पिछले दिनों में कुछ बड़े घटनाक्रमों के चलते भाजपा ने पुनः हिन्दू आतंकवाद शब्द को राजनैतिक गलियारों में लाकर चुनावों को प्रभवित करने का प्रयास किया है. हालाँकि इसका इमानदारी से विश्लेषण करने पर पता चल जाएगा कि इससे कुछ बेहद लाभ मिलने वाला भी नहीं. लेकिन जब सरकार और उसके नेताओं के पास पांच साल की उपलब्धियों गिनाने के लिए नहीं हैं तो ऐसी हालत होनी है कि बार-बार झूठ बोलकर सच में बदल दिया जाए और आज तो फेक न्यूज़ का जमाना भी है. संगठनों के आई टी सेल फोटोग्राफ्स और वीडियोस ऑफ़ काट छांट कर अपनी सुविधा के अनुसार भेज रहे हैं और फिर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का सवाल खड़ा कर रहे हैं. अब सवाल इस बात का नहीं होता के क्या सही है और क्या गलत. अब सवाल केवल ये है के फला ‘सात्विक’ हिन्दू है या नहीं और पूरी बहस को हिन्दू बनाम अन्य में बदलने के प्रयास है जो हमारी दृष्टि में सफल नहीं होंगे क्योंकि ज्यादातर इन बहसों में सवर्णों का समूह है जो वैसे भी अपनी सत्ता को कायम रखने के लिए येही हथकंडे अपना रहा है लेकिन इसमें कुछ पिछड़ी जातियों के भी ‘विशेषज्ञ’ शामिल होते हैं. हम लोग इन बातों से प्रभावित इसलिए होते हैं क्योंकि हम व्यक्ति के अधिकार, संवैधानिक मूल्यों पर चर्चा नहीं करते और न कोई सवाल खड़े करते. पूरी बहस हिन्दू होने और न होने में हो गयी है जैसे किसी का हिन्दू न होना अपराध है.
आइये इन सवालों को देखें जो पिछले दिनों में आये हैं.
कल नरेन्द्र मोदी ने कहा के कांग्रेस ने हिन्दू आतंकवाद का शब्द इस्तेमाल किया है, और हिन्दुओ को बदनाम किया है. वे कहते हैं कि हिन्दू तो पांच हज़ार साल से शांतिप्रिय रहा है. वह तो अहिंसक रहा है, उसे बदनाम किया जा रहा है. वैसे तो किसी भी समुदाय में चाहे हिन्दू हो या मुसलमान या कोई और, अच्छे और बुरे लोग दोनों होते हैं. कोई भी ये नहीं कह सकता कि एक समुदाय में सौ फ़ीसदी लोग अच्छे ही होते हैं. कोई ये नहीं कह सकता कि एक समुदाय में सौ फ़ीसदी लोग ख़राब होते हैं. अगर ऐसा होता तो जहां भी एक समुदाय, धर्म या जाति के लोग रहते हैं वहां कभी पुलिस और प्रशासन की जरुरत नहीं होती.
वैसे मोदी जी ने जो जुमला कहा उसे उमा भारती और हिंदुत्व की आग उगलते नेता अयोध्या आन्दोलन से पहले फेज में वी पी सिंह को गाली देते हुए कहते थे. उनके कुछ जुमले फिक्स्ड थे जैसे कश्मीर में हिन्दू बहिनों पर अत्याचार है और सरकार चुप है. हिन्दू तो हमेशा से अहिंसक रहा है, उसने तो एक चींटी भी नहीं मारी है और बात भी ठीक है. हिन्दू जो अपने हिन्दू होने से ज्यादा अपनी जातियों के दंभ में रहते हैं और भारत की 20% आबादी जो किसी ज़माने में अछूत कहलाती थी उसे जिस वैचारिकी और धार्मिक हिंसा ने मारा और अपमानित किया वो क्या आतंकवाद था या नहीं. भारत में रहने वाले 10% आदिवासी आज जिस राजकीय और धार्मिक हिंसा का शिकार हैं वो कौन कर रहा है. भारत का 55% से अधिक बहुजन समाज आज हाशिये पर है तो कौन से आतंकवाद के कारण से है? और यदि ये 85% समाज जिसे हम हासिये का समाज कहते हैं और जिसको थोड़े से भी अधिकार देने में हमारी रगों में घृणा और क्रोध दौड़ उठता है उसे क्या कहेंगे? देश में रह रही महिलाओं को घर से बाहर न निकलने देना और उनको गैर बराबरी में रखना, मंदिरों तक में जाने पर प्रतिबन्ध लगाना और लोगों के छूने तक से ‘अपवित्र’ होने को क्या कहेंगे? ये आतंकवाद है और धर्म के धंधेबाजो का फैलाया हुआ है.
