हम एक लिंगभेदी मानसिकता वाले समाज हैं जहाँ लड़कों और लड़कियों में फर्क किया जाता है. यहाँ लड़की होकर पैदा होना आसान नहीं है और पैदा होने के बाद एक औरत के रूप में जिंदा रखन भी उतना ही चुनौतीपूर्ण है. यहाँ बेटी पैदा होने पर अच्छे खासे पढ़े लिखे लोगों की ख़ुशी काफूर हो जाती है.
Image: clickon3d.blogspot.in
नयी तकनीक ने इस समस्या को और जटिल बना दिया है अब गर्भ में बेटी है या बेटा यह पता करने के लिए कि किसी ज्योतिष या बाबा के पास नहीं जाना पड़ता है. इसके लिए अस्पताल और डाक्टर हैं जिनके पास आधुनिक मशीनें है जिनसे भ्रूण का लिंग बताने में कभी चूक नहीं होती है. आज तकनीक ने अजन्मे बच्चे की लिंग जांच करवा कर मादा भ्रूण को गर्भ में ही मार देने को बहुत आसान बना दिया है.
भारतीय समाज इस आसानी का भरपूर फायदा उठा रहा है, समाज में लिंग अनुपात संतुलन लगातार बिगड़ रहा है. वर्ष 1961 से लेकर 2011 तक की जनगणना पर नजर डालें तो यह बात साफ तौर पर उभर कर सामने आती है कि 0-6 वर्ष आयु समूह के बाल लिंगानुपात में 1961 से लगातार गिरावट हुई है. पिछले 50 सालों में बाल लिंगानुपात में 63 पाइन्ट की गिरावट दर्ज की गयी है. लेकिन पिछले दशक के दौरान इसमें सांसे ज्यादा गिरावट दर्ज की गयी है
वर्ष 2001 की जनगणना में जहाँ छह वर्ष तक की उम्र के बच्चों में प्रति एक हजार बालक पर बालिकाओं की संख्या 927 थी लेकिन 2011 की जनगणना में यह घटकर 914 (पिछले दशक से -1.40 प्रतिशत कम) हो गया है. ध्यान देने वाली बात यह है कि अब तक की हुई सभी जनगणनाओं में यह अनुपात न्यून्तम है.
भारत में हर राज्य की अपनी सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक पहचान है जो कि अन्य राज्य से अलग है. इसी सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक विभिन्नता के कारण हम देखते हैं कि एक ही देश में बाल लिगानुपात की स्थिति अलग अलग हैं.
राज्यों की बात करें तो देश के सबसे निम्नत्म बाल लिंगानुपात वाले तीन राज्य हरियाणा (830), पंजाब (846), जम्मू कष्मीर (859) हैं जबकि सबसे ज्यादा बाल लिंगानुपात वाले तीन राज्य मिजोरम (971), मेधालय (970), अंड़मान निकोबार (966) हैं.
देश में सबसे कम बाल लिगानुपात हरियाणा के झझर में 774 है जम्मू कष्मीर में 2001 की तुलना में 2011 में सबसे ज्यादा गिरावट -8.71 प्रतिशत देखी गई है. वहीँ दादर नागर हवेली तथा लक्ष्यद्वीप में 2001 की तुलना में 2011 में यह गिरावट क्रमषः -5.62 तथा -5.32 है जो कि एक दशक में बाल लिगानुपात में गंभीर गिरावट के मामले में देश में दूसरे तथा तीसरे स्थान पर हैं.
भारत में लगातार घटते जा रहे इस बाल लिंगानुपात के कारण को गंभीरता से देखने और समझने की जरुरत है. जाहिर है लिंगानुपात कम होने का कारण प्राकृतिक नही है और ना ही इसका सम्बन्ध संबंध अमीरी या गरीबी से है. यह एक मानव निर्मत समस्या है जो कमोबेश देश के सभी हिस्सों, जातियों, वर्गों और समुदायों में व्याप्त है. भारतीय समाज में गहरायी तक व्याप्त लड़कियों के प्रति नजरिया, पितृसत्तात्मक सोच, सांस्कृतिक व्यवहार, पूर्वागृह, सामाजिक-आर्थिक दबाव, असुरक्षा, आधुनिक तकनीक का गलत इस्तेमाल इस समस्या के प्रमुख कारण हैं.
