जो लोग अपने राजनीतिक एजेंडे के अनुरूप इतिहास को तैयार करना चाहते हैं, वे इस बात का ज़िक़्र नहीं करते कि अकबर ने विश्वनाथ मंदिर को बनवाया था, वे तो बस इस बात का ज़िक़्र करते हैं कि औरंगज़ेब ने इसे नष्ट कर दिया था।
अयोध्या में उस राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद ने भारत को तीन दशकों से भी ज़्यादा समय तक हिलाये रखा, जिससे दंगे और ख़ून-ख़राबे हुए, जिनमें सैकड़ों लोगों की जानें गयीं। इस विवादित मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट के 2019 के फ़ैसले ने अयोध्या का इस विवादित स्थल को हिंदुओं को सौंप दिया। हालांकि, इस फ़ैसले की काफ़ी आलोचना हुई, लेकिन इसके बाद उम्मीद की गयी थी कि भारत अतीत से लंबित विवादों को उठाने से परहेज़ करेगा और सामाजिक ताने-बाने में आ चुके दरार को दुरुस्त करने के लिहाज़ से आगे बढ़ेगा।
हालांकि, इस साल की शुरुआत में इस उम्मीद पर तब पानी फिर गया, जब पांच महिलाओं ने वाराणसी की एक निचली अदालत में याचिका दायर कर दी कि उन्हें साल में एक बार के बजाय ज्ञानवापी मस्जिद की पश्चिमी दीवार पर उकेरी गयी मां श्रृंगार गौरी की प्रतिमा की रोज़ाना पूजा करने की अनुमति दी जाए। उनकी याचिका में दावा किया गया कि यह मस्जिद मस्जिद नहीं, बल्कि मंदिर है।
उनकी दलील थी कि मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब ने विश्वनाथ मंदिर को ध्वस्त कर दिया था और उस ध्वस्त मंदिर की कुर्सी के एक हिस्से पर ज्ञानवापी मस्जिद का निर्माण करा दिया था। उन्होंने इस बात का दावा किया कि सदियों से हिंदु "दृश्य और अदृश्य देवी-देवताओं" की पूजा करता रहा है, जिसमें मां श्रृंगार गौरी भी शामिल थीं, जो कि वहां मौजूद थीं, भले ही विश्वनाथ मंदिर 18 वीं शताब्दी में मस्जिद से कुछ मीटर की दूरी पर बनाया गया था। इसके बाद निचली अदालत ने ज्ञानवापी परिसर के सर्वे का आदेश दे दिया।
ज्ञानवापी मस्जिद के रख-रखाव के लिए ज़िम्मेदार मस्जिद इंतेज़ामिया समिति ने उस याचिका का विरोध करते हुए दलील दी थी कि अदालत याचिकाकर्ताओं को राहत इसलिए नहीं दे सकती, क्योंकि पूजा स्थल अधिनियम, 1991 ने पूजा स्थल के धार्मिक चरित्र में किसी भी तरह के बदलाव पर रोक लगा दी है। यह 15 अगस्त 1947 को अपने वजूद में था। मामला सुप्रीम कोर्ट में गया और सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि 1991 के अधिनियम ने पूजा स्थल के धार्मिक चरित्र का "पता लगाने" पर रोक नहीं लगायी है और ज़िला अदालत से यह तय करने को कहा कि क्या पांचों महिलाओं की याचिका सुनवाई योग्य है। सितंबर की शुरुआत में ज़िला अदालत ने इस सवाल का जवाब हां में दिया।
ये मुकदमे विश्वनाथ मंदिर कॉरिडोर के उस निर्माण से जुड़े हुए हैं, जो कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रिय परियोजना है, जो गंगा के तट से मंदिर तक निर्बाध पहुंच प्रदान करता है। जब कॉरिडोर के लिए जगह ख़ाली कराने के लिए ऐतिहासिक इमारतों और मंदिरों को ध्वस्त कर दिया गया था, तो कई लोगों ने सोचा था कि ज्ञानवापी मस्जिद को निशाना बनाया जायेगा और हिंदुओं के लिए इस पर दावा करने की कोशिश की जायेगी। राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद का एक नया संस्करण सामने आने के लिए तैयार है।
ज्ञानवापी मस्जिद अचानक एक विवादास्पद मुद्दा क्यों बन गया है ? ज्ञानवापी के अतीत और विश्वनाथ मंदिर के नज़दीक स्थित इस स्थल ने वाराणसी और भारत के लोगों को पहले क्यों नहीं उत्तेजित किया ? क्या सदियों पहले मुग़लों, ख़ासकर औरंगज़ेब ने वहां के हिंदुओं को शिकार बनाया था ?
ऐसे सवालों के जवाब को लेकर न्यूज़क्लिक ने विश्वनाथ मंदिर के महंत राजेंद्र प्रसाद तिवारी की ओर रुख़ किया, जिनके पूर्वजों ने सदियों से भगवान शिव के इस प्रतिष्ठित निवासस्थल की देखरेख की थी। वह अतीत और वर्तमान की एक आकर्षक तस्वीर पेश करने को लेकर मुग़ल हुक़ूमत और विश्वनाथ मंदिर के उतार-चढ़ाव वाले भाग्य को लेकर अभिलिखित सुबूतों या अन्यथा हिंदुओं की स्मृति में गहरे उतरते हैं। हिंदी में लिए गये तिवारी के उस साक्षात्कार का संपादित अंश यहां प्रस्तुत है,जो कि तिवारी की नज़रों से होकर गुज़रा है:
1669 में औरंगज़ेब ने जिस विश्वनाथ मंदिर को तोड़ा था, उसका निर्माण मराठा ब्राह्मण विद्वान नारायण भट्ट और मुग़ल कुलीन राजा टोडर मल ने 1595 में अकबर के संरक्षण में कराया था। यह तथ्य भारत और वाराणसी की आम लोगों की स्मृति में क्यों अपनी जड़ें जमा नहीं पाया ?
आम लोगों की स्मृति काफ़ी हद तक इस बात से तय होती है कि सिस्टम इसमें क्या डालता है और सिस्टम लोगों को क्या याद रखवाना चाहता है।
"सिस्टम" से आपका क्या मतलब है?
सिस्टम में वे लोग शामिल होते हैं, जो इतिहास पढ़ते और पढ़ाते हैं- और जो याद रखने के शिल्प का निर्माण करते हैं। उनमें वे लोग होते हैं, जो उस अतीत के तमाम पहलुओं को ध्यान में रखते हैं,जो अतीत हमें मालूम है। फिर ऐसे लोग भी हैं, जिनका इतिहास को लेकर नज़रिया उथला है। वे अपने वर्तमान एजेंडे के लिए अतीत के विवरण और सुबूतों को ठोक-बजाकर इतिहास को बुनते हैं
बाद वाले लोगों के लिए मुग़लों का इतिहास औरंगज़ेब द्वारा 1669 में विश्वनाथ मंदिर के विध्वंस के आदेश दिये जाने के साथ शुरू होता है। विश्वनाथ मंदिर के विध्वंस से पहले और बाद का कुछ भी उनके लिए मायने नहीं रखता है। वे अकबर द्वारा विश्वनाथ मंदिर के बनवाये जाने की बात कभी नहीं करेंगे। ऐसा इसलिए, क्योंकि उनका मक़सद मुसलमान विरोधी माहौल बनाने वाली एक धारणा का निर्माण करना है और वोट बटोरने के लिए हिंदुओं की इन्हीं भावनाओं का दोहन करना है।
चार या पांच सौ साल पहले आपके पास बादशाहत थी, या बादशाहों की हुक़ूमत थी, जो कि परिभाषा के मुताबिक़, निरंकुशता को दिखाती है। हम अब लोकतंत्र और क़ानून के शासन के ज़माने में हैं। आज की हुक़ूमत को संविधान का पालन करना चाहिए। वे सत्ता में इसलिए आ पाये हैं, क्योंकि लोगों ने उन्हें चुना है, लेकिन उनके कार्य सम्राटों के शासन की याद दिलाते हैं। संविधान को रौंदने के लिए वे मुसलमान विरोधी माहौल बनाना चाहते हैं।
मुझे लगता है कि यहां "वे" शब्द भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए है ?
हां, आख़िर सत्ता में तो वही हैं।
क्या अकबर के संरक्षण ने विश्वनाथ के महत्व को बढ़ा दिया था ?
