10 वर्ष के बाद भारत में केंद्र की सरकार अब बहुमत के लिए अपने सहयोगियो पर निर्भर रहेगी और इसके संकेत साफ दिखाई भी देने लगे जब चंद्र बाबू नायडू और नीतीश कुमार अन्य सहयोगियों के साथ नरेंद्र मोदी के साथ बैठे दिखाई दिए और भाजपा के ताकतवर नेता थोड़ा किनारे किए गए। लेकिन ये सब तो राजनेताओं का ईगो ठंडा करने के लिए है नहीं तो इतनी जल्दी कोई बदल जाए ये नहीं समझना चाहिए। खैर अच्छी बात ये है कि भाजपा 240 पर सिमट गई और अपने दम पर सरकार में नहीं है। उसे अपने सहयोगियों पर निर्भर रहना पड़ेगा।
इन चुनावों में काँग्रेस का परफॉरमेंस अच्छा रहा है और वह 100 सीटें जीत चुकी है। कोई भी यह कह सकता है कि इसे अच्छा परफॉरमेंस कैसे कहें जब पार्टी कई राज्यों में कोई भी सीट नहीं ला पाई जैसे दिल्ली, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश आदि राज्य। लेकिन आज के हालातों में जब हमारे स्वतंत्र संस्थानों की स्थिति बेहद निराशाजनक है और ईडी, इनकम टैक्स, सीबीआई और मीडिया का इस्तेमाल अपने राजनीतिक विरोधियों को आर्थिक और सामाजिक तौर पर पूरी तरह से ध्वस्त करने के लिए किया जा रहा हो तो इंडिया अलायेंस की परफॉरमेंस को बेहतरीन कहा जा सकता है। भाजपा का प्रचंड बहुमत से सत्ता में आने का सपना टूट गया है और देश के सभी संविधान पसंद लोगों ने राहत की सांस ली है। देश के भविष्य के लिए महत्वपूर्ण इन चुनावों के कुछ निष्कर्ष समझना जरूरी है ताकि सभी इनसे कुछ सीख सकें। उत्तर प्रदेश ने देश के संविधान की लड़ाई में सबसे बड़ी भूमिका निभाई है और इंडिया गठबंधन के नेताओं को खुल के समर्थन किया। मान्यवर कांशीराम साहेब कहा करते थे कि हमें दिल्ली में मजबूत नहीं मजबूर सरकार चाहिए ताकि उससे दलितों के हितों से संबंधित कानून पास करवा लिए जाएँ। जब कांशीराम साहब ये बात कह रहे थे वो उस समय बसपा को निर्णायक भूमिका में देख रहे थे। उनका मतलब साफ था कि जब सरकारों के पास अपना बहुमत नहीं होता तो छोटे और क्षेत्रीय दल निर्णायक भूमिका में होते हैं और अपनी बातें और मांगें मनवाने में कामयाब होते हैं। मतलब ये की मजबूर सरकार दलितों के हित में उस समय आएगी जब अपनी बात मनवाने के लिए दलितों की पार्टिया संसद या विधान सभाओं में मौजूद रहें। मतलब ये की आज के हालातों में यदि बसपा के पास 5 सांसद भी होते तो वे बहुत बड़े बदलाव के वाहक बन सकते थे।
आज बसपा बहुत ही कठिन दौर से गुजर रही है। पार्टी वर्तमान लोकसभा में बिना किसी प्रतिनिधित्व के रहेगी। पार्टी की रणनीति पर बहुत सवाल उठ रहे हैं। उत्तर प्रदेश में पार्टी कुछ क्षेत्रों को छोड़कर अपना प्रभाव नहीं दिखा पाई। पार्टी ने बड़ी संख्या में मुस्लिम नेताओं को खड़ा किया था लेकिन वो रणनीति सफल नहीं हो पाई। किसी गठबंधन के अभाव में पार्टी बहुत कमजोर स्थिति में है और पार्टी को अब गंभीरता से अपने भविष्य की रणनीति पर विचार करना होगा।
इस आलेख को लिखते समय मैं ये साफ कहना चाहता हूँ कि बसपा का मजबूत होना देश में लोकतंत्र के लिए बहुत आवश्यक है। बसपा अम्बेडकरी आंदोलन से निकली पार्टी है और उसका हश्र वैसा न हो जैसे एक समय में आरपीआई का हो गया। राजनीति में ऐसे दौर आते हैं और गुजर भी जाते हैं। बसपा जैसी काडर बेस पार्टी दोबारा से अपनी ताकत प्राप्त कर सकती है लेकिन उसे अपने लिए लंबे समय के सहयोगी चाहिए होंगे। एकला चलो की रणनीति अब कारगर नहीं है। बसपा को अपनी रणनीति मे व्यापक बदलाव की आवश्यकता है जिसमें युवाओ को आकर्षित करने के लिए एक नया एजेंडा। पार्टी अपना घोषणापत्र नहीं बनाती लेकिन अब उसे ये काम करना चाहिए और सोशल मीडिया और सांस्कृतिक विभाग को भी मजबूत करना चाहिए। अबकी बार बसपा नेरेटिव की लड़ाई हार चुकी थी क्योंकि संविधान बचाने के सवाल और सपा काँग्रेस गठबंधन ने उनके अधिकांश वोट खींच लिए।
