दिसंबर के महीने में क्रिसमस का बड़ा त्योहार तो आता ही है, यह वह समय भी है जब हम गुज़रे साल को अलविदा कहते हैं और आने वाले साल को आशाभरी निगाहों से देखते हैं। परंतु पिछले कुछ वर्षों से दिसंबर का महीना, क्रिसमस मनाने वालों को डराने-धमकाने और उन पर हमलों का महीना भी बन गया है। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री की पत्नी और एक भाजपा विधायक को सोशल मीडिया पर इसलिए ट्रोल किया गया क्योंकि उन्होंने क्रिसमस की थीम पर आधारित एक कार्यक्रम के बारे में प्रशंसात्मक बातें कहीं थीं। अलीगढ़ में कैरल गायकों को जबरदस्ती धर्मपरिवर्तन करवाने के आरोप में हिरासत में ले लिया गया। कई स्थानों पर आरएसएस से जुड़े हिन्दुत्व संगठनों ने यह घोषणा की कि वे स्कूलों में क्रिसमस का आयोजन नहीं होने देंगे। राजस्थान में विहिप के कार्यकर्ता एक क्रिसमस कार्यक्रम में जबरदस्ती घुस गए और उसे रोक दिया। उनका यह आरोप था कि वहां लोगों का धर्मपरिवर्तन करवाया जा रहा है। मध्यप्रदेश के सतना में एक हिन्दुत्व संगठन ने कैरल गायकों पर हमला किया और पादरी की कार में आग लगा दी। ये देशभर में क्रिसमस से संबंधित आयोजनों को बाधित करने और ईसाईयों को आतंकित करने की घटनाओं की बानगी भर हैं। इन सारी घटनाओं में हमलावर हिन्दुत्ववादी दक्षिणपंथी थे।
Image: Indian Express
पिछले कई वर्षों से क्रिसमस से संबंधित आयोजनों को निशाना बनाया जाना आम हो गया है, परंतु सन 2017 में ऐसी घटनाओं में जबरदस्त वृद्धि हुई है। ‘‘ओपन डोर्स’’ नाम की एक वैश्विक परोपकारी संस्था, दुनियाभर में ईसाईयों के साथ व्यवहार पर नज़र रखती है और हर साल पचास ऐसे देशों की सूची जारी करती है जहां ईसाईयों के लिए रहना सबसे मुश्किल है। इस संस्था ने कहा है कि 2016 में भारत इस सूची में 15वें स्थान पर था और अगर स्थितियां वही रहीं जो अब हैं, तो 2017 में शायद भारत इस सूची में और ऊपर पहुंच जाएगा। सन 2017 की पहली छमाही में भारत में ईसाईयों के खिलाफ हिंसा की घटनाओं की संख्या, 2016 में हुई कुल घटनाओं के बराबर थी।
पिछले दो दशकों में देश में ईसाई-विरोधी हिंसा तेज़ी से बढ़ी है। सन 1995 में इंदौर में रानी मारिया नामक एक ईसाई नन की हत्या कर दी गई थी। इन घटनाओं में से सबसे भयावह था सन 1999 में पास्टर ग्राहम स्टेन्स और उनके दो बच्चों की बजरंग दल के दारासिंह द्वारा जिंदा जलाकर हत्या। अगस्त 2008 में उड़ीसा के कंधमाल में हुई हिंसा भी अभूतपूर्व थी। यह देखा जा रहा है कि दिसंबर के माह में ईसाई-विरोधी हिंसा अपने चरम पर पहुंच जाती है। इस साल दिसंबर में डांग, फूलबनी और झाबुआ में इस तरह की घटनाएं हुई हैं।
यह हिंसा मुख्यतः पश्चिम (गुजरात) के डांग से लेकर पूर्व (उड़ीसा) के कंधमाल तक फैली आदिवासी पट्टी में होती है। इस पट्टी मे मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और झारखंड के आदिवासी इलाके भी शामिल हैं। शहरों में इस तरह की घटनाओं की संख्या अपेक्षाकृत कम है। दूरदराज़ के आदिवासी क्षेत्रो में विहिप से जुड़े स्वामियों ने अपने आश्रम बना लिए हैं, जो ईसाईयों के विरूद्ध नफरत फैलाने के केन्द्र बन गए