निसंदेह सभी हिन्दू ख़राब नहीं हैं बिलकुल वैसे ही जैसे सभी मुसलमान ख़राब नहीं होते और सभी ईसाई भी ख़राब नहीं होते. ये समाजों के बारे में पूर्वाग्रह खड़े करके अपने धंधे करने वाले ये सब जानते हैं कि वे क्या कह रहे हैं लेकिन वे सोचते हैं कि लोगों को कुछ पता नहीं है. अब आजादी के बाद हिन्दुओं के सबसे बड़े नेता महात्मा गाँधी को किसने मारा? क्या गाँधी को दलितों ने मारा, क्या उन्हें मुसलमानों ने मारा, क्या उन्हें ईसाइयों ने मारा. हकीकत तो यह है के उन्हें एक हिन्दू ने भी नहीं मारा. उन्हें एक जहरीली विचारधारा ने मारा जिसे संघ परिवार, हिंदुत्व के संगठन फैला रहे थे. ब्राह्मण नाथूराम गोडसे ने उससे प्रभवित होकर हिन्दुओ के सबसे बड़े नेता को मारा. क्या हमारे राष्ट्रनायक की हत्या करना एक आतंकवादी कार्यवाही नहीं है? क्या आप सोच सकते हैं कि यदि गाँधी को किसी मुसलमान या दलित ने मारा होता तो क्या होता? आज तक संघी मानसिकता के लोग मुसलमानों और दलितों से गाँधी की हत्या का हिसाब मांग रहे होते. लेकिन क्योंकि गाँधी को एक चित्पावन ब्राह्मण ने मारा इसलिए वो उस हत्या को सेलिब्रेट भी करते हैं और सरकार कुछ नहीं करती. हिंदुत्व के ये प्रवक्ता सब जानते हैं कि सरकार उनके साथ है इसलिए वे कुछ भी करेंगे या कहेंगे तो उनका कुछ बिगड़ने वाला नहीं है.
1984 में अक्टूबर के आखिर में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद देशभर में सिखों की हत्याए की गयीं क्योंकि उनकी हत्या करने वाले उनके दो सुरक्षा गार्ड सिख थे. हजारों की संख्या में सिख मारे गए और बहुत बेरहमी से उनका क़त्ल हुआ जिनकी कहानिया आज भी सुनकर हमारा दिल खबरा जाता है. सिखों के खिलाफ इस हिंसा को किसने किया? मोदी और भाजपा कहती है कि वे कांग्रेस के समर्थक थे. मैं कहता हूँ कि कांग्रेस के समर्थक कौन थे और किनको लाभ हुआ. क्या उन्हें मुसलमानों ने मारा, क्या उन्हें इसाइयों ने मारा. इंदिरा गाँधी की हत्या का लाभ कांग्रेस को मिला जरुर लेकिन ये कांग्रेसी कौन थे. ये सब लाभ लेने वाले सवर्ण कांग्रेसी थे जो आज भाजपा में जाकर राष्ट्रवाद के जयकारे कर रहे रहे हैं. हिंदुत्व की सभी शक्तियां उस दौर में राजीव गाँधी के साथ खड़ी थीं क्योंकि उन्हें लगा सिखों को सबक सिखाना है.
6 दिसंबर 1992 में बाबरी मस्जिद का विध्वंश हुआ और इसे सभी लोगों ने आतंकवाद की घटना बोला हालाँकि संघी इसे शौर्य दिवस मानते हैं. देश के मूर्धन्य ब्राह्मण पत्रकार प्रभाष जोशी जी ने इस जघन्य घटना को आतंकवादी और जिन्होंने मस्जिद को गिराया उनको आतंकवादी कहा. बाबरी मस्जिद को गिराने के अपराधियों को हिंदुत्व का नायक बताया गया. कांग्रेस की सरकारों की ये गलतियां रही हैं कि उसने न केवल १९८४ के गुंडों को बचाया अपितु 1992 और 2002 के उन गुंडों पर भी कोई कार्यवाही नहीं की जिन्होंने कानून अपने हाथ में लेकर दंगे करवाए जिसमें हजारों लोग मारे गए.
महाराष्ट्र में भाजपा शिवसेना के वो कार्यकर्त्ता जो उत्तर भारतीयों को पीट-पीट कर वहां से खडेदने का कार्य करते हैं उन्हें क्या कहेंगे ? संत या महात्मा ?
मोदी सरकार के कार्यकाल में गाय के नाम से गुंडई करने वालों ने जो तांडव मचाया और मुसलमानों को निशाना बनाया और उनकी हत्याएं कीं, वे क्या आतंकवादी कहलाये जाने के काबिल नहीं हैं ?
