नई दिल्ली। नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन जर्मनी का शांति पुरस्कार हासिल करने वाले दूसरे भारतीय बन गए हैं। दरअसल जर्मनी में हर साल विश्वप्रसिद्ध फ्रैंकफर्ट पुस्तक मेला लगता है। यह मेला साल 1949 से लगातार चलता आ रहा है। इसका समापन एक शांति पुरस्कार के साथ होता है। अमर्त्य सेन को 1998 में पहले ही अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार मिल चुका है। यह पुरस्कार उन्हें अर्थशास्त्र में शोधपूर्ण कार्यों के लिए दिया गया। इसलिए अब फ्रैंकफर्ट पुस्तक मेले के आयोजक जर्मन पुस्तक प्रकाशक एवं विक्रेता संघ ने अक्टूबर में होने वाले पुस्तक मेले के समय अर्थशास्त्र के साथ साथ दर्शनशास्त्र के लिए उनके योगदान को भी सम्मानित करना चाहता है।

अमर्त्य सेन से पहले भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन को दर्शनशास्त्र की समृद्धि में उनके योगदान के लिए 1961 में फ्रैंकफ़र्ट पुस्तक मेले का शांति-पुरस्कार मिल चुका है। इस पुरस्कार को पाने वाले वे पहले भारतीय थे। किंतु उन्हें नोबेल पुरस्कार कभी नहीं मिला।
इस पुरस्कार के रूप में एक प्रशस्तिपत्र के साथ 25 हज़ार यूरो (1यूरो=80 रूपये) दिये जाते हैं। वितरण समारोह हमेशा फ्रैकफ़र्ट के सेंट पॉल चर्च में होता है और पूरे जर्मनी में टेलीविज़न पर इसका सीधा प्रसारण किया जाता है। कोरोना की यदि कृपा रही, तो इस बार यह समारोह 18 अक्टूबर को होगा।
बुधवार 17 जून को जारी की गयी अपनी तत्संबंधी घोषणा में ‘जर्मन पुस्तक प्रकाशक एवं विक्रेता संघ’ ने कहा, 'हम अमर्त्य सेन के रूप में एक ऐसे दार्शनिक को सम्मनित करना चाहते हैं, जो कई दशकों से विश्वव्यापी स्तर पर (सामाजिक) न्याय के प्रश्नों पर चिंतन-मनन कर रहा है और जिसके शोधकार्य शिक्षा एवं स्वास्थ्य संबंधी अन्यायों से लड़ने की दृष्टि से जितने आज प्रासंगिक हैं, उतने पहले कभी नहीं थे।'
'जर्मन पुस्तक प्रकाशक एवं विक्रेता संघ' की अध्यक्ष कारिन श्मिट-फ़्रीडरिक्स ने इस अवसर पर अमर्त्य सेन की सराहना करते हुए कहा कि वे मानते हैं कि'सामाजिक खुशहाली केवल आर्थिक वृद्धि के पैमाने से ही नहीं मापी जा सकती, बल्कि उसे सबसे कमज़ोरों के लिए विकास की संभावनाओं के आधार पर आंकना होगा। उनका प्रेरणादायी कार्य राजनीतिक निर्णयों की एक ऐसी संस्कृति बनाने का आह्वान है, जो दूसरों के प्रति उत्तरदायित्व की भावना से संचालित होता है और किसी को भी सहभागिता या आत्मनिर्णय के अधिकार से वंचित नहीं करता।'
86 वर्षीय अमर्त्य सेन का जन्म 3 नवंबर 1933 को पश्चिमी बंगाल के शांतिनिकेतन में हुआ था। उन्होंने भारत के स्वतंत्रता संग्राम को देखा है और वे 1943 में बंगाल में पड़े भीषण अकाल के भी साक्षी रहे हैं। उस अकाल ने उन्हें सिखाया कि भुखमरी जैसी आपदायें सिर्फ किसी अभाव के कारण ही नहीं पैदा होतीं, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक परिस्थियों की देन भी होती हैं।

अमर्त्य सेन से पहले भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन को दर्शनशास्त्र की समृद्धि में उनके योगदान के लिए 1961 में फ्रैंकफ़र्ट पुस्तक मेले का शांति-पुरस्कार मिल चुका है। इस पुरस्कार को पाने वाले वे पहले भारतीय थे। किंतु उन्हें नोबेल पुरस्कार कभी नहीं मिला।
इस पुरस्कार के रूप में एक प्रशस्तिपत्र के साथ 25 हज़ार यूरो (1यूरो=80 रूपये) दिये जाते हैं। वितरण समारोह हमेशा फ्रैकफ़र्ट के सेंट पॉल चर्च में होता है और पूरे जर्मनी में टेलीविज़न पर इसका सीधा प्रसारण किया जाता है। कोरोना की यदि कृपा रही, तो इस बार यह समारोह 18 अक्टूबर को होगा।
बुधवार 17 जून को जारी की गयी अपनी तत्संबंधी घोषणा में ‘जर्मन पुस्तक प्रकाशक एवं विक्रेता संघ’ ने कहा, 'हम अमर्त्य सेन के रूप में एक ऐसे दार्शनिक को सम्मनित करना चाहते हैं, जो कई दशकों से विश्वव्यापी स्तर पर (सामाजिक) न्याय के प्रश्नों पर चिंतन-मनन कर रहा है और जिसके शोधकार्य शिक्षा एवं स्वास्थ्य संबंधी अन्यायों से लड़ने की दृष्टि से जितने आज प्रासंगिक हैं, उतने पहले कभी नहीं थे।'
'जर्मन पुस्तक प्रकाशक एवं विक्रेता संघ' की अध्यक्ष कारिन श्मिट-फ़्रीडरिक्स ने इस अवसर पर अमर्त्य सेन की सराहना करते हुए कहा कि वे मानते हैं कि'सामाजिक खुशहाली केवल आर्थिक वृद्धि के पैमाने से ही नहीं मापी जा सकती, बल्कि उसे सबसे कमज़ोरों के लिए विकास की संभावनाओं के आधार पर आंकना होगा। उनका प्रेरणादायी कार्य राजनीतिक निर्णयों की एक ऐसी संस्कृति बनाने का आह्वान है, जो दूसरों के प्रति उत्तरदायित्व की भावना से संचालित होता है और किसी को भी सहभागिता या आत्मनिर्णय के अधिकार से वंचित नहीं करता।'
86 वर्षीय अमर्त्य सेन का जन्म 3 नवंबर 1933 को पश्चिमी बंगाल के शांतिनिकेतन में हुआ था। उन्होंने भारत के स्वतंत्रता संग्राम को देखा है और वे 1943 में बंगाल में पड़े भीषण अकाल के भी साक्षी रहे हैं। उस अकाल ने उन्हें सिखाया कि भुखमरी जैसी आपदायें सिर्फ किसी अभाव के कारण ही नहीं पैदा होतीं, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक परिस्थियों की देन भी होती हैं।