शुक्रवार को जंतर-मंतर पर दक्षिणी दिल्ली के अलग-अलग इलाकों से वे पीड़ित आए जिनके आशियाने सरकारों ने या तो छीन लिए या छीनने की तैयारी है। इसमें बड़ी संख्या में महिला प्रदर्शनकारी थीं।
"मोदी जी हमारे घरों से पहले हमारे सीने पर बुलडोज़र चला दें।" ये बात बेहद हताश, निराश और गुस्से के गुबार को अपने भीतर समेटे हुए 30 वर्षीय रोमा सिंह ने कही। रोमा सिंह के साथ सैकड़ों अन्य लोगों ने जंतर-मंतर पर अपने आशियाने छिन जाने के भय के बीच सरकार से मानवतापूर्ण व्यवहार करने की गुहार लगाई।
रोमा तुगलकाबाद से आई थीं जहां की हज़ारों आबादी पर बेघर होने का संकट आ गया है क्योंकि केंद्र सरकार के अधीन आने वाले पुरातत्व विभाग ने उन्हें 15 दिनों के भीतर घर छोड़ने का फरमान दे दिया है।
रोमा सिंह ने रोते हुए कहा, "एक हादसे में मेरे पति की मौत हो गई है और मैं अकेली किसी तरह से लोगों के घर मे काम करके अपने दो बच्चों को पाल रही हूँ । ऐसे में घर छिन जाने से हम सड़क पार आ जाएंगे क्योंकि हमारे पास कुछ नहीं है, जो कुछ भी था उससे हमनें ज़मीन खरीदी और कर्ज़ लेकर मकान बनाया और अब सरकार हमसे कह रही है कि सब छोड़कर चले जाओ...आप ही बताइए हम कहां जाएं? इससे तो अच्छा होगा मोदी जी जो बुलडोज़र हमारे घरों के लिए भेजेंगे पहले उसे हमारे सीने पर चला कर हमें मिटा दें और फिर घरों को तोड़ें क्योंकि घर छिन जाने के बाद तो वैसे भी हम इस ठंड मे सड़क पर दो मासूमों को लेकर मरने जैसी हालत में ही होंगे। इससे अच्छा सरकार हमे तड़पा कर न मारे, सीधे ही मार दे।"
ये सिर्फ एक रोमा की बात नहीं बल्कि यहां मौजूद सभी लोग इसी दर्द के साथ धरने पर बैठे थे। शुक्रवार को जंतर-मंतर पर दक्षिणी दिल्ली के अलग-अलग इलाकों से वे पीड़ित आए थे जिनके आशियाने सरकारों ने या तो छीन लिए या छीनने की तैयारी है। इन सभी ने एक सांकेतिक धरना दिया और इसमें तुगलकाबाद, महरौली और खड़क गाँव से लोग शामिल हुए। इसमें बड़ी संख्या में महिला प्रदर्शनकारी थीं।
लोगों ने बताया कि एएसआई (ASI) द्वारा कालोनी की दीवारों पर चिपकाए गए नोटिस में लिखा है कि 1993 के बाद कोई नया निर्माण नहीं होगा और ऐसे सभी निर्माण हटा दिए जाने चाहिए। यदि कब्ज़ाधारी अपने मकान स्वयं खाली नहीं करते हैं तो सर्वेक्षण कार्यालय ऐसे निर्माणों को गिराएगा और इसकी लागत की वसूली भी करेगा।
इस इलाके के सभी लोग इस नोटिस से आतंकित हैं। रोमा के बिल्कुल बगल मे बैठीं राधा महतो जो पश्चिम बंगाल से 30 साल पहले बेहतर जीवन के लिए दिल्ली आई थीं, तब से उनके पति और उन्होंने दिल्ली के अमीरों के घर में दो दशक काम करने के बाद करीब दस बरस पहले ज़मीन खरीदकर अपना घर बनाया है। लेकिन सरकारी नोटिस के बाद से वो बेसुध हालत में हैं और थोड़ा बोलते ही फफक कर रोने लगती हैं।