1999 में हिंदुत्व के एक संगठन के सरगना दारा सिंह ने ईसाई मिशनरी ग्रैहम स्टेंस और उसके दो छोटे बच्चों को जिन्दा जला दिया था. उनका कहना था का स्टेंस धर्म परिवर्तन करवा रहा था. स्टेंस तो बहुत सालों से ओडिशा में रहते थे और लोगों में बहुत लोकप्रिय थे लेकिन संघ के प्रचारकों को वो पसंद नहीं थे इसलिए उनकी क्रूरता से हत्या की गयी. ये सब क्या आतंक की घटना नहीं हैं. हालाँकि ग्रैहम स्टेंस की पत्नी ने साफ़ तौर पर कहा के उन्हें अपने बच्चो और पति के न रहने का बहुत गम है लेकिन वह घृणा में विश्वास नहीं करतीं. बात साफ़ है, श्रीमती स्टेंस ने साबित किया के घृणा को ख़त्म करने के लिए प्यार की जरुरत है. आज के दौर में इस बात को अगर किसी ने बेझिझक राजनीती में कहा है तो वह है राहुल गाँधी. आप उनके तौर तरीको से मतभेद रख सकते हैं लेकिन राहुल ने घृणा का जवाब प्यार से देने की जो बात कही वह भारतीय परिपेक्षय में बहुत जरुरी है.
इससे पहले प्रियंका ने अपने पिता के हत्यारों को माफ़ करने की बात कही जिसकी सराहना की जानी चाहिए. आप जिंदगी भर घृणा को अपने दिल में रखकर एक मज़बूत समाज नहीं बना सकते. मोदी के पांच साल में भारत में इस घृणा को हर एक दिल में डाल कर विभाजन का ऐसा खेल खेला जिसकी तुलना केवल और केवल 1947 के माहौल से की जा सकती है. ये खेल बहुत खतरनाक है और हमें इसे हराना होगा.
दरअसल जब भी आतंक का घटनाक्रम होता है तो मीडिया और नेताओं द्वारा जो नैरेटिव बिल्डअप होता है उसे समझना जरुरी है. बम्बई हमला हुआ तो हमलवर पाकिस्तानी थे लेकिन भारत में पाकिस्तान और मुसलमान जैसे एक दूसरे के पूरक बना दिए गए इसलिए पाकिस्तानी आईएसआई के कारनामों और दहशत की करतूतों के लिए भारतीय मुसलमानों को जिम्मेवार ठहराना बहुत आसान हो गया.
जब मीडिया जोर जोर से पाकिस्तान चिल्लाता है या युद्योन्माद फैलाता है तो उसका मतलब साफ है कि वह देश के मुसलमानों की देशभक्ति को लगातार कटघरे में खड़ा करना चाहते हैं. वही मीडिया दोकलाम में चीन की सेनाओं के कब्जे और हमारी सरकार के समर्पण पर सवाल नहीं खड़े करता. चीन के सामने कुछ नहीं कर पाना या चीन की अर्थव्यवस्था या उसकी सेना के सामने अपनी कमजोरी पर हमारा राष्ट्रवाद नहीं भड़कता और केवल पाकिस्तान-पाकिस्तान चिल्ला कर दरअसल, चुनाव में लोगों को धर्म के नाम पर विभाजित कर वोट बटोरना है.
अभी योगी आदित्यनाथ ने हमारी सेनाओं को मोदी की सेना बोला जो एक बेहद ही आपतिजनक शब्दावली है. राजस्थान के राज्यपाल ने मोदी को दोबारा चुनने की अपील की जो संवैधानिक पद का दुरुपयोग है और चुनाव आयोग ने उसे गलत ठहराया है. अभी नरेन्द्र मोदी लगातार कह रहे हैं कि कांग्रेस ने हिन्दू आतंकवाद शब्द गढ़ा और ये कि राहुल गाँधी वायानड से चुनाव लड़ने इसलिए जा रहे हैं क्योंकि वो हिन्दुओं का सामना नहीं कर सकते.
देश के जनता को इस प्रकार के विचारों को समझने की कोशिश करना चाहिए. उन्हें किसी भी खबर को आँख बंद करके नहीं स्वीकार करना चाहिए अपितु उसका विश्लेषण करना चाहिए और ये केवल और केवल संवैधानिक अधिकारों के सन्दर्भ में देखकर हो सकते है. यदि आप लोगों को सही और गलत केवल हिन्दू होने और न होने से ठहराएंगे तो सारे हिन्दू गुंडे राष्ट्रवादी और उनके सभी विरोधी चाहे वो कितने भी ईमानदार हों राष्ट्रद्रोही होंगे.
अभी नरेन्द्र मोदी ने कहा कि राहुल गाँधी केरल के वायनाड से इसलिए चुनाव लड़ रहे हैं क्योंकि वो हिन्दुओ के सामने खड़े नहीं हो सकते और वायनाड में मुसलमान ज्यादा हैं इसलिए वहां जा रहे हैं. बहुत से लोगों ने इसका विरोध किया और कहा कि वायनाड में हिन्दुओ का प्रतिशत 48% और बाकि मुसलमान और ईसाई हैं. लेकिन ये विश्लेषण बिलकुल गलत है. राहुल गाँधी केरल से चुनाव लड़ रहे हैं और वो भारत का हिस्सा है. जो मुसलमान और इसाई उसमें वोट करेंगे वो भी भारतीय हैं जैसे कि हिन्दू और सबको वोट देने का अधिकार है.