मौजूदा समय में लिंगानुपात के घटने के प्रमुख कारणों में से एक कारण चयनात्मक गर्भपात के आसान विकल्प के रूप में उपलब्धता भी है . वैसे तो अल्ट्रासाउंड, एम्नियोसिंटेसिस इत्यादि तकनीकों की खोज गर्भ में भ्रुण की विकृतियों की जांच के लिए की गयी थी लेकिन समाज के पितृसत्तात्मक सोच के चलते धीरे धीरे इसका इस्तेमाल भ्र्रूण का लिंग पता करने तथा अगर लड़की हो तो उसका गर्भपात करने में किया जाने लगा.
इस आधुनिक तकनीक से पहले भी बालिकाओं को अन्य पारम्परिक तरीकों जैसे जहर देना, गला घोटना, जमीन में गाड़ देना, नमक-अफीम-पुराना गुड़ या पपीते के बीज देकर इत्यादि का उपयोग कर मार दिया जाता था.
साल 2003 में समाज में घटती महिलाओं की घटती संख्या पर ‘मातृभूमि: ए नेशन विदाउट वूमेन’ नाम से एक फिल्म आई थी इसमें एक ऐसे भविष्य के गाँव को दर्शाया गया था जहाँ सालों से चली महिला शिशु हत्या के चलते अब यहाँ एक भी लड़की या महिला ज़िंदा नहीं है. दरअस्ल यह भविष्य की चेतावनी देने वाली फिल्म थी जिसमें बताया गया था कि बेटियों के प्रति अनचाहे रुख से स्थिति कितनी भयावह हो सकती है.
आज इस फिल्म की कई चेतावनियाँ हकीकत बन कर हमारे सामने हैं. हमारे देश के कई हिस्सों में लड़कियों की लगातार गिरती संख्य के कारण दुल्हनों का खरीद-फरोख्त हो रहा है, बड़ी संख्या में लड़कों को कुंवारा रहना पड़ रहा है और दूसरे राज्यों से बहुयें लानी पड़ रही है.
केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा लिंगानुपात को बढ़ाने के लिए अनेकों प्रयास किये गये हैं लेकिन स्थिति सुधरने के बजाय बिगड़ती ही गयी है. सुप्रीमकोर्ट द्वारा भी इस दिशा में लगातार चिंता जतायी जाती रही है. पिछले दिनों सुप्रीमकोर्ट ने भ्रूणलिंग जांच से जुड़े विज्ञापन और कंटेंट दिखाने पर सुप्रीम कोर्ट ने गूगल, याहू और माइक्रोसॉफ्ट जैसी सर्च इंजन कंपनियों को यह कहते हुए फटकार लगाई: "गूगल, याहू और माइक्रोसॉफ्ट जैसी कंपनियां मुनाफा कमाना तो जानती हैं, लेकिन भारतीय कानून की कद्र नहीं करतीं.' कोर्ट ने तीनों सर्च इंजन को अपने यहां आंतरिक विशेषज्ञ समिति बनाने के निर्देश दिए हैं जो समिति भ्रूण लिंग जांच से जुड़े आपत्तिजनक शब्द पहचानकर उससे जुड़े कंटेंट ब्लॉक करेगी.
लेकिन अनुभव बताता है कि कानून, योजना और सुप्रीमकोर्ट के प्रयास जरूरी तो हैं लेकिन काफी नहीं हैं. इस समस्या के कारण सामाजिक स्तर के हैं जैसे समाज का पितृसत्तात्मक मानसिकता, लड़के की चाह, सामाजिक-आर्थिक स्थिति, लिंग आधारित गर्भपात, कन्या शिशु की देखभाल ना करना, दहेज इत्यादी. यह जटिल और चुनौतीपूर्ण समस्यायें है. लेकिन समाज और सरकार को इन समस्याओं पर प्राथमिकता के साथ चोट करने की जरुरत है.