राधा कहती हैं कि दो-तीन साल से उनके पति बीमार हैं और घर में ही बैठे हैं। अभी पूरे घर का खर्च केवल उनकी कमाई से चलता है और वो दो से तीन हज़ार रुपये में लोगों के घरों में काम करती हैं जिससे उनके बच्चे स्कूल में पढ़ते हैं और भोजन का इंतज़ाम हो पाता है। इसके अलावा उनके पास कुछ भी नहीं है...इतना कहते ही वो फिर रोना शुरू कर देती हैं और कहती हैं, "दस साल पहले जब हमनें ज़मीन खरीदी तब ये सोचा चलो अब दिल्ली मे स्थाई मकान हो जाएगा तो हमारे और बच्चों के लिए अच्छा रहेगा। इसलिए मैंने अपने शादी मे मिले गहने और गाँव की पुश्तैनी ज़मीन भी बेच दी जिसके बाद हमनें इस घर को बनाया था। सरकार अब इसे भी तोड़ देगी, इसके बाद हम क्या करेंगे, हमारे पास तो अब कुछ भी नहीं है। मैं तो गाँव भी नहीं जा सकती क्योंकि हमने सब कुछ यहीं लगा दिया है।"
इसी तरह प्रदर्शन मे शामिल 40 वर्षीय स्मृति कहती हैं, "मेरा एक बच्चा पांच साल का है और एक तीन साल का है। इन्हें लेकर इस शरीर गलाने वाली ठंड में अब मैं कहां जाऊँ? ये ज़मीन हमने कब्ज़ा नहीं की बल्कि मोलभाव करके लाखों रुपये में खरीदी और प्रशासन के सामने इनपर लाखों रुपये खर्च कर मकान बनाया तब किसी ने नहीं रोका और आज कह रहे हैं कि यहां से भाग जाओ लेकिन हम जाएं कहां इसका जवाब कोई नहीं दे रहा है!"
इस प्रदर्शन की अगुवाई कर रहे आकाश जो मज़दूर संगठन ऐक्टू के नेता भी हैं उन्होंने कहा, "इन बस्तियों मे अधिकतर लोअर मिडिल क्लास और वर्किंग क्लास के लोग हैं। इन्होंने अपनी सारी जमा-पूंजी मकानों मे लगा रखी है और बिना पुनर्वास के घरों को तोड़ना पूरी तरह से अमानवीय है लेकिन हमनें देखा ही है कैसे बीजेपी राज मे ये सब हो रहा है। पहले भी कई झुग्गियों को बिना किसी नोटिस के तोड़ दिया गया है।"
माणिक दास जो धरने में शामिल थे और अपने आवासीय अधिकार के नारे को बुलंद कर रहे थे उन्होंने कहा, "आज सरकार कहती है कि ये सब अवैध है लेकिन हमारे यहां RWA (रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन) है जो सरकार द्वरा रजिस्टर्ड है। यही नही वहां पुलिस चौकी और सरकारी सड़क से लेकर सभी सुविधाएं दी गई हैं। आज इतने सालों बाद अचानक सरकारों को सपना आया कि ये सब अवैध है।"
आवास अधिकार मंच से जुड़ी व दिल्ली की मज़दूर नेता स्वेता राज ने कहा, "पूरी दिल्ली मे लोगों को बेघर किया जा रहा है पहले सिर्फ झुग्गी टूट रही थीं लेकिन अब लोगों के मकानों को भी तोड़ा जा रहा है। हम कोशिश कर रहे हैं जहां-जहां भी तोड़-फोड़ या जबरन बेदखली हो रही है उन सभी को एक मंच पर लाकर एक साझे आंदोलन की तैयारी करें और आज इसकी शुरुआत है जिसके तहत दक्षिणी दिल्ली के उन सभी जगहों के लोग एक साथ हैं जिनके आशियाने सरकार जबरन छीन रही है। आज सरकार कह रही है कि ये सभी घर अवैध हैं लेकिन अभी कुछ महीने पहले इन्हीं से नगर निगम चुनाव मे वोट लिया और तमाम बड़े-बड़े वादे भी किए। जब इन्ही घरों में रहने वाले मतदाताओं से बनी सरकार वैध है तो इनके घर अवैध कैसे हैं?"
