कोरोना से जैसे-तैसे जूझ रहे देश के किसान और मज़दूर की असल समस्याएं अब शुरू होंगी। कृषि बिलों के साथ मजदूरों की जिंदगी से जुड़े विधेयकों को भी संसद ने पारित कर दिया है। इसके लिए किसान की तरह ही, मजदूरों को भी भरोसे में नहीं लिया गया है। किसान सड़कों पर हैं तो मज़दूर इस बात से अनभिज्ञ घूम रहा है कि उसको सदियों के लिए मज़दूर ही बनाए रखने के मसौदे तैयार हो चुके हैं। जिस वर्ग के नाम पर बिल लाए जा रहे हैं, उसी वर्ग को इसकी भनक नहीं है कि आने वाले समय में उस पर इनके, कैसे व क्या दुष्प्रभाव पड़ने वाले हैं। जानकारों के अनुसार, किसान के साथ मजदूरों के लिए भी यह एक घातक दौर है।

राज्यसभा के आखिरी दिन श्रमिकों से जुड़े 3 विधेयक पारित किए गए हैं, जिन्हें सरकार मज़दूरों के हित में बता रही है। हालांकि यह बात और है कि जिस किसान व मजदूर वर्ग के हित के दावे सरकार कर रही है। वही वर्ग कह रहे हैं कि सरकार हुज़ूर, आप यह भलाई मत करिये। उन्हें नहीं चाहिए ऐसी भलाई।
मजदूरों की ही बात करें तो खास है कि सरकार ने 3 विधेयक इंडस्ट्रियल रिलेशन कोड बिल, सोशल सिक्योरिटी कोड बिल और ओक्यूपेशनल सेफ्टी, हेल्थ एंड वर्किंग कंडीशन बिल 2020 में 29 श्रम कानूनों का विलय करा दिया है। यानी 29 छोटे-बड़े कानूनों को मिलाकर तीन कानून बनाए हैं।
कृषि बिलों से किसानों को लाभ पहुंचने की तर्ज पर, सरकार कह रही है कि इन कानूनों से मजदूरों का बहुत ज्यादा भला होने वाला है। उनकी मुश्किलें कम होंगी, रोजगार के अवसर बढ़ेंगे और उनको सामाजिक सुरक्षा मिलेगी। पर क्या सचमुच में ऐसा है?
पहली नजर में ऐसा लग रहा है कि इन कानूनों को लेकर सरकार जो दावा कर रही है वह सरकार के दूसरे दावों की ही तरह है और श्रम कानूनों में बदलाव से सरकार मजदूरों की बजाय उद्योगों को ही संरक्षण देती दिख रही है।
देंखे तो इंडस्ट्रियल रिलेशन कोड बिल में मालिक व मजदूर के बीच के संबंधों को बदलने का प्रावधान है। इससे उद्योगपति व मजदूर का संबंध मालिक और नौकर से बदलकर, मालिक और गुलाम वाला हो जाएगा। इसमें मजदूरों के हड़ताल के अधिकार को भी सीमित कर दिया गया हैं। विधेयक के मुताबिक, मजदूर 60 दिन का नोटिस दिए बगैर हड़ताल नहीं कर सकेंगे। वहीं, जब तक मजदूर या मजदूरों का मामला किसी भी ट्रिब्यूनल के सामने लंबित है तब तक उस पर हड़ताल नहीं की जा सकती है। यही नहीं, यह भी प्रावधान है कि फैक्टरी या कंपनी का मालिक सिर्फ उसी मजदूर संगठन की बात सुनेगा, जिसमें कंपनी के 51 फीसदी मजदूर सदस्य होंगे।
इंडस्ट्रियल रिलेशन कोड बिल में केंद्र सरकार ने कंपनी से छंटनी या कंपनी बंद करने की अनुमति के लिए तय 100 मजदूरों की सीमा को बढ़ा कर 300 कर दिया है। मतलब 300 मजदूरों या कर्मचारियों वाली कंपनी बिना सरकार की मंजूरी के, छंटनी कर सकती है या कंपनी बंद कर सकती है।
सोशल सिक्योरिटी कोड बिल में नेशनल सोशल सिक्योरिटी बोर्ड बनाने का प्रस्ताव है। कहा गया है कि यह बोर्ड मजदूरों की भलाई के लिए खास कर अनौपचारिक या असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की भलाई के लिए योजनाएं शुरू करने के सुझाव देगी। यह अच्छी बात है कि सरकार इसका दायरा बढ़ा रही है और स्वतंत्र रूप से या अकेले इधर-उधर काम करने वाले मजदूरों को भी इसमें शामिल कर रही है।
