बेरोजगारी कई प्रकार की होती है. उसमें एक प्रकार है, अल्प बेरोजगारी का. अल्प बेरोजगारी के भी दो प्रकार है. इसका एक प्रकार है, अदृष्य अल्प रोजगार. अदृष्य अल्प रोजगार में लोग पूरा दिन काम करते हैं पर उनकी आय बहुत कम होती है या उनको ऐसे काम करने पडते हैं, जिनमें वे अपनी योग्यता का पूरा उपयोग नहीं कर सकते.
आम आदमी, खास कर उत्तर भारत की मानसिकता के हिसाब से देखें तो, अपने बच्चों को अच्छी से अच्छी शिक्षा दिलाने के लिए अपनी जमीनें तक बेच देता है. आज बिहार के हर दूसरे घर का लडका-लडकी मैट्रिक के बाद कोटा जाता है तैयारी करने. फिर 4-5 लाख डोनेशन दे कर प्राइवेट इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला लेता है. पढाई के बाद नौकरी नहीं मिलती, मिलती भी है तो पकौडा बेचने वाले से कम कमाई वाली तनख्वाह पर नौकरी मिलती है. और इस तरह वह अदृष्य अल्प रोजगार का शिकार हो जाता है या हो जाती है.
कहने का मतलब ये कि योग्यता और रोजगार के बीच एक गहरा संबंध होता है. अब आप कहे कि किसी मंत्री/सांसद/विधायक/पार्षद का पढा-लिखा बेरोजगार बेटा पकौडा बेचे तो ये कतई संभव नहीं है. वो कोई बडा बिजनेस करेगा. मल्टीप्लेक्स, पेट्रोल पंप, रेस्टोरेंट, एजेंसी आदि का बिजनेस करेगा. कुछ नहीं करेगा तो दलाली से ही इतना कमा लेगा, जितना एक हजार पौकडे वाले मिल कर नहीं कमा सकते.
सवाल बेरोजगार युवकों के पकौडे बेचने को ले कर नहीं है. सवाल सरकार नाम की संस्था का है. सरकार के दावों का है. सरकार दावा करती है कि इसने 10 करोड लोगों को मुद्रा योजना के तहत लोन दिया है. फिर तो कायदे से देश में बेरोजगारी होनी ही नहीं चाहिए. तब तो प्रधानमंत्री को पकौडा रोजगार की बात करने की ही जरूरत नहीं थी. इसका अर्थ है कि मुद्रा योजना में कहीं कोई भारी गडबडी है. फिर ये भी साबित होता है कि सरकार सार्वजनिक तो छोडिए, निजी नौकरियां भी पैदा हो सके, इसके लिए नीति बनाने में और नीति कार्यांवित करने में असफल रही है.
अगर, ऐसा नहीं होता तो निश्चित तौर पर अमित शाह से ले कर प्रधानमनत्री तक बार-बार जोर दे कर पकौडा व्यवसाय को सही ठहराने की कोशिश नहीं करते. मेरा सिर्फ इतना कहना है सरकार कि पकौडा बेचना कतई गलत नहीं है. सदियों से इस देश में पकौडा बेचने वाले पीढीयों से पकौडे के व्यापार में है. अच्छा कमा भी रहे है. आप सिर्फ इतना बताईए कि पिछले 4 साल में आपने देश की क्या हालत कर दी कि आपकों पकौडे बेचने की नसीहत देने की मजबूरी आन पडी है...?
(लेखक शशि शेखर एक पत्रकार हैं. यह आर्टिकल उनके फेसबुक वॉल से साभार लिया गया है.)
आम आदमी, खास कर उत्तर भारत की मानसिकता के हिसाब से देखें तो, अपने बच्चों को अच्छी से अच्छी शिक्षा दिलाने के लिए अपनी जमीनें तक बेच देता है. आज बिहार के हर दूसरे घर का लडका-लडकी मैट्रिक के बाद कोटा जाता है तैयारी करने. फिर 4-5 लाख डोनेशन दे कर प्राइवेट इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला लेता है. पढाई के बाद नौकरी नहीं मिलती, मिलती भी है तो पकौडा बेचने वाले से कम कमाई वाली तनख्वाह पर नौकरी मिलती है. और इस तरह वह अदृष्य अल्प रोजगार का शिकार हो जाता है या हो जाती है.
कहने का मतलब ये कि योग्यता और रोजगार के बीच एक गहरा संबंध होता है. अब आप कहे कि किसी मंत्री/सांसद/विधायक/पार्षद का पढा-लिखा बेरोजगार बेटा पकौडा बेचे तो ये कतई संभव नहीं है. वो कोई बडा बिजनेस करेगा. मल्टीप्लेक्स, पेट्रोल पंप, रेस्टोरेंट, एजेंसी आदि का बिजनेस करेगा. कुछ नहीं करेगा तो दलाली से ही इतना कमा लेगा, जितना एक हजार पौकडे वाले मिल कर नहीं कमा सकते.
सवाल बेरोजगार युवकों के पकौडे बेचने को ले कर नहीं है. सवाल सरकार नाम की संस्था का है. सरकार के दावों का है. सरकार दावा करती है कि इसने 10 करोड लोगों को मुद्रा योजना के तहत लोन दिया है. फिर तो कायदे से देश में बेरोजगारी होनी ही नहीं चाहिए. तब तो प्रधानमंत्री को पकौडा रोजगार की बात करने की ही जरूरत नहीं थी. इसका अर्थ है कि मुद्रा योजना में कहीं कोई भारी गडबडी है. फिर ये भी साबित होता है कि सरकार सार्वजनिक तो छोडिए, निजी नौकरियां भी पैदा हो सके, इसके लिए नीति बनाने में और नीति कार्यांवित करने में असफल रही है.
अगर, ऐसा नहीं होता तो निश्चित तौर पर अमित शाह से ले कर प्रधानमनत्री तक बार-बार जोर दे कर पकौडा व्यवसाय को सही ठहराने की कोशिश नहीं करते. मेरा सिर्फ इतना कहना है सरकार कि पकौडा बेचना कतई गलत नहीं है. सदियों से इस देश में पकौडा बेचने वाले पीढीयों से पकौडे के व्यापार में है. अच्छा कमा भी रहे है. आप सिर्फ इतना बताईए कि पिछले 4 साल में आपने देश की क्या हालत कर दी कि आपकों पकौडे बेचने की नसीहत देने की मजबूरी आन पडी है...?
(लेखक शशि शेखर एक पत्रकार हैं. यह आर्टिकल उनके फेसबुक वॉल से साभार लिया गया है.)