विश्वनाथ शिवलिंग एक स्वयंभू (स्व-निर्मित) शिवलिंग है। यह अनादि काल से मौजूद था। इसका महत्व हमेशा से बना रहा है। लेकिन, अकबर ने ही इस शिवलिंग को रखने के लिए एक बड़ा मंदिर बनवाया था। यही वह मंदिर है, जो ऐतिहासिक बन गया और यही वह मंदिर था, जिसे औरंगज़ेब ने नष्ट कर दिया था।
मैं यहां के इतिहास में जाना चाहूंगा। शाहजहां का सबसे बड़ा पुत्र, दारा शिकोह,जो सही मायने में अकबर का सच्चा उत्तराधिकारी थी,वह संस्कृत और प्राचीन हिंदू धार्मिक ग्रंथों, शास्त्रों का अध्ययन करने के लिए वाराणसी आया था। दारा को पढ़ाने वाले परिवार के वंशज आज भी वाराणसी में ही रहते हैं।
सचमुच ? वे कौन हैं ?
वह परिवार (दिवंगत कांग्रेस नेता) कमलापति त्रिपाठी का है। उनके पूर्वजों में से एक ने दारा शिकोह को पढ़ाया था, जिन्होंने गुरु दक्षिणा के रूप में त्रिपाठियों को वाराणसी के एक इलाक़े औरंगाबाद में अपनी कोठी (घर) उपहार में दे दी थी।
वैसे, हमारे परिवार को दारा शिकोह का दिया पट्टा (डीड) मेरे पास अब भी है।
यह पट्टा किससे सम्बन्धित है ?
दारा शिकोह ने इस पट्टे के ज़रिये विश्वनाथ मंदिर को मेरे पूर्वजों को यह कहते हुए सौंप दिया था कि वे शैव संप्रदाय के देदिप्यमान नक्षत्र हैं और मंदिर और इसकी अनुष्ठानिक परंपरा हमारे पास सुरक्षित रहेगी।
औरंगजेब द्वारा दारा को हराने और उसे मारने के बाद आपके परिवार ने क्या किया था ?
जैसे ही औरंगज़ेब मुगल सिंहासन पर बैठा,उसके बाद तो उसने उन सभी को निशाना बनाया था, जिन्हें वह दारा के समर्थक मानते थे, या किसी भी तरह से उसकी मदद करने वाले मानते थे, या जिनके दारा के साथ मधुर सम्बन्ध थे। औरंगज़ेब उन सबको अपना विरोधी माना था। इस प्रकार, हमारी पारिवारिक स्मृति में विश्वनाथ मंदिर के विध्वंस का आदेश देने के औरंगजेब के फ़ैसले के पीछे की व्याख्या यही है।
हमारा परिवार इतना ताक़तवर नहीं था कि औरंगज़ेब का मुक़ाबला कर सके। जब यह साफ़ हो गया कि मंदिर को तोड़ा ही जायेगा, तो मेरे पूर्वज शिवलिंग को सुरक्षित रखने के लिए अपने साथ ले गये थे। विश्वनाथ मंदिर में शिवलिंग ठीक वहीं है, जहां मेरे पूर्वजों ने इसे स्थापित किया था।
क्या वहां कोई और मंदिर था ?
नहीं, शिवलिंग हमारे घर में रखा था। हमने लोगों को शिवलिंग के ठिकाने के बारे में नहीं बताया था। इसी से लोगों ने कहना शुरू कर दिया था कि ध्वस्त मंदिर के महंत ने शिवलिंग के साथ एक कुएं में छलांग लगा दी थी। यह वाराणसी की लोककथाओं का हिस्सा बन गया। लेकिन,ऐसा कुछ नहीं हुआ था। 1707 में औरंगज़ेब की मौत के बाद हमारे परिवार ने लोगों के बीच यह बात फैला दी थी कि शिवलिंग है कहां। फिर तो लोग हमारे घर दर्शन के लिए उमड़ पड़े।
अहिल्याबाई होल्कर (होलकर राज घराने की; 1725-1795) शैव थीं। उन्होंने एक सपना देखा था, जिसमें उन्हें शिवलिंग के लिए एक नया मंदिर बनाने का निर्देश दिया गया था। उन्होंने हमारे परिवार से घर के उस हिस्से को सौंपने का अनुरोध किया था, जहां शिवलिंग स्थापित किया गया था। हमने उन्हें सौंप दिया था। एक नया मंदिर बनाया गया। विश्वनाथ मंदिर के वर्तमान स्थल पर एक शिला पट्ट इस मंदिर के अतीत की कहानी बताता है। शुक्र है कि विश्वनाथ कॉरिडोर के निर्माण के दौरान इतने सारे मंदिरों की तरह इस शिला पट्ट को न तो हटाया गया और न ही नष्ट किया गया।
28 फ़रवरी,1658 को औरंगज़ेब ने एक फ़रमान जारी किया था, जो इस समय भी बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के पास है,इस फ़रमान में कहा गया है कि पुराने मंदिरों और ब्राह्मण पुजारियों की रक्षा की जानी चाहिए। लेकिन,वह अपनी ज़बान से पलट गया और विश्वनाथ मंदिर को ध्वस्त कर दिया। इसके बावजूद, बाद के सालों में उसने जंगमबाड़ी मठ, एक और नये मठ, कुमारस्वामी मठ की स्थापना में मदद की थी और केदार मंदिर के जीर्णोद्धार की अनुमति दी थी। क्या आज का वाराणसी...
औरंगज़ेब ने जंगमबाड़ी मठ को चार-पांच बीघा ज़मीन और शाही ख़ज़ाने से अनुदान दिया था ताकि लिंगायत संप्रदाय भगवान शिव की पूजा कर सके और संस्कृत ग्रंथों का अध्ययन कर सके। औरंगज़ेब का पट्टा अब भी उस मठ के पास है। जब (उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री) योगी आदित्यनाथ ने 2018 या 2019 में उस मठ का दौरा किया था, तो जंगमबाड़ी मठ के लोगों ने मुझे बताया था कि वह चाहते हैं कि वह पट्टा वहां से हटा दिया जाए। यह तो इतिहास का दस्तावेज़ है। महज़ आदित्यनाथ के चाहने भर से इसे ऐतिहासिक रिकॉर्ड या हमारी स्मृति से भी नहीं हटाया जा सकता।
जंगमबाड़ी मठ की यह घटना आपको बताती है कि इस तरह की तमाम घटनायें एक धारणा बनाने को लेकर हो रही हैं। इतिहास ने औरंगज़ेब को एक तानाशाह, एक अत्याचारी बादशाह के रूप में ही पेश किया है। ऐसा करना तो आसान है। आख़िरकार, उसने अपने भाइयों को मार डाला था और अपने पिता को क़ैद कर लिया था। उसके शासनकाल में विश्वनाथ मंदिर को नष्ट कर दिया गया था। बीजेपी-आरएसएस ने औरंगज़ेब को निशाना बनाने के लिए औरंगज़ेब की छवि को मंदिर के ध्वस्त किये जाने के साथ जोड़ दिया है और उसके ज़रिये भारत के मुसलमानों को जोड़ दिया है। हिंदुत्व के एजेंडे को लागू करने के लिए औरंगज़ेब की इस छवि का दिखाया जाना उनका तो ड्रीम प्रोजेक्ट है। (हंसते हुए)
दूसरे शब्दों में आप यह कह रहे हैं कि औरंगज़ेब का शासनकाल न तो पूरा स्याह था,और न ही सिर्फ़ बुराइयों से भरा-पड़ा था।
इसे ज़रा दूसरे तरीक़े से देखिए। औरंगज़ेब के शासनकाल के दौरान वाराणसी में एक मंदिर को नष्ट कर दिया गया था। इतिहासकार इस बात से सहमत होंगे कि इस बात की संभावना तो नहीं ही है कि वह मंदिर को नष्ट करने के लिए यहां निजी तौर पर आया होगा। फिर भी मंदिर को नष्ट करने का ज़िम्मेदार उसी को बताया गया है। इसको लेकर आज काफ़ी बवाल हो रहा है।
इसी तरह, विश्वनाथ कॉरिडोर के निर्माण के लिए कई प्राचीन मंदिरों को भी तो नष्ट कर दिया गया है। फिर तो इस तबाही का श्रेय मोदी को भी दिया जाना चाहिए। क़रीब 286 शिवलिंगों को उखाड़ कर फेंक दिया गया। इनमें से कुछ को नालों में फेंक दिया गया। इनमें से सिर्फ़ 146 शिवलिंग ही बरामद हो पाये हैं। ज़ाहिर है, मैंने तो औरंगज़ेब को विश्वनाथ मंदिर को गिराते नहीं देखा था। लेकिन, मैंने मोदी की टीम को हिंदू भावनाओं की पूर्ण अवहेलना करते हुए ऐतिहासिक मंदिरों में स्थापित शिवलिंगों के साथ ग़लत तरीक़े से बर्ताव करते देखा है। वही कोई हिंदू नहीं हैं; वह और उनकी पार्टी केवल हिंदू धर्म का व्यापार करते हैं। मैं यह बहुत साफ़ कर दूं कि मोदी ने औरंगज़ेब के मुक़ाबले ज़्यादा मंदिरों को नष्ट कर दिया है।
कहां हैं वो 146 शिवलिंग ?