मैंने बसपा की ग्रोथ को 1990 से देखा है जब मान्यवर कांशीराम ने पार्टी को खड़ा किया और उन्हें उत्तर प्रदेश में समाज को सुश्री मायावती के रूप मे एक प्रेरणादायी नेतृत्व दिया। याद रखिए, मान्यवर कांशीराम का आंदोलन उत्तर प्रदेश में तभी सफल हुआ जब उसमें मायावती जैसी जुझारू महिला नेतृत्व कर रही थी। आज लोग कुछ भी कहें लेकिन इस हकीकत से कोई इनकार नहीं कि कांशीराम जी के नेतृत्व में और सुश्री मायावती के रूप में एक मजबूत व्यक्तित्व के बिना ये आंदोलन सफल नहीं हो पाता। किसी भी महान व्यक्तित्व की शक्ति और सफलता इस बात से मानी जा सकती है कि उसने कितने नए नेतृत्व को खड़ा किया। अक्सर वही हमारे नेताओ की असफलताए हैं क्योंकि वे अपने परिवारों को छोड़ नया नेतृत्व विकसित ही नहीं करना चाहते। इस संदर्भ में मान्यवर कांशीराम भारतीय राजनीति के पुरोधा माने जायेंगे क्योंकि जिस दौर में बड़ी बड़ी पार्टियों में महिला नेतृत्व केवल किसी बड़े नेता के अधीन काम कर रही थी वहीं बसपा में सुश्री मायावती जैसे सशक्त व्यक्तित्व ने उत्तर प्रदेश में नेतृत्व संभाल कर पार्टी को राष्ट्रीय फलक पर ला खड़ा किया। पार्टी केवल एक समाज की नहीं थी क्योंकि पार्टी ने गाँव गाँव में अपने आप को अति पिछड़ों और दूसरी दलित जातियों से जोड़ा। भारतीय राजनीति में ‘बहुजन’ सिद्धांत का प्रतिपादन केवल मान्यवर कांशीराम ने किया। जब से भारतीय समाज का राजनीतिकरण हुआ और लोकतान्त्रिक परम्पराओं की नींव पड़ी तब से बहुजन समाज की बात करने वाले केवल एक ही पार्टी या नेता रहे और वह है बसपा और मान्यवर कांशीराम साहब। ये बात मैं इसलिए कह रहा हूँ कि काँग्रेस, भाजपा, सपा, राजद, जद, साम्यवादी पार्टियां किसी में भी मूलरूप से बहुजन शब्द या सिद्धांत से कोई लेना देना नहीं हैं। अपने जन्म के लगभग 35 वर्ष बाद समाजवादी पार्टी आज बहुजन की बात कर रही है हालांकि लगता ये है कि बहुजन शब्द का प्रयोग नहीं करना चाहती इसलिए पिछड़ा दलित अल्पसंख्यक शब्द का इस्तेमाल है जो केवल एक राजनीतिक समीकरण है और इसमें अभी भी बहुजन समाज की खुशबू नजर नहीं आती। ये ब्राह्मणवादी पूंजीवादी व्यवस्था का कोई विकल्प नही है।
इस हकीकत से कोई इनकार नहीं कर सकता कि उत्तर प्रदेश में जिस अम्बेडकरी आंदोलन के बीज आरपीआई के समय से मौजूद थे उसे सही मायनों में बहुजन समाज पार्टी ने मुकाम तक पहुंचाने के प्रयास किए। बसपा को अलायेंस का महत्व पता है। जब पहली बार बहिन जी ने बिना किसी दूसरी पार्टी के सहयोग के सत्ता संभाली तब वो भी सामाजिक अलायेंस ही था। लेकिन उसके बाद बसपा के ये अलायेंस टूट गए या बहुत से लोगों ने ऐसी खबर फैला दी की मायावती जी बिना सतीश चंद्र मिश्र के कोई निर्णय नहीं लेतीं। ये विरोधियों द्वारा उन्हें बदनाम करने की चाल थी। वैसे पार्टी में सभी से पूछ कर काम हो तो कोई बुरी बात नही है लेकिन ऐसा प्रचारित किया गया कि बसपा सुप्रीमो किसी की नहीं सुनतीं। खैर, इन सभी बातों के कोई मतलब नही होते यदि मायावती जी लोगों से अपना संपर्क रखतीं। उत्तर प्रदेश के विभिन्न इलाकों से बहुत अच्छे से वाकिफ होने और बहुजन आंदोलन से जुड़े साथियों से नजदीकी रिश्तों के कारण मैं एक बात कह सकता हूँ कि आज भी बसपा की ताकत बहुत बड़ी है लेकिन पार्टी नेतृत्व ने देश में हो रहे बदलाव को सही से नहीं आँका और नतीजा हुआ कि पार्टी आज की परिस्थितियों से बहुत दूर दिखाई देती है। आज