आज के हिन्दुस्तान टाइम्स में शाहीनबाग से संबंधित कोई खबर पहले पन्ने पर नहीं है। टाइम्म ऑफ इंडिया की खबर का अंग्रेजी में जो शीर्षक है वह हिन्दी में कुछ इस प्रकार होता - अगर रोड ब्लॉक खत्म होता है तो सुप्रीम कोर्ट मामले की सुनवाई ज्यादा गौर से करेगा। अखबार ने यह शीर्षक सिंगल इंवर्टेड कॉमा में लगाया है यानी यह अखबार की राय नहीं है। खबर पढ़ने से पता चलता है कि ऐसा संदेश सुप्रीमकोर्ट द्वारा नियुक्त वार्ताकारों ने दिया है। पर मुझे यह अटपटा लग रहा है। मैंने पूरी खबर नहीं पढ़ी ना मैं पूरी खबर पर टिप्पणी करता हूं। मुझे शीर्षक का खेल ज्यादा दिलचस्प लगता है और मैं उसी को रेखांकित करना चाहता हूं। पाठकों पर भी उसी का असर ज्यादा होता है या खबर का भाव वही होता है। हिन्दी अखबारों में नवोदय टाइम्स के शीर्षक से बात ज्यादा स्पष्ट होती है, शाहीनबाग से निराश ही लौटे वार्ताकार।
दैनिक भास्कर ने खबर को पूरे विस्तार से छापा है। फ्लैग शीर्षक है, शाहीनबाग 68वां दिन, सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर शुरू हुई वार्ता दूसरे दिन भी बेनतीजा, आज फिर जाएंगे। मुख्य शीर्षक है, वार्ताकार बोले - शाहीनबाग में कुछ गलत हुआ तो देश भर में कई जगहों पर गलत होगा। इस मुख्य खबर के साथ एक अलग खबर है, सुप्रीम कोर्ट आपके साथ है, तभी हमें भेजा गया : साधना। इसके साथ एक और - कौन कहता है कि आप हिन्दुस्तानी नहीं : संजय। कहने की जरूरत नहीं है कि इन खबरों और सुर्खियों से लग रहा है धरना देने वालों को समझाने-मनाने की कोशिश चल रही है। हालांकि, मुझे इसकी कोई जरूरत नहीं लगती। प्रशासनिक कारणों से अगर धरना हटाना है तो हटाया जा सकता है। भले ही मामला सुप्रीम कोर्ट में होने के कारण प्रशासन फैसले के बिना कोई कार्रवाई नहीं करे पर तब सुप्रीम कोर्ट का काम लोगों को मनाना नहीं, सही-गलत के आधार पर फैसला देना है।
इन तथ्यों के आधार पर दिल्ली चुनाव से पहले प्रधानमंत्री के कहे, "यह संयोग नहीं प्रयोग है" को याद कीजिए तो लगता है कि कहां कौन कैसे-कैसे प्रयोग कर रहा है और क्या वाकई इसकी जरूरत है? आमतौर पर पाठक एक अखबार पढ़कर अपनी राय बनाते हैं। अगर आप यह मान लें कि अखबार वाले भी कुछ चाहते हैं तो अक्सर बात बहुत साफ होती है। नवभारत टाइम्स में भी यह खबर लीड है। शीर्षक है, शोर में उलझता दिखा शांति-बाग का रास्ता। उपशीर्षक है, आज 10-10 लोगों के ग्रुप से होगी बात। हिन्दुस्तान में इस खबर का फ्लैग शीर्षक है, गतिरोध : वार्ताकारों की रास्ता खुलवाने की कोशिश दूसरे दिन भी विफल रही। मुख्य शीर्षक है, शाहीनबाग के प्रदर्शनकारी अपनी मांगों पर कायम।
