उत्तर प्रदेश के कासगंज में 26 जनवरी (2018) को गणतंत्र दिवस के मौक पर सांप्रदायिक दंगा भड़का था. जिसको लेकर कुछ सामाजिक संगठनों ने मिलकर स्वतंत्र जाच रिपोर्ट जारी की गई, जिसमें कहा गया कि पुलिस ने दावा किया कि हिंसा तब हुई जब हिंदुओं की एक मोटरसाइकिल रैली को मुसलमानों ने अपने मोहल्ले से गुजरने से रोका.
इस रैली में भाग ले रहे चंदन गुप्ता नाम के एक हिंदू लड़के की हिंसा के दौरान गोली लगने से मौत हो गई थी. हिंसा के लिए मुसलमानों को जिम्मेदार ठहराते हुए पुलिस ने 28 मुसलमानों को गिरफ़्तार कर चुकी है.
ये स्वतंत्र जाँच रिपोर्ट ये साबित करती है कि सबूत न होने के बावजूद पुलिस ने इस हिंसा के लिए मुसलमानों को झूठा फंसाया है,और हिंदुओं के ख़िलाफ पुख़्ता सबूत होने के बावजूद पुलिस ने उनको बचाया है.
सच तो यह है कि इस हिंसा की शुरुआत हिंदुओं ने अब्दुल हमीद चौक नाम की जगह पर की जब इलाक़े के मुसलमान वहाँ गणतंत्र दिवस केअवसर पर तिरंगा फहराने की तैयारी कर रहे थे. इस पक्षपाती कपट का अमल पुलिस ने एक की जगह दो एफ़आईआर दर्ज करके किया. हिंसा का होना और चंदन गुप्ता का उसमें मारा जाना एक ही घटना के हिस्सा हैं और इसलिए एक ही एफ़आईआर दर्ज किया जाना चाहिए था.
लेकिन पुलिस ने हिंसा के लिए अलग और चंदन की मृत्यु के लिए अलग एफ़आईआर दर्ज किया. चंदन वाले एफ़आईआर में सिर्फ़ मुसलमानों को अभियुक्त बनाया जबकि कई पुलिसवालों ने ख़ुद ये बयान दिया कि हिंदुओं ने भी गोलियाँ चलाई थीं.
वास्तव में दोनों एफ़आईआर में बहुत सारी ख़ामियाँ और विरोधाभास हैं. मसलन हिंसा सुबह हुई लेकिन दोनों एफ़आईआर 12 से 14 घंटे की देरी से दर्ज किए गए. ये तब जबकि हिंसा पुलिस थाने से महज़ 200 मीटर दूर हुई और बड़ी तादाद में पुलिस वाले उसके चश्मदीद गवाह भी हैं.
दोनों एफ़आईआर में अब्दुल हमीद चौक की हिंसा का ज़िक्र नहीं है. पहला एफआईआर कहता है हिंसा कहीं और हुई. उसमें चंदन को गोली लगने का उल्लेख नहीं है. दूसरे एफ़आईआर में चंदन का उल्लेख है लेकिन पहले हुई हिंसा का नहीं.
पहला एफ़आईआर मानता है कि हिंदुओं ने भी हिंसा की लेकिन सिर्फ़ मुसलमानों को नामज़द करता है. दूसरे एफ़आईआर में हिंदुओं द्वारा की गई हिंसा का कोई ज़िक्र ही नहीं है. उसके मुताबिक़ मुसलमानों ने हिंदुओं पर एकतरफ़ा हमला किया.
चंदन को गोली लगने के फ़ौरन बाद उसके साथी उसे थाने ले आए थे. लेकिन पुलिस ने चंदन को गोली लगने के बारे में कोई कारण नहीं बताया पुलिस ने उसी वक़्त एफ़आईआर क्यों नहीं दर्ज किया.
चंदन को पुलिस ने ही थाने से अस्पताल भिजवाया, जहाँ उसे मृत घोषित कर दिया गया. चंदन की मृत्यु की औपचारिक जानकारी भी दोपहर तक अस्पताल से थाने आ चुकी थी. चंदन का पोस्ट-मार्टेम तक बग़ैर एफ़आईआर के किया गया.
