नई दिल्ली। उत्तर प्रदेश में विधानसभा के दूसरे चरण का मतदान हो रहा है। ऐसे में विभिन्न पार्टियां अपने मुद्दों को लेकर चुनावी रण में संघर्ष कर रही हैं। वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल ने यूपी के सबसे दर्दनाक मुजफ्फरनगर दंगों के बारे में एक सीरीज लिखी है। इसमें उन्होंने इस दंगे के बाद में शुरू हुए जीवन संघर्ष और राज्य में इसकी पुनरावृत्ति की कोशिशों पर ध्यान दिलाया है। पढ़िए उनकी पांच किस्तें एक साथ.....
मुज़फ़्फ़रनगर बाकी है- 1
और दो बीजेपी को वोट! यह लिख दिया घरों पर बीजेपी ने जाटों और मुसलमानों की सदियों पुरानी दोस्ती को मुज़फ़्फ़रनगर कांड करवा के तार-तार कर दिया था। उसी जाटलैंड में बीजेपी का यह हाल है कि उसे वोट देने वालों के घर को जाट लोग कालिख पोत दे रहे हैं। वैसे इतना गुस्सा ठीक नहीं। पुलिस को दोषियों पर कार्रवाई करनी चाहिए।
मुज़फ़्फ़रनगर बाकी है- 2
अपने मतदाताओं का बीजेपी कैसे और कितना ख़्याल रखती है, यह जानना हो तो अनंतनाग या कहीं और बनी कश्मीरी पंडितों की कॉलोनी को देखना चाहिए। यह तस्वीर ग्रेटर कश्मीर अखबार में छपी है। उन्हें हर महीने नियमित रक़म मिलती है। बिज़नेस करने के लिए उन्हें जगह दी गई है। यूनिवर्सिटी में सीटें रिज़र्व है। हालात यह है कि हालात बेहतर होने और वहाँ बीजेपी-पीडीपी की सरकार बनने के बावजूद वे अब वापस जाना नहीं चाहते। संविधान हर किसी को आजादी देता है कि वह जहाँ चाहे, वहाँ रहे।
वहीं, मुज़फ़्फ़रनगर के दंगा पीड़ितों की टेंट कॉलोनी को देखिए।
ये किनके वोटर थे? क्या वे इस बर्ताव के हक़दार हैं? किसी भी पार्टी ने इनकी परवाह नहीं की। न सपा ने, न बसपा ने, न कांग्रेस ने। और बीजेपी तो इन्हें अपना वोटर मानती नहीं है।
मुज़फ़्फ़रनगर बाक़ी है -3
भारतीय राष्ट्र राज्य में मुसलमानों को ख़ास कुछ देने की क्षमता नहीं है।
नौकरियों और बैंक लोन जैसे आर्थिक समृद्धि के स्रोतों से लगभग वंचित मुसलमानों ने जीने के अपने तरीक़े निकाल लिए हैं। मुसलमान अपनी मेहनत और हुनर के दम पर जी रहा है। वह किसी सरकार के भरोसे नहीं है। वह आपस में ही एक दूसरे की मदद कर रहा है।
वह अपने अल्लाह और अपने बाज़ू के भरोसे है।
कोई भी सरकार उन्हें कुछ देकर बहुसंख्यकों को नाराज़ नहीं करेगी। यही भारतीय राजनीति का सच है। मुसलमानों को किसी सरकार से कुछ नहीं मिलने वाला।
जो एक चीज़ सरकार उनके लिए कर सकती है वह है क़ानून का राज। यानी अमन चैन। यह तो वैसे भी सरकार का कर्तव्य है और हर नागरिक का अधिकार।
क़ानून का राज दे दीजिए। मुसलमान अपनी ख़ुशहाली की इमारत ख़ुद बना लेगा। सरकारी मदद और उदारता के बिना जीना उसने सीख लिया है।
मुजफ्फरनगर बाक़ी है -4
मायावती के पाँच साल के शासनकाल का सबसे बड़ा दंगा कौन सा था?
