पाठ्यपुस्तकों में आरएसएसः राष्ट्र और राष्ट्र निर्माण की विरोधाभासी अवधारणाएं

Written by Ram Puniyani | Published on: July 22, 2019
राष्ट्रवाद एक बार फिर राष्ट्रीय विमर्श के केन्द्र में है. पिछले कुछ वर्षों में हमने देखा कि किस तरह सरकार के आलोचकों को राष्ट्रद्रोही घोषित कर दिया गया. हमने यह भी देखा कि दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय को राष्ट्रविरोधी तत्वों का पोषक बताकर निशाना बनाया गया. इसके साथ ही, हिन्दू राष्ट्रवादी स्वयं को खालिस राष्ट्रवादी बता रहे हैं. बड़ी कुटिलता से उन्होंने उनके राष्ट्रवाद के पहले लगने वाले उपसर्ग ‘हिन्दू‘ को गायब कर दिया है. यह उपसर्ग यह बताता है कि भारत के राष्ट्र बनने की प्रक्रिया में उनकी कोई हिस्सेदारी नहीं थी. भारतीय राष्ट्र के निर्माण की प्रक्रिया बहुस्तरीय थी. उसमें साम्राज्यवादी शासकों का विरोध और प्रजातांत्रिक मूल्यों की स्थापना का प्रयास शामिल थे.

हाल में, नागपुर विश्वविद्यालय ने इतिहास के बीए पाठ्यक्रम में परिवर्तन किया है. द्वितीय वर्ष के पाठ्यक्रम में ‘भारत में साम्प्रदायिकता के उदय‘ शीर्षक अध्याय के स्थान  पर ‘आरएसएस का इतिहास और राष्ट्र निर्माण में उसकी भूमिका‘ शीर्षक अध्याय शामिल कर दिया गया है. विश्वविद्यालय के प्रवक्ता का कहना है कि ‘‘राष्ट्रवाद...भी भारतीय इतिहास का भाग है और संघ का इतिहास, राष्ट्रवाद का भाग है. इसलिए आरएसएस से संबंधित अध्याय को पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है.‘‘ इसके प्रतिउत्तर में कांग्रेस प्रवक्ता सचिन सावंत ने कहा कि ‘‘नागपुर विश्वविद्यालय को राष्ट्र निर्माण में आरएसएस की भूमिका की जानकारी ना मालूम कहां से मिली है. संघ एक विघटनकारी संगठन है, जिसने अंग्रेजों का साथ दिया, स्वाधीनता आंदोलन का विरोध किया और 52 साल तक तिरंगे को यह कहकर नहीं फहराया कि वह अशुभ है. संघ नफरत फैलाता है और भारतीय संविधान को मनुस्मृत्ति से प्रतिस्थापित करने की वकालत करता है‘‘.

भारत एक राष्ट्र कैसे बना? अठारहवीं सदी में राजाओं और नवाबों की जगह देश में अंग्रेजी शासन स्थापित हो गया. औपनिवेशिक शासनकाल में कई आर्थिक और सामाजिक परिवर्तन हुए. देश में ट्रेनें चलनी शुरू हुईं, डाक और तारघर स्थापित हुए और स्कूलों व विश्वविद्यालयों के जरिए आधुनिक शिक्षा प्रारंभ हुई. इन परिवर्तनों ने सामाजिक रिश्तों को भी प्रभावित किया. जातिप्रथा का फौलादी ढ़ांचा बिखरने लगा. सावित्रीबाई फुले और उनकी तरह के अन्य लोगों ने लड़कियों को शिक्षित करने का प्रयास शुरू कर महिलाओं के पुरूषों के अधीन होने की अवधारणा को चुनौती दी. समाज में उद्योगपतियों, आधुनिक व्यवसायियों और शिक्षित व्यक्तियों के नए वर्ग उभरे. इन सभी ने राजनीति को प्रभावित किया.

इन्हीं सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों का परिणाम था भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का गठन. जातिगत ऊँच-नीच के विरूद्ध जोतिबा फुले और बाबासाहेब अम्बेडकर ने आवाज उठाई. नारायण मेघाजी लोखंडे और कामरेड सिंगारवेलु के नेतृत्व में ट्रेड यूनियनों ने श्रमिकों के पक्ष में आवाज बुलंद करनी शुरू की. भगतसिंह जैसे क्रांतिकारियों ने समाजवाद की स्थापना के अपने स्वप्न को साकार करने के लिए औपनिवेशिक सरकार का विरोध किया. राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया के दो पक्ष थे - पहला था, श्रमिकों, महिलाओं, शिक्षित वर्ग, सरकारी नौकरों और उद्योगपतियों की महत्वाकांक्षाओं की अभिव्यक्ति और दूसरा, अंग्रेज औपनिवेशिक शासकों के विरूद्ध संघर्ष. पहली प्रक्रिया मूलतः सामाजिक थी और दूसरी राजनैतिक.