27 जनवरी से ही पुलिस ने मुसलमानों को गिरफ़्तार करना शुरू कर दिया और अगले दो हफ़्तों में 19 को गिरफ़्तार कर लिया. लेकिन दो महीने तक एक भी हिंदू गिरफ़्तार नहीं किया. मोटरसाइकिल रैली में शामिल हिंदुओं की पुलिस ने जाँच तक नहीं की.
पहले एफ़आईआर के जाँच अधिकारी ने दावा किया कि मोटरसाइकिल रैली का संयोजक अनुकल्प चौहान 26 जनवरी से ही लापता हो गया था. लेकिन 27 जनवरी को चंदन गुप्ता की शवयात्रा में कंधा देने वालों में चौहान सबसे आगे था. दूसरे एफ़आईआर के जाँचअधिकारीनेअनुकल्प चौहान से 2 फरवरी को उसके घर पर जाकर उसका बयान भी दर्ज किया.
घटना के ढाई महीने बाद चौहान ने अदालत में सरेंडर किया. अगली सुबह मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट(सीजेएम) ने उसे ज़मानत पर रिहा कर दिया. चौहान के पिताउस समय ज़िला जज की अदालत में क्लर्क थे. सीजेएम ज़िला जज के मातहत होता है. चौहान पहले एफ़आईआर के केस में अभियुक्त हैऔर दूसरे एफ़आईआर के केस में गवाह. यह न्यायिक प्रक्रिया का मखौल है.
पुलिसवालों के, मोटरसाइकिल रैली के हिंदुओं के,और स्वतंत्र गवाहों के तमाम बयानों में कई पारस्परिक विरोध हैं.
कुछ गवाहों के मुताबिक़ मुसलमानों नेहिंदुओं पर हमला बिलरामगेट चौराहे नाम की जगह पर किया. अन्य गवाहों ने कहा कि हिंदुओं के बिलरामगेट चौराहा पहुँचने से पहले ही मुसलमानों ने उनपर हमला कर दिया था. दूसरे एफआईआर के मुताबिक़ मुसलमानों ने हमला तब किया जब हिंदू बिलरामगेट चौराहे से भागकर आगे आ चुके थे.
कुछ पुलिस वालों ने कहा जब वे बिलराम गेट चौराहे पहुँचे वहाँ उन्हें सिर्फ़ हिंदू मिले. अन्य पुलिसवालों ने कहा उन्हें हिंदू और मुसलमान दोनों वहाँ मिले. दो स्वतंत्र गवाहों ने कहा पुलिस आने से पहले मुसलमान बिलरामगेट चौराहे से भाग चुके थे.
पहले एफ़आईआर में लिखा है झगड़े के बारे में पुलिस को सुबह 9.30 बजे पता चला. कई पुलिसवालों ने बाद में यही दावा किया. लेकिन अब्दुल हमीद चौक पर लगे सीसीटीवी कैमरे के फ़ुटेज से पता चलता है झगड़ा पच्चीस मिनट बाद हुआ था.
कुछ हिंदुओं के मुताबिक़ मुसलमानों ने उन पर बिलरामगेट चौराहे पर हमला किया जिसके बाद वे भागकर तहसील रोड पहुँचे जहाँ चंदन को गोली मारी गई. लेकिनअन्य हिंदुओं के बयानों में बिलरामगेट चौराहे का ज़िक्र ही नहीं है. बल्कि वे कहते हैं कि तिरंगा हाथ में लेकर नारे लगाते हुए जब रैली तहसील रोड पहुँची तब मुसलमानों ने उन पर हमला किया.
तहसील रोड की कथित घटना को लेकर भी पुलिसवालों, हिंदुओं और गवाहों के बयानों में भी पारस्परिक विरोध है.
कुछ हिंदुओं ने कहा कि तहसील रोड पहुँचने पर मुसलमानों ने उनके हाथों से तिरंगा छीन लिया और उन्हें “पाकिस्तान ज़िंदाबाद" का नारा लगाने को कहा, और जब चंदन गुप्ता ने ऐसा करने से इंकार कर दिया तो उसे गोली मार दी. अन्य हिंदुओं ने कहा कि मुसलमानों ने पहले चंदन को गोलीमारी और उसके बाद रैली के हिंदुओं को “पाकिस्तान ज़िंदाबाद” के नारे लगाने को कहा.