देश का बहुत बड़ा वर्ग युवा है जो सन 2000 के बाद की पैदाइश वाला है। उसने सुश्री मायावती के कार्यकाल को भी ढंग से नहीं समझा होगा, शायद अधिकांश को वो याद भी नहीं हो। आज का युवा अपने एजेंडे पर बात करना चाहता है। वो हर समय जातीय समीकरण नहीं अपने प्रश्नों पर आपकी राय और इरादा जानना चाहता है। दुर्भाग्यवश, बसपा ने कभी भी उन प्रश्नों पर खुले तौर पर अपने विचार नहीं रखे। बसपा के साथ एक खास बात है की देश दुनिया के अम्बेडकरी लोगों की सहानुभूति उसके साथ आज भी है। लोग व्यक्तिगत तौर पर निराश होते हैं और पार्टी को मिशन के नाम पर समर्थन देते हैं। पिछले वर्ष पंजाब के चुनावों से पहले मैं बर्मिंघम, इंग्लैंड से अपने अम्बेडकरी मित्र देविंदर चंदर जी के निमंत्रण पर उनके गाँव नकोदर गया जो एक समय में बसपा का बड़ा गढ़ था। देविंदर जी के पिता बसपा के नेता थे और मान्यवर कांशीराम उनके घर पर आ चुके थे। गाँव में अधिकांश घरों पर बसपा के झंडे दिख रहे थे। मैं एक पुराने बुजुर्ग के घर पर गया जिनके घर पर हाथी का झण्डा लगा था और उनसे पूछा कि पार्टी की क्या स्थिति है पंजाब में। उसने मुझे बताया कि पार्टी की स्थिति अच्छी नहीं है लेकिन वह मिशन के लिए काम करते रहेंगे। पार्टी चाहे जीते या नहीं, हम मान्यवर कांशीराम के बहुजन मिशन के सिपाही हैं और मरते दम तक पार्टी के साथ ही रहेंगे। ऐसे जुझारू कार्यकर्ता आज भी बहुत जगहों पर हैं लेकिन बसपा को सोचना पड़ेगा कि आज के युवाओं में इतनी सहनशीलता नहीं है कि वे पार्टी के सत्ता में आने का इंतज़ार करें। मैं जानता हूँ आज भी बहुत से युवा जो बसपा का झण्डा सोशल मीडिया पर बुलंद किए हुए हैं वे अंदर से निराश थे। सबके दिल में एक टीस थी कि काश बहिन जी जनता के बीच ऐक्टिव हो जातीं, आकाश आनंद लगातार यात्राएं करते। आनंद जब ऐक्टिव हुए तो एक भाषण को लेकर उन्हें पद से ही हटा दिया गया। ऐसी स्थिति बेहद निराशाजनक है।
आज लोग बसपा के भविष्य को लेकर चिंतित हैं। उत्तर प्रदेश में दलितों ने पिछड़ों और मुस्लिम मतदाताओं के साथ मिलकर इंडिया गठबंधन के रूप में सपा और काँग्रेस के प्रत्याशियों को वोट दिया है। ये वोट संविधान को बचाने के लिए गया क्योंकि भाजपा सरकार ने युवाओं के साथ जो खिलवाड़ किया है वो जगजाहिर है। जैसे मैंने कहा, बसपा नेरटिव की लड़ाई में हार गई। जैसे मैंने कहा पार्टी में दूसरी कतार में युवा नेतृव की कई लाइनें लगी होनी चाहिए थीं जो नहीं है। आज ये पार्टी की सबसे बड़ी कमजोरी है कि वह देशभर में मौजूद अम्बेडकरी विचारकों, लेखकों, युवाओ की भावनाओं को अभिव्यक्त करने में पूरी तरह से असफल साबित हुई है। और ये बात मैं इसलिए कह रहा हूँ कि इन अम्बेडकरी युवाओं की पहली पसंद अभी भी बसपा है लेकिन उनकी भावनाओं का सम्मान करने के लिए पार्टी न केवल राजनीतिक दर मजबूत करे अपितु सांस्कृतिक पक्ष को भी मजबूत करे।
क्या बसपा पर भाजपा की बी टीम का आरोप सही है
बहुत से लोग ये कह रहे हैं कि बसपा ने उत्तर प्रदेश में वोट कटुआ की भूमिका निभाई और उसके चलते काँग्रेस सपा गठबंधन बहुत सी सीटें हार गया। इस प्रकार के आरोप लगाने वाले असल में न तो राजनीति को समझते हैं और न ही वैचारिक रूप से ईमानदार हैं। बसपा एक राष्ट्रीय पार्टी है। उत्तर प्रदेश में अभी भी उसका व्यापक जनाधार रहा है। सुश्री मायावती उत्तर प्रदेश में चार बार सरकार की मुखिया रही हैं। यदि बसपा का किसी के साथ गठबंधन नहीं हुआ तो इसका अर्थ यह नहीं कि पार्टी चुनाव नहीं लड़ेगी। वोट कटुआ के आरोप बसपा पर कोई पहली बार नहीं लगे हैं। मान्यवर कांशीराम के समय भी ऐसे आरोप लगाए