वायनाड कोई पाकिस्तान में नहीं है, वह भारत का हिस्सा है. राष्ट्रीय नेताओं का भिन्न भिन्न जगहों से चुनाव लड़ना उनकी रणनीति के तहत होता है जैसे नरेन्द्र मोदी ने बड़ोदरा के आलावा वाराणसी से चुनाव लड़ा क्योंकि उसके फलस्वरूप पूर्वांचल में उनके आने की हवा चली. लाल कृष्ण आडवाणी भी दो जगह से चुनाव लडे. इंदिराजी रायबरेली और मेडक से जो आंध्र प्रदेश में था और सोनिया गाँधी अमेठी और बेल्लारी से. सुषमा स्वराज भी दो जगहों से लड़ीं. अटल जी ने अपना पहला इलेक्शन पचास के दशक में तीन जगहों से लड़ा था ये थे बलरामपुर, लखनऊ और मथुरा. दो जगह से वह हारे से और एक से जीते. साधारण भाषा में पार्टिया एक दूसरे पर छींटा कसी करते हुए ये कहते हैं कि उनको हार का अंदेशा है इसलिए दो जगह से लड़ रहे हैं या अन्य बातें. लेकिन ये कह कर लोगों को विभाजित करना कि वायनाड में मुसलमानों और ईसाइयों के वोट के लिए वो चुनाव लड़ रहे हैं और हिन्दुओ से डर रहे हैं ये खतरनाक है. किसी देश के प्रधानमंत्री को इतने नीचे स्तर पर नहीं आना चाहिए. दरअसल, किसी भी राष्ट्रीय नेता के लिए यह तो बहुत गौरव की बात है कि वह दूसरे सम्प्रदाय और जातियों का विश्वास भी जीत सकता है. इस सन्दर्भ में राहुल का वायनाड से चुनाव लड़ना मोदी के बनारस के चुनाव लड़ने से बहुत बड़ा है.
अभी प्रियंका गाँधी के गले में लॉकेट को बीजेपी के आई टी सेल के लोगो ने क्रिस्चियन क्रॉस दिखा कर ये कोशिश की कि प्रियंका का हिन्दू धर्म से कोई लेना देना नहीं है, वह तो ईसाईं हैं, उन्होंने अपने गले में मंगलसूत्र की जगह क्रॉस पहना है. अब संघी ये भी नहीं समझते कि मंगलसूत्र कोई बहुत बड़ा सिंबल नहीं है अपितु मनुवादी व्यस्था में महिलाओं की गुलामी है और ये गुलामी हर धर्म में है.
संघियों ने नेहरु के पुरखों को मुसलमान बता कर उन्हें देशद्रोही साबित करने की कोशिश की. हमारा प्रश्न ये है कि हम किसी व्यक्ति के अच्छे और बुरे को हिन्दू और अहिंदू होने से मापेंगे या हमारे कानून का पालन करने से. अगर संघियों की इस परिभाषा को हम मानलें तो फिर विजय माल्या, नीरव मोदी, ललित मोदी, मेहुल चोसकी और दलाल पथ के अन्य दलाल जिनका नाम बड़े बड़े घोटालो में आया है वो गलत हो ही नहीं सकते, क्योंकि वे तो हिन्दू है. फिर तो भूमिहारों की जिन सेनाओं ने दलितों का नरसंहार किया चाहे वह लक्ष्मनपुर बाथे हो या शंकरबीघा वह सब या तो हिंसा थी ही नहीं या ‘हिन्दुओ’ ने की ही नहीं.
आंध्र प्रदेश में कारम्चेडू हो या राजस्थान में कुम्हेर या चक्वाडा, तेलंगाना में चुन्दुर हो या गुजरात में उना, सभी जगह जो सवर्ण आतंकवाद का साया दलितों के उपर आया वो तो संघी मानसिकता के हिसाब से तो हिंसा है ही नहीं. वैसे भी दलितों पे अत्याचार के अभी तक कोई भी मामले में न्याय मिल गया हो ऐसा साबित नहीं हुआ है. लेकिन इस ओर तो हिंदुत्व के लोग कभी बात भी नहीं करेंगे.
सदियों से सवर्णों के मलमूत्र को साफ़ करते सफाई मजदूर आज भी छुआछूत का शिकार हैं और रोज कहीं न कहीं इस देश के ‘बड़े’ लोगों की गन्दगी की सफाई करते करते शहीद हो रहे हैं. प्रधानमंत्री को तो इसमें अध्यात्म नज़र आता है लेकिन ईमानदारी से सोचेंगे तो ये भी वर्णवादी व्यवस्था का धार्मिक आतंकवाद है और इस आतंकवाद की सजा तो उस समाज को मिल रही है जो इसे पुस्तैनी परंपरा के नाम पर ढो रहा है.