दैनिक जागरण में यह खबर लीड नहीं है लेकिन पहले पन्ने पर है। तीन कॉलम की इस खबर का शीर्षक बहुत छोटे फौन्ट में है, शाहीनबाग पर दूसरे दिन भी नहीं बनी बात, आज फिर होगा प्रयास। अखबार की खबर बताती है, सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त दो वार्ताकार दूसरे दिन भी शाहीन बाग पहुंचे। उन्होंने प्रदर्शनकारियों से वार्ता के दौरान हूटिंग होने पर नाराजगी जताते हुए कहा, आपका यही व्यवहार रहा तो शुक्रवार से यहां नहीं आएंगे। इसके बाद लोग शांत हुए और अपनी बात रखी। वार्ताकारों ने दो प्रदर्शनकारियों के साथ अवैध रूप से बंद किए गए पूरे रास्ते का अवलोकन किया और जामिया नगर के रास्ते वापस चले गए।
इन सभी खबरों और शीर्षकों से अलग, द टेलीग्राफ का शीर्षक है, "सीएए पर पहले फैसला किया जाए : शाहीन"। कहने की जरूरत नहीं है कि इसका मतलब यह है कि शाहीनबाग के प्रदर्शनकारियों ने कहा कि पहले सीएए पर फैसला हो। मेरे ख्याल से यह मांग ना नई हैं और ना अनुचित। सरकार ने एक ऐसा कानून बनाया है जिसका इतना विरोध है (और अगर इससे परेशानी भी है) तो क्यों नहीं उस कानून की संवैधानिकता पर भी फैसला हो जाए। अखबारों में इसकी मांग नहीं के बराबर है। प्रदर्शनकारियों ने यह मांग की है और यही टेलीग्राफ की खबर है पर दूसरे अखबारों में नहीं है।
मैं कल दिन में मोहल्ले की एक दुकान पर गया तो दुकानदार अकेला बैठा टेलीविजन देख रहा था। एक चैनल पर शाहीनबाग के धरने की चर्चा हो रही थी। बहस का मुद्दा यही लगा कि सरकार को प्रदर्शनकारियों से बात करनी चाहिए और एंकर कह रहा था कि कोई 50 लोगों को जुटाकर सड़क पर बैठ जाए तो सरकार सड़क खुलवाएगी या उनसे बात करेगा। मैंने दुकानदार की राय जानने के लिए उसे छेड़ा, सरकार किस इंतजार में है। सड़क खुलवाने में क्या दिक्कत है? अकेले बैठे दुकानदार ने कहा, गोली मारनी पड़ेगी इन्हें। कितने दिन इन्हें सड़क घेरने दिया जाएगा। मुझे लगा, अखबारों और टेलीविजन ने धरना देने वालों को जबरन हटाने का माहौल बना दिया है और वार्ताकारों के जरिए सुप्रीम कोर्ट की कोशिश को भी यही रंग दे दिया गया है कि वे मान ही नहीं रहे हैं तो एकमात्र विकल्प यही है। उसमें सुप्रीम कोर्ट का फैसला कब आएगा यह मुद्दा ही नहीं है।
दैनिक भास्कर ने खबर को पूरे विस्तार से छापा है। फ्लैग शीर्षक है, शाहीनबाग 68वां दिन, सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर शुरू हुई वार्ता दूसरे दिन भी बेनतीजा, आज फिर जाएंगे। मुख्य शीर्षक है, वार्ताकार बोले - शाहीनबाग में कुछ गलत हुआ तो देश भर में कई जगहों पर गलत होगा। इस मुख्य खबर के साथ एक अलग खबर है, सुप्रीम कोर्ट आपके साथ है, तभी हमें भेजा गया : साधना। इसके साथ एक और - कौन कहता है कि आप हिन्दुस्तानी नहीं : संजय। कहने की जरूरत नहीं है कि इन खबरों और सुर्खियों से लग रहा है धरना देने वालों को समझाने-मनाने की कोशिश चल रही है। हालांकि, मुझे इसकी कोई जरूरत नहीं लगती। प्रशासनिक कारणों से अगर धरना हटाना है तो हटाया जा सकता है। भले ही मामला सुप्रीम कोर्ट में होने के कारण प्रशासन फैसले के बिना कोई कार्रवाई नहीं करे पर तब सुप्रीम कोर्ट का काम लोगों को मनाना नहीं, सही-गलत के आधार पर फैसला देना है।
