देश भर में होशियार लोग बहस चलाते हैं कि "आरक्षण" का आधार आर्थिक हो। हम भी मान लेते है कि आरक्षण का आधार आर्थिक हो लेकिन आप भी यह मान लीजिये कि जाति का आधार आर्थिक हो।देश मे यह बहस क्यों नही चलती कि जाति खत्म हो? जातियां मजबूत हो रही हैं,खाप पंचायते फैसले सुना रही हैं, जातीय आधार पर राजनैतिक दल अपनी पार्टियों के टिकट दे रहे हैं, सत्ता आने पर जातीय आधार पर भेदभाव हो रहा है या होने का आरोप लग रहा है,जाति ही श्रेष्ठ या निम्न के भाव उत्पन्न कर रही है और जब हजारो वर्ष से जाति के आधार पर सभी सुविधाओं से महरूम लोगो को कुछ देने की बात होती है तो चालाक लोग यह राग अलापने लगते है कि कौन सी जाति गरीब नही है इसलिए किसी को भी कुछ दो तो उसका आधार आर्थिक हो?
देश मे रोजाना हजारो-लाखों लोग जाति के नाते शर्मसार होते हैं।जातीय उच्चता व हीनता के भाव से हम रोज ही दो-चार होते हैं। मेरठ में अनुसूचित जाति के 2 बच्चों का नाम जाति के नाते नही लिखा गया तो मेरठ में ही बाल्मीकि समाज के लोगो को पूजा नही करने दिया गया। रियो ओलम्पिक की रजत पदक विजेता सिंधु और अभी स्वर्ण पदक जीतीं हिमा को सम्मानित करने की बजाय समाज के मानिंद लोग गूगल पर जाति ढूढ़ते रहे।
इंडियन आइडियल में भाग लेने वाले बाल्मीकि समाज के सुर सम्राट को स्टूडियो में अपनी अपमान व्यथा बताते हुए कहना पड़ा कि उसे पानी नही लेने दिया जाता है और मंदिर में फेंक कर प्रसाद दिया जाता है।उदयपुर में दलित बच्ची ने रोटियां छू दीं तो रसोइये ने रोटियां फेंक दीं।ऐसी घटनाएं नित्य अनगिनत तादात में घटित होती हैं जिनमे से दशमलव में ही ये समाज के समक्ष उद्घाटित हो पाती हैं।हम रोज जाति के नाते अपमान का घूंट पीकर जीने को विवश है लेकिन बुद्धिमान लोग इस पर बहस नही चलाते हैं।
बहस आरक्षण पर चलाते हैं।मेरा सवाल है कि क्या किसी आर्थिक आधार पर विपन्न ब्राह्मण या क्षत्रिय के छुए हुए रोटी को फेंक दिया जाता है,क्या उनकी विपन्नता के बाद भी उन्हें पण्डित जी या बाबू साहब नही कहा जाता है?क्या यह सम्मान वंचित समाज के सभी साधनों से सम्पन्न कथित मुलयमा,ललुवा, मयवतिया को प्राप्त है?
आज भी समाज में अभिजात्य जन हमारे पास कुछ भी हो जाय पर हमे हिकारत की ही नजर से देखते हैं और हमे क्या हमारे रहनुमाओं मुलायम सिंह यादव जी,लालू जी,मायावती जी आदि को मुलयमा,ललुवा,मयवतिया आदि कह चौक-चौपाल पर सम्बोधित करते हैं तो क्यो हो आरक्षण का आधार "आर्थिक",यह मील के पत्थर की तरह गड़ा बड़ा सवाल है?
(ये लेखक के निजी विचार हैं। चंद्रभूषण सिंह यादव त्रैमासिक पत्रिका यादव शक्ति के प्रधान संपादक हैं।)
देश मे रोजाना हजारो-लाखों लोग जाति के नाते शर्मसार होते हैं।जातीय उच्चता व हीनता के भाव से हम रोज ही दो-चार होते हैं। मेरठ में अनुसूचित जाति के 2 बच्चों का नाम जाति के नाते नही लिखा गया तो मेरठ में ही बाल्मीकि समाज के लोगो को पूजा नही करने दिया गया। रियो ओलम्पिक की रजत पदक विजेता सिंधु और अभी स्वर्ण पदक जीतीं हिमा को सम्मानित करने की बजाय समाज के मानिंद लोग गूगल पर जाति ढूढ़ते रहे।
इंडियन आइडियल में भाग लेने वाले बाल्मीकि समाज के सुर सम्राट को स्टूडियो में अपनी अपमान व्यथा बताते हुए कहना पड़ा कि उसे पानी नही लेने दिया जाता है और मंदिर में फेंक कर प्रसाद दिया जाता है।उदयपुर में दलित बच्ची ने रोटियां छू दीं तो रसोइये ने रोटियां फेंक दीं।ऐसी घटनाएं नित्य अनगिनत तादात में घटित होती हैं जिनमे से दशमलव में ही ये समाज के समक्ष उद्घाटित हो पाती हैं।हम रोज जाति के नाते अपमान का घूंट पीकर जीने को विवश है लेकिन बुद्धिमान लोग इस पर बहस नही चलाते हैं।
बहस आरक्षण पर चलाते हैं।मेरा सवाल है कि क्या किसी आर्थिक आधार पर विपन्न ब्राह्मण या क्षत्रिय के छुए हुए रोटी को फेंक दिया जाता है,क्या उनकी विपन्नता के बाद भी उन्हें पण्डित जी या बाबू साहब नही कहा जाता है?क्या यह सम्मान वंचित समाज के सभी साधनों से सम्पन्न कथित मुलयमा,ललुवा, मयवतिया को प्राप्त है?
आज भी समाज में अभिजात्य जन हमारे पास कुछ भी हो जाय पर हमे हिकारत की ही नजर से देखते हैं और हमे क्या हमारे रहनुमाओं मुलायम सिंह यादव जी,लालू जी,मायावती जी आदि को मुलयमा,ललुवा,मयवतिया आदि कह चौक-चौपाल पर सम्बोधित करते हैं तो क्यो हो आरक्षण का आधार "आर्थिक",यह मील के पत्थर की तरह गड़ा बड़ा सवाल है?
(ये लेखक के निजी विचार हैं। चंद्रभूषण सिंह यादव त्रैमासिक पत्रिका यादव शक्ति के प्रधान संपादक हैं।)