किसान मामले में ग्रेटा, रिहाना के ट्वीट से आहत होने वाले कोरोना की इस घड़ी में गायब क्यों हैं?

Written by Mithun Prajapati | Published on: April 26, 2021
समय बड़ा विकट चल रहा है। छोटी छोटी दुकाने चलाने वालों के हालात नोटबन्दी के बाद जो बिगड़े तो अबतक न सुधरे हैं। नोटबन्दी से न तो आतंकवाद खत्म हुआ न नक्सलवाद और न ही काला धन। खत्म हुआ तो छोटे व्यापारियों,धंधे वालों का व्यापार। बची हुई कसर GST फिर कोरोना के बाद पिछले साल लगे लॉक डाउन ने निकाल दी। दो चार महीनें पहले से हालात थोड़े बेहतर होने लगे तो अब फिर से सबकुछ बन्द पड़ गया है। 



जो समय प्रशासन से मिला है उसमें सब्जी, फलों की किरानों की दुकाने खुलती हैं। पर सबकुछ पिछले साल जैसा नहीं है। सड़क पर सन्नाटा रहता है। कुछ-कुछ देर में कोई कोई ग्राहक आ जाता है। खरीदारी कम कर दी है लोगों ने। सब की अपनी वजहें हैं। कुछ के पास पैसे नहीं हैं, कुछ गांव चले गए हैं, कुछ ने भविष्य के हालात को देखते हुए खर्च समेट लिया है। पिछले साल के लगातार मिल रहे झटकों से लोगों ने अब जरा जरा उभरना शुरू ही किया था कि लॉकडाउन जैसे हालात फिर हो गए हैं। कहने को लॉकडाउन नहीं है। पर खुला ही क्या है? कुछ एसेंशियल सर्विस को छोड़कर लगभग चीजें तो बन्द ही हैं।  

ऐसी स्थिति में सड़कें वीरान ही दिखती हैं। जो कहीं भीड़ कभी दिख जाती है वह स्टेशन पर पलायन करने वाले लोगों की होती है। सड़कों पर इक्के दुक्के वाहन आते जाते दिख रहे होते हैं। बीच-बीच में एम्बुलेंस सायरन बजाते हुए गुजर जाती है। इनकी संख्या पहले की तुलना में बढ़ गई है। पूरे देश का यही हाल है। अफसोस कि अजान से जिनकी नींद खुल जाया करती थी, एम्बुलेंस की आवाजों, हर तरफ चीख पुकार से उनपर फर्क ही न पड़ता। ऐसे हाथों से न कोई ट्वीट होता है न कोई ऐसी चीज शेयर होती हैं जिससे सरकार के माथे पर धब्बा लगे। कितनी दयनीय स्थिति है कि लोगों की संवेदनाएं भी पार्टी विशेष के यहां  गिरवी पड़ी हैं। लोगों को ऑक्सीजन, दवाओं ,बेड की कमी से मरता देख भी संवेदना गिरवी रख आए लोग मुँह से एक शब्द न बोल रहे। गलत को गलत न कह रहे। किसान आंदोलन अब भी जारी है। ग्रेटा थनबर्ग और अमेरकी पॉप स्टार रिहाना जैसी बाहरी हस्तियों के किसान के समर्थन में ट्वीट करने पर उनपर कुछ लोग अपने देश का अंदुरुनी मैटर बताकर हमला कर रहे थे। देश में दवाओं, ऑक्सीजन, बेड के लिए हाहाकार मचा हुआ है। पर पर्सनल मैटर वाले गायब हैं। कुछ हैं जो ऐसे हालात में भी फर्जी खबरों को बनाकर प्रसारित कर सरकार के फेलियर को डिफेंड करने की कोशिशें लगातार जारी है। 

मैं सब्जी की दुकान पर बैठा ग्राहकों के आने की प्रतीक्षा करते हुए सड़क की तरफ देख रहा होता हूँ। दो बूढ़े टाइप के लोग सड़क पकड़े चले जा रहे थे। नींबू धुले हुए बड़े बड़े चमकीले दुकान पर दिखे तो इधर मुड़ लिए। दोनों बतिया रहे थे अंग्रेजी में बतिया रहे थे। कभी कभी हिंदी भी बोल देते थे। बीच बीच में हँस भी रहे थे। एक ने नींबू उठाते हुए कहा-  मोदी न होता तो कंडीशन और खराब होती। 
यह बात हिंदी में कही गई थी। यह सुनकर दूसरे के चेहरे पर मुस्कान आई। दूसरे ने कहा- यु आर राइट। फिर उसने आगे कहना जारी रखा- यु नो, इन सम सिटीज देयर आर अक्चुली वेरी क्रिटिकल कंडीशन। बट यू आर राइट। मोदी न होता तो इससे भी बुरे हालात होते। 
मैं इन्हें देखता हूँ। शायद मॉर्निंग वॉक से आ रहे हैं। पैर में बड़े ब्रांड के जूते हैं। हाफ चड्ढी में हैं दोनों। बड़े ब्रांड की टी शर्ट भी है दोनों के बदन पर। अंग्रेजी में बतिया रहे हैं। देश के हालात पर चर्चा कर रहे हैं। और चर्चे में बता रहे हैं- अगर मोदी न होता तो हालात और खराब होते। 