वे शिवलिंग लंका (वाराणसी स्थित एक इलाक़ा) के थाने में हैं। लंका पुलिस स्टेशन में दैनिक पूजा की जाती है।
मंदिर को तोड़े जाने के बाद विश्वनाथ मंदिर के चबूतरे के एक हिस्से पर ज्ञानवापी मस्जिद का निर्माण किया गया और इसकी एक दीवार मस्जिद की क़िबला दीवार (यानी मक्का के सामने की दीवार) बन गयी। यह दावा किया जाता है कि बाक़ी हिस्से पर पूजा जारी रही और वहां उगने वाले पीपल के पेड़ के नीचे एक मूर्ति स्थापित कर दी गयी गई। क्या ये सच है ?
ज्ञानवापी मस्जिद के बाहर मैदान में चार पीपल के पेड़ थे। उनमें से सिर्फ़ एक पीपल का पेड़ बचा हुआ है। बाक़ी तीन पेड़ों को विश्वनाथ कॉरिडोर के निर्माण के दौरान काट डाला गया। एक पीपल के पेड़ के नीचे महेश्वर महादेव का शिवलिंग था, लेकिन उन्होंने उसे तोड़कर फेंक दिया। उन्होंने कभी भी उन मंदिरों के नष्ट किये जाने का उल्लेख नहीं किया है, जो कि उन्होंने ख़ुद अंजाम दिए थे। वे तो सिर्फ़ उन्हीं बातों का ज़िक़्र करते हैं, जो उनके फ़ायदे की है।
आप विश्वनाथ कॉरिडोर का इतना विरोध क्यों कर रहे थे ?
मैं विकास का विरोधी नहीं हूं। मैं विकास के नाम पर की जा रही तबाही के ख़िलाफ़ हूं। इस गलियारे ने वाराणसी की पुरानी पहचान को मिटा दिया है और शहर के आध्यात्मिक-धार्मिक बुनियादी ढांचे को नष्ट कर दिया है। अगर मैं इसे और अधिक सरलता से कहना चाहूं तो यही कहना चाहूंगा कि मैं मंदिरों को मॉल के रूप में प्रदर्शित करने का विरोध करता हूं। मैं इसे कभी स्वीकार नहीं कर सकता।
क्या आपने उन ऐतिहासिक मंदिरों और घरों को गिराने से रोकने के लिए अदालत जाने की कोशिश नहीं की, जिनमें ये मूर्तियां स्थापित की गयी थीं ?
इस कॉरिडोर के निर्माण ने 2018 में रफ़्तार पकड़ी थी। अधिक महत्वपूर्ण मंदिरों को बचाने के लिए अदालतों में याचिकायें दायर की गयी थीं। लेकिन,इन याचिकाओं पर सुनवाई नहीं हुई। ज्ञानवापी मस्जिद को लेकर अदालत की याचिका में जिस तरह की लगन और गति दिखाई दे रही है, वह उन मामलों में नहीं दिखायी दी थी। मुसलमानों और हिंदुओं द्वारा दायर याचिकाओं के सिलसिले में अदालत का दृष्टिकोण विरोधाभासी रहा है।
क्या हिंदू कभी मस्जिद के अंदर पूजा करते थे ?
नहीं, कभी नहीं। नमाज़ मस्जिद के अंदर अदा की जाती थी और अब भी की जाती है। रामलीला सहित पूजा पाठ को उस ज्ञानवापी मैदान में मस्जिद के बाहर किया जाता था, जिसे अब विश्वनाथ मंदिर परिसर का उसी तरह का हिस्सा बना दिया गया है, जिस तरह मस्जिद को बना दिया गया है।
लेकिन, पांच महिलाओं ने वाराणसी की निचली अदालत में याचिका दायर कर कहा था कि उन्हें साल में एक बार के बजाय रोजाना मां श्रृंगार गौरी की पूजा करने की अनुमति दी जाए। उन्होंने दावा किया कि हिंदू अनादि काल से हनुमान, गणेश और अन्य "दृश्य और अदृश्य देवताओं" की पूजा करते रहे हैं।
मस्जिद की बाहरी दीवार,यानी कि पश्चिमी दीवार पर श्रृंगार गौरी की एक फुट की मूर्ति है। यह मस्जिद के अंदर नहीं है। मैंने बचपन से ही देखा है कि चैत्र नवरात्रि के चौथे दिन (इस साल, यह 4 अप्रैल को था) साल में एक बार लोग उनके दर्शन और पूजा करने आते थे। किसी न किसी रूप में इनमें से अधिकतर महिलायें आरएसएस और उसके संगठनों से जुड़ी हैं। सच कहूं तो वे झूठ बोल रही हैं।
चारों तरफ़ घोर पाखंड है। उदाहरण के लिए, गलियारे के निर्माण के लिए किये गये विध्वंस के दौरान उन्होंने छप्पन विनायक (भगवान गणेश) मंदिर को नष्ट करने का फ़ैसला किया था। हमने इसका विरोध किया। वाराणसी निवासी रमेश उपाध्याय और कुछ वकीलों ने याचिका दायर की थी। दलील थी कि उन्हें प्रतिदिन छप्पन विनायक की पूजा करने का अधिकार है,यह एक ऐसा अधिकार था, जो अनादि काल से चला आ रहा था। (अगर उस याचिका को बरक़रार रखा गया होता, तो छप्पन विनायक मंदिर का विध्वंस रुक जाता)
ज़िला जज ने फ़ैरन प्रशासन को नोटिस जारी कर दिया था।लेकिन, कुछ ही दिनों में उनका तबादला कर दिया गया। उनकी जगह दूसरे जज ने ले ली। अब इस नये जज ने याचिकाकर्ताओं से कहा कि उनकी दलील विकास में बाधक नहीं बन सकती !
पांच महिलाओं की ओर से दायर की गयी याचिका में वही दलील दी गयी है, जो दलील छप्पन विनायक मामले में दी गयी थी और वह यह थी कि उन्हें प्रतिदिन एक देवता की पूजा करने की अनुमति दी जाए। सुप्रीम कोर्ट ने मामले को निचली अदालत से ज़िला अदालत में स्थानांतरित कर दिया और ज़िला अदालत ने कहा कि उनका मुकदमा पूजा स्थल अधिनियम, 1991 के दायरे में नहीं आता है और यह सुनवाई योग्य है। आपको मेरी बात समझ में आयी ? हिंदुओं के एक समूह की दलील को ख़ारिज कर दिया गया,वहीं हिंदुओं के एक और समूह की दलील को स्वीकार्य और विचारणीय पाया गया है। यह प्रकृति में समान दो मामलों पर लागू होने वाले दो अलग-अलग सिद्धांतों वाला एक उदाहरण है। मुझे और कहने की ज़रूरत नहीं है, है कि नहीं ?
इस साल की शुरुआत में वाराणसी की निचली अदालत ने ज्ञानवापी मस्जिद के परिसर में एक सर्वेक्षण करवाया था। यह दावा किया गया था कि स्नान के लिए बनायी गयी पानी की टंकी में एक शिवलिंग है।
उन्हें हमें दिखाना चाहिए कि शिवलिंग कहां है। मेरे जीवनकाल में चार-पांच बार पानी की टंकी की सफ़ाई की गयी है। शिवलिंग तो कभी नहीं दिखायी दिया था।
मुस्लिम पक्ष का कहना है कि जिसे लेकर शिवलिंग होने का दावा किया जाता है, वह तो महज़ एक फ़व्वारा है।
मेरे विचारों को भूल जाइए। आइए,ज़रा हम इस मुद्दे को विश्लेषणात्मक रूप से देखें। सर्वेक्षण आयुक्त ने कहा कि उन्होंने पानी की टंकी के अंदर खड़ी संरचना (जिसे मुसलमान फ़व्वारा के रूप में वर्णित करते हैं] में एक छेद में एक सींक (लकड़ी या लोहे की पतली छड़ी) डाली। उनके मुताबिक़, यह प्रक्रिया 63 सेमी (24 इंच) तक चली। लेकिन,शिवलिंग में तो छेद ही नहीं होते। अगर यह ढांचा वास्तव में शिवलिंग है, तो उसका एक अर्घ होना चाहिए। शिवलिंग अर्घों के बिना नहीं रह सकते। उन्हें इसकी जांच करने की आवश्यकता है कि यह वास्तव में है क्या और लोगों को सच्चाई बतायी जानी चाहिए। उन्हें सिर्फ़ लोगों को मूर्ख बनाने के लिए अफ़वाहें नहीं फैलानी चाहिए।
धारणा बनाने के लिए जानबूझकर यह अफ़वाह फैलायी गयी। सिर्फ़ इसलिए कि कोई सर्वेक्षक कहता है कि यह शिवलिंग है, क्या हम उस पर विश्वास कर लें ? क्या हम यह मान लें कि यह शिवलिंग सिर्फ़ इसलिए है, क्योंकि ऐसा मीडिया कहता है ? अब कल को अगर मीडिया यह कहेगा कि मोदी भगवान राम के अवतार हैं, तो क्या हम इसे स्वीकार कर लेंगे ?