क्या हम अब इन सभी बातों से आगे बढ़कर अपने समाज की बेहतरी के लिए कोई विकल्प नहीं दे सकते. क्या इस देश में चुनावों के वक़्त इस प्रकार की घटिया राजनीति कर हम असल मुद्दों से ध्यान नहीं हटा रहे. आतंकवादी कोई हो उनको सजा मिलनी चाहिए लेकिन सजा देने का हक़ न्यायपालिका को है और उसकी प्रोसेस पूरी होनी चाहिए. हमारा केवल इतना कहना है कि कुछ लोगों की गन्दगी को पूरे समाज पर मत थोपिए. न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री के व्यवहार से कुछ सीखिए कि कैसे उन्होंने अपने देश को एक घृणा की राजनीती का शिकार होने से बचाया. एक समुदाय को खलनायक और दूसरे को शांतिदूत बनाकर आप देश में न तो शांति ला सकते और नहीं आर्थिक बदलाव. घृणा फैलाकर सत्ता कब्ज़ा करने का लक्ष्य केवल वो ही कर सकते हैं जिनके पास अपनी सफलता को दिखाने के लिए कुछ भी नहीं है. उम्मीद है देश की जनता मुद्दों पर बात करेगी और साम्प्रदायिकता की आड़ में भारत के संशाधनों को पूंजीवादी पुरोहितवादी ताकतों के हवाले करने वालों को लोकतंत्र के इस महोत्सव में परास्त करेगी.
आइये इन सवालों को देखें जो पिछले दिनों में आये हैं.
कल नरेन्द्र मोदी ने कहा के कांग्रेस ने हिन्दू आतंकवाद का शब्द इस्तेमाल किया है, और हिन्दुओ को बदनाम किया है. वे कहते हैं कि हिन्दू तो पांच हज़ार साल से शांतिप्रिय रहा है. वह तो अहिंसक रहा है, उसे बदनाम किया जा रहा है. वैसे तो किसी भी समुदाय में चाहे हिन्दू हो या मुसलमान या कोई और, अच्छे और बुरे लोग दोनों होते हैं. कोई भी ये नहीं कह सकता कि एक समुदाय में सौ फ़ीसदी लोग अच्छे ही होते हैं. कोई ये नहीं कह सकता कि एक समुदाय में सौ फ़ीसदी लोग ख़राब होते हैं. अगर ऐसा होता तो जहां भी एक समुदाय, धर्म या जाति के लोग रहते हैं वहां कभी पुलिस और प्रशासन की जरुरत नहीं होती.
वैसे मोदी जी ने जो जुमला कहा उसे उमा भारती और हिंदुत्व की आग उगलते नेता अयोध्या आन्दोलन से पहले फेज में वी पी सिंह को गाली देते हुए कहते थे. उनके कुछ जुमले फिक्स्ड थे जैसे कश्मीर में हिन्दू बहिनों पर अत्याचार है और सरकार चुप है. हिन्दू तो हमेशा से अहिंसक रहा है, उसने तो एक चींटी भी नहीं मारी है और बात भी ठीक है. हिन्दू जो अपने हिन्दू होने से ज्यादा अपनी जातियों के दंभ में रहते हैं और भारत की 20% आबादी जो किसी ज़माने में अछूत कहलाती थी उसे जिस वैचारिकी और धार्मिक हिंसा ने मारा और अपमानित किया वो क्या आतंकवाद था या नहीं. भारत में रहने वाले 10% आदिवासी आज जिस राजकीय और धार्मिक हिंसा का शिकार हैं वो कौन कर रहा है. भारत का 55% से अधिक बहुजन समाज आज हाशिये पर है तो कौन से आतंकवाद के कारण से है? और यदि ये 85% समाज जिसे हम हासिये का समाज कहते हैं और जिसको थोड़े से भी अधिकार देने में हमारी रगों में घृणा और क्रोध दौड़ उठता है उसे क्या कहेंगे? देश में रह रही महिलाओं को घर से बाहर न निकलने देना और उनको गैर बराबरी में रखना, मंदिरों तक में जाने पर प्रतिबन्ध लगाना और लोगों के छूने तक से ‘अपवित्र’ होने को क्या कहेंगे? ये आतंकवाद है और धर्म के धंधेबाजो का फैलाया हुआ है.
निसंदेह सभी हिन्दू ख़राब नहीं हैं बिलकुल वैसे ही जैसे सभी मुसलमान ख़राब नहीं होते और सभी ईसाई भी ख़राब नहीं होते. ये समाजों के बारे में पूर्वाग्रह खड़े करके अपने धंधे करने वाले ये सब जानते हैं कि वे क्या कह रहे हैं लेकिन वे सोचते हैं कि लोगों को कुछ पता नहीं है. अब आजादी के बाद हिन्दुओं के सबसे बड़े नेता महात्मा गाँधी को किसने मारा? क्या गाँधी को दलितों ने मारा, क्या उन्हें मुसलमानों ने मारा, क्या उन्हें ईसाइयों ने मारा. हकीकत तो यह है के उन्हें एक हिन्दू ने भी नहीं मारा. उन्हें एक जहरीली विचारधारा ने मारा जिसे संघ परिवार, हिंदुत्व के संगठन फैला रहे थे. ब्राह्मण नाथूराम गोडसे ने उससे प्रभवित होकर हिन्दुओ के सबसे बड़े नेता को मारा. क्या हमारे राष्ट्रनायक की हत्या करना एक आतंकवादी कार्यवाही नहीं है? क्या आप सोच सकते हैं कि यदि गाँधी को किसी मुसलमान या दलित ने मारा होता तो क्या होता? आज तक संघी मानसिकता के लोग मुसलमानों और दलितों से गाँधी की हत्या का हिसाब मांग रहे होते. लेकिन क्योंकि गाँधी को एक चित्पावन ब्राह्मण ने मारा इसलिए वो उस हत्या को सेलिब्रेट भी करते हैं और सरकार कुछ नहीं करती. हिंदुत्व के ये प्रवक्ता सब जानते हैं कि सरकार उनके साथ है इसलिए वे कुछ भी करेंगे या कहेंगे तो उनका कुछ बिगड़ने वाला नहीं है.
