मजदूर वर्ग के साथ भेदभाव और भारतीय राष्ट्रवाद का घिनौना चेहरा

Written by Shamsul Islam | Published on: May 21, 2020
राजनीती शास्त्र के छात्र के तौर पर मैं ने सेम्युएल जॉनसन (Samuel Johnson) का यह कथन पढ़ा था की देश-भक्ति के नारे दुष्ट चरित्र वाले लोगों के लिए अंतिम शरण (कुकर्मों को छुपाने का साधन) होते हैं। इसकी अगर जीती-जागती तस्वीर देखनी हो और इस कथन को समझना हो तो विश्व की महानतम सभ्यता, हमारे भारत में कोविद-19 की महामारी के दौरान मज़दूरों के साथ जो किया जा रहा है उसे जानना काफ़ी होगा। 



देश के शासक और हैसियत वाले लोग जिन में से अक्सर उच्च जातियों से आते हैं यह राग लगातार अलापते रहते हैं कि हमारा देश सारे विश्व को एक कुनबा मानता है, हमारे मेहमान तक भगवन का दर्जा रखते हैं और हम सब एक ही भारत माँ के बंदे हैं। लेकिन हमने ख़ासतौर पर आरएसएस-भाजपा शासकों ने अपने ही देश के करोड़ों मेहनतकशों के साथ कोविद-19 की महामारी के दौरान जो किया है और कर रहे हैं उसे देखकर इन सब दावों को सफ़ेद झूठ ही कहा जा सकता है। इसका सब से शर्मनाक पहलू यह है कि दर-दर की ठोकरें खा रहे भूखे बदहाल मज़दूर जो सैंकड़ों किलोमीटर पैदल, टूटी-फूटी साइकिलों, साइकिल रिकशों का सफर तय कर रहे हैं, पुलिस की दहशत से रेल की पटरियों पर चलने पर मजबूर हैं, मारे जा रहे हैं, कुचले जा रहे हैं, आत्म-हत्या करने पर मजबूर हैं, उन्हें हम ने एक नया नाम दिया है 'प्रवासी मज़दूर' जैस कि वे किसी विदेश से आए हों।

सारे विश्व को कुनबा मानने वाले हमारे देश के करणधार इन मज़दूरों को जिनमें से बहुत बड़ी तादाद दलितों, पिछड़ी जातियों और अल्पसंखयकों की है ''प्रवासी" कहकर सिर्फ इन का अपमान ही नहीं कर रहे हैं बल्कि अपनी नस्लवादी सोच को ही ज़ाहिर कर रहे हैं। यह अजीब बात है की जब मुंबई, दिल्ली, बेंगलुरु, चेन्नई, हैदराबाद, गुडगाँव, कोलकता वग़ैरा में देश के भिन्न-भिन्न हिस्सों से आकर इंजीनियर, IT विशेषज्ञ, white-collar पेशेवर और अफ़सर काम करते हैं तो हम इन सब को प्रवासी नहीं कहते हैं। वे इन शहरों की शान माने जाते हैं; gentry!
 
देश के किसी भी हिस्से से पूंजीपति बिहार, मध्य प्रदेश, तेलंगाना, झारखण्ड, उतर प्रदेश, बंगाल इत्यादी जा कर धंधा करते हैं, कारखाने लगाते हैं, उन्हें प्रवासी पूंजीपति नहीं बताया जाता!

पूरे उत्तर-पूर्व में ज़्यादा कारोबार मारवाड़ियों के हाथ में है, उन्हें प्रवासी कारोबारी नहीं बताया जाता! गुजरात से आकर लोग हमारे देश के प्रधान-मंत्री और गृह-मंत्री बन जाते हैं, उन्हें प्रवासी शासक नहीं बताया जाता!

उत्तराखंड से एक स्वामी आकर देश के सब से बड़े प्रान्त का मुख्य-मंत्री बन जाता है लेकिन उनको प्रवासी नहीं कहा जाता!
यह सब राष्ट्रीय होते हैं। केवल मज़दूर जो अपना खून-पसीना और जीवन देश के बड़े शहरों को शहर बनाने में खपाते हैं, देश की सकल घरेलू उत्पाद (GDP) इन की मेहनत से बंटी/बिगड़ती है, पंजाब और हरयाणा में हरित-क्रांति की नींव डालते हैं, उनके ही गले में प्रवासी होने की तख्ती लटकाई जाती है। यह बिलकुल उसी तरह का नस्लवाद है जो 150 साल पहले अमरीका में लागू था।     

कोविद-19 में जो कुछ भी हुआ हो और हो रहा हो, देश के पैसे वाले लोग और उनके सरपरस्त आरएसएस-भाजपा के शासक इस बात को समझ गए हैं कि मज़दूरों के बिना उनके ऐश-आराम नहीं चल सकते हैं, मज़दूरों के पलायन पर वे स्यापा कर रहे हैं। यह ही वो समय है जब सारे देश के मज़दूर खुद के प्रवासी होने और लुटेरों के राष्ट्रीय होने के सिद्धांत को चनौती दें। जो मजदूरों को प्रवासी बता रहे हैं उनसे पूछें की वह कहाँ से अवतरित हुए हैं? सच तो यह है कि मज़दूरों को प्रवासी बता कर इस देश के शासक ही देश को खंडित करने का रास्ता सुझा रहे हैं।  

फैज़ के शब्दों में:
हम मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्सा मांगेंगे,
इक खेत नहीं, इक देश नहीं, हम सारी दुनिया मांगेंगे
यां पर्वत-पर्वत हीरे हैं, यां सागर-सागर मोती हैं
ये सारा माल हमारा है, हम सारा खजाना मांगेंगे      

शम्सुल इस्लाम 
         
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