आपको लगता है कि मीडिया बीजेपी का पक्ष लेता है ?
मीडिया बीजेपी की जेब में है। उनका ही मीडिया है। क्या वे कभी बीजेपी से सवाल पूछते हैं ? जब मोदी सरकार झूठ बोलती है, तब भी मीडिया यह साबित करने की कोशिश करता है कि यह सच है।
क्या आप अभी भी कॉरिडोर के विरोध में हैं ?
मैं उस समय से गलियारे का विरोध कर रहा था, जब इसकी परिकल्पना की गयी थी और जब निर्माण कार्य शुरू हुआ था। मेरा विरोध प्रमाणित हो गया है। लेकिन, अब जब उन्होंने कॉरेडोर बना ही लिया है, तो मेरे विरोध का क्या मतलब रह जाता है ? उन्होंने कॉरिडोर के निर्माण के अपने मिशन को पाने के लिए अपनी शक्ति का दुरुपयोग किया है।
वाराणसी के लोगों ने कॉरिडोर के ख़िलाफ़ आपके आंदोलन का समर्थन क्यों नहीं किया ?
उन्होंने हिंदुओं के सामूहिक दिमाग़ का ब्रेनवॉश कर दिया है। लेकिन, ऐसा मत सोचिए कि लोगों ने हमारा साथ नहीं दिया है। स्वर्गीय शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती के साथ हमने 2018-2019 में एक विशाल धर्म संसद का आयोजन किया था। लेकिन,हमारी आपत्तियों को सुनने के बजाय पूरा मीडिया शंकराचार्य पर कांग्रेसी होने का आरोप लगाता रहा।
क्या आप पर नरम पड़ने का दबाव नहीं था ?
मुझ पर भारी दबाव डाला गया। उन्होंने मेरे घर के चारों ओर खाई खोद दी थी। उन्होंने मुझे घर बेचने और दूसरी जगह शिफ्ट करने के लिए कहा था। और ऐसा तब था, जबकि मेरा घर कॉरिडोर में आता भी नहीं था। अंतत: मेरा घर तबाह कर दिया गया। मुझे लगता है कि उन्हें इस बात का डर था कि अगर मैं वहां रहा, तो मैं उनके कॉरिडोर के निर्माण के काम में बाधा उत्पन्न कर दूंगा।
किसी तरह की कोई धमकी ?
मुझे फ़ोन पर कई बार धमकियां दी गयी थीं। यहां तक कि आदित्यनाथ भी लोकसभा चुनाव से पहले मुझसे मिलने आये थे। हमने लगभग 30-45 मिनट तक बात की थी। उन्होंने मुझसे आमने-सामने और सम्मान के साथ बात की थी। लेकिन, ऐसा नहीं था कि मेरी आपत्तियों पर कोई ध्यान दिया गया हो।
जब कॉरिडोर निर्माणाधीन था, तो क्या आपने कई अन्य लोगों की तरह सोचा था कि ज्ञानवापी मस्जिद को निशाना बनाया जायेगा ?
2019 में राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद पर फ़ैसला आने के महीनों पहले मैंने एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस में कहा था कि अयोध्या में विवादित स्थल हिंदुओं को सौंप दिए जाने की संभावना है। चूंकि यह क़दम भाजपा को उस मुद्दे से वंचित कर देगा, जिसे उसने वोट पाने के लिए इस्तेमाल किया है, ऐसे में वे अपने मंदिर-मस्जिद एजेंडे के साथ वाराणसी का रुख़ करेंगे। मैं सही साबित हुआ हूं।
जब विश्वनाथ कॉरिडोर की परिकल्पना की गयी थी और योजना की घोषणा की गयी थी, तब मैंने ज्ञानवापी मस्जिद के रखरखाव के लिए ज़िम्मेदार- मस्जिद इंतेज़ामिया कमेटी के एक पदाधिकारी से कहा था कि उन्हें कॉरिडोर के ख़िलाफ़ स्पष्ट रुख अपनाने की ज़रूरत है,अगर ऐसा नहीं करते,तो तो वे बीजेपी-आरएसएस के जाल में फंस जायेंगे। यह बात भी सही साबित हुई है।
क्या आप कह रहे हैं कि मुसलमान कॉरिडोर बनाये जाने की योजना पर चुप रहे ?
इंतेज़ामिया कमेटी को ख़ुश रखने के लिए प्रशासन उन्हें सम्मान और आश्वासन दे रहा था। कुछ मायनों में उनके लिए चुप रहना स्वाभाविक ही था, क्योंकि मस्जिद को तबाह करने के लिए उसे चिह्नित नहीं किया गया था। शायद उन्होंने सोचा होगा कि उन्हें एक ऐसा मुद्दा क्यों उठाना चाहिए, जो कि उनके लिए प्रासंगिक ही नहीं है और बेकार का प्रशासन के हमले का सामना क्यों करें।
मुसलमान विरोधी मौजूदा माहौल में उन्होंने शायद चुप रहने में ही समझदारी समझी।
जब आप युद्ध शुरू होने से पहले ही डर जाते हैं, तो आप संभवतः लड़ नहीं सकते। उन्होंने मुझ पर बहुत दबाव भी डाला था, लेकिन मैं लड़ता रहा। आज मैं अकेला व्यक्ति हूं, जो विश्वनाथ कॉरिडोर के ख़िलाफ़ बोलता है। जो लोग कॉरिडोर के ख़िलाफ़ हमारे आंदोलन में हमारे साथ थे, वे भी चुप हो गये हैं। ठीक है कि मैं अपनी लड़ाई में सफल नहीं रहा, लेकिन कम से कम इतिहास को तो याद रहेगा कि एक व्यक्ति तो ऐसा था, जिसने कॉरिडोर बनाने के लिए प्राचीन मंदिरों के विध्वंस का डटकर विरोध किया था।
क्या उन स्थलों को फिर से हासिल करने की भाजपा की कोशिशें हमारे भविष्य को जटिल नहीं बना देंगी, जहां माना जाता है कि कभी मंदिर खड़े थे ? उदाहरण के लिए, पुरातत्वविदों ने यह बात दर्ज की है कि कई बौद्ध स्तूपों को मंदिरों में परिवर्तित कर दिया गया था। क्या हमारे इतिहास की ग़लतियों को दुरुस्त नहीं करने से पूजा स्थलों को लेकर उठने वाले ज़्यादा से ज़्यादा विवादों को बढ़ावा नहीं मिलेगा ?
