1980 के दशक में फूलन देवी का नाम फिल्मी खलनायकों से भी ज्यादा खतरनाक बन चुका था। उस समय कुछ महिलाओं को फूलन देवी की मिसाल देते अक्सर सुना जाता था। फूलन देवी का जितना निशाना बड़ा अचूक था उससे कई गुना ज्यादा उनका कठोर दिल था। जानकार कहते हैं कि फूलन के साथ हुई परिस्थितियों ने ही उन्हें इतना कठोर बना दिया कि जब उन्होंने बहमई में एक लाइन में 22 ठाकुरों को खड़ा करके उनकी हत्या कर दी थी। जिसका उन्हें जरा भी मलाल नहीं हुआ। फूलन देवी 1980 के दशक के शुरुआत में चंबल के बीहड़ों में सबसे खतरनाक डाकू मानी जाती थीं। फूलन को पुलिस का डर उन्हें हमेशा बना रहता था। साथ ही खासकर ठाकुरों से उनकी दुश्मनी थी इसलिए उन्हें अपनी जान का खतरा भी महसूस होता था। फूलन पर कई फिल्में भी बनी हैं।
चंबल के बीहड़ों में पुलिस और ठाकुरों से बचते-बचते शायद वह थक गईं थीं इसलिए उन्होंने हथियार डालने का मन बना लिया। लेकिन आत्मसमर्पण का भी रास्ता इतना आसान नहीं था। फूलन देवी को शक था कि उत्तर प्रदेश की पुलिस उन्हें समर्पण के बाद किसी ना किसी तरीके से मार देगी इसलिए उन्होंने मध्य प्रदेश सरकार के सामने हथियार डालने के लिए सौदेबाजी की। मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के सामने फूलन देवी ने एक समारोह में हथियार डाले और उस समय उनकी एक झलक पाने के लिए हजारों लोगों की भीड़ जमा थी। उस समय फूलन देवी की लोकप्रियता किसी फिल्मी सितारे से कम नहीं थी। फूलन देवी ने लाल रंग का कपड़ा माथे पर बाँधा हुआ था और हाथ में बंदूक लिए जब वे मंच की तरफ बढ़ीं थीं तो सबकी साँसें जैसे थम सी गई थीं। 'कहीं फूलन यहाँ भी तो गोली नहीं चला देगी?' और कुछ ही लम्हों में फूलन देवी ने अपनी बंदूक माथे पर छुआकर फिर उसे अर्जुन सिंह के पैरों में रख दिया।
इसी घड़ी फूलन देवी ने डाकू की जिंदगी को अलविदा कह दिया था। फूलन मिजाज से बहुत चिड़चिड़ी थीं और किसी से बात नहीं करती थीं, करती भी थीं तो उनके मुँह से कोई न कोई गाली निकलती थी। फूलन देवी खासतौर से पत्रकारों से बात करने से कतराती थी। फूलन देवी का आत्मसमर्पण एक ऐतिहासिक घटना थी क्योंकि उनके बाद चंबल के बीहड़ों में सक्रिय डाकुओं का आतंक धीरे-धीरे ख़त्म होता चला गया। चंबल के बीहड़ों में सक्रिय डाकू कई प्रदेशों की सरकारों के लिए बहुत बड़ा सिरदर्द बने हुए थे और कुछ इलाकों में तो उनका हुक्म टालने की हिम्मत नहीं की जाती थी।
फूलन देवी ने 1983 में आत्मसमर्पण किया और 1994 तक जेल में रहीं। इस दौरान कभी भी उन्हें उत्तर प्रदेश की जेल में नहीं भेजा गया। 1994 में जेल से रिहा होने के बाद वे 1996 में सांसद चुनी गईं। समाजवादी पार्टी ने जब उन्हें लोक सभा का चुनाव लड़ने के लिए टिकट दिया तो काफी हो हल्ला हुआ कि एक डाकू को संसद में पहुँचाने का रास्ता दिखाया जा रहा है।
1994 में उनके जीवन पर शेखर कपूर ने 'बैंडिट क्वीन' नाम से फिल्म बनाई जिसे पूरे यूरोप में खासी लोकप्रियता मिली। फिल्म अपने कुछ दृश्यों और फूलन देवी की भाषा को लेकर काफी विवादों में भी रही। फिल्म में फूलन देवी को एक ऐसी बहादुर महिला के रूप में पेश किया गया जिसने समाज की गलत प्रथाओं के खिलाफ संघर्ष किया। फूलन देवी का जन्म उत्तर प्रदेश के एक गाँव में 1963 में हुआ था और 16 वर्ष की उम्र में ही कुछ डाकुओं ने उनका अपहरण कर लिया था।