हैं। डांग में स्वामी असीमानंद यह काम कर रहे थे तो झाबुआ में आसाराम बापू और उड़ीसा में लक्ष्मणानंद। कुछ क्षेत्रों में ‘‘हिन्दू जागो, क्रिस्ती भागो’’ जैसे नारे बुलंद किए गए। पिछले दो दशकों में आरएसएस से जुड़े विहिप और वनवासी कल्याण आश्रम की आदिवासी क्षेत्रों में सक्रियता तेज़ी से बढ़ी है। जहां एक ओर ईसाईयों के विरूद्ध हिंसा की जा रही है वहीं शबरी कुंभ और हिन्दू संगम जैसे आयोजन भी हो रहे हैं जिनका उद्देश्य आदिवासियों को शबरी और हनुमान जैसे हिन्दू प्रतीकों से जोड़ना है। स्वामी लक्ष्मणानंद की हत्या और उसके बाद कंधमाल में हुई हिंसा, इन संगठनों के तौर-तरीकों की परिचायक है। माओवादियों की इस घोषणा कि उन्होंने स्वामी लक्ष्मणानंद की हत्या की है के बावजूद कई ईसाई युवकों को गिरफ्तार कर लिया गया। लक्ष्मणानंद के पार्थिव अवशेषों को आदिवासी क्षेत्रों में जुलूस के रूप में ले जाया गया और इन्हीं क्षेत्रों में बाद में हिंसा हुई। क्या यह मात्र संयोग है कि ईसाई-विरोधी हिंसा मुख्यतः भाजपा-शासित प्रदेशों में हो रही है। जिस समय कंधमाल में हिंसा हुई उस समय उड़ीसा में बीजू जनता दल और भाजपा का संयुक्त गठबंधन सत्ता में था। इस वर्ष अब तक हुई ऐसी सभी बड़ी घटनाएं भाजपा-शासित प्रदेशों में हुई हैं।
इससे यह साफ है कि हिन्दू राष्ट्रवादी संगठनों की हिम्मत उन क्षेत्रों में बढ़ जाती है जहां भाजपा का शासन होता है। पुलिस भी ईसाईयों के प्रति पूर्वाग्रहग्रस्त है। यह मान्यता कि ईसाई मिशनरियां जबरदस्ती, धोखाधड़ी से व लोभ-लालच का सहारा लेकर हिन्दुओं को ईसाई बना रही हैं, आम जनता में गहरे तक घर कर गई है। कई पादरियों को, जो कि केवल धार्मिक गतिविधियां कर रहे थे, धर्मपरिवर्तन के आरोप में गिरफ्तार किया गया है।
अधिकांश मामलों में यह हिंसा ईसाई मिशनरियों के खिलाफ फैलाई गई नफरत का नतीजा होती है। हिन्दुत्व संगठन कानून अपने हाथ में लेने में तनिक भी संकोच नहीं करते। यह महत्वपूर्ण है कि इस हिंसा के मुख्य केन्द्र आदिवासी इलाके हैं। ये वे इलाके हैं जहां ईसाई मिशनरियां लंबे समय से शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करती आ रही हैं। उनकी मेहनत से आदिवासियों का सशक्तिकरण हुआ है। जहां शहरों में हिन्दुत्व संगठनों के नेता और कार्यकर्ता, अपने बच्चों को ईसाई मिशनरी स्कूलों में पढ़ाने के लिए आतुर रहते हैं वहीं आदिवासी क्षेत्रों में इसी विचारधारा के पैरोकार, मिशनरियों पर हमले करते हैं और उन पर झूठे आरोप लगाते हैं।
जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि पिछले पांच दशकों में देश की ईसाई आबादी का प्रतिशत कम हुआ है। सन 1971 में ईसाई, देश की आबादी का 2.60 प्रतिशत थे। सन 1981 में यह आंकड़ा घटकर 2.44, सन 1991 में 2.34 और सन 2001 में 2.30 प्रतिशत रह गया। सन 2011 की जनगणना में भी ईसाईयों का देश की आबादी में प्रतिशत 2.30 था। पास्टर स्टेन्स की हत्या के बाद एनडीए सरकार, जिसमें लालकृष्ण आडवाणी गृहमंत्री थे, ने वाधवा आयोग की नियुक्ति की। इस आयोग ने पाया कि पास्टर स्टेन्स, धर्मपरिवर्तन नहीं करवा रहे थे और उड़ीसा के क्योंझार और मनोहरपुर इलाकों, जहां वे सक्रिय थे, की ईसाई आबादी में कोई वृद्धि नहीं हुई थी।