1984 में अक्टूबर के आखिर में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद देशभर में सिखों की हत्याए की गयीं क्योंकि उनकी हत्या करने वाले उनके दो सुरक्षा गार्ड सिख थे. हजारों की संख्या में सिख मारे गए और बहुत बेरहमी से उनका क़त्ल हुआ जिनकी कहानिया आज भी सुनकर हमारा दिल खबरा जाता है. सिखों के खिलाफ इस हिंसा को किसने किया? मोदी और भाजपा कहती है कि वे कांग्रेस के समर्थक थे. मैं कहता हूँ कि कांग्रेस के समर्थक कौन थे और किनको लाभ हुआ. क्या उन्हें मुसलमानों ने मारा, क्या उन्हें इसाइयों ने मारा. इंदिरा गाँधी की हत्या का लाभ कांग्रेस को मिला जरुर लेकिन ये कांग्रेसी कौन थे. ये सब लाभ लेने वाले सवर्ण कांग्रेसी थे जो आज भाजपा में जाकर राष्ट्रवाद के जयकारे कर रहे रहे हैं. हिंदुत्व की सभी शक्तियां उस दौर में राजीव गाँधी के साथ खड़ी थीं क्योंकि उन्हें लगा सिखों को सबक सिखाना है.
6 दिसंबर 1992 में बाबरी मस्जिद का विध्वंश हुआ और इसे सभी लोगों ने आतंकवाद की घटना बोला हालाँकि संघी इसे शौर्य दिवस मानते हैं. देश के मूर्धन्य ब्राह्मण पत्रकार प्रभाष जोशी जी ने इस जघन्य घटना को आतंकवादी और जिन्होंने मस्जिद को गिराया उनको आतंकवादी कहा. बाबरी मस्जिद को गिराने के अपराधियों को हिंदुत्व का नायक बताया गया. कांग्रेस की सरकारों की ये गलतियां रही हैं कि उसने न केवल १९८४ के गुंडों को बचाया अपितु 1992 और 2002 के उन गुंडों पर भी कोई कार्यवाही नहीं की जिन्होंने कानून अपने हाथ में लेकर दंगे करवाए जिसमें हजारों लोग मारे गए.
महाराष्ट्र में भाजपा शिवसेना के वो कार्यकर्त्ता जो उत्तर भारतीयों को पीट-पीट कर वहां से खडेदने का कार्य करते हैं उन्हें क्या कहेंगे ? संत या महात्मा ?
मोदी सरकार के कार्यकाल में गाय के नाम से गुंडई करने वालों ने जो तांडव मचाया और मुसलमानों को निशाना बनाया और उनकी हत्याएं कीं, वे क्या आतंकवादी कहलाये जाने के काबिल नहीं हैं ?
1999 में हिंदुत्व के एक संगठन के सरगना दारा सिंह ने ईसाई मिशनरी ग्रैहम स्टेंस और उसके दो छोटे बच्चों को जिन्दा जला दिया था. उनका कहना था का स्टेंस धर्म परिवर्तन करवा रहा था. स्टेंस तो बहुत सालों से ओडिशा में रहते थे और लोगों में बहुत लोकप्रिय थे लेकिन संघ के प्रचारकों को वो पसंद नहीं थे इसलिए उनकी क्रूरता से हत्या की गयी. ये सब क्या आतंक की घटना नहीं हैं. हालाँकि ग्रैहम स्टेंस की पत्नी ने साफ़ तौर पर कहा के उन्हें अपने बच्चो और पति के न रहने का बहुत गम है लेकिन वह घृणा में विश्वास नहीं करतीं. बात साफ़ है, श्रीमती स्टेंस ने साबित किया के घृणा को ख़त्म करने के लिए प्यार की जरुरत है. आज के दौर में इस बात को अगर किसी ने बेझिझक राजनीती में कहा है तो वह है राहुल गाँधी. आप उनके तौर तरीको से मतभेद रख सकते हैं लेकिन राहुल ने घृणा का जवाब प्यार से देने की जो बात कही वह भारतीय परिपेक्षय में बहुत जरुरी है.
इससे पहले प्रियंका ने अपने पिता के हत्यारों को माफ़ करने की बात कही जिसकी सराहना की जानी चाहिए. आप जिंदगी भर घृणा को अपने दिल में रखकर एक मज़बूत समाज नहीं बना सकते. मोदी के पांच साल में भारत में इस घृणा को हर एक दिल में डाल कर विभाजन का ऐसा खेल खेला जिसकी तुलना केवल और केवल 1947 के माहौल से की जा सकती है. ये खेल बहुत खतरनाक है और हमें इसे हराना होगा.