फूलन देवी का कहना था उन्होंने ये हत्याएं बदला लेने के लिए की थीं। उनका कहना था कि ठाकुरों ने उनके साथ सामूहिक बलात्कार किया था जिसका बदला लेने के लिए ही उन्होंने ये हत्याएं कीं। बस उसके बाद ही उनका डाकू बनने का रास्ता बन गया था और उन्होंने 14 फरवरी 1981 को बहमई में 22 ठाकुरों की हत्या कर दी थी। इस घटना ने फूलन देवी का नाम बच्चे-बच्चे की जुबान पर ला दिया था।
चंबल के बीहड़ों में पुलिस और ठाकुरों से बचते-बचते शायद वह थक गईं थीं इसलिए उन्होंने हथियार डालने का मन बना लिया। लेकिन आत्मसमर्पण का भी रास्ता इतना आसान नहीं था। फूलन देवी को शक था कि उत्तर प्रदेश की पुलिस उन्हें समर्पण के बाद किसी ना किसी तरीके से मार देगी इसलिए उन्होंने मध्य प्रदेश सरकार के सामने हथियार डालने के लिए सौदेबाजी की। मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के सामने फूलन देवी ने एक समारोह में हथियार डाले और उस समय उनकी एक झलक पाने के लिए हजारों लोगों की भीड़ जमा थी। उस समय फूलन देवी की लोकप्रियता किसी फिल्मी सितारे से कम नहीं थी। फूलन देवी ने लाल रंग का कपड़ा माथे पर बाँधा हुआ था और हाथ में बंदूक लिए जब वे मंच की तरफ बढ़ीं थीं तो सबकी साँसें जैसे थम सी गई थीं। 'कहीं फूलन यहाँ भी तो गोली नहीं चला देगी?' और कुछ ही लम्हों में फूलन देवी ने अपनी बंदूक माथे पर छुआकर फिर उसे अर्जुन सिंह के पैरों में रख दिया।
इसी घड़ी फूलन देवी ने डाकू की जिंदगी को अलविदा कह दिया था। फूलन मिजाज से बहुत चिड़चिड़ी थीं और किसी से बात नहीं करती थीं, करती भी थीं तो उनके मुँह से कोई न कोई गाली निकलती थी। फूलन देवी खासतौर से पत्रकारों से बात करने से कतराती थी। फूलन देवी का आत्मसमर्पण एक ऐतिहासिक घटना थी क्योंकि उनके बाद चंबल के बीहड़ों में सक्रिय डाकुओं का आतंक धीरे-धीरे ख़त्म होता चला गया। चंबल के बीहड़ों में सक्रिय डाकू कई प्रदेशों की सरकारों के लिए बहुत बड़ा सिरदर्द बने हुए थे और कुछ इलाकों में तो उनका हुक्म टालने की हिम्मत नहीं की जाती थी।
फूलन देवी ने 1983 में आत्मसमर्पण किया और 1994 तक जेल में रहीं। इस दौरान कभी भी उन्हें उत्तर प्रदेश की जेल में नहीं भेजा गया। 1994 में जेल से रिहा होने के बाद वे 1996 में सांसद चुनी गईं। समाजवादी पार्टी ने जब उन्हें लोक सभा का चुनाव लड़ने के लिए टिकट दिया तो काफी हो हल्ला हुआ कि एक डाकू को संसद में पहुँचाने का रास्ता दिखाया जा रहा है।
1994 में उनके जीवन पर शेखर कपूर ने 'बैंडिट क्वीन' नाम से फिल्म बनाई जिसे पूरे यूरोप में खासी लोकप्रियता मिली। फिल्म अपने कुछ दृश्यों और फूलन देवी की भाषा को लेकर काफी विवादों में भी रही। फिल्म में फूलन देवी को एक ऐसी बहादुर महिला के रूप में पेश किया गया जिसने समाज की गलत प्रथाओं के खिलाफ संघर्ष किया। फूलन देवी का जन्म उत्तर प्रदेश के एक गाँव में 1963 में हुआ था और 16 वर्ष की उम्र में ही कुछ डाकुओं ने उनका अपहरण कर लिया था।
फूलन देवी का कहना था उन्होंने ये हत्याएं बदला लेने के लिए की थीं। उनका कहना था कि ठाकुरों ने उनके साथ सामूहिक बलात्कार किया था जिसका बदला लेने के लिए ही उन्होंने ये हत्याएं कीं। बस उसके बाद ही उनका डाकू बनने का रास्ता बन गया था और उन्होंने 14 फरवरी 1981 को बहमई में 22 ठाकुरों की हत्या कर दी थी। इस घटना ने फूलन देवी का नाम बच्चे-बच्चे की जुबान पर ला दिया था।