आज ईसाईयों और विशेषकर ईसाई मिशनरियों पर हमलों और उन्हें आतंकित करने का दौर जारी है। हमारे देश की सांझा संस्कृति और सभी धर्मों का सम्मान करने की परंपरा को कमज़ोर करने के लिए दूसरे धर्मों के लोगों के अपने त्योहार मनाने के अधिकार पर चोट की जा रही है। ये हमले क्रिसमस कैरल और क्रिसमस पर नहीं हो रहे हैं। ये हमले दरअसल भारत की बहुवादी संस्कृति पर हो रहे हैं।
(अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया) (लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)
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पिछले कई वर्षों से क्रिसमस से संबंधित आयोजनों को निशाना बनाया जाना आम हो गया है, परंतु सन 2017 में ऐसी घटनाओं में जबरदस्त वृद्धि हुई है। ‘‘ओपन डोर्स’’ नाम की एक वैश्विक परोपकारी संस्था, दुनियाभर में ईसाईयों के साथ व्यवहार पर नज़र रखती है और हर साल पचास ऐसे देशों की सूची जारी करती है जहां ईसाईयों के लिए रहना सबसे मुश्किल है। इस संस्था ने कहा है कि 2016 में भारत इस सूची में 15वें स्थान पर था और अगर स्थितियां वही रहीं जो अब हैं, तो 2017 में शायद भारत इस सूची में और ऊपर पहुंच जाएगा। सन 2017 की पहली छमाही में भारत में ईसाईयों के खिलाफ हिंसा की घटनाओं की संख्या, 2016 में हुई कुल घटनाओं के बराबर थी।
पिछले दो दशकों में देश में ईसाई-विरोधी हिंसा तेज़ी से बढ़ी है। सन 1995 में इंदौर में रानी मारिया नामक एक ईसाई नन की हत्या कर दी गई थी। इन घटनाओं में से सबसे भयावह था सन 1999 में पास्टर ग्राहम स्टेन्स और उनके दो बच्चों की बजरंग दल के दारासिंह द्वारा जिंदा जलाकर हत्या। अगस्त 2008 में उड़ीसा के कंधमाल में हुई हिंसा भी अभूतपूर्व थी। यह देखा जा रहा है कि दिसंबर के माह में ईसाई-विरोधी हिंसा अपने चरम पर पहुंच जाती है। इस साल दिसंबर में डांग, फूलबनी और झाबुआ में इस तरह की घटनाएं हुई हैं।
यह हिंसा मुख्यतः पश्चिम (गुजरात) के डांग से लेकर पूर्व (उड़ीसा) के कंधमाल तक फैली आदिवासी पट्टी में होती है। इस पट्टी मे मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और झारखंड के आदिवासी इलाके भी शामिल हैं। शहरों में इस तरह की घटनाओं की संख्या अपेक्षाकृत कम है। दूरदराज़ के आदिवासी क्षेत्रो में विहिप से जुड़े स्वामियों ने अपने आश्रम बना लिए हैं, जो ईसाईयों के विरूद्ध नफरत फैलाने के केन्द्र बन गए हैं। डांग में स्वामी असीमानंद यह काम कर रहे थे तो झाबुआ में आसाराम बापू और उड़ीसा में लक्ष्मणानंद। कुछ क्षेत्रों में ‘‘हिन्दू जागो, क्रिस्ती भागो’’ जैसे नारे बुलंद किए गए। पिछले दो दशकों में आरएसएस से जुड़े विहिप और वनवासी कल्याण आश्रम की आदिवासी क्षेत्रों में सक्रियता तेज़ी से बढ़ी है। जहां एक ओर ईसाईयों के विरूद्ध हिंसा की जा रही है वहीं शबरी कुंभ और हिन्दू संगम जैसे आयोजन भी हो रहे हैं जिनका उद्देश्य आदिवासियों को शबरी और हनुमान जैसे हिन्दू प्रतीकों से जोड़ना है। स्वामी लक्ष्मणानंद की हत्या और उसके बाद कंधमाल में हुई हिंसा, इन संगठनों