याद कीजिए।
आप इस सवाल का जवाब नहीं दे पाएँगे। पाँच साल में पूरे यूपी में तमाम दंगों को मिलाकर चार लोग मारे गए थे।
अखिलेश यादव के शासनकाल की सिर्फ मुज़फ़्फ़रनगर की एकतरफ़ा हिंसा में 68 लोग मारे गए। 50,000 से ज़्यादा बेघर हुए। कई दिनों तक हिंसा चली। आख़िर सेना को बुलाना पड़ा।
यह गुजरात के बाद देश की सबसे बड़ी सांप्रदायिक हिंसा थी।
जबकि मुसलमान क़ानून के राज के अलावा कुछ माँगता नहीं है।
फ़ोटो- इंडिया टुडे
मुज़फ़्फ़रनगर बाक़ी है -5
अगर अखिलेश यादव मुज़फ़्फ़रनगर की एकतरफ़ा चल रही सांप्रदायिक हिंसा को रोकना चाहते थे, और कई दिनों तक नहीं रोक पाए, तो यह पर्याप्त कारण है, जिसके लिए उन्हें क्षमाप्रार्थी होना चाहिए।
मुज़फ़्फ़रनगर बाकी है- 1
और दो बीजेपी को वोट! यह लिख दिया घरों पर बीजेपी ने जाटों और मुसलमानों की सदियों पुरानी दोस्ती को मुज़फ़्फ़रनगर कांड करवा के तार-तार कर दिया था। उसी जाटलैंड में बीजेपी का यह हाल है कि उसे वोट देने वालों के घर को जाट लोग कालिख पोत दे रहे हैं। वैसे इतना गुस्सा ठीक नहीं। पुलिस को दोषियों पर कार्रवाई करनी चाहिए।
मुज़फ़्फ़रनगर बाकी है- 2
अपने मतदाताओं का बीजेपी कैसे और कितना ख़्याल रखती है, यह जानना हो तो अनंतनाग या कहीं और बनी कश्मीरी पंडितों की कॉलोनी को देखना चाहिए। यह तस्वीर ग्रेटर कश्मीर अखबार में छपी है। उन्हें हर महीने नियमित रक़म मिलती है। बिज़नेस करने के लिए उन्हें जगह दी गई है। यूनिवर्सिटी में सीटें रिज़र्व है। हालात यह है कि हालात बेहतर होने और वहाँ बीजेपी-पीडीपी की सरकार बनने के बावजूद वे अब वापस जाना नहीं चाहते। संविधान हर किसी को आजादी देता है कि वह जहाँ चाहे, वहाँ रहे।
वहीं, मुज़फ़्फ़रनगर के दंगा पीड़ितों की टेंट कॉलोनी को देखिए।
ये किनके वोटर थे? क्या वे इस बर्ताव के हक़दार हैं? किसी भी पार्टी ने इनकी परवाह नहीं की। न सपा ने, न बसपा ने, न कांग्रेस ने। और बीजेपी तो इन्हें अपना वोटर मानती नहीं है।
मुज़फ़्फ़रनगर बाक़ी है -3
भारतीय राष्ट्र राज्य में मुसलमानों को ख़ास कुछ देने की क्षमता नहीं है।
नौकरियों और बैंक लोन जैसे आर्थिक समृद्धि के स्रोतों से लगभग वंचित मुसलमानों ने जीने के अपने तरीक़े निकाल लिए हैं। मुसलमान अपनी मेहनत और हुनर के दम पर जी रहा है। वह किसी सरकार के भरोसे नहीं है। वह आपस में ही एक दूसरे की मदद कर रहा है।
वह अपने अल्लाह और अपने बाज़ू के भरोसे है।
कोई भी सरकार उन्हें कुछ देकर बहुसंख्यकों को नाराज़ नहीं करेगी। यही भारतीय राजनीति का सच है। मुसलमानों को किसी सरकार से कुछ नहीं मिलने वाला।
जो एक चीज़ सरकार उनके लिए कर सकती है वह है क़ानून का राज। यानी अमन चैन। यह तो वैसे भी सरकार का कर्तव्य है और हर नागरिक का अधिकार।
क़ानून का राज दे दीजिए। मुसलमान अपनी ख़ुशहाली की इमारत ख़ुद बना लेगा। सरकारी मदद और उदारता के बिना जीना उसने सीख लिया है।
मुजफ्फरनगर बाक़ी है -4
मायावती के पाँच साल के शासनकाल का सबसे बड़ा दंगा कौन सा था?
याद कीजिए।
आप इस सवाल का जवाब नहीं दे पाएँगे। पाँच साल में पूरे यूपी में तमाम दंगों को मिलाकर चार लोग मारे गए थे।
अखिलेश यादव के शासनकाल की सिर्फ मुज़फ़्फ़रनगर की एकतरफ़ा हिंसा में 68 लोग मारे गए। 50,000 से ज़्यादा बेघर हुए। कई दिनों तक हिंसा चली। आख़िर सेना को बुलाना पड़ा।
यह गुजरात के बाद देश की सबसे बड़ी सांप्रदायिक हिंसा थी।
जबकि मुसलमान क़ानून के राज के अलावा कुछ माँगता नहीं है।
फ़ोटो- इंडिया टुडे
मुज़फ़्फ़रनगर बाक़ी है -5
अगर अखिलेश यादव मुज़फ़्फ़रनगर की एकतरफ़ा चल रही सांप्रदायिक हिंसा को रोकना चाहते थे, और कई दिनों तक नहीं रोक पाए, तो यह पर्याप्त कारण है, जिसके लिए उन्हें क्षमाप्रार्थी होना चाहिए।