दरअसल जब भी आतंक का घटनाक्रम होता है तो मीडिया और नेताओं द्वारा जो नैरेटिव बिल्डअप होता है उसे समझना जरुरी है. बम्बई हमला हुआ तो हमलवर पाकिस्तानी थे लेकिन भारत में पाकिस्तान और मुसलमान जैसे एक दूसरे के पूरक बना दिए गए इसलिए पाकिस्तानी आईएसआई के कारनामों और दहशत की करतूतों के लिए भारतीय मुसलमानों को जिम्मेवार ठहराना बहुत आसान हो गया.
जब मीडिया जोर जोर से पाकिस्तान चिल्लाता है या युद्योन्माद फैलाता है तो उसका मतलब साफ है कि वह देश के मुसलमानों की देशभक्ति को लगातार कटघरे में खड़ा करना चाहते हैं. वही मीडिया दोकलाम में चीन की सेनाओं के कब्जे और हमारी सरकार के समर्पण पर सवाल नहीं खड़े करता. चीन के सामने कुछ नहीं कर पाना या चीन की अर्थव्यवस्था या उसकी सेना के सामने अपनी कमजोरी पर हमारा राष्ट्रवाद नहीं भड़कता और केवल पाकिस्तान-पाकिस्तान चिल्ला कर दरअसल, चुनाव में लोगों को धर्म के नाम पर विभाजित कर वोट बटोरना है.
अभी योगी आदित्यनाथ ने हमारी सेनाओं को मोदी की सेना बोला जो एक बेहद ही आपतिजनक शब्दावली है. राजस्थान के राज्यपाल ने मोदी को दोबारा चुनने की अपील की जो संवैधानिक पद का दुरुपयोग है और चुनाव आयोग ने उसे गलत ठहराया है. अभी नरेन्द्र मोदी लगातार कह रहे हैं कि कांग्रेस ने हिन्दू आतंकवाद शब्द गढ़ा और ये कि राहुल गाँधी वायानड से चुनाव लड़ने इसलिए जा रहे हैं क्योंकि वो हिन्दुओं का सामना नहीं कर सकते.
देश के जनता को इस प्रकार के विचारों को समझने की कोशिश करना चाहिए. उन्हें किसी भी खबर को आँख बंद करके नहीं स्वीकार करना चाहिए अपितु उसका विश्लेषण करना चाहिए और ये केवल और केवल संवैधानिक अधिकारों के सन्दर्भ में देखकर हो सकते है. यदि आप लोगों को सही और गलत केवल हिन्दू होने और न होने से ठहराएंगे तो सारे हिन्दू गुंडे राष्ट्रवादी और उनके सभी विरोधी चाहे वो कितने भी ईमानदार हों राष्ट्रद्रोही होंगे.
अभी नरेन्द्र मोदी ने कहा कि राहुल गाँधी केरल के वायनाड से इसलिए चुनाव लड़ रहे हैं क्योंकि वो हिन्दुओ के सामने खड़े नहीं हो सकते और वायनाड में मुसलमान ज्यादा हैं इसलिए वहां जा रहे हैं. बहुत से लोगों ने इसका विरोध किया और कहा कि वायनाड में हिन्दुओ का प्रतिशत 48% और बाकि मुसलमान और ईसाई हैं. लेकिन ये विश्लेषण बिलकुल गलत है. राहुल गाँधी केरल से चुनाव लड़ रहे हैं और वो भारत का हिस्सा है. जो मुसलमान और इसाई उसमें वोट करेंगे वो भी भारतीय हैं जैसे कि हिन्दू और सबको वोट देने का अधिकार है.
वायनाड कोई पाकिस्तान में नहीं है, वह भारत का हिस्सा है. राष्ट्रीय नेताओं का भिन्न भिन्न जगहों से चुनाव लड़ना उनकी रणनीति के तहत होता है जैसे नरेन्द्र मोदी ने बड़ोदरा के आलावा वाराणसी से चुनाव लड़ा क्योंकि उसके फलस्वरूप पूर्वांचल में उनके आने की हवा चली. लाल कृष्ण आडवाणी भी दो जगह से चुनाव लडे. इंदिराजी रायबरेली और मेडक से जो आंध्र प्रदेश में था और सोनिया गाँधी अमेठी और बेल्लारी से. सुषमा स्वराज भी दो जगहों से लड़ीं. अटल जी ने अपना पहला इलेक्शन पचास के दशक में तीन जगहों से लड़ा था ये थे बलरामपुर, लखनऊ और मथुरा. दो जगह से वह हारे से और एक से जीते. साधारण भाषा में पार्टिया एक दूसरे पर छींटा कसी करते हुए ये कहते हैं कि उनको हार का अंदेशा है इसलिए दो जगह से लड़ रहे हैं या अन्य बातें. लेकिन ये कह कर लोगों को विभाजित करना कि वायनाड में मुसलमानों और ईसाइयों के वोट के लिए वो चुनाव लड़ रहे हैं और हिन्दुओ से डर रहे हैं ये खतरनाक है. किसी देश के प्रधानमंत्री को इतने नीचे स्तर पर नहीं आना चाहिए. दरअसल, किसी भी राष्ट्रीय नेता के लिए यह तो बहुत गौरव की बात है कि वह दूसरे सम्प्रदाय और जातियों का विश्वास भी जीत सकता है. इस सन्दर्भ में राहुल का वायनाड से चुनाव लड़ना मोदी के बनारस के चुनाव लड़ने से बहुत बड़ा है.