जाते थे लेकिन उनके पास इन सबके बेहतरीन जवाब थे। वह इस बात में भी बसपा की ताकत का अहसास करवाते थे कि बसपा को गंभीरता से लें क्योंकि यदि वह चुनाव नहीं जीत सकती तो आपको चुनाव हरा भी सकती है। चुनाव में विभिन्न दल भाग लेते हैं। कई बार उनके गठबंधन होते हैं और कई बार नहीं बन पाते लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि पार्टी चुनाव न लड़े और उस पर आरोप लगा देना कि वो भाजपा से पैसे लेके चुनाव लड़ी है उस आंदोलन का भी अपमान है जहां से बसपा निकली है। बसपा ने राजनीतिक गलतियां की हों लेकिन उसके खात्मे की जो उम्मीद कर रहे हैं वो जनतंत्र और दलितों के साथ न्याय नहीं कर रहे। जब भी बसपा की उपलब्धियों की बात आएगी तो उसे केवल पार्टी की सरकार और वोट शेयर तक सीमित नहीं किया जा सकता। आज अखिलेश, मोदी, राहुल, तेजस्वी जो बाबा साहब की जय जय कार कर रहे हैं वो बसपा के प्रभाव का ही कमाल है। बसपा न होती तो भारत के राजनीतिक दलों में दलित केवल ‘अनुसूचित जाति’ के ‘पिंजरे’ (‘सेल’) में कैद होते और उनकी भूमिका केवल नेताओं के लिए भीड़ जुटाने की होती। मान्यवर कांशीराम जी ने बसपा के जरिए बहुजन समाज को उनकी शक्ति का एहसास करवाया।
क्या बसपा का भविष्य खत्म है ?
इन चुनावों के पहले से ही मैंने कहा कि बसपा नेरेटिव की लड़ाई पहले ही हार चुकी थी। पार्टी प्रमुख द्वारा हार का ठीकरा मुस्लिम संप्रदाय पर फोड़ना बेहद ही निराशाजनक है। पार्टी को अपना जनाधार बपास लाने के लिए अति दलित अति पिछड़ों के साथ तथाकथित उच्च वर्गों के भी उन लोगों से सहयोग लेना चाहिए जो जातिभेद के विरुद्ध हैं। यदि अधिकांश सवर्ण समूह आज भाजपा के साथ हैं तो भी उन लोगों का सहयोग लिया जाना जरूरी है जो सांप्रदायिक और जातिवादी राजनीति का विरोध करते हैं। बाबा साहब का जाति उन्मूलन का सिद्धांत अभी भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना पहले था। पार्टी युवाओं से जुड़े और चंद्रशेखर आजाद जैसे युवा को साथ जोड़े जाने की आवश्यकता है क्योंकि उनके अलग राजनीतिक दल बनाने से कोई ब्राह्मणवादी दल तो कमजोर नही होंगे लेकिन उसका नकारात्मक असर बसपा पर ही पड़ेगा। बसपा का उत्तर प्रदेश मे अभी भी जनाधार है लेकिन उसके मिशन के सिपाहियों मे गहन निराशा है। उन्होंने ‘सीने पर पत्थर’ रखकर कुछ ऐसे दलों को भी वोट दिया है जिन्हे बसपा का कार्यकर्ता कभी वोट नहीं दे सकता। इसका कारण केवल एक था कि बसपा के कार्यकर्ताओं ने भी ये मान लिया था कि पार्टी भाजपा को हराने में सक्षम नही है। सभी संविधान बचाने और दलितों पर हिंसा और आरक्षण के सवाल पर सरकार की भूमिका को समझ रहे थे इसलिए उन्हें लगा कि इंडिया गठबंधन इसमें अधिक गंभीर और सक्षम है इसलिए वे उस तरफ चले गए। इसलिए मैं यह कह सकता हूँ कि उत्तर प्रदेश में हार के बावजूद भी बसपा अपने पुराने दौर में आ सकती है यदि सुश्री मायावती पुनः मजबूती से जनता से संवाद करें और उत्तर प्रदेश के गाँव तक एक यात्रा करें। मैं उनकी पैदल यात्रा की बात नहीं कर रहा लेकिन यदि 2027 से पहले उन्होंने अपने कैडर को ये संदेश भेज दिया कि पार्टी उनके सवालों पर गंभीर है तो उत्तर प्रदेश को दोनों गठबंधनों को बसपा के पास समझौते के लिए आना पड़ेगा। शायद, सुश्री मायावती इस बात को समझ रही हैं लेकिन उससे पहले उन्हें पुनः बसपा को पुनर्जीवित करना होगा और उन जातियों, समूहों, लोगों को पार्टी से जोड़ना होगा जो बाबा साहब के मिशन के प्रति समर्पित हैं और देश में सांप्रदायिक और जातिवादी राजनीति का विरोध करते हैं।
उत्तर प्रदेश और बिहार के परिणाम क्या संकेत दे रहे हैं ?