आप अतीत में की गई ग़लतियों को कभी भी पहले की तरह दुरुस्त नहीं कर सकते। इतिहास से आप केवल सबक़ सीख सकते हैं, चाहे वह अच्छा हो या बुरा। जो लोग इतिहास की ग़लतियों को सुधारना चाहते हैं, वे नया इतिहास नहीं लिखते। वे केवल आग में घी डालते हैं; समाज में ज़हर घोलते हैं। यदि आप औरंगज़ेब की ग़लतियों को दोहराना चाहते हैं, तो आप उससे बेहतर नहीं हो सकते। क्या 300-400 साल पुराने किसी मुद्दे को वापस लाने का कोई मतलब है ? कोई कल को सुदूर अतीत से भी कोई मुद्दा उठाना चाहेगा। सोचिए, तब समाज का क्या होगा। हम सभी को अपने समाज की वर्तमान परिस्थितियों को सुधारने पर विचार करने और कार्य करने की आवश्यकता है। जहां सामाजिक समरसता नहीं, वहां कुछ भी नहीं हो सकता, कोई भी राष्ट्र उस परिस्थिति में प्रगति नहीं कर सकता।
Courtesy: Newsclick
अयोध्या में उस राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद ने भारत को तीन दशकों से भी ज़्यादा समय तक हिलाये रखा, जिससे दंगे और ख़ून-ख़राबे हुए, जिनमें सैकड़ों लोगों की जानें गयीं। इस विवादित मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट के 2019 के फ़ैसले ने अयोध्या का इस विवादित स्थल को हिंदुओं को सौंप दिया। हालांकि, इस फ़ैसले की काफ़ी आलोचना हुई, लेकिन इसके बाद उम्मीद की गयी थी कि भारत अतीत से लंबित विवादों को उठाने से परहेज़ करेगा और सामाजिक ताने-बाने में आ चुके दरार को दुरुस्त करने के लिहाज़ से आगे बढ़ेगा।
हालांकि, इस साल की शुरुआत में इस उम्मीद पर तब पानी फिर गया, जब पांच महिलाओं ने वाराणसी की एक निचली अदालत में याचिका दायर कर दी कि उन्हें साल में एक बार के बजाय ज्ञानवापी मस्जिद की पश्चिमी दीवार पर उकेरी गयी मां श्रृंगार गौरी की प्रतिमा की रोज़ाना पूजा करने की अनुमति दी जाए। उनकी याचिका में दावा किया गया कि यह मस्जिद मस्जिद नहीं, बल्कि मंदिर है।
उनकी दलील थी कि मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब ने विश्वनाथ मंदिर को ध्वस्त कर दिया था और उस ध्वस्त मंदिर की कुर्सी के एक हिस्से पर ज्ञानवापी मस्जिद का निर्माण करा दिया था। उन्होंने इस बात का दावा किया कि सदियों से हिंदु "दृश्य और अदृश्य देवी-देवताओं" की पूजा करता रहा है, जिसमें मां श्रृंगार गौरी भी शामिल थीं, जो कि वहां मौजूद थीं, भले ही विश्वनाथ मंदिर 18 वीं शताब्दी में मस्जिद से कुछ मीटर की दूरी पर बनाया गया था। इसके बाद निचली अदालत ने ज्ञानवापी परिसर के सर्वे का आदेश दे दिया।
ज्ञानवापी मस्जिद के रख-रखाव के लिए ज़िम्मेदार मस्जिद इंतेज़ामिया समिति ने उस याचिका का विरोध करते हुए दलील दी थी कि अदालत याचिकाकर्ताओं को राहत इसलिए नहीं दे सकती, क्योंकि पूजा स्थल अधिनियम, 1991 ने पूजा स्थल के धार्मिक चरित्र में किसी भी तरह के बदलाव पर रोक लगा दी है। यह 15 अगस्त 1947 को अपने वजूद में था। मामला सुप्रीम कोर्ट में गया और सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि 1991 के अधिनियम ने पूजा स्थल के धार्मिक चरित्र का "पता लगाने" पर रोक नहीं लगायी है और ज़िला अदालत से यह तय करने को कहा कि क्या पांचों महिलाओं की याचिका सुनवाई योग्य है। सितंबर की शुरुआत में ज़िला अदालत ने इस सवाल का जवाब हां में दिया।
ये मुकदमे विश्वनाथ मंदिर कॉरिडोर के उस निर्माण से जुड़े हुए हैं, जो कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रिय परियोजना है, जो गंगा के तट से मंदिर तक निर्बाध पहुंच प्रदान करता है। जब कॉरिडोर के लिए जगह ख़ाली कराने के लिए ऐतिहासिक इमारतों और मंदिरों को ध्वस्त कर दिया गया था, तो कई लोगों ने सोचा था कि ज्ञानवापी मस्जिद को निशाना बनाया जायेगा और हिंदुओं के लिए इस पर दावा करने की कोशिश की जायेगी। राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद का एक नया संस्करण सामने आने के लिए तैयार है।
ज्ञानवापी मस्जिद अचानक एक विवादास्पद मुद्दा क्यों बन गया है ? ज्ञानवापी के अतीत और विश्वनाथ मंदिर के नज़दीक स्थित इस स्थल ने वाराणसी और भारत के लोगों को पहले क्यों नहीं उत्तेजित किया ? क्या सदियों पहले मुग़लों, ख़ासकर औरंगज़ेब ने वहां के हिंदुओं को शिकार बनाया था ?
ऐसे सवालों के जवाब को लेकर न्यूज़क्लिक ने विश्वनाथ मंदिर के महंत राजेंद्र प्रसाद तिवारी की ओर रुख़ किया, जिनके पूर्वजों ने सदियों से भगवान शिव के इस प्रतिष्ठित निवासस्थल की देखरेख की थी। वह अतीत और वर्तमान की एक आकर्षक तस्वीर पेश करने को लेकर मुग़ल हुक़ूमत और विश्वनाथ मंदिर के उतार-चढ़ाव वाले भाग्य को लेकर अभिलिखित सुबूतों या अन्यथा हिंदुओं की स्मृति में गहरे उतरते हैं। हिंदी में लिए गये तिवारी के उस साक्षात्कार का संपादित अंश यहां प्रस्तुत है,जो कि तिवारी की नज़रों से होकर गुज़रा है:
1669 में औरंगज़ेब ने जिस विश्वनाथ मंदिर को तोड़ा था, उसका निर्माण मराठा ब्राह्मण विद्वान नारायण भट्ट और मुग़ल कुलीन राजा टोडर मल ने 1595 में अकबर के संरक्षण में कराया था। यह तथ्य भारत और वाराणसी की आम लोगों की स्मृति में क्यों अपनी जड़ें जमा नहीं पाया ?
आम लोगों की स्मृति काफ़ी हद तक इस बात से तय होती है कि सिस्टम इसमें क्या डालता है और सिस्टम लोगों को क्या याद रखवाना चाहता है।
"सिस्टम" से आपका क्या मतलब है?
सिस्टम में वे लोग शामिल होते हैं, जो इतिहास पढ़ते और पढ़ाते हैं- और जो याद रखने के शिल्प का निर्माण करते हैं। उनमें वे लोग होते हैं, जो उस अतीत के तमाम पहलुओं को ध्यान में रखते हैं,जो अतीत हमें मालूम है। फिर ऐसे लोग भी हैं, जिनका इतिहास को लेकर नज़रिया उथला है। वे अपने वर्तमान एजेंडे के लिए अतीत के विवरण और सुबूतों को ठोक-बजाकर इतिहास को बुनते हैं
बाद वाले लोगों के लिए मुग़लों का इतिहास औरंगज़ेब द्वारा 1669 में विश्वनाथ मंदिर के विध्वंस के आदेश दिये जाने के साथ शुरू होता है। विश्वनाथ मंदिर के विध्वंस से पहले और बाद का कुछ भी उनके लिए मायने नहीं रखता है। वे अकबर द्वारा विश्वनाथ मंदिर के बनवाये जाने की बात कभी नहीं करेंगे। ऐसा इसलिए, क्योंकि उनका मक़सद मुसलमान विरोधी माहौल बनाने वाली एक धारणा का निर्माण करना है और वोट बटोरने के लिए हिंदुओं की इन्हीं भावनाओं का दोहन करना है।
चार या पांच सौ साल पहले आपके पास बादशाहत थी, या बादशाहों की हुक़ूमत थी, जो कि परिभाषा के मुताबिक़, निरंकुशता को दिखाती है। हम अब लोकतंत्र और क़ानून के शासन के ज़माने में हैं। आज की हुक़ूमत को संविधान का पालन करना चाहिए। वे सत्ता में इसलिए आ पाये हैं, क्योंकि लोगों ने उन्हें चुना है, लेकिन उनके कार्य सम्राटों के शासन की याद दिलाते हैं। संविधान को रौंदने के लिए वे मुसलमान विरोधी माहौल बनाना चाहते हैं।
मुझे लगता है कि यहां "वे" शब्द भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए है ?
हां, आख़िर सत्ता में तो वही हैं।
क्या अकबर के संरक्षण ने विश्वनाथ के महत्व को बढ़ा दिया था ?