अभी प्रियंका गाँधी के गले में लॉकेट को बीजेपी के आई टी सेल के लोगो ने क्रिस्चियन क्रॉस दिखा कर ये कोशिश की कि प्रियंका का हिन्दू धर्म से कोई लेना देना नहीं है, वह तो ईसाईं हैं, उन्होंने अपने गले में मंगलसूत्र की जगह क्रॉस पहना है. अब संघी ये भी नहीं समझते कि मंगलसूत्र कोई बहुत बड़ा सिंबल नहीं है अपितु मनुवादी व्यस्था में महिलाओं की गुलामी है और ये गुलामी हर धर्म में है.
संघियों ने नेहरु के पुरखों को मुसलमान बता कर उन्हें देशद्रोही साबित करने की कोशिश की. हमारा प्रश्न ये है कि हम किसी व्यक्ति के अच्छे और बुरे को हिन्दू और अहिंदू होने से मापेंगे या हमारे कानून का पालन करने से. अगर संघियों की इस परिभाषा को हम मानलें तो फिर विजय माल्या, नीरव मोदी, ललित मोदी, मेहुल चोसकी और दलाल पथ के अन्य दलाल जिनका नाम बड़े बड़े घोटालो में आया है वो गलत हो ही नहीं सकते, क्योंकि वे तो हिन्दू है. फिर तो भूमिहारों की जिन सेनाओं ने दलितों का नरसंहार किया चाहे वह लक्ष्मनपुर बाथे हो या शंकरबीघा वह सब या तो हिंसा थी ही नहीं या ‘हिन्दुओ’ ने की ही नहीं.
आंध्र प्रदेश में कारम्चेडू हो या राजस्थान में कुम्हेर या चक्वाडा, तेलंगाना में चुन्दुर हो या गुजरात में उना, सभी जगह जो सवर्ण आतंकवाद का साया दलितों के उपर आया वो तो संघी मानसिकता के हिसाब से तो हिंसा है ही नहीं. वैसे भी दलितों पे अत्याचार के अभी तक कोई भी मामले में न्याय मिल गया हो ऐसा साबित नहीं हुआ है. लेकिन इस ओर तो हिंदुत्व के लोग कभी बात भी नहीं करेंगे.
सदियों से सवर्णों के मलमूत्र को साफ़ करते सफाई मजदूर आज भी छुआछूत का शिकार हैं और रोज कहीं न कहीं इस देश के ‘बड़े’ लोगों की गन्दगी की सफाई करते करते शहीद हो रहे हैं. प्रधानमंत्री को तो इसमें अध्यात्म नज़र आता है लेकिन ईमानदारी से सोचेंगे तो ये भी वर्णवादी व्यवस्था का धार्मिक आतंकवाद है और इस आतंकवाद की सजा तो उस समाज को मिल रही है जो इसे पुस्तैनी परंपरा के नाम पर ढो रहा है.
क्या हम अब इन सभी बातों से आगे बढ़कर अपने समाज की बेहतरी के लिए कोई विकल्प नहीं दे सकते. क्या इस देश में चुनावों के वक़्त इस प्रकार की घटिया राजनीति कर हम असल मुद्दों से ध्यान नहीं हटा रहे. आतंकवादी कोई हो उनको सजा मिलनी चाहिए लेकिन सजा देने का हक़ न्यायपालिका को है और उसकी प्रोसेस पूरी होनी चाहिए. हमारा केवल इतना कहना है कि कुछ लोगों की गन्दगी को पूरे समाज पर मत थोपिए. न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री के व्यवहार से कुछ सीखिए कि कैसे उन्होंने अपने देश को एक घृणा की राजनीती का शिकार होने से बचाया. एक समुदाय को खलनायक और दूसरे को शांतिदूत बनाकर आप देश में न तो शांति ला सकते और नहीं आर्थिक बदलाव. घृणा फैलाकर सत्ता कब्ज़ा करने का लक्ष्य केवल वो ही कर सकते हैं जिनके पास अपनी सफलता को दिखाने के लिए कुछ भी नहीं है. उम्मीद है देश की जनता मुद्दों पर बात करेगी और साम्प्रदायिकता की आड़ में भारत के संशाधनों को पूंजीवादी पुरोहितवादी ताकतों के हवाले करने वालों को लोकतंत्र के इस महोत्सव में परास्त करेगी.