मैं सोचता हूँ हालात और खराब होता तो कितना खराब होता? लगातार लोग मर रहे हैं ऑक्सीजन की कमी से। पिछले सात सालों में न हमने नए बने हॉस्पिटल के बारे में सुना न अतिरिक्त डॉक्टर की भर्तियों के बारे में। 2017 में गोरखपुर में जब एक अस्पताल में ऑक्सीजन की सप्लाई रुकी तो बच्चे मरने लगे। देश में हाहाकर मच गया। प्रदेश की सरकार बहादुर ने उस वक्त बढ़िया तरीका निकाला और डॉक्टर कफील को जेल में डाल दिया। डॉक्टर कफील डॉक्टर होने की सजा जेल में काट आये, ईमानदार होने की सजा जेल में काट आये। उनका गुनाह यह था कि वे उस समय अपने सोर्स और पैसे से बच्चों के लिए ऑक्सीजन जुटा रहे थे। उन्हें अल्पसंख्यक होने की सजा मिली। सरकार बहादुर को डॉक्टर कफील को जेल भेजने की वजह से विशेष किस्म की जनता का विशेष प्रेम मिला। इलाहाबाद हाई कोर्ट से डॉक्टर कफील को जमानत मिली और वे बाइज्जत बरी किये गए। आज हालात ऐसे हैं कि आये दिन लोग ऑक्सीजन न मिलने से दम तोड़ दे रहे हैं। यह अब न्यू नार्मल हो चुका है। सोशल मीडिया के जरिये लोग लगातार जरूरतमंदों को संसाधन मुहैया कराने की कोशिश कर रहे हैं। ग्रुप बन रहे, नंबर शेयर हो रहे, जमीन पर भी काम हो रहा। कुछ में सफलता मिल रही कुछ में फेल हो जा रहे। चीजें उपलब्ध कराने में सफलता मिले भी तो कैसे! संसाधन सीमित हैं। ऑक्सीजन सिलेंडर दवाएं जब है ही नहीं तो कहां से उपलब्ध कराई जाएं? हैं भी तो सीमित मात्रा में। जो हैं भी सब कालाबाजारी की भेंट चढ़ जा रही हैं। दवाएं जो बेहद जरूरी हैं नेताओं के पास से जप्त हो रही हैं। पूछे जाने पर अधिकारी पल्ला झाड़ ले रहे। व्यवस्था ध्वस्त है। हालात नाजुक। पर ये दोनों एलीट बूढ़े बता रहे कि अगर मोदी न होते तो और हालात बुरे होते। 

क्या वे सरकार को डिफेंड करने के लिए ऐसा कह रहे थे? तारीफ में कह रहे थे? यह शोध का विषय था। एक बूढ़ा दूसरे से सहमत था। यह भी हो सकता है एक डिफेंड में कह रहा हो दूसरा तारीफ में। 

हबीब जालिब की एक लाइन याद आ रही है- होते हों तो हो ये हाथ कलम, शायर न बनेंगे दरबारी। 
पर इस महामारी के समय में या तो जुबां दराज सरकार के कसीदे पढ़ रहे या तो मौन हो गए हैं। 

वे दोनों बूढ़े बातें किये जा रहे थे। हालात के क्रिटिकल होने की वे खूब चर्चाएं कर रहे थे। पर साहेब की तारीफ भी कर रहे थे। उन दोनों बुजुर्गों में से एक नींबू को दबाकर उसके रसीले होने का अनुमान लगा रहा था। उसने अबतक दो बढ़िया नींबू अलग भी कर लिए थे बात करते-करते। नींबू के मामले में उसकी समझ बढ़िया थी। यह मैं उसके द्वारा निकाले गए दो नीबुओं  को देखकर कह रहा हूँ। पर उसकी सामाजिक चेतना, राजनीति समझ , समाज के प्रति जिम्मेदारी...... या तो अवसरवादी थी या शून्य। 

मैं उसके भाव पूछने के इंतजार में उन्हें सुने जा रहा था। एक करीब पांच-छह साल की बच्ची हाथ मे थैली लटकाए मटमैले कपड़े, घुंघराले गंदे बालों में उन बूढ़ों के पास आकर पीछे खड़ी हो गई। कुछ देर वह उनके मुड़ने का इंतजार करती रही। वे उसे नहीं देख रहे थे। उस बच्ची ने एक के पैर के काफ को हाथ से छूकर उनका ध्यान अपनी तरफ़ लाना चाहा। जिसकी तांग को उसने छुआ वह बूढ़ा उसकी तरफ़ देखा, देखते ही कूदकर दूर हट गया। वह बच्ची उन बूढ़ों की तरफ देखती रह गई और हाथ आगे फैलाकर मुंह की तरफ ले जाती। उसका ऐसा करने का आशय यह था की कि कुछ खाने को या थोड़े पैसे मुझे दे दो।
 
बूढ़ा जो दूर कूदकर खड़ा हुआ था, वह जोर से उस लड़की की तरफ देखकर कहता है- इडियट। 

दूसरा बूढ़ा हिंदी में कहता है- मलेक्ष हैं सब। पता नहीं कहाँ से चले आते हैं। 

इतना कहने के बाद दोनों बूढ़े नींबू लिए बिना आगे बढ़ गए। थोड़ी दूर जाकर एक बूढ़ा दूसरे की टांगों पर सेनिटाइजर लगा रहा था। उस जगह पर जहां उस बच्ची ने मासूम हाथों से उसकी टांगों को छुआ था।
 
बच्ची उदास मन से आगे बढ़ एक लड़का-लड़की के पास जाकर खड़ी हुई जो केले के ठेले से केला खरीद रहे थे। उस जोड़े में से लड़की ने कुछ केले थैलियों में डालकर उस नन्हीं सी बच्ची के हाथ पर रख दिया। बच्ची का उदास चेहरा किसी सुबह के गुलाब सा खिल गया। जैसे किसी बीमार को समय पर ऑक्सीजन मिल गया हो।

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