देशभर में इस तरह की सरकारी बेदखली के खिलाफ संघर्ष करने वाली मज़दूर आवास संघर्ष समिति के संयोजक निर्मल गोराना ने फोन पर बात करते हुए न्यूज़क्लिक को बताया कि, "तुगलकाबाद का ये प्रकरण, खोरी गाँव विध्वंस की पुनरावृत्ति है जहां एक लाख लोगों को बेदखल करने के बाद उनके घरों को ध्वस्त कर दिया गया था। फिर भी, दशकों तक अवैध भूमि कब्ज़ा करने वालों और गरीब श्रमिकों को अवैध रूप से ज़मीन बेचने वाले लोगों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई।"
उन्होंने कहा, “एएसआई जैसे अधिकारी ज़मीन कब्ज़े के बारे में अनजान थे। इतने संसाधनों वाला सरकारी विभाग इस ज़मीन कब्ज़े को क्यों नहीं रोक सका? क्या उन्होंने सरकारी ज़मीन पर कब्ज़ा करने वाले लोगों के खिलाफ एक भी पुलिस शिकायत दर्ज की? यानी एएसआई के भ्रष्ट अधिकारी इस साज़िश में शामिल थे। जब तक गारंटीकृत आवास का अधिकार नहीं होगा, खोरी और तुगलकाबाद जैसे विध्वंस होते रहेंगे। इस कड़ाके की ठंड में उन्हें बिना किसी पुनर्वास के प्रावधान के उखाड़ दिया जाएगा। रात के लिए सरकार दो रोटी का भी इंतज़ाम नहीं करेगी। आदर्श रूप से, दिल्ली सरकार को पुनर्वास की घोषणा करनी चाहिए, लेकिन उन्होंने चुप्पी साध रखी है।”
इन सबके बीच दिल्ली बाल अधिकार संरक्षण आयोग (DCPCR) ने बुधवार को तुगलकाबाद में झुग्गियों को ढहाने के मामले का संज्ञान लेते हुए सभी बच्चों का पुनर्वास सुनिश्चित होने तक इसे ध्वस्त करने के अभियान को स्थगित करने का आदेश दिया है। डीसीपीसीआर ने इस विषय में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग (ASI) को एक नोटिस जारी किया है, जिसमें बच्चों के पुनर्वास होने तक अभियान को रोकने की सलाह दी है। इस पूरे इलाके मे अधिकतर परिवारों के बच्चे नाबालिग हैं।
अपने नोटिस में डीसीपीसीआर ने कहा है कि दिल्ली के ऐसे भीषण मौसम में इन परिवारों से आश्रय छीन लेना क्रूरता से कम नहीं। साथ ही उन्होंने कहा है कि एएसआई के आदेश में कई खामियां हैं। इसमें बच्चों के पुनर्वास के लिए कोई भी प्रयास या प्रावधान की बात नहीं की गई है।
फिलहाल हो सकता है कि इन सब तात्कालिक प्रयासों से ये बेदखली रुक जाएं लेकिन बड़ा सवाल अभी भी मुँह बाएं खड़ा है कि सरकार के उस वादे का क्या हुआ जिसमें उन्होंने कई बार कहा है-जहां झुग्गी वहीं मकान। इसके साथ ही देश के प्रधानमंत्री ने 2014 में देश की जनता से वादा किया था कि आज़ादी के 75 साल पूरे होने पर यानी 2022 तक सबके पास अपना मकान होगा लेकिन इसके विपरीत जिनके पास अपना मकान है सरकार उन्हे भी बेघर कर रही है।
इन्हीं हालातों पर दुष्यंत की ये लाइन कि "कहाँ तो तय था चिरागाँ हरेक घर के लिए कहाँ चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए" सटीक बैठती हैं।