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नयी तकनीक ने इस समस्या को और जटिल बना दिया है अब गर्भ में बेटी है या बेटा यह पता करने के लिए कि किसी ज्योतिष या बाबा के पास नहीं जाना पड़ता है. इसके लिए अस्पताल और डाक्टर हैं जिनके पास आधुनिक मशीनें है जिनसे भ्रूण का लिंग बताने में कभी चूक नहीं होती है. आज तकनीक ने अजन्मे बच्चे की लिंग जांच करवा कर मादा भ्रूण को गर्भ में ही मार देने को बहुत आसान बना दिया है.
भारतीय समाज इस आसानी का भरपूर फायदा उठा रहा है, समाज में लिंग अनुपात संतुलन लगातार बिगड़ रहा है. वर्ष 1961 से लेकर 2011 तक की जनगणना पर नजर डालें तो यह बात साफ तौर पर उभर कर सामने आती है कि 0-6 वर्ष आयु समूह के बाल लिंगानुपात में 1961 से लगातार गिरावट हुई है. पिछले 50 सालों में बाल लिंगानुपात में 63 पाइन्ट की गिरावट दर्ज की गयी है. लेकिन पिछले दशक के दौरान इसमें सांसे ज्यादा गिरावट दर्ज की गयी है
वर्ष 2001 की जनगणना में जहाँ छह वर्ष तक की उम्र के बच्चों में प्रति एक हजार बालक पर बालिकाओं की संख्या 927 थी लेकिन 2011 की जनगणना में यह घटकर 914 (पिछले दशक से -1.40 प्रतिशत कम) हो गया है. ध्यान देने वाली बात यह है कि अब तक की हुई सभी जनगणनाओं में यह अनुपात न्यून्तम है.
भारत में हर राज्य की अपनी सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक पहचान है जो कि अन्य राज्य से अलग है. इसी सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक विभिन्नता के कारण हम देखते हैं कि एक ही देश में बाल लिगानुपात की स्थिति अलग अलग हैं.
राज्यों की बात करें तो देश के सबसे निम्नत्म बाल लिंगानुपात वाले तीन राज्य हरियाणा (830), पंजाब (846), जम्मू कष्मीर (859) हैं जबकि सबसे ज्यादा बाल लिंगानुपात वाले तीन राज्य मिजोरम (971), मेधालय (970), अंड़मान निकोबार (966) हैं.
देश में सबसे कम बाल लिगानुपात हरियाणा के झझर में 774 है जम्मू कष्मीर में 2001 की तुलना में 2011 में सबसे ज्यादा गिरावट -8.71 प्रतिशत देखी गई है. वहीँ दादर नागर हवेली तथा लक्ष्यद्वीप में 2001 की तुलना में 2011 में यह गिरावट क्रमषः -5.62 तथा -5.32 है जो कि एक दशक में बाल लिगानुपात में गंभीर गिरावट के मामले में देश में दूसरे तथा तीसरे स्थान पर हैं.
भारत में लगातार घटते जा रहे इस बाल लिंगानुपात के कारण को गंभीरता से देखने और समझने की जरुरत है. जाहिर है लिंगानुपात कम होने का कारण प्राकृतिक नही है और ना ही इसका सम्बन्ध संबंध अमीरी या गरीबी से है. यह एक मानव निर्मत समस्या है जो कमोबेश देश के सभी हिस्सों, जातियों, वर्गों और समुदायों में व्याप्त है. भारतीय समाज में गहरायी तक व्याप्त लड़कियों के प्रति नजरिया, पितृसत्तात्मक सोच, सांस्कृतिक व्यवहार, पूर्वागृह, सामाजिक-आर्थिक दबाव, असुरक्षा, आधुनिक तकनीक का गलत इस्तेमाल इस समस्या के प्रमुख कारण हैं.