इन सामाजिक-राजनैतिक परिवर्तनों के खिलाफ राजाओं और जमींदारों का अस्त होता वर्ग उठ खड़ा हुआ और उसने अपने संगठन बनाने शुरू कर दिए. ये संगठन एक ओर जातिगत और लैंगिक रिश्तों में परिवर्तन के विरोधी थे तो दूसरी ओर वे धर्म के नाम पर राष्ट्रवाद के पक्षधर थे. वे अंग्रेजों के खिलाफ चल रहे राष्ट्रीय आंदोलन के विरोधी थे. इन अस्त होते वर्गों का राष्ट्रवाद, धर्म के रंग में रंगा हुआ था परंतु उनके मूल उद्देश्य राजनैतिक थे. वे चाहते थे कि सामंती काल की तरह, जन्म-आधारित पदक्रम बना रहे.

मुस्लिम राष्ट्रवाद की प्रवक्ता थी मुस्लिम लीग और हिन्दू राष्ट्रवाद के झंडाबरदार थे हिन्दू महासभा और आरएसएस. जहां हिन्दू महासभा के नाम से ही यह जाहिर था कि वह हिन्दुओं का संगठन है वहीं आरएसएस के राष्ट्रवाद के मूल में भी हिन्दू धर्म ही है. सावरकर ने अत्यंत अनमने ढ़ंग से जातिप्रथा का विरोध किया. कुल मिलाकर, ये सभी संगठन ऐसे सामाजिक परिवर्तनों के विरोधी थे जिनसे लैंगिक व जातिगत ऊँच-नीच और भेदभाव घटता या समाप्त होता. इन सभी संगठनों ने कभी स्वाधीनता संग्राम में हिस्सेदारी नहीं की. कालापानी की सजा दिए जाने के पूर्व सावरकर व्यक्तिगत तौर पर अंग्रेजों के विरोधी थे परंतु जेल से रिहाई के बाद वे बिल्कुल बदल गए. इसी तरह, आरएसएस के संस्थापक डॉ. हेडगेवार ने अपनी व्यक्तिगत हैसियत में सन् 1930 के सविनय अवज्ञा आंदोलन में भाग जरूर लिया था परंतु उनका उद्देश्य जेल में जाकर उनके जैसी सोच रखने वाले व्यक्तियों की पहचान करना था.

भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान संघ के द्वितीय सरसंघ चालक एम. एस. गोलवलकर ने लिखा, ‘‘सन् 1942 में भी कई लोग इस आंदोलन में भाग लेना चाहते थे परंतु संघ का यह निर्णय था कि वह प्रत्यक्ष तौर पर कुछ नहीं करेगा. उस समय भी संघ का काम हमेशा की तरह चलता रहा.‘‘. भारत छोड़ो आंदोलन से दूरी बनाए रखने के अपने निर्णय को औचित्यपूर्ण ठहराते हुए उन्होंने लिखा, ‘‘हमें यह याद रखना चाहिए कि हमने अपने धर्म और संस्कृति की रक्षा करते हुए देश को स्वतंत्र करने की शपथ ली है. इस शपथ में अंग्रेजों की देश से रवानगी की कोई चर्चा नहीं है (श्री गुरूजी समग्र दर्शन, खंड 4, पृष्ठ 40)‘‘.

भारतीय राष्ट्रवाद समावेशी और बहुवादी है, जिसकी अभिव्यक्ति भारतीय संविधान  है. संघ, देश पर मनु के कानून लादना चाहता है. स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व, भारतीय राष्ट्रवाद के मूल स्तंभ हैं. धार्मिक राष्ट्रवाद इन्हें पश्चिमी मूल्य मानता है जो भारत के लिए उपयुक्त नहीं हैं. मिस्त्र में मुस्लिम ब्रदरहुड सामंती पदक्रम की वकालत करता है और इसे इस्लाम के अनुरूप बताता है. संघ की तरह, मुस्लिम ब्रदरहुड भी समानता और स्वतंत्रता के मूल्यों को पश्चिमी  बताता है. संघ तो भारत के संविधान को भी पश्चिमी  मानता है.

पाठ्यक्रमों में बदलाव कर विद्यार्थियों को यह बताने का प्रयास किया जा रहा है कि संघ ने भी भारतीय राष्ट्र के निर्माण में भूमिका निभाई थी. सच तो यह है कि संघ ने न तो ब्रिटिश शासन के खिलाफ संघर्ष किया और ना ही समानता के मूल्य की स्थापना के लिए. पाठ्यक्रम में इस तरह के परिवर्तनों का उद्देश्य आरएसएस को राष्ट्र निर्माता के रूप में प्रस्तुत करना है, जबकि संघ का राष्ट्र निर्माण से कभी कोई लेनादेना नहीं रहा है.


(अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया) (लेखक आईआईटी, मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)
 

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