इस बात को समझना भी जरूरी है कि सारी समस्याओं की जड़ में बसपा नहीं है। पार्टी ने रणनीति के स्तर पर भूल की हो लेकिन दलित नेतृत्व को हाशिये पर रखने की कोशिशें हमेशा से हुई हैं और इसमें पिछड़े वर्ग की राजनीति और नेताओं का भी रोल लगभग वैसे ही है जैसे वर्णवादी मानसिकता की शिकार पार्टियों का। बसपा को तो आप पानी पी पी कर कोस रहे हैं की उन्होंने जानबूझकर ऐसे प्रत्याशी दिए जो सपा काँग्रेस को नुकसान पहुंचा सकें लेकिन एक राजनीतिक दल अपने प्रत्याशी तो खड़े करेगा ही और ये तो इन दलों को देखना था कि बिना बसपा के वे कुछ कर पाते हैं या नहीं। आखिर बसपा के साथ ही तो ऐसा नहीं हुआ। चंद्रशेखर आजाद को क्यों नहीं अलायेंस में लिया गया। उनके खिलाफ नगीना में चुनाव प्रचार के लिए अखिलेश भी गए। महाराष्ट्र में प्रकाश अंबेडकर को भी महा विकास आघाडी में नहीं लिया गया। नतीजा ये है कि यदि कल प्रकाश अंबेडकर भी रामदास आठवले की राह पकड़ लें तो क्या होगा ?
यदि हम बिहार की राजनीति देखें तो रामविलास पासवान जैसे जुझारू नेता के भाजपा के साथ जुडने के पीछे की राजनीति को बिना लालू नीतीश की राजनीति को समझे हम ईमानदारी से कभी नहीं समझ पाएंगे। बिहार में आज सामाजिक न्याय के एजेंडे में दलित कहीं है ही नहीं और इसलिए दलित राजनीति को स्वयं को वजूद में रखने के लिए अलायेंस करने पड़ेंगे जैसे पिछड़े या सवर्ण नेता कर रहे हैं। तेजस्वी के नेतृत्व में राजद ने और नीतीश के जद ने चिराग पासवान और जीतन राम मांझी को कभी स्वीकार ही नहीं किया और नतीजा ये है कि आज वे न केवल केंद्र सरकार में शामिल हैं अपितु बिहार में भाजपा को भी जिताने में कामयाब हो गए। अब हम जो भी समझें लेकिन जीतन राम मांझी का केन्द्रीय मंत्री बनना मुशहर समाज में एक बहुत बड़ा संदेश भेजेगा और इसका असर बिहार और उत्तर प्रदेश दोनों राज्यों मे होगा। भाजपा जैसी पार्टी इन छोटे कहे जाने वाले दलों को अधिक समझदारी से समझती है। अस्मिताओं की राजनीति के खेल में भाजपा अपने राजनीतिक प्रतिद्वंदीयों से बहुत आगे है। ओडिशा में एक आदिवासी को मुख्यमंत्री बनाकर भाजपा ने ओडिशा में पटनायकों की राजनीतिक मोनोपॉली को तोड़ दिया। काँग्रेस ये काम कभी नहीं कर पाई लिहाज ओडिशा में हासिए पर चली गई।
बिहार के नतीजों ने ये दिखा दिया है कि दलितों को हाशिये पर लाने की हर कोशिश नाकामयाब होगी और राजद को इससे सीखना पड़ेगा। कन्हैया कुमार और पप्पू यादव को साइड्लाइन करने और अपने परिवार को राजनीति में थोपना भी लालू यादव जी की ऐसी राजनीति है जिसने उन्हीं को अधिक नुकसान पहुंचाया। नीतीश कुमार का महादलित तब तक कामयाब नहीं होगा जब तक इन समूहों के नेतृत्व को भागीदारी नहीं मिलेगी। उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव ने बहुत सबक सीखा और टिकट वितरण मे अन्य जाति समूहों को वरीयता दी। उन्होंने यह भी कोशिश की कि दलित भावनाओं का सम्मान हो और अयोध्या की सामान्य सीट पर पासी समुदाय के अवधेश प्रसाद को टिकट देकर अखिलेश ने सिद्ध किया कि उत्तर प्रदेश के सामुदायिक समीकरणों की उन्हे व्यापक समझ है। इसका परिणाम यह निकला कि अवधेश प्रसाद की अयोध्या जीत ने उन्हें देश का हीरो बना दिया है।
उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी काँग्रेस के गठबंधन की जीत से लोग ये मतलब निकाल रहे हैं कि 2027 के चुनावों में क्या होगा ? मुझे लगता है कि बसपा को जो लोग राजनीतिक तौर पर खत्म मान रहे हैं वे भयंकर भूल कर रहे हैं। जॉर्ज फर्नांडीस कहते थे कि किसी भी राजनीतिक नेता को तब तक समाप्त नहीं कहा जा सकता जब तक उसका अंतिम संस्कार नही हो जाता। भारतीय राजनीति में ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जब खत्म मान लिए गए राजनीतिक दल और नेता भारी बहुमत से चुनाव जीते हैं। उत्तर प्रदेश के दोनों गठबंधनों को बसपा की जरूरत होगी। तीन वर्ष का समय राजनीति में बहुत होता है। उत्तर प्रदेश में अम्बेडकरी आंदोलन की पृष्ठभूमि बिहार की तुलना में बहुत बड़ी है। बसपा को जरूरत है जनता में अपनी पकड़ बनाने की और सांस्कृतिक आंदोलन को भरोसा दिलाने की। वैसे, यदि सुश्री मायावती एक बार उत्तर प्रदेश की एक जनयात्रा निकाल दें तो उत्तर प्रदेश में दलितों में एक नई आशा का सूत्रपात कर सकती हैं जिसका 2027 के चुनावों में व्यापक असर पड़ सकता है। बसपा को खारिज करने वाले सावधान रहें क्योंकि अंबेडकर राजनीति के युग में उनके विचारों के मूल पर बनी पार्टी बसपा ही है और उसका मजबूत होना जनतंत्र के लिए बहुत जरूरी है। पार्टी नेतृत्व युवाओं और मौजूदा समय की समस्याओं पर लगातार संवाद करे और अपना मिशन विज़न अपडेट करे तो पार्टी फिर से खड़ी हो सकती है।
यदि सपा और काँग्रेस बसपा को हाशिये पर धकलने का प्रयास करेंगे तो मैं यह कह सकता हूँ कि उनकी स्थिति राजद और जदयू की तरह हो सकती है। दलितों को कंधे पर लेकर ‘ब्राह्मणवादी’ तंत्र की आलोचना करना केवल पाखंड होगा यदि हम दलित चेतना की वाहक पार्टियों और स्वतंत्र नेतृत्व को हाशिये पर धकेलते रहेंगे। चाहे मायावती हों या प्रकाश अंबेडकर सभी को अपनी राजनीति के हसिए पर धकेलने की रणनीति तथाकथित धर्मनिरपेक्ष और सामाजिक न्याय की लड़ाई को और कुंद कर देगी और उन्हें हिन्दुत्व के खेमे में जाने के लिए मजबूर कर देगी जिसके दूरगामी परिणाम बेहद घातक होंगे। सभी राजनैतिक दलों को ऐसे प्रयास करने होंगे कि शोषित समाज के दलों और नेताओं को सम्मान मिले और उनकी स्वायत्तता भी बनी रहे तभी लंबे समय तक सांप्रदायिक शक्तियों का मुकाबला हो पाएगा। सामाजिक न्याय के एजेंडे में यदि दलित और आदिवासी प्रश्न और नेतृत्व पीछे कर दिए गए हैं तो वो कभी मुकाम तक नहीं पहुंचेगी और अन्तः पूंजीवादी जातिवादी शक्तियों को ही लाभ पहुंचाएंगे।
(ये लेखक के निजी विचार हैं।)
इन चुनावों में काँग्रेस का परफॉरमेंस अच्छा रहा है और वह 100 सीटें जीत चुकी है। कोई भी यह कह सकता है कि इसे अच्छा परफॉरमेंस कैसे कहें जब पार्टी कई राज्यों में कोई भी सीट नहीं ला पाई जैसे दिल्ली, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश आदि राज्य। लेकिन आज के हालातों में जब हमारे स्वतंत्र संस्थानों की स्थिति बेहद निराशाजनक है और ईडी, इनकम टैक्स, सीबीआई और मीडिया का इस्तेमाल अपने राजनीतिक विरोधियों को आर्थिक और सामाजिक तौर पर पूरी तरह से ध्वस्त करने के लिए किया जा रहा हो तो इंडिया अलायेंस की परफॉरमेंस को बेहतरीन कहा जा सकता है। भाजपा का प्रचंड बहुमत से सत्ता में आने का सपना टूट गया है और देश के सभी संविधान पसंद लोगों ने राहत की सांस ली है। देश के भविष्य के लिए महत्वपूर्ण इन चुनावों के कुछ निष्कर्ष समझना जरूरी है ताकि सभी इनसे कुछ सीख सकें। उत्तर प्रदेश ने देश के संविधान की लड़ाई में सबसे बड़ी भूमिका निभाई है और इंडिया गठबंधन के नेताओं को खुल के समर्थन किया। मान्यवर कांशीराम साहेब कहा करते थे कि हमें दिल्ली में मजबूत नहीं मजबूर सरकार चाहिए ताकि उससे दलितों के हितों से संबंधित कानून पास करवा लिए जाएँ। जब कांशीराम साहब ये बात कह रहे थे वो उस समय बसपा को निर्णायक भूमिका में देख रहे थे। उनका मतलब साफ था कि जब सरकारों के पास अपना बहुमत नहीं होता तो छोटे और क्षेत्रीय दल निर्णायक भूमिका में होते हैं और अपनी बातें और मांगें मनवाने में कामयाब होते हैं। मतलब ये की मजबूर सरकार दलितों के हित में उस समय आएगी जब अपनी बात मनवाने के लिए दलितों की पार्टिया संसद या विधान सभाओं में मौजूद रहें। मतलब ये की आज के हालातों में यदि बसपा के पास 5 सांसद भी होते तो वे बहुत बड़े बदलाव के वाहक बन सकते थे।