विश्वनाथ शिवलिंग एक स्वयंभू (स्व-निर्मित) शिवलिंग है। यह अनादि काल से मौजूद था। इसका महत्व हमेशा से बना रहा है। लेकिन, अकबर ने ही इस शिवलिंग को रखने के लिए एक बड़ा मंदिर बनवाया था। यही वह मंदिर है, जो ऐतिहासिक बन गया और यही वह मंदिर था, जिसे औरंगज़ेब ने नष्ट कर दिया था।
मैं यहां के इतिहास में जाना चाहूंगा। शाहजहां का सबसे बड़ा पुत्र, दारा शिकोह,जो सही मायने में अकबर का सच्चा उत्तराधिकारी थी,वह संस्कृत और प्राचीन हिंदू धार्मिक ग्रंथों, शास्त्रों का अध्ययन करने के लिए वाराणसी आया था। दारा को पढ़ाने वाले परिवार के वंशज आज भी वाराणसी में ही रहते हैं।
सचमुच ? वे कौन हैं ?
वह परिवार (दिवंगत कांग्रेस नेता) कमलापति त्रिपाठी का है। उनके पूर्वजों में से एक ने दारा शिकोह को पढ़ाया था, जिन्होंने गुरु दक्षिणा के रूप में त्रिपाठियों को वाराणसी के एक इलाक़े औरंगाबाद में अपनी कोठी (घर) उपहार में दे दी थी।
वैसे, हमारे परिवार को दारा शिकोह का दिया पट्टा (डीड) मेरे पास अब भी है।
यह पट्टा किससे सम्बन्धित है ?
दारा शिकोह ने इस पट्टे के ज़रिये विश्वनाथ मंदिर को मेरे पूर्वजों को यह कहते हुए सौंप दिया था कि वे शैव संप्रदाय के देदिप्यमान नक्षत्र हैं और मंदिर और इसकी अनुष्ठानिक परंपरा हमारे पास सुरक्षित रहेगी।
औरंगजेब द्वारा दारा को हराने और उसे मारने के बाद आपके परिवार ने क्या किया था ?
जैसे ही औरंगज़ेब मुगल सिंहासन पर बैठा,उसके बाद तो उसने उन सभी को निशाना बनाया था, जिन्हें वह दारा के समर्थक मानते थे, या किसी भी तरह से उसकी मदद करने वाले मानते थे, या जिनके दारा के साथ मधुर सम्बन्ध थे। औरंगज़ेब उन सबको अपना विरोधी माना था। इस प्रकार, हमारी पारिवारिक स्मृति में विश्वनाथ मंदिर के विध्वंस का आदेश देने के औरंगजेब के फ़ैसले के पीछे की व्याख्या यही है।
हमारा परिवार इतना ताक़तवर नहीं था कि औरंगज़ेब का मुक़ाबला कर सके। जब यह साफ़ हो गया कि मंदिर को तोड़ा ही जायेगा, तो मेरे पूर्वज शिवलिंग को सुरक्षित रखने के लिए अपने साथ ले गये थे। विश्वनाथ मंदिर में शिवलिंग ठीक वहीं है, जहां मेरे पूर्वजों ने इसे स्थापित किया था।
क्या वहां कोई और मंदिर था ?
नहीं, शिवलिंग हमारे घर में रखा था। हमने लोगों को शिवलिंग के ठिकाने के बारे में नहीं बताया था। इसी से लोगों ने कहना शुरू कर दिया था कि ध्वस्त मंदिर के महंत ने शिवलिंग के साथ एक कुएं में छलांग लगा दी थी। यह वाराणसी की लोककथाओं का हिस्सा बन गया। लेकिन,ऐसा कुछ नहीं हुआ था। 1707 में औरंगज़ेब की मौत के बाद हमारे परिवार ने लोगों के बीच यह बात फैला दी थी कि शिवलिंग है कहां। फिर तो लोग हमारे घर दर्शन के लिए उमड़ पड़े।
अहिल्याबाई होल्कर (होलकर राज घराने की; 1725-1795) शैव थीं। उन्होंने एक सपना देखा था, जिसमें उन्हें शिवलिंग के लिए एक नया मंदिर बनाने का निर्देश दिया गया था। उन्होंने हमारे परिवार से घर के उस हिस्से को सौंपने का अनुरोध किया था, जहां शिवलिंग स्थापित किया गया था। हमने उन्हें सौंप दिया था। एक नया मंदिर बनाया गया। विश्वनाथ मंदिर के वर्तमान स्थल पर एक शिला पट्ट इस मंदिर के अतीत की कहानी बताता है। शुक्र है कि विश्वनाथ कॉरिडोर के निर्माण के दौरान इतने सारे मंदिरों की तरह इस शिला पट्ट को न तो हटाया गया और न ही नष्ट किया गया।
28 फ़रवरी,1658 को औरंगज़ेब ने एक फ़रमान जारी किया था, जो इस समय भी बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के पास है,इस फ़रमान में कहा गया है कि पुराने मंदिरों और ब्राह्मण पुजारियों की रक्षा की जानी चाहिए। लेकिन,वह अपनी ज़बान से पलट गया और विश्वनाथ मंदिर को ध्वस्त कर दिया। इसके बावजूद, बाद के सालों में उसने जंगमबाड़ी मठ, एक और नये मठ, कुमारस्वामी मठ की स्थापना में मदद की थी और केदार मंदिर के जीर्णोद्धार की अनुमति दी थी। क्या आज का वाराणसी...
औरंगज़ेब ने जंगमबाड़ी मठ को चार-पांच बीघा ज़मीन और शाही ख़ज़ाने से अनुदान दिया था ताकि लिंगायत संप्रदाय भगवान शिव की पूजा कर सके और संस्कृत ग्रंथों का अध्ययन कर सके। औरंगज़ेब का पट्टा अब भी उस मठ के पास है। जब (उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री) योगी आदित्यनाथ ने 2018 या 2019 में उस मठ का दौरा किया था, तो जंगमबाड़ी मठ के लोगों ने मुझे बताया था कि वह चाहते हैं कि वह पट्टा वहां से हटा दिया जाए। यह तो इतिहास का दस्तावेज़ है। महज़ आदित्यनाथ के चाहने भर से इसे ऐतिहासिक रिकॉर्ड या हमारी स्मृति से भी नहीं हटाया जा सकता।
जंगमबाड़ी मठ की यह घटना आपको बताती है कि इस तरह की तमाम घटनायें एक धारणा बनाने को लेकर हो रही हैं। इतिहास ने औरंगज़ेब को एक तानाशाह, एक अत्याचारी बादशाह के रूप में ही पेश किया है। ऐसा करना तो आसान है। आख़िरकार, उसने अपने भाइयों को मार डाला था और अपने पिता को क़ैद कर लिया था। उसके शासनकाल में विश्वनाथ मंदिर को नष्ट कर दिया गया था। बीजेपी-आरएसएस ने औरंगज़ेब को निशाना बनाने के लिए औरंगज़ेब की छवि को मंदिर के ध्वस्त किये जाने के साथ जोड़ दिया है और उसके ज़रिये भारत के मुसलमानों को जोड़ दिया है। हिंदुत्व के एजेंडे को लागू करने के लिए औरंगज़ेब की इस छवि का दिखाया जाना उनका तो ड्रीम प्रोजेक्ट है। (हंसते हुए)
दूसरे शब्दों में आप यह कह रहे हैं कि औरंगज़ेब का शासनकाल न तो पूरा स्याह था,और न ही सिर्फ़ बुराइयों से भरा-पड़ा था।
इसे ज़रा दूसरे तरीक़े से देखिए। औरंगज़ेब के शासनकाल के दौरान वाराणसी में एक मंदिर को नष्ट कर दिया गया था। इतिहासकार इस बात से सहमत होंगे कि इस बात की संभावना तो नहीं ही है कि वह मंदिर को नष्ट करने के लिए यहां निजी तौर पर आया होगा। फिर भी मंदिर को नष्ट करने का ज़िम्मेदार उसी को बताया गया है। इसको लेकर आज काफ़ी बवाल हो रहा है।
इसी तरह, विश्वनाथ कॉरिडोर के निर्माण के लिए कई प्राचीन मंदिरों को भी तो नष्ट कर दिया गया है। फिर तो इस तबाही का श्रेय मोदी को भी दिया जाना चाहिए। क़रीब 286 शिवलिंगों को उखाड़ कर फेंक दिया गया। इनमें से कुछ को नालों में फेंक दिया गया। इनमें से सिर्फ़ 146 शिवलिंग ही बरामद हो पाये हैं। ज़ाहिर है, मैंने तो औरंगज़ेब को विश्वनाथ मंदिर को गिराते नहीं देखा था। लेकिन, मैंने मोदी की टीम को हिंदू भावनाओं की पूर्ण अवहेलना करते हुए ऐतिहासिक मंदिरों में स्थापित शिवलिंगों के साथ ग़लत तरीक़े से बर्ताव करते देखा है। वही कोई हिंदू नहीं हैं; वह और उनकी पार्टी केवल हिंदू धर्म का व्यापार करते हैं। मैं यह बहुत साफ़ कर दूं कि मोदी ने औरंगज़ेब के मुक़ाबले ज़्यादा मंदिरों को नष्ट कर दिया है।
कहां हैं वो 146 शिवलिंग ?