पर वास्तविकता क्या है, श्रमिक संगठनों के अनुसार इस बारे में स्पष्टता का अभाव है। क्या सीएसआर की तरह इसके लिए कंपनी फंड बनेगा? इस विधेयक में कॉन्ट्रेक्ट वर्कर को भी ग्रेच्युटी (पीएफ राशि) मिलेगी। लेकिन ईंट भट्ठों, होटलों-ढाबों, 20 से कम कर्मचारियों वाले लघु उद्योगों आदि में कार्यरत मजदूरों को लेकर विधेयक में स्पष्टता का अभाव दिख रहा है। यही नहीं, विधेयक में कृषि क्षेत्र के मजदूरों की बाबत भी स्पष्टता नहीं हैं।
सीआईटीयू सहारनपुर के जिला संयोजक सुरेंद्र कुमार कहते हैं कि 300 कर्मचारियों वाली फैक्ट्री अब मजदूर को कभी भी निकाल देगी और वह (मजदूर) कहीं उपश्रमायुक्त आदि के यहां शिकायत तक नहीं कर सकता है। तो इससे बड़ा शोषण भला और क्या होगा। दूसरा, रही बात सरकार के बदलावों को मजदूरों के हित में बताने की तो..चाहे बात किसान की हो या मजदूरों की, सरकार जो कहती है असलियत, उसके एकदम उलट होती है। कुछ भी उठाकर देख लो, हर जगह सरकार की कथनी करनी यही मिलेगी।
इन्हीं सबसे ट्रेड यूनियनों ने इन विधेयकों को मजदूर विरोधी बताते हुए तत्काल प्रभाव से वापस लेने की मांग की है। भाजपा के पितृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से जुड़े भारतीय मजदूर संघ ने भी इन विधेयकों का विरोध किया है।
यही नहीं, कांग्रेस सहित प्रमुख विपक्षी दलों का भी कहना है कि ये श्रम कानून मजदूर विरोधी और पूंजीपतियों व उद्योगपतियों को लाभ पहुंचाने वाले हैं। पहले आर्थिक सुस्ती और फिर लॉकडाउन के बाद देश में श्रमिकों की हालत पहले से ही खराब है, ये श्रम कानून इन्हें और भी कमजोर बनाएंगे। कभी भी हायर और फायर की नीति के कारण कंपनियों को मनमानी करने का मौका मिलेगा।
वैसे भी देखा जाए तो दैनिक वेतनभोगी श्रमिक और खेत मजदूर पहले से ही असुरक्षित हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की हालिया वार्षिक रिपोर्ट 2019 में भारत में दुर्घटना से होने वाली मौतों और आत्महत्याओं के आंकड़ों के अनुसार, देश में आत्महत्या से मरने वाले लगभग एक-चौथाई लोग दिहाड़ी मजदूर हैं। वहीं साल 2019 में आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या 10,281 है, जो कि देश के कुल 1,39,123 आत्महत्याओं का 7.4 प्रतिशत है। बीते साल आत्महत्या करने वालो में लगभग 5,957 किसान थे, जबकि 4,324 (42 प्रतिशत) खेतिहर मजदूर थे।
अब उद्योग जगत को बढ़ावा देने का सरकार का उद्देश्य तो उचित है, पर इस उचित उद्देश्य को पूरा करने के लिये कामगारों के हित और उन्हें प्राप्त कानूनी संरक्षण की बलि क्यों दी जा रही है? यह अपने आप में अनुत्तरित सवाल हैं?

राज्यसभा के आखिरी दिन श्रमिकों से जुड़े 3 विधेयक पारित किए गए हैं, जिन्हें सरकार मज़दूरों के हित में बता रही है। हालांकि यह बात और है कि जिस किसान व मजदूर वर्ग के हित के दावे सरकार कर रही है। वही वर्ग कह रहे हैं कि सरकार हुज़ूर, आप यह भलाई मत करिये। उन्हें नहीं चाहिए ऐसी भलाई।
मजदूरों की ही बात करें तो खास है कि सरकार ने 3 विधेयक इंडस्ट्रियल रिलेशन कोड बिल, सोशल सिक्योरिटी कोड बिल और ओक्यूपेशनल सेफ्टी, हेल्थ एंड वर्किंग कंडीशन बिल 2020 में 29 श्रम कानूनों का विलय करा दिया है। यानी 29 छोटे-बड़े कानूनों को मिलाकर तीन कानून बनाए हैं।
कृषि बिलों से किसानों को लाभ पहुंचने की तर्ज पर, सरकार कह रही है कि इन कानूनों से मजदूरों का बहुत ज्यादा भला होने वाला है। उनकी मुश्किलें कम होंगी, रोजगार के अवसर बढ़ेंगे और उनको सामाजिक सुरक्षा मिलेगी। पर क्या सचमुच में ऐसा है?