आज बसपा बहुत ही कठिन दौर से गुजर रही है। पार्टी वर्तमान लोकसभा में बिना किसी प्रतिनिधित्व के रहेगी। पार्टी की रणनीति पर बहुत सवाल उठ रहे हैं। उत्तर प्रदेश में पार्टी कुछ क्षेत्रों को छोड़कर अपना प्रभाव नहीं दिखा पाई। पार्टी ने बड़ी संख्या में मुस्लिम नेताओं को खड़ा किया था लेकिन वो रणनीति सफल नहीं हो पाई। किसी गठबंधन के अभाव में पार्टी बहुत कमजोर स्थिति में है और पार्टी को अब गंभीरता से अपने भविष्य की रणनीति पर विचार करना होगा।
इस आलेख को लिखते समय मैं ये साफ कहना चाहता हूँ कि बसपा का मजबूत होना देश में लोकतंत्र के लिए बहुत आवश्यक है। बसपा अम्बेडकरी आंदोलन से निकली पार्टी है और उसका हश्र वैसा न हो जैसे एक समय में आरपीआई का हो गया। राजनीति में ऐसे दौर आते हैं और गुजर भी जाते हैं। बसपा जैसी काडर बेस पार्टी दोबारा से अपनी ताकत प्राप्त कर सकती है लेकिन उसे अपने लिए लंबे समय के सहयोगी चाहिए होंगे। एकला चलो की रणनीति अब कारगर नहीं है। बसपा को अपनी रणनीति मे व्यापक बदलाव की आवश्यकता है जिसमें युवाओ को आकर्षित करने के लिए एक नया एजेंडा। पार्टी अपना घोषणापत्र नहीं बनाती लेकिन अब उसे ये काम करना चाहिए और सोशल मीडिया और सांस्कृतिक विभाग को भी मजबूत करना चाहिए। अबकी बार बसपा नेरेटिव की लड़ाई हार चुकी थी क्योंकि संविधान बचाने के सवाल और सपा काँग्रेस गठबंधन ने उनके अधिकांश वोट खींच लिए।
मैंने बसपा की ग्रोथ को 1990 से देखा है जब मान्यवर कांशीराम ने पार्टी को खड़ा किया और उन्हें उत्तर प्रदेश में समाज को सुश्री मायावती के रूप मे एक प्रेरणादायी नेतृत्व दिया। याद रखिए, मान्यवर कांशीराम का आंदोलन उत्तर प्रदेश में तभी सफल हुआ जब उसमें मायावती जैसी जुझारू महिला नेतृत्व कर रही थी। आज लोग कुछ भी कहें लेकिन इस हकीकत से कोई इनकार नहीं कि कांशीराम जी के नेतृत्व में और सुश्री मायावती के रूप में एक मजबूत व्यक्तित्व के बिना ये आंदोलन सफल नहीं हो पाता। किसी भी महान व्यक्तित्व की शक्ति और सफलता इस बात से मानी जा सकती है कि उसने कितने नए नेतृत्व को खड़ा किया। अक्सर वही हमारे नेताओ की असफलताए हैं क्योंकि वे अपने परिवारों को छोड़ नया नेतृत्व विकसित ही नहीं करना चाहते। इस संदर्भ में मान्यवर कांशीराम भारतीय राजनीति के पुरोधा माने जायेंगे क्योंकि जिस दौर में बड़ी बड़ी पार्टियों में महिला नेतृत्व केवल किसी बड़े नेता के अधीन काम कर रही थी वहीं बसपा में सुश्री मायावती जैसे सशक्त व्यक्तित्व ने उत्तर प्रदेश में नेतृत्व संभाल कर पार्टी को राष्ट्रीय फलक पर ला खड़ा किया। पार्टी केवल एक समाज की नहीं थी क्योंकि पार्टी ने गाँव गाँव में अपने आप को अति पिछड़ों और दूसरी दलित जातियों से जोड़ा। भारतीय राजनीति में ‘बहुजन’ सिद्धांत का प्रतिपादन केवल मान्यवर कांशीराम ने किया। जब से भारतीय समाज का राजनीतिकरण हुआ और लोकतान्त्रिक परम्पराओं की नींव पड़ी तब से बहुजन समाज की बात करने वाले केवल एक ही पार्टी या नेता रहे और वह है बसपा और मान्यवर कांशीराम साहब। ये बात मैं इसलिए कह रहा हूँ कि काँग्रेस, भाजपा, सपा, राजद, जद, साम्यवादी पार्टियां किसी में भी मूलरूप से बहुजन शब्द या सिद्धांत से कोई लेना देना नहीं हैं। अपने जन्म के लगभग 35 वर्ष बाद समाजवादी पार्टी आज बहुजन की बात कर रही है हालांकि लगता ये है कि बहुजन शब्द का प्रयोग नहीं करना चाहती इसलिए पिछड़ा दलित अल्पसंख्यक शब्द का इस्तेमाल है जो केवल एक राजनीतिक समीकरण है और इसमें अभी भी बहुजन समाज की खुशबू नजर नहीं आती। ये ब्राह्मणवादी पूंजीवादी व्यवस्था का कोई विकल्प नही है।