सबसे अकल्पनीय दावा यह है कि जिन मुसलमानों ने हिंदुओं पर तहसील रोड पर हमला किया, उन्हीं लोगों ने इससे पहले बिलरामगेट चौराहे पर भी इन्हीं हिंदुओं पर हमला किया था, जहाँ से भागकर ये हिंदू कहते हैं वे तहसील रोड पहुँचे थे.
तीन मुसलमान अभियुक्त घटना के दिनयानी 26 जनवरी कोअन्य शहरों में थे. एक अभियुक्त एक धार्मिक ग्रुप के साथ हाथरस गया हुआ था. दूसरा अभियुक्त अलीगढ़ और तीसरा लखनऊ में था. अलीगढ़ और लखनऊ गए अभियुक्तों की मौजूदगी की पुष्टि सीसीटीवी फ़ुटेज से होती है. लेकिन पुलिस ने इनको साक्ष्य नहीं माना है.
ये सभी विरोधाभास और गड़बड़ियाँ ये दिखाती हैं कि 26 जनवरी 2018 को कासगंज में हुई हिंसा की पुलिस द्वारा जाँच पूरी तरह मुस्लिम-विरोधी होने की वजह से भ्रष्ट है.
इस रिपोर्ट को जारी कर रहे सभी सामाजिक संगठनों ने उत्तर प्रदेश सरकार से ये मांगे की हैं:
• भ्रष्ट चार्जशीटों के नाम पर चलाए जा रहे दोनों मुक़दमों को फ़ौरन वापस लिया जाए.
• इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका दायर कर कोर्ट की देखरेख में घटना की स्वतंत्र पुलिस जाँच करवाए;
• दंगा न होने देने में,और दंगा होने के बाद बढ़ने से रोकने में, पुलिस और प्रशासन की नाकामी की उच्चस्तरीय जाँच कराए;
• जाँच को भ्रष्ट किए जाने में और बेगुनाह मुसलमानों को फंसाए जाने में ज़िम्मेदारी तय करने के लिए उच्चस्तरीय जाँच कराए;
• मुसलमानों पर लगाए गए झूठे आरोप वापस लेकर उन को रिहाकरे;
• मोटर साइकिल रैली में शामिल हिंदुओं को गिरफ़्तार करेऔर हिंसा में उनकी भूमिका की जाँच करे
इस रैली में भाग ले रहे चंदन गुप्ता नाम के एक हिंदू लड़के की हिंसा के दौरान गोली लगने से मौत हो गई थी. हिंसा के लिए मुसलमानों को जिम्मेदार ठहराते हुए पुलिस ने 28 मुसलमानों को गिरफ़्तार कर चुकी है.
ये स्वतंत्र जाँच रिपोर्ट ये साबित करती है कि सबूत न होने के बावजूद पुलिस ने इस हिंसा के लिए मुसलमानों को झूठा फंसाया है,और हिंदुओं के ख़िलाफ पुख़्ता सबूत होने के बावजूद पुलिस ने उनको बचाया है.
सच तो यह है कि इस हिंसा की शुरुआत हिंदुओं ने अब्दुल हमीद चौक नाम की जगह पर की जब इलाक़े के मुसलमान वहाँ गणतंत्र दिवस केअवसर पर तिरंगा फहराने की तैयारी कर रहे थे. इस पक्षपाती कपट का अमल पुलिस ने एक की जगह दो एफ़आईआर दर्ज करके किया. हिंसा का होना और चंदन गुप्ता का उसमें मारा जाना एक ही घटना के हिस्सा हैं और इसलिए एक ही एफ़आईआर दर्ज किया जाना चाहिए था.
लेकिन पुलिस ने हिंसा के लिए अलग और चंदन की मृत्यु के लिए अलग एफ़आईआर दर्ज किया. चंदन वाले एफ़आईआर में सिर्फ़ मुसलमानों को अभियुक्त बनाया जबकि कई पुलिसवालों ने ख़ुद ये बयान दिया कि हिंदुओं ने भी गोलियाँ चलाई थीं.