अगर हम सरकारी आकड़ों की ही बात करें तो आवास योजना में शहरी क्षेत्रों में स्थिति बेहद खराब है। आधिकारिक वेबसाइट के अनुसार, इस योजना का लगभग 51 प्रतिशत लक्ष्य ही हासिल किया गया है। 12 दिसंबर, 2022 को राज्यसभा में सरकार द्वारा दिए गए एक जवाब के अनुसार लगभग 1.25 करोड़ घरों के निर्माण के स्वीकृत लक्ष्य में से केवल 61.2 लाख घर ही वास्तव में पूरे किए गए हैं। यानी 59 लाख घरों का निर्माण होना अभी भी बाकी है। इस पर हमनें पहले भी अपनी रिपोर्ट मे बताया है कि देश मे आवास योजना का क्या हाल है।
Courtesy: Newsclick
"मोदी जी हमारे घरों से पहले हमारे सीने पर बुलडोज़र चला दें।" ये बात बेहद हताश, निराश और गुस्से के गुबार को अपने भीतर समेटे हुए 30 वर्षीय रोमा सिंह ने कही। रोमा सिंह के साथ सैकड़ों अन्य लोगों ने जंतर-मंतर पर अपने आशियाने छिन जाने के भय के बीच सरकार से मानवतापूर्ण व्यवहार करने की गुहार लगाई।
रोमा तुगलकाबाद से आई थीं जहां की हज़ारों आबादी पर बेघर होने का संकट आ गया है क्योंकि केंद्र सरकार के अधीन आने वाले पुरातत्व विभाग ने उन्हें 15 दिनों के भीतर घर छोड़ने का फरमान दे दिया है।
रोमा सिंह ने रोते हुए कहा, "एक हादसे में मेरे पति की मौत हो गई है और मैं अकेली किसी तरह से लोगों के घर मे काम करके अपने दो बच्चों को पाल रही हूँ । ऐसे में घर छिन जाने से हम सड़क पार आ जाएंगे क्योंकि हमारे पास कुछ नहीं है, जो कुछ भी था उससे हमनें ज़मीन खरीदी और कर्ज़ लेकर मकान बनाया और अब सरकार हमसे कह रही है कि सब छोड़कर चले जाओ...आप ही बताइए हम कहां जाएं? इससे तो अच्छा होगा मोदी जी जो बुलडोज़र हमारे घरों के लिए भेजेंगे पहले उसे हमारे सीने पर चला कर हमें मिटा दें और फिर घरों को तोड़ें क्योंकि घर छिन जाने के बाद तो वैसे भी हम इस ठंड मे सड़क पर दो मासूमों को लेकर मरने जैसी हालत में ही होंगे। इससे अच्छा सरकार हमे तड़पा कर न मारे, सीधे ही मार दे।"
ये सिर्फ एक रोमा की बात नहीं बल्कि यहां मौजूद सभी लोग इसी दर्द के साथ धरने पर बैठे थे। शुक्रवार को जंतर-मंतर पर दक्षिणी दिल्ली के अलग-अलग इलाकों से वे पीड़ित आए थे जिनके आशियाने सरकारों ने या तो छीन लिए या छीनने की तैयारी है। इन सभी ने एक सांकेतिक धरना दिया और इसमें तुगलकाबाद, महरौली और खड़क गाँव से लोग शामिल हुए। इसमें बड़ी संख्या में महिला प्रदर्शनकारी थीं।
लोगों ने बताया कि एएसआई (ASI) द्वारा कालोनी की दीवारों पर चिपकाए गए नोटिस में लिखा है कि 1993 के बाद कोई नया निर्माण नहीं होगा और ऐसे सभी निर्माण हटा दिए जाने चाहिए। यदि कब्ज़ाधारी अपने मकान स्वयं खाली नहीं करते हैं तो सर्वेक्षण कार्यालय ऐसे निर्माणों को गिराएगा और इसकी लागत की वसूली भी करेगा।
इस इलाके के सभी लोग इस नोटिस से आतंकित हैं। रोमा के बिल्कुल बगल मे बैठीं राधा महतो जो पश्चिम बंगाल से 30 साल पहले बेहतर जीवन के लिए दिल्ली आई थीं, तब से उनके पति और उन्होंने दिल्ली के अमीरों के घर में दो दशक काम करने के बाद करीब दस बरस पहले ज़मीन खरीदकर अपना घर बनाया है। लेकिन सरकारी नोटिस के बाद से वो बेसुध हालत में हैं और थोड़ा बोलते ही फफक कर रोने लगती हैं।