के तौर-तरीकों की परिचायक है। माओवादियों की इस घोषणा कि उन्होंने स्वामी लक्ष्मणानंद की हत्या की है के बावजूद कई ईसाई युवकों को गिरफ्तार कर लिया गया। लक्ष्मणानंद के पार्थिव अवशेषों को आदिवासी क्षेत्रों में जुलूस के रूप में ले जाया गया और इन्हीं क्षेत्रों में बाद में हिंसा हुई। क्या यह मात्र संयोग है कि ईसाई-विरोधी हिंसा मुख्यतः भाजपा-शासित प्रदेशों में हो रही है। जिस समय कंधमाल में हिंसा हुई उस समय उड़ीसा में बीजू जनता दल और भाजपा का संयुक्त गठबंधन सत्ता में था। इस वर्ष अब तक हुई ऐसी सभी बड़ी घटनाएं भाजपा-शासित प्रदेशों में हुई हैं।
इससे यह साफ है कि हिन्दू राष्ट्रवादी संगठनों की हिम्मत उन क्षेत्रों में बढ़ जाती है जहां भाजपा का शासन होता है। पुलिस भी ईसाईयों के प्रति पूर्वाग्रहग्रस्त है। यह मान्यता कि ईसाई मिशनरियां जबरदस्ती, धोखाधड़ी से व लोभ-लालच का सहारा लेकर हिन्दुओं को ईसाई बना रही हैं, आम जनता में गहरे तक घर कर गई है। कई पादरियों को, जो कि केवल धार्मिक गतिविधियां कर रहे थे, धर्मपरिवर्तन के आरोप में गिरफ्तार किया गया है।
अधिकांश मामलों में यह हिंसा ईसाई मिशनरियों के खिलाफ फैलाई गई नफरत का नतीजा होती है। हिन्दुत्व संगठन कानून अपने हाथ में लेने में तनिक भी संकोच नहीं करते। यह महत्वपूर्ण है कि इस हिंसा के मुख्य केन्द्र आदिवासी इलाके हैं। ये वे इलाके हैं जहां ईसाई मिशनरियां लंबे समय से शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करती आ रही हैं। उनकी मेहनत से आदिवासियों का सशक्तिकरण हुआ है। जहां शहरों में हिन्दुत्व संगठनों के नेता और कार्यकर्ता, अपने बच्चों को ईसाई मिशनरी स्कूलों में पढ़ाने के लिए आतुर रहते हैं वहीं आदिवासी क्षेत्रों में इसी विचारधारा के पैरोकार, मिशनरियों पर हमले करते हैं और उन पर झूठे आरोप लगाते हैं।
जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि पिछले पांच दशकों में देश की ईसाई आबादी का प्रतिशत कम हुआ है। सन 1971 में ईसाई, देश की आबादी का 2.60 प्रतिशत थे। सन 1981 में यह आंकड़ा घटकर 2.44, सन 1991 में 2.34 और सन 2001 में 2.30 प्रतिशत रह गया। सन 2011 की जनगणना में भी ईसाईयों का देश की आबादी में प्रतिशत 2.30 था। पास्टर स्टेन्स की हत्या के बाद एनडीए सरकार, जिसमें लालकृष्ण आडवाणी गृहमंत्री थे, ने वाधवा आयोग की नियुक्ति की। इस आयोग ने पाया कि पास्टर स्टेन्स, धर्मपरिवर्तन नहीं करवा रहे थे और उड़ीसा के क्योंझार और मनोहरपुर इलाकों, जहां वे सक्रिय थे, की ईसाई आबादी में कोई वृद्धि नहीं हुई थी।
आज ईसाईयों और विशेषकर ईसाई मिशनरियों पर हमलों और उन्हें आतंकित करने का दौर जारी है। हमारे देश की सांझा संस्कृति और सभी धर्मों का सम्मान करने की परंपरा को कमज़ोर करने के लिए दूसरे धर्मों के लोगों के अपने त्योहार मनाने के अधिकार पर चोट की जा रही है। ये हमले क्रिसमस कैरल और क्रिसमस पर नहीं हो रहे हैं। ये हमले दरअसल भारत की बहुवादी संस्कृति पर हो रहे हैं।
(अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया) (लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)