वास्तव में दोनों एफ़आईआर में बहुत सारी ख़ामियाँ और विरोधाभास हैं. मसलन हिंसा सुबह हुई लेकिन दोनों एफ़आईआर 12 से 14 घंटे की देरी से दर्ज किए गए. ये तब जबकि हिंसा पुलिस थाने से महज़ 200 मीटर दूर हुई और बड़ी तादाद में पुलिस वाले उसके चश्मदीद गवाह भी हैं.
दोनों एफ़आईआर में अब्दुल हमीद चौक की हिंसा का ज़िक्र नहीं है. पहला एफआईआर कहता है हिंसा कहीं और हुई. उसमें चंदन को गोली लगने का उल्लेख नहीं है. दूसरे एफ़आईआर में चंदन का उल्लेख है लेकिन पहले हुई हिंसा का नहीं.
पहला एफ़आईआर मानता है कि हिंदुओं ने भी हिंसा की लेकिन सिर्फ़ मुसलमानों को नामज़द करता है. दूसरे एफ़आईआर में हिंदुओं द्वारा की गई हिंसा का कोई ज़िक्र ही नहीं है. उसके मुताबिक़ मुसलमानों ने हिंदुओं पर एकतरफ़ा हमला किया.
चंदन को गोली लगने के फ़ौरन बाद उसके साथी उसे थाने ले आए थे. लेकिन पुलिस ने चंदन को गोली लगने के बारे में कोई कारण नहीं बताया पुलिस ने उसी वक़्त एफ़आईआर क्यों नहीं दर्ज किया.
चंदन को पुलिस ने ही थाने से अस्पताल भिजवाया, जहाँ उसे मृत घोषित कर दिया गया. चंदन की मृत्यु की औपचारिक जानकारी भी दोपहर तक अस्पताल से थाने आ चुकी थी. चंदन का पोस्ट-मार्टेम तक बग़ैर एफ़आईआर के किया गया.
27 जनवरी से ही पुलिस ने मुसलमानों को गिरफ़्तार करना शुरू कर दिया और अगले दो हफ़्तों में 19 को गिरफ़्तार कर लिया. लेकिन दो महीने तक एक भी हिंदू गिरफ़्तार नहीं किया. मोटरसाइकिल रैली में शामिल हिंदुओं की पुलिस ने जाँच तक नहीं की.
पहले एफ़आईआर के जाँच अधिकारी ने दावा किया कि मोटरसाइकिल रैली का संयोजक अनुकल्प चौहान 26 जनवरी से ही लापता हो गया था. लेकिन 27 जनवरी को चंदन गुप्ता की शवयात्रा में कंधा देने वालों में चौहान सबसे आगे था. दूसरे एफ़आईआर के जाँचअधिकारीनेअनुकल्प चौहान से 2 फरवरी को उसके घर पर जाकर उसका बयान भी दर्ज किया.
घटना के ढाई महीने बाद चौहान ने अदालत में सरेंडर किया. अगली सुबह मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट(सीजेएम) ने उसे ज़मानत पर रिहा कर दिया. चौहान के पिताउस समय ज़िला जज की अदालत में क्लर्क थे. सीजेएम ज़िला जज के मातहत होता है. चौहान पहले एफ़आईआर के केस में अभियुक्त हैऔर दूसरे एफ़आईआर के केस में गवाह. यह न्यायिक प्रक्रिया का मखौल है.
पुलिसवालों के, मोटरसाइकिल रैली के हिंदुओं के,और स्वतंत्र गवाहों के तमाम बयानों में कई पारस्परिक विरोध हैं.
कुछ गवाहों के मुताबिक़ मुसलमानों नेहिंदुओं पर हमला बिलरामगेट चौराहे नाम की जगह पर किया. अन्य गवाहों ने कहा कि हिंदुओं के बिलरामगेट चौराहा पहुँचने से पहले ही मुसलमानों ने उनपर हमला कर दिया था. दूसरे एफआईआर के मुताबिक़ मुसलमानों ने हमला तब किया जब हिंदू बिलरामगेट चौराहे से भागकर आगे आ चुके थे.
कुछ पुलिस वालों ने कहा जब वे बिलराम गेट चौराहे पहुँचे वहाँ उन्हें सिर्फ़ हिंदू मिले. अन्य पुलिसवालों ने कहा उन्हें हिंदू और मुसलमान दोनों वहाँ मिले. दो स्वतंत्र गवाहों ने कहा पुलिस आने से पहले मुसलमान बिलरामगेट चौराहे से भाग चुके थे.