पहली नजर में ऐसा लग रहा है कि इन कानूनों को लेकर सरकार जो दावा कर रही है वह सरकार के दूसरे दावों की ही तरह है और श्रम कानूनों में बदलाव से सरकार मजदूरों की बजाय उद्योगों को ही संरक्षण देती दिख रही है।
देंखे तो इंडस्ट्रियल रिलेशन कोड बिल में मालिक व मजदूर के बीच के संबंधों को बदलने का प्रावधान है। इससे उद्योगपति व मजदूर का संबंध मालिक और नौकर से बदलकर, मालिक और गुलाम वाला हो जाएगा। इसमें मजदूरों के हड़ताल के अधिकार को भी सीमित कर दिया गया हैं। विधेयक के मुताबिक, मजदूर 60 दिन का नोटिस दिए बगैर हड़ताल नहीं कर सकेंगे। वहीं, जब तक मजदूर या मजदूरों का मामला किसी भी ट्रिब्यूनल के सामने लंबित है तब तक उस पर हड़ताल नहीं की जा सकती है। यही नहीं, यह भी प्रावधान है कि फैक्टरी या कंपनी का मालिक सिर्फ उसी मजदूर संगठन की बात सुनेगा, जिसमें कंपनी के 51 फीसदी मजदूर सदस्य होंगे।
इंडस्ट्रियल रिलेशन कोड बिल में केंद्र सरकार ने कंपनी से छंटनी या कंपनी बंद करने की अनुमति के लिए तय 100 मजदूरों की सीमा को बढ़ा कर 300 कर दिया है। मतलब 300 मजदूरों या कर्मचारियों वाली कंपनी बिना सरकार की मंजूरी के, छंटनी कर सकती है या कंपनी बंद कर सकती है।
सोशल सिक्योरिटी कोड बिल में नेशनल सोशल सिक्योरिटी बोर्ड बनाने का प्रस्ताव है। कहा गया है कि यह बोर्ड मजदूरों की भलाई के लिए खास कर अनौपचारिक या असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की भलाई के लिए योजनाएं शुरू करने के सुझाव देगी। यह अच्छी बात है कि सरकार इसका दायरा बढ़ा रही है और स्वतंत्र रूप से या अकेले इधर-उधर काम करने वाले मजदूरों को भी इसमें शामिल कर रही है।
पर वास्तविकता क्या है, श्रमिक संगठनों के अनुसार इस बारे में स्पष्टता का अभाव है। क्या सीएसआर की तरह इसके लिए कंपनी फंड बनेगा? इस विधेयक में कॉन्ट्रेक्ट वर्कर को भी ग्रेच्युटी (पीएफ राशि) मिलेगी। लेकिन ईंट भट्ठों, होटलों-ढाबों, 20 से कम कर्मचारियों वाले लघु उद्योगों आदि में कार्यरत मजदूरों को लेकर विधेयक में स्पष्टता का अभाव दिख रहा है। यही नहीं, विधेयक में कृषि क्षेत्र के मजदूरों की बाबत भी स्पष्टता नहीं हैं।
सीआईटीयू सहारनपुर के जिला संयोजक सुरेंद्र कुमार कहते हैं कि 300 कर्मचारियों वाली फैक्ट्री अब मजदूर को कभी भी निकाल देगी और वह (मजदूर) कहीं उपश्रमायुक्त आदि के यहां शिकायत तक नहीं कर सकता है। तो इससे बड़ा शोषण भला और क्या होगा। दूसरा, रही बात सरकार के बदलावों को मजदूरों के हित में बताने की तो..चाहे बात किसान की हो या मजदूरों की, सरकार जो कहती है असलियत, उसके एकदम उलट होती है। कुछ भी उठाकर देख लो, हर जगह सरकार की कथनी करनी यही मिलेगी।
इन्हीं सबसे ट्रेड यूनियनों ने इन विधेयकों को मजदूर विरोधी बताते हुए तत्काल प्रभाव से वापस लेने की मांग की है। भाजपा के पितृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से जुड़े भारतीय मजदूर संघ ने भी इन विधेयकों का विरोध किया है।
यही नहीं, कांग्रेस सहित प्रमुख विपक्षी दलों का भी कहना है कि ये श्रम कानून मजदूर विरोधी और पूंजीपतियों व उद्योगपतियों को लाभ पहुंचाने वाले हैं। पहले आर्थिक सुस्ती और फिर लॉकडाउन के बाद देश में श्रमिकों की हालत पहले से ही खराब है, ये श्रम कानून इन्हें और भी कमजोर बनाएंगे। कभी भी हायर और फायर की नीति के कारण कंपनियों को मनमानी करने का मौका मिलेगा।
वैसे भी देखा जाए तो दैनिक वेतनभोगी श्रमिक और खेत मजदूर पहले से ही असुरक्षित हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की हालिया वार्षिक रिपोर्ट 2019 में भारत में दुर्घटना से होने वाली मौतों और आत्महत्याओं के आंकड़ों के अनुसार, देश में आत्महत्या से मरने वाले लगभग एक-चौथाई लोग दिहाड़ी मजदूर हैं। वहीं साल 2019 में आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या 10,281 है, जो कि देश के कुल 1,39,123 आत्महत्याओं का 7.4 प्रतिशत है। बीते साल आत्महत्या करने वालो में लगभग 5,957 किसान थे, जबकि 4,324 (42 प्रतिशत) खेतिहर मजदूर थे।
अब उद्योग जगत को बढ़ावा देने का सरकार का उद्देश्य तो उचित है, पर इस उचित उद्देश्य को पूरा करने के लिये कामगारों के हित और उन्हें प्राप्त कानूनी संरक्षण की बलि क्यों दी जा रही है? यह अपने आप में अनुत्तरित सवाल हैं?