इन तथ्यों के आधार पर दिल्ली चुनाव से पहले प्रधानमंत्री के कहे, "यह संयोग नहीं प्रयोग है" को याद कीजिए तो लगता है कि कहां कौन कैसे-कैसे प्रयोग कर रहा है और क्या वाकई इसकी जरूरत है? आमतौर पर पाठक एक अखबार पढ़कर अपनी राय बनाते हैं। अगर आप यह मान लें कि अखबार वाले भी कुछ चाहते हैं तो अक्सर बात बहुत साफ होती है। नवभारत टाइम्स में भी यह खबर लीड है। शीर्षक है, शोर में उलझता दिखा शांति-बाग का रास्ता। उपशीर्षक है, आज 10-10 लोगों के ग्रुप से होगी बात। हिन्दुस्तान में इस खबर का फ्लैग शीर्षक है, गतिरोध : वार्ताकारों की रास्ता खुलवाने की कोशिश दूसरे दिन भी विफल रही। मुख्य शीर्षक है, शाहीनबाग के प्रदर्शनकारी अपनी मांगों पर कायम।
दैनिक जागरण में यह खबर लीड नहीं है लेकिन पहले पन्ने पर है। तीन कॉलम की इस खबर का शीर्षक बहुत छोटे फौन्ट में है, शाहीनबाग पर दूसरे दिन भी नहीं बनी बात, आज फिर होगा प्रयास। अखबार की खबर बताती है, सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त दो वार्ताकार दूसरे दिन भी शाहीन बाग पहुंचे। उन्होंने प्रदर्शनकारियों से वार्ता के दौरान हूटिंग होने पर नाराजगी जताते हुए कहा, आपका यही व्यवहार रहा तो शुक्रवार से यहां नहीं आएंगे। इसके बाद लोग शांत हुए और अपनी बात रखी। वार्ताकारों ने दो प्रदर्शनकारियों के साथ अवैध रूप से बंद किए गए पूरे रास्ते का अवलोकन किया और जामिया नगर के रास्ते वापस चले गए।
इन सभी खबरों और शीर्षकों से अलग, द टेलीग्राफ का शीर्षक है, "सीएए पर पहले फैसला किया जाए : शाहीन"। कहने की जरूरत नहीं है कि इसका मतलब यह है कि शाहीनबाग के प्रदर्शनकारियों ने कहा कि पहले सीएए पर फैसला हो। मेरे ख्याल से यह मांग ना नई हैं और ना अनुचित। सरकार ने एक ऐसा कानून बनाया है जिसका इतना विरोध है (और अगर इससे परेशानी भी है) तो क्यों नहीं उस कानून की संवैधानिकता पर भी फैसला हो जाए। अखबारों में इसकी मांग नहीं के बराबर है। प्रदर्शनकारियों ने यह मांग की है और यही टेलीग्राफ की खबर है पर दूसरे अखबारों में नहीं है।
मैं कल दिन में मोहल्ले की एक दुकान पर गया तो दुकानदार अकेला बैठा टेलीविजन देख रहा था। एक चैनल पर शाहीनबाग के धरने की चर्चा हो रही थी। बहस का मुद्दा यही लगा कि सरकार को प्रदर्शनकारियों से बात करनी चाहिए और एंकर कह रहा था कि कोई 50 लोगों को जुटाकर सड़क पर बैठ जाए तो सरकार सड़क खुलवाएगी या उनसे बात करेगा। मैंने दुकानदार की राय जानने के लिए उसे छेड़ा, सरकार किस इंतजार में है। सड़क खुलवाने में क्या दिक्कत है? अकेले बैठे दुकानदार ने कहा, गोली मारनी पड़ेगी इन्हें। कितने दिन इन्हें सड़क घेरने दिया जाएगा। मुझे लगा, अखबारों और टेलीविजन ने धरना देने वालों को जबरन हटाने का माहौल बना दिया है और वार्ताकारों के जरिए सुप्रीम कोर्ट की कोशिश को भी यही रंग दे दिया गया है कि वे मान ही नहीं रहे हैं तो एकमात्र विकल्प यही है। उसमें सुप्रीम कोर्ट का फैसला कब आएगा यह मुद्दा ही नहीं है।