पहले एफ़आईआर में लिखा है झगड़े के बारे में पुलिस को सुबह 9.30 बजे पता चला. कई पुलिसवालों ने बाद में यही दावा किया. लेकिन अब्दुल हमीद चौक पर लगे सीसीटीवी कैमरे के फ़ुटेज से पता चलता है झगड़ा पच्चीस मिनट बाद हुआ था.
कुछ हिंदुओं के मुताबिक़ मुसलमानों ने उन पर बिलरामगेट चौराहे पर हमला किया जिसके बाद वे भागकर तहसील रोड पहुँचे जहाँ चंदन को गोली मारी गई. लेकिनअन्य हिंदुओं के बयानों में बिलरामगेट चौराहे का ज़िक्र ही नहीं है. बल्कि वे कहते हैं कि तिरंगा हाथ में लेकर नारे लगाते हुए जब रैली तहसील रोड पहुँची तब मुसलमानों ने उन पर हमला किया.
तहसील रोड की कथित घटना को लेकर भी पुलिसवालों, हिंदुओं और गवाहों के बयानों में भी पारस्परिक विरोध है.
कुछ हिंदुओं ने कहा कि तहसील रोड पहुँचने पर मुसलमानों ने उनके हाथों से तिरंगा छीन लिया और उन्हें “पाकिस्तान ज़िंदाबाद" का नारा लगाने को कहा, और जब चंदन गुप्ता ने ऐसा करने से इंकार कर दिया तो उसे गोली मार दी. अन्य हिंदुओं ने कहा कि मुसलमानों ने पहले चंदन को गोलीमारी और उसके बाद रैली के हिंदुओं को “पाकिस्तान ज़िंदाबाद” के नारे लगाने को कहा.
सबसे अकल्पनीय दावा यह है कि जिन मुसलमानों ने हिंदुओं पर तहसील रोड पर हमला किया, उन्हीं लोगों ने इससे पहले बिलरामगेट चौराहे पर भी इन्हीं हिंदुओं पर हमला किया था, जहाँ से भागकर ये हिंदू कहते हैं वे तहसील रोड पहुँचे थे.
तीन मुसलमान अभियुक्त घटना के दिनयानी 26 जनवरी कोअन्य शहरों में थे. एक अभियुक्त एक धार्मिक ग्रुप के साथ हाथरस गया हुआ था. दूसरा अभियुक्त अलीगढ़ और तीसरा लखनऊ में था. अलीगढ़ और लखनऊ गए अभियुक्तों की मौजूदगी की पुष्टि सीसीटीवी फ़ुटेज से होती है. लेकिन पुलिस ने इनको साक्ष्य नहीं माना है.
ये सभी विरोधाभास और गड़बड़ियाँ ये दिखाती हैं कि 26 जनवरी 2018 को कासगंज में हुई हिंसा की पुलिस द्वारा जाँच पूरी तरह मुस्लिम-विरोधी होने की वजह से भ्रष्ट है.
इस रिपोर्ट को जारी कर रहे सभी सामाजिक संगठनों ने उत्तर प्रदेश सरकार से ये मांगे की हैं:
• भ्रष्ट चार्जशीटों के नाम पर चलाए जा रहे दोनों मुक़दमों को फ़ौरन वापस लिया जाए.
• इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका दायर कर कोर्ट की देखरेख में घटना की स्वतंत्र पुलिस जाँच करवाए;
• दंगा न होने देने में,और दंगा होने के बाद बढ़ने से रोकने में, पुलिस और प्रशासन की नाकामी की उच्चस्तरीय जाँच कराए;
• जाँच को भ्रष्ट किए जाने में और बेगुनाह मुसलमानों को फंसाए जाने में ज़िम्मेदारी तय करने के लिए उच्चस्तरीय जाँच कराए;
• मुसलमानों पर लगाए गए झूठे आरोप वापस लेकर उन को रिहाकरे;
• मोटर साइकिल रैली में शामिल हिंदुओं को गिरफ़्तार करेऔर हिंसा में उनकी भूमिका की जाँच करे