मौजूदा समय में लिंगानुपात के घटने के प्रमुख कारणों में से एक कारण चयनात्मक गर्भपात के आसान विकल्प के रूप में उपलब्धता भी है . वैसे तो अल्ट्रासाउंड, एम्नियोसिंटेसिस इत्यादि तकनीकों की खोज गर्भ में भ्रुण की विकृतियों की जांच के लिए की गयी थी लेकिन समाज के पितृसत्तात्मक सोच के चलते धीरे धीरे इसका इस्तेमाल भ्र्रूण का लिंग पता करने तथा अगर लड़की हो तो उसका गर्भपात करने में किया जाने लगा.
इस आधुनिक तकनीक से पहले भी बालिकाओं को अन्य पारम्परिक तरीकों जैसे जहर देना, गला घोटना, जमीन में गाड़ देना, नमक-अफीम-पुराना गुड़ या पपीते के बीज देकर इत्यादि का उपयोग कर मार दिया जाता था.
साल 2003 में समाज में घटती महिलाओं की घटती संख्या पर ‘मातृभूमि: ए नेशन विदाउट वूमेन’ नाम से एक फिल्म आई थी इसमें एक ऐसे भविष्य के गाँव को दर्शाया गया था जहाँ सालों से चली महिला शिशु हत्या के चलते अब यहाँ एक भी लड़की या महिला ज़िंदा नहीं है. दरअस्ल यह भविष्य की चेतावनी देने वाली फिल्म थी जिसमें बताया गया था कि बेटियों के प्रति अनचाहे रुख से स्थिति कितनी भयावह हो सकती है.
आज इस फिल्म की कई चेतावनियाँ हकीकत बन कर हमारे सामने हैं. हमारे देश के कई हिस्सों में लड़कियों की लगातार गिरती संख्य के कारण दुल्हनों का खरीद-फरोख्त हो रहा है, बड़ी संख्या में लड़कों को कुंवारा रहना पड़ रहा है और दूसरे राज्यों से बहुयें लानी पड़ रही है.
केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा लिंगानुपात को बढ़ाने के लिए अनेकों प्रयास किये गये हैं लेकिन स्थिति सुधरने के बजाय बिगड़ती ही गयी है. सुप्रीमकोर्ट द्वारा भी इस दिशा में लगातार चिंता जतायी जाती रही है. पिछले दिनों सुप्रीमकोर्ट ने भ्रूणलिंग जांच से जुड़े विज्ञापन और कंटेंट दिखाने पर सुप्रीम कोर्ट ने गूगल, याहू और माइक्रोसॉफ्ट जैसी सर्च इंजन कंपनियों को यह कहते हुए फटकार लगाई: "गूगल, याहू और माइक्रोसॉफ्ट जैसी कंपनियां मुनाफा कमाना तो जानती हैं, लेकिन भारतीय कानून की कद्र नहीं करतीं.' कोर्ट ने तीनों सर्च इंजन को अपने यहां आंतरिक विशेषज्ञ समिति बनाने के निर्देश दिए हैं जो समिति भ्रूण लिंग जांच से जुड़े आपत्तिजनक शब्द पहचानकर उससे जुड़े कंटेंट ब्लॉक करेगी.
लेकिन अनुभव बताता है कि कानून, योजना और सुप्रीमकोर्ट के प्रयास जरूरी तो हैं लेकिन काफी नहीं हैं. इस समस्या के कारण सामाजिक स्तर के हैं जैसे समाज का पितृसत्तात्मक मानसिकता, लड़के की चाह, सामाजिक-आर्थिक स्थिति, लिंग आधारित गर्भपात, कन्या शिशु की देखभाल ना करना, दहेज इत्यादी. यह जटिल और चुनौतीपूर्ण समस्यायें है. लेकिन समाज और सरकार को इन समस्याओं पर प्राथमिकता के साथ चोट करने की जरुरत है.