राधा कहती हैं कि दो-तीन साल से उनके पति बीमार हैं और घर में ही बैठे हैं। अभी पूरे घर का खर्च केवल उनकी कमाई से चलता है और वो दो से तीन हज़ार रुपये में लोगों के घरों में काम करती हैं जिससे उनके बच्चे स्कूल में पढ़ते हैं और भोजन का इंतज़ाम हो पाता है। इसके अलावा उनके पास कुछ भी नहीं है...इतना कहते ही वो फिर रोना शुरू कर देती हैं और कहती हैं, "दस साल पहले जब हमनें ज़मीन खरीदी तब ये सोचा चलो अब दिल्ली मे स्थाई मकान हो जाएगा तो हमारे और बच्चों के लिए अच्छा रहेगा। इसलिए मैंने अपने शादी मे मिले गहने और गाँव की पुश्तैनी ज़मीन भी बेच दी जिसके बाद हमनें इस घर को बनाया था। सरकार अब इसे भी तोड़ देगी, इसके बाद हम क्या करेंगे, हमारे पास तो अब कुछ भी नहीं है। मैं तो गाँव भी नहीं जा सकती क्योंकि हमने सब कुछ यहीं लगा दिया है।"
इसी तरह प्रदर्शन मे शामिल 40 वर्षीय स्मृति कहती हैं, "मेरा एक बच्चा पांच साल का है और एक तीन साल का है। इन्हें लेकर इस शरीर गलाने वाली ठंड में अब मैं कहां जाऊँ? ये ज़मीन हमने कब्ज़ा नहीं की बल्कि मोलभाव करके लाखों रुपये में खरीदी और प्रशासन के सामने इनपर लाखों रुपये खर्च कर मकान बनाया तब किसी ने नहीं रोका और आज कह रहे हैं कि यहां से भाग जाओ लेकिन हम जाएं कहां इसका जवाब कोई नहीं दे रहा है!"
इस प्रदर्शन की अगुवाई कर रहे आकाश जो मज़दूर संगठन ऐक्टू के नेता भी हैं उन्होंने कहा, "इन बस्तियों मे अधिकतर लोअर मिडिल क्लास और वर्किंग क्लास के लोग हैं। इन्होंने अपनी सारी जमा-पूंजी मकानों मे लगा रखी है और बिना पुनर्वास के घरों को तोड़ना पूरी तरह से अमानवीय है लेकिन हमनें देखा ही है कैसे बीजेपी राज मे ये सब हो रहा है। पहले भी कई झुग्गियों को बिना किसी नोटिस के तोड़ दिया गया है।"
माणिक दास जो धरने में शामिल थे और अपने आवासीय अधिकार के नारे को बुलंद कर रहे थे उन्होंने कहा, "आज सरकार कहती है कि ये सब अवैध है लेकिन हमारे यहां RWA (रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन) है जो सरकार द्वरा रजिस्टर्ड है। यही नही वहां पुलिस चौकी और सरकारी सड़क से लेकर सभी सुविधाएं दी गई हैं। आज इतने सालों बाद अचानक सरकारों को सपना आया कि ये सब अवैध है।"
आवास अधिकार मंच से जुड़ी व दिल्ली की मज़दूर नेता स्वेता राज ने कहा, "पूरी दिल्ली मे लोगों को बेघर किया जा रहा है पहले सिर्फ झुग्गी टूट रही थीं लेकिन अब लोगों के मकानों को भी तोड़ा जा रहा है। हम कोशिश कर रहे हैं जहां-जहां भी तोड़-फोड़ या जबरन बेदखली हो रही है उन सभी को एक मंच पर लाकर एक साझे आंदोलन की तैयारी करें और आज इसकी शुरुआत है जिसके तहत दक्षिणी दिल्ली के उन सभी जगहों के लोग एक साथ हैं जिनके आशियाने सरकार जबरन छीन रही है। आज सरकार कह रही है कि ये सभी घर अवैध हैं लेकिन अभी कुछ महीने पहले इन्हीं से नगर निगम चुनाव मे वोट लिया और तमाम बड़े-बड़े वादे भी किए। जब इन्ही घरों में रहने वाले मतदाताओं से बनी सरकार वैध है तो इनके घर अवैध कैसे हैं?"