वे शिवलिंग लंका (वाराणसी स्थित एक इलाक़ा) के थाने में हैं। लंका पुलिस स्टेशन में दैनिक पूजा की जाती है।
मंदिर को तोड़े जाने के बाद विश्वनाथ मंदिर के चबूतरे के एक हिस्से पर ज्ञानवापी मस्जिद का निर्माण किया गया और इसकी एक दीवार मस्जिद की क़िबला दीवार (यानी मक्का के सामने की दीवार) बन गयी। यह दावा किया जाता है कि बाक़ी हिस्से पर पूजा जारी रही और वहां उगने वाले पीपल के पेड़ के नीचे एक मूर्ति स्थापित कर दी गयी गई। क्या ये सच है ?
ज्ञानवापी मस्जिद के बाहर मैदान में चार पीपल के पेड़ थे। उनमें से सिर्फ़ एक पीपल का पेड़ बचा हुआ है। बाक़ी तीन पेड़ों को विश्वनाथ कॉरिडोर के निर्माण के दौरान काट डाला गया। एक पीपल के पेड़ के नीचे महेश्वर महादेव का शिवलिंग था, लेकिन उन्होंने उसे तोड़कर फेंक दिया। उन्होंने कभी भी उन मंदिरों के नष्ट किये जाने का उल्लेख नहीं किया है, जो कि उन्होंने ख़ुद अंजाम दिए थे। वे तो सिर्फ़ उन्हीं बातों का ज़िक़्र करते हैं, जो उनके फ़ायदे की है।
आप विश्वनाथ कॉरिडोर का इतना विरोध क्यों कर रहे थे ?
मैं विकास का विरोधी नहीं हूं। मैं विकास के नाम पर की जा रही तबाही के ख़िलाफ़ हूं। इस गलियारे ने वाराणसी की पुरानी पहचान को मिटा दिया है और शहर के आध्यात्मिक-धार्मिक बुनियादी ढांचे को नष्ट कर दिया है। अगर मैं इसे और अधिक सरलता से कहना चाहूं तो यही कहना चाहूंगा कि मैं मंदिरों को मॉल के रूप में प्रदर्शित करने का विरोध करता हूं। मैं इसे कभी स्वीकार नहीं कर सकता।
क्या आपने उन ऐतिहासिक मंदिरों और घरों को गिराने से रोकने के लिए अदालत जाने की कोशिश नहीं की, जिनमें ये मूर्तियां स्थापित की गयी थीं ?
इस कॉरिडोर के निर्माण ने 2018 में रफ़्तार पकड़ी थी। अधिक महत्वपूर्ण मंदिरों को बचाने के लिए अदालतों में याचिकायें दायर की गयी थीं। लेकिन,इन याचिकाओं पर सुनवाई नहीं हुई। ज्ञानवापी मस्जिद को लेकर अदालत की याचिका में जिस तरह की लगन और गति दिखाई दे रही है, वह उन मामलों में नहीं दिखायी दी थी। मुसलमानों और हिंदुओं द्वारा दायर याचिकाओं के सिलसिले में अदालत का दृष्टिकोण विरोधाभासी रहा है।
क्या हिंदू कभी मस्जिद के अंदर पूजा करते थे ?
नहीं, कभी नहीं। नमाज़ मस्जिद के अंदर अदा की जाती थी और अब भी की जाती है। रामलीला सहित पूजा पाठ को उस ज्ञानवापी मैदान में मस्जिद के बाहर किया जाता था, जिसे अब विश्वनाथ मंदिर परिसर का उसी तरह का हिस्सा बना दिया गया है, जिस तरह मस्जिद को बना दिया गया है।
लेकिन, पांच महिलाओं ने वाराणसी की निचली अदालत में याचिका दायर कर कहा था कि उन्हें साल में एक बार के बजाय रोजाना मां श्रृंगार गौरी की पूजा करने की अनुमति दी जाए। उन्होंने दावा किया कि हिंदू अनादि काल से हनुमान, गणेश और अन्य "दृश्य और अदृश्य देवताओं" की पूजा करते रहे हैं।
मस्जिद की बाहरी दीवार,यानी कि पश्चिमी दीवार पर श्रृंगार गौरी की एक फुट की मूर्ति है। यह मस्जिद के अंदर नहीं है। मैंने बचपन से ही देखा है कि चैत्र नवरात्रि के चौथे दिन (इस साल, यह 4 अप्रैल को था) साल में एक बार लोग उनके दर्शन और पूजा करने आते थे। किसी न किसी रूप में इनमें से अधिकतर महिलायें आरएसएस और उसके संगठनों से जुड़ी हैं। सच कहूं तो वे झूठ बोल रही हैं।
चारों तरफ़ घोर पाखंड है। उदाहरण के लिए, गलियारे के निर्माण के लिए किये गये विध्वंस के दौरान उन्होंने छप्पन विनायक (भगवान गणेश) मंदिर को नष्ट करने का फ़ैसला किया था। हमने इसका विरोध किया। वाराणसी निवासी रमेश उपाध्याय और कुछ वकीलों ने याचिका दायर की थी। दलील थी कि उन्हें प्रतिदिन छप्पन विनायक की पूजा करने का अधिकार है,यह एक ऐसा अधिकार था, जो अनादि काल से चला आ रहा था। (अगर उस याचिका को बरक़रार रखा गया होता, तो छप्पन विनायक मंदिर का विध्वंस रुक जाता)
ज़िला जज ने फ़ैरन प्रशासन को नोटिस जारी कर दिया था।लेकिन, कुछ ही दिनों में उनका तबादला कर दिया गया। उनकी जगह दूसरे जज ने ले ली। अब इस नये जज ने याचिकाकर्ताओं से कहा कि उनकी दलील विकास में बाधक नहीं बन सकती !
पांच महिलाओं की ओर से दायर की गयी याचिका में वही दलील दी गयी है, जो दलील छप्पन विनायक मामले में दी गयी थी और वह यह थी कि उन्हें प्रतिदिन एक देवता की पूजा करने की अनुमति दी जाए। सुप्रीम कोर्ट ने मामले को निचली अदालत से ज़िला अदालत में स्थानांतरित कर दिया और ज़िला अदालत ने कहा कि उनका मुकदमा पूजा स्थल अधिनियम, 1991 के दायरे में नहीं आता है और यह सुनवाई योग्य है। आपको मेरी बात समझ में आयी ? हिंदुओं के एक समूह की दलील को ख़ारिज कर दिया गया,वहीं हिंदुओं के एक और समूह की दलील को स्वीकार्य और विचारणीय पाया गया है। यह प्रकृति में समान दो मामलों पर लागू होने वाले दो अलग-अलग सिद्धांतों वाला एक उदाहरण है। मुझे और कहने की ज़रूरत नहीं है, है कि नहीं ?
इस साल की शुरुआत में वाराणसी की निचली अदालत ने ज्ञानवापी मस्जिद के परिसर में एक सर्वेक्षण करवाया था। यह दावा किया गया था कि स्नान के लिए बनायी गयी पानी की टंकी में एक शिवलिंग है।
उन्हें हमें दिखाना चाहिए कि शिवलिंग कहां है। मेरे जीवनकाल में चार-पांच बार पानी की टंकी की सफ़ाई की गयी है। शिवलिंग तो कभी नहीं दिखायी दिया था।
मुस्लिम पक्ष का कहना है कि जिसे लेकर शिवलिंग होने का दावा किया जाता है, वह तो महज़ एक फ़व्वारा है।
मेरे विचारों को भूल जाइए। आइए,ज़रा हम इस मुद्दे को विश्लेषणात्मक रूप से देखें। सर्वेक्षण आयुक्त ने कहा कि उन्होंने पानी की टंकी के अंदर खड़ी संरचना (जिसे मुसलमान फ़व्वारा के रूप में वर्णित करते हैं] में एक छेद में एक सींक (लकड़ी या लोहे की पतली छड़ी) डाली। उनके मुताबिक़, यह प्रक्रिया 63 सेमी (24 इंच) तक चली। लेकिन,शिवलिंग में तो छेद ही नहीं होते। अगर यह ढांचा वास्तव में शिवलिंग है, तो उसका एक अर्घ होना चाहिए। शिवलिंग अर्घों के बिना नहीं रह सकते। उन्हें इसकी जांच करने की आवश्यकता है कि यह वास्तव में है क्या और लोगों को सच्चाई बतायी जानी चाहिए। उन्हें सिर्फ़ लोगों को मूर्ख बनाने के लिए अफ़वाहें नहीं फैलानी चाहिए।
धारणा बनाने के लिए जानबूझकर यह अफ़वाह फैलायी गयी। सिर्फ़ इसलिए कि कोई सर्वेक्षक कहता है कि यह शिवलिंग है, क्या हम उस पर विश्वास कर लें ? क्या हम यह मान लें कि यह शिवलिंग सिर्फ़ इसलिए है, क्योंकि ऐसा मीडिया कहता है ? अब कल को अगर मीडिया यह कहेगा कि मोदी भगवान राम के अवतार हैं, तो क्या हम इसे स्वीकार कर लेंगे ?
