाद्य प्रणालियों की बेहद अहम भूमिका हैं। लेकिन आपदा, महामारी, संघर्ष, जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता में आती गिरावट जैसे वैश्विक संकटों ने इसकी राह में अनगिनत चुनौतियां पैदा कर दी हैं। यही वजह है कि तमाम प्रयासों के बावजूद भी 2022 में करीब 73.5 करोड़ लोग खाने की कमी से जूझ रहे थे। अनुमान है कि यदि ऐसा ही चलता रहा तो 2030 तक करीब 60 करोड़ लोग दाने-दाने को मोहताज होंगें।
इसी तरह यदि 2021 के आंकड़ों को देखें तो दुनिया भर में पौष्टिक आहार की लागत हर दिन करीब 305 रुपए प्रति व्यक्ति थी, जो 2020 की तुलना में 4.3 फीसदी की वृद्धि को दर्शाती है। उत्तरी अमेरिका को छोड़ दें तो सभी क्षेत्रों में स्वस्थ आहार की लागत पांच प्रतिशत से अधिक बढ़ गई है। यह बढ़ती कीमतों का ही असर है कि 2021 में करीब 310 करोड़ से ज्यादा लोगों को पौष्टिक आहार नहीं मिल पाया था। मतलब की 42 फीसदी आबादी अभी भी स्वस्थ आहार के लिए जूझ रही है।
कृषि न केवल जलवायु में आते बदलावों की मार झेल रही है साथ ही वो बढ़ते उत्सर्जन में भी योगदान दे रही है। डाउन टू अर्थ की रिपोर्ट के मुताबिक 2000 से 2021 के बीच कृषि खाद्य प्रणालियों के कारण होते ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में दस फीसदी का इजाफा हुआ है। गौरतलब है कि एफएओ ने अपनी एक अन्य रिपोर्ट “स्टेट ऑफ फूड एंड एग्रीकल्चर रिपोर्ट 2023” में खाद्य उत्पादों की स्वास्थ्य और पर्यावरण संबंधी वास्तविक लागतों का खुलासा किया है। इस रिपोर्ट के मुताबिक वैश्विक स्तर पर खाद्य प्रणालियों की छुपी लागत करीब 1,057.7 लाख करोड़ रुपए है। इसमें भारत की हिस्सेदारी करीब 8.8 फीसदी की है।
भारत में कृषि खाद्य प्रणालियों की छुपी लागत को देखें तो वो 91.6 लाख करोड़ रुपए (1.1 लाख करोड़ डॉलर) से ज्यादा है। जो चीन और अमेरिका के बाद दुनिया में तीसरी सबसे अधिक है। गौरतलब है कि कृषि खाद्य प्रणालियों की इन छिपी लागतों में ग्रीनहाउस गैसों और नाइट्रोजन उत्सर्जन के साथ भूमि उपयोग में आता बदलाव और जल संसाधनों पर बढ़ता दबाव जैसे पर्यावरणीय खर्च शामिल हैं। साथ ही इसमें स्वस्थ आहार और पोषण की कमी के साथ-साथ पर्याप्त आहार ने मिल पाने के कारण उपजी स्वास्थ्य समस्याएं भी शामिल हैं, जो लोगों को बीमार बना सकती हैं। साथ ही इसमें गरीबी से जुड़ी सामाजिक लागत और पोषण की कमी से उत्पादकता को होने वाले नुकसान को भी शामिल किया गया है।
यही वजह है कि पर्यावरण पर बढ़ते दबाव को देखते हुए एफएओ ने भी खाद्य प्रणालियों में बड़े फेरबदल के संकेत दिए हैं। इस बार अंतराष्ट्रीय जलवायु सम्मेलन कॉप-28 ने खाद्य प्रणालियों पर ध्यान केंद्रित करने के लिए एक विशिष्ट दिन निर्धारित किया है। गौरतलब है किट 30 नवंबर से 12 दिसंबर 2023 तक चलने वाले इस सम्मलेन में जलवायु परिवर्तन के साथ-साथ उससे जुड़े कई मुद्दों पर चर्चा की जाएगी। बता दें कॉप-28 के दौरान 10 दिसंबर 2023 का दिन कृषि और खाद्य प्रणालियों को समर्पित किया गया है। इस दिन कृषि, आहार, और जल जैसे मुद्दों पर चर्चा की जाएगी। यूएई ने भी विश्व नेताओं से सशक्त खाद्य प्रणालियों, पर्यावरण अनुकूल कृषि और जलवायु परिवर्तन के खिलाफ कार्रवाई पर उनके कॉप-28 घोषणापत्र का समर्थन करने का आह्वान किया है।
खास है कि वैश्विक खाद्य प्रणालियां ग्रीनहाउस गैसों के बढ़ते उत्सर्जन में 34 फीसदी का योगदान देने के साथ-साथ दुनिया की करीब आधी आबादी की जीविका का साधन हैं। इस घोषणापत्र में खाद्य प्रणालियों और जलवायु परिवर्तन के बीच के संबंधों को स्वीकार किया गया है। साथ ही देशों से आग्रह किया है कि वे अपनी राष्ट्रीय खाद्य प्रणालियों और कृषि रणनीतियों को राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) में जताई अपनी प्रतिबद्धताओं के अनुरूप ढालने का प्रयास करें।
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