देशभर में इस तरह की सरकारी बेदखली के खिलाफ संघर्ष करने वाली मज़दूर आवास संघर्ष समिति के संयोजक निर्मल गोराना ने फोन पर बात करते हुए न्यूज़क्लिक को बताया कि, "तुगलकाबाद का ये प्रकरण, खोरी गाँव विध्वंस की पुनरावृत्ति है जहां एक लाख लोगों को बेदखल करने के बाद उनके घरों को ध्वस्त कर दिया गया था। फिर भी, दशकों तक अवैध भूमि कब्ज़ा करने वालों और गरीब श्रमिकों को अवैध रूप से ज़मीन बेचने वाले लोगों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई।"
उन्होंने कहा, “एएसआई जैसे अधिकारी ज़मीन कब्ज़े के बारे में अनजान थे। इतने संसाधनों वाला सरकारी विभाग इस ज़मीन कब्ज़े को क्यों नहीं रोक सका? क्या उन्होंने सरकारी ज़मीन पर कब्ज़ा करने वाले लोगों के खिलाफ एक भी पुलिस शिकायत दर्ज की? यानी एएसआई के भ्रष्ट अधिकारी इस साज़िश में शामिल थे। जब तक गारंटीकृत आवास का अधिकार नहीं होगा, खोरी और तुगलकाबाद जैसे विध्वंस होते रहेंगे। इस कड़ाके की ठंड में उन्हें बिना किसी पुनर्वास के प्रावधान के उखाड़ दिया जाएगा। रात के लिए सरकार दो रोटी का भी इंतज़ाम नहीं करेगी। आदर्श रूप से, दिल्ली सरकार को पुनर्वास की घोषणा करनी चाहिए, लेकिन उन्होंने चुप्पी साध रखी है।”
इन सबके बीच दिल्ली बाल अधिकार संरक्षण आयोग (DCPCR) ने बुधवार को तुगलकाबाद में झुग्गियों को ढहाने के मामले का संज्ञान लेते हुए सभी बच्चों का पुनर्वास सुनिश्चित होने तक इसे ध्वस्त करने के अभियान को स्थगित करने का आदेश दिया है। डीसीपीसीआर ने इस विषय में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग (ASI) को एक नोटिस जारी किया है, जिसमें बच्चों के पुनर्वास होने तक अभियान को रोकने की सलाह दी है। इस पूरे इलाके मे अधिकतर परिवारों के बच्चे नाबालिग हैं।
अपने नोटिस में डीसीपीसीआर ने कहा है कि दिल्ली के ऐसे भीषण मौसम में इन परिवारों से आश्रय छीन लेना क्रूरता से कम नहीं। साथ ही उन्होंने कहा है कि एएसआई के आदेश में कई खामियां हैं। इसमें बच्चों के पुनर्वास के लिए कोई भी प्रयास या प्रावधान की बात नहीं की गई है।
फिलहाल हो सकता है कि इन सब तात्कालिक प्रयासों से ये बेदखली रुक जाएं लेकिन बड़ा सवाल अभी भी मुँह बाएं खड़ा है कि सरकार के उस वादे का क्या हुआ जिसमें उन्होंने कई बार कहा है-जहां झुग्गी वहीं मकान। इसके साथ ही देश के प्रधानमंत्री ने 2014 में देश की जनता से वादा किया था कि आज़ादी के 75 साल पूरे होने पर यानी 2022 तक सबके पास अपना मकान होगा लेकिन इसके विपरीत जिनके पास अपना मकान है सरकार उन्हे भी बेघर कर रही है।
इन्हीं हालातों पर दुष्यंत की ये लाइन कि "कहाँ तो तय था चिरागाँ हरेक घर के लिए कहाँ चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए" सटीक बैठती हैं।
अगर हम सरकारी आकड़ों की ही बात करें तो आवास योजना में शहरी क्षेत्रों में स्थिति बेहद खराब है। आधिकारिक वेबसाइट के अनुसार, इस योजना का लगभग 51 प्रतिशत लक्ष्य ही हासिल किया गया है। 12 दिसंबर, 2022 को राज्यसभा में सरकार द्वारा दिए गए एक जवाब के अनुसार लगभग 1.25 करोड़ घरों के निर्माण के स्वीकृत लक्ष्य में से केवल 61.2 लाख घर ही वास्तव में पूरे किए गए हैं। यानी 59 लाख घरों का निर्माण होना अभी भी बाकी है। इस पर हमनें पहले भी अपनी रिपोर्ट मे बताया है कि देश मे आवास योजना का क्या हाल है।
Courtesy: Newsclick