आपको लगता है कि मीडिया बीजेपी का पक्ष लेता है ?
मीडिया बीजेपी की जेब में है। उनका ही मीडिया है। क्या वे कभी बीजेपी से सवाल पूछते हैं ? जब मोदी सरकार झूठ बोलती है, तब भी मीडिया यह साबित करने की कोशिश करता है कि यह सच है।
क्या आप अभी भी कॉरिडोर के विरोध में हैं ?
मैं उस समय से गलियारे का विरोध कर रहा था, जब इसकी परिकल्पना की गयी थी और जब निर्माण कार्य शुरू हुआ था। मेरा विरोध प्रमाणित हो गया है। लेकिन, अब जब उन्होंने कॉरेडोर बना ही लिया है, तो मेरे विरोध का क्या मतलब रह जाता है ? उन्होंने कॉरिडोर के निर्माण के अपने मिशन को पाने के लिए अपनी शक्ति का दुरुपयोग किया है।
वाराणसी के लोगों ने कॉरिडोर के ख़िलाफ़ आपके आंदोलन का समर्थन क्यों नहीं किया ?
उन्होंने हिंदुओं के सामूहिक दिमाग़ का ब्रेनवॉश कर दिया है। लेकिन, ऐसा मत सोचिए कि लोगों ने हमारा साथ नहीं दिया है। स्वर्गीय शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती के साथ हमने 2018-2019 में एक विशाल धर्म संसद का आयोजन किया था। लेकिन,हमारी आपत्तियों को सुनने के बजाय पूरा मीडिया शंकराचार्य पर कांग्रेसी होने का आरोप लगाता रहा।
क्या आप पर नरम पड़ने का दबाव नहीं था ?
मुझ पर भारी दबाव डाला गया। उन्होंने मेरे घर के चारों ओर खाई खोद दी थी। उन्होंने मुझे घर बेचने और दूसरी जगह शिफ्ट करने के लिए कहा था। और ऐसा तब था, जबकि मेरा घर कॉरिडोर में आता भी नहीं था। अंतत: मेरा घर तबाह कर दिया गया। मुझे लगता है कि उन्हें इस बात का डर था कि अगर मैं वहां रहा, तो मैं उनके कॉरिडोर के निर्माण के काम में बाधा उत्पन्न कर दूंगा।
किसी तरह की कोई धमकी ?
मुझे फ़ोन पर कई बार धमकियां दी गयी थीं। यहां तक कि आदित्यनाथ भी लोकसभा चुनाव से पहले मुझसे मिलने आये थे। हमने लगभग 30-45 मिनट तक बात की थी। उन्होंने मुझसे आमने-सामने और सम्मान के साथ बात की थी। लेकिन, ऐसा नहीं था कि मेरी आपत्तियों पर कोई ध्यान दिया गया हो।
जब कॉरिडोर निर्माणाधीन था, तो क्या आपने कई अन्य लोगों की तरह सोचा था कि ज्ञानवापी मस्जिद को निशाना बनाया जायेगा ?
2019 में राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद पर फ़ैसला आने के महीनों पहले मैंने एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस में कहा था कि अयोध्या में विवादित स्थल हिंदुओं को सौंप दिए जाने की संभावना है। चूंकि यह क़दम भाजपा को उस मुद्दे से वंचित कर देगा, जिसे उसने वोट पाने के लिए इस्तेमाल किया है, ऐसे में वे अपने मंदिर-मस्जिद एजेंडे के साथ वाराणसी का रुख़ करेंगे। मैं सही साबित हुआ हूं।
जब विश्वनाथ कॉरिडोर की परिकल्पना की गयी थी और योजना की घोषणा की गयी थी, तब मैंने ज्ञानवापी मस्जिद के रखरखाव के लिए ज़िम्मेदार- मस्जिद इंतेज़ामिया कमेटी के एक पदाधिकारी से कहा था कि उन्हें कॉरिडोर के ख़िलाफ़ स्पष्ट रुख अपनाने की ज़रूरत है,अगर ऐसा नहीं करते,तो तो वे बीजेपी-आरएसएस के जाल में फंस जायेंगे। यह बात भी सही साबित हुई है।
क्या आप कह रहे हैं कि मुसलमान कॉरिडोर बनाये जाने की योजना पर चुप रहे ?
इंतेज़ामिया कमेटी को ख़ुश रखने के लिए प्रशासन उन्हें सम्मान और आश्वासन दे रहा था। कुछ मायनों में उनके लिए चुप रहना स्वाभाविक ही था, क्योंकि मस्जिद को तबाह करने के लिए उसे चिह्नित नहीं किया गया था। शायद उन्होंने सोचा होगा कि उन्हें एक ऐसा मुद्दा क्यों उठाना चाहिए, जो कि उनके लिए प्रासंगिक ही नहीं है और बेकार का प्रशासन के हमले का सामना क्यों करें।
मुसलमान विरोधी मौजूदा माहौल में उन्होंने शायद चुप रहने में ही समझदारी समझी।
जब आप युद्ध शुरू होने से पहले ही डर जाते हैं, तो आप संभवतः लड़ नहीं सकते। उन्होंने मुझ पर बहुत दबाव भी डाला था, लेकिन मैं लड़ता रहा। आज मैं अकेला व्यक्ति हूं, जो विश्वनाथ कॉरिडोर के ख़िलाफ़ बोलता है। जो लोग कॉरिडोर के ख़िलाफ़ हमारे आंदोलन में हमारे साथ थे, वे भी चुप हो गये हैं। ठीक है कि मैं अपनी लड़ाई में सफल नहीं रहा, लेकिन कम से कम इतिहास को तो याद रहेगा कि एक व्यक्ति तो ऐसा था, जिसने कॉरिडोर बनाने के लिए प्राचीन मंदिरों के विध्वंस का डटकर विरोध किया था।
क्या उन स्थलों को फिर से हासिल करने की भाजपा की कोशिशें हमारे भविष्य को जटिल नहीं बना देंगी, जहां माना जाता है कि कभी मंदिर खड़े थे ? उदाहरण के लिए, पुरातत्वविदों ने यह बात दर्ज की है कि कई बौद्ध स्तूपों को मंदिरों में परिवर्तित कर दिया गया था। क्या हमारे इतिहास की ग़लतियों को दुरुस्त नहीं करने से पूजा स्थलों को लेकर उठने वाले ज़्यादा से ज़्यादा विवादों को बढ़ावा नहीं मिलेगा ?
आप अतीत में की गई ग़लतियों को कभी भी पहले की तरह दुरुस्त नहीं कर सकते। इतिहास से आप केवल सबक़ सीख सकते हैं, चाहे वह अच्छा हो या बुरा। जो लोग इतिहास की ग़लतियों को सुधारना चाहते हैं, वे नया इतिहास नहीं लिखते। वे केवल आग में घी डालते हैं; समाज में ज़हर घोलते हैं। यदि आप औरंगज़ेब की ग़लतियों को दोहराना चाहते हैं, तो आप उससे बेहतर नहीं हो सकते। क्या 300-400 साल पुराने किसी मुद्दे को वापस लाने का कोई मतलब है ? कोई कल को सुदूर अतीत से भी कोई मुद्दा उठाना चाहेगा। सोचिए, तब समाज का क्या होगा। हम सभी को अपने समाज की वर्तमान परिस्थितियों को सुधारने पर विचार करने और कार्य करने की आवश्यकता है। जहां सामाजिक समरसता नहीं, वहां कुछ भी नहीं हो सकता, कोई भी राष्ट्र उस परिस्थिति में प्रगति नहीं कर सकता।
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