इस हकीकत से कोई इनकार नहीं कर सकता कि उत्तर प्रदेश में जिस अम्बेडकरी आंदोलन के बीज आरपीआई के समय से मौजूद थे उसे सही मायनों में बहुजन समाज पार्टी ने मुकाम तक पहुंचाने के प्रयास किए। बसपा को अलायेंस का महत्व पता है। जब पहली बार बहिन जी ने बिना किसी दूसरी पार्टी के सहयोग के सत्ता संभाली तब वो भी सामाजिक अलायेंस ही था। लेकिन उसके बाद बसपा के ये अलायेंस टूट गए या बहुत से लोगों ने ऐसी खबर फैला दी की मायावती जी बिना सतीश चंद्र मिश्र के कोई निर्णय नहीं लेतीं। ये विरोधियों द्वारा उन्हें बदनाम करने की चाल थी। वैसे पार्टी में सभी से पूछ कर काम हो तो कोई बुरी बात नही है लेकिन ऐसा प्रचारित किया गया कि बसपा सुप्रीमो किसी की नहीं सुनतीं। खैर, इन सभी बातों के कोई मतलब नही होते यदि मायावती जी लोगों से अपना संपर्क रखतीं। उत्तर प्रदेश के विभिन्न इलाकों से बहुत अच्छे से वाकिफ होने और बहुजन आंदोलन से जुड़े साथियों से नजदीकी रिश्तों के कारण मैं एक बात कह सकता हूँ कि आज भी बसपा की ताकत बहुत बड़ी है लेकिन पार्टी नेतृत्व ने देश में हो रहे बदलाव को सही से नहीं आँका और नतीजा हुआ कि पार्टी आज की परिस्थितियों से बहुत दूर दिखाई देती है। आज देश का बहुत बड़ा वर्ग युवा है जो सन 2000 के बाद की पैदाइश वाला है। उसने सुश्री मायावती के कार्यकाल को भी ढंग से नहीं समझा होगा, शायद अधिकांश को वो याद भी नहीं हो। आज का युवा अपने एजेंडे पर बात करना चाहता है। वो हर समय जातीय समीकरण नहीं अपने प्रश्नों पर आपकी राय और इरादा जानना चाहता है। दुर्भाग्यवश, बसपा ने कभी भी उन प्रश्नों पर खुले तौर पर अपने विचार नहीं रखे। बसपा के साथ एक खास बात है की देश दुनिया के अम्बेडकरी लोगों की सहानुभूति उसके साथ आज भी है। लोग व्यक्तिगत तौर पर निराश होते हैं और पार्टी को मिशन के नाम पर समर्थन देते हैं। पिछले वर्ष पंजाब के चुनावों से पहले मैं बर्मिंघम, इंग्लैंड से अपने अम्बेडकरी मित्र देविंदर चंदर जी के निमंत्रण पर उनके गाँव नकोदर गया जो एक समय में बसपा का बड़ा गढ़ था। देविंदर जी के पिता बसपा के नेता थे और मान्यवर कांशीराम उनके घर पर आ चुके थे। गाँव में अधिकांश घरों पर बसपा के झंडे दिख रहे थे। मैं एक पुराने बुजुर्ग के घर पर गया जिनके घर पर हाथी का झण्डा लगा था और उनसे पूछा कि पार्टी की क्या स्थिति है पंजाब में। उसने मुझे बताया कि पार्टी की स्थिति अच्छी नहीं है लेकिन वह मिशन के लिए काम करते रहेंगे। पार्टी चाहे जीते या नहीं, हम मान्यवर कांशीराम के बहुजन मिशन के सिपाही हैं और मरते दम तक पार्टी के साथ ही रहेंगे। ऐसे जुझारू कार्यकर्ता आज भी बहुत जगहों पर हैं लेकिन बसपा को सोचना पड़ेगा कि आज के युवाओं में इतनी सहनशीलता नहीं है कि वे पार्टी के सत्ता में आने का इंतज़ार करें। मैं जानता हूँ आज भी बहुत से युवा जो बसपा का झण्डा सोशल मीडिया पर बुलंद किए हुए हैं वे अंदर से निराश थे। सबके दिल में एक टीस थी कि काश बहिन जी जनता के बीच ऐक्टिव हो जातीं, आकाश आनंद लगातार यात्राएं करते। आनंद जब ऐक्टिव हुए तो एक भाषण को लेकर उन्हें पद से ही हटा दिया गया। ऐसी स्थिति बेहद निराशाजनक है।
आज लोग बसपा के भविष्य को लेकर चिंतित हैं। उत्तर प्रदेश में दलितों ने पिछड़ों और मुस्लिम मतदाताओं के साथ मिलकर इंडिया गठबंधन के रूप में सपा और काँग्रेस के प्रत्याशियों को वोट दिया है। ये वोट संविधान को बचाने के लिए गया क्योंकि भाजपा सरकार ने युवाओं के साथ जो खिलवाड़ किया है वो जगजाहिर है। जैसे मैंने कहा, बसपा नेरटिव की लड़ाई में हार गई। जैसे मैंने कहा पार्टी में दूसरी कतार में युवा नेतृव की कई लाइनें लगी होनी चाहिए थीं जो नहीं है। आज ये पार्टी की सबसे बड़ी कमजोरी है कि वह देशभर में मौजूद अम्बेडकरी विचारकों, लेखकों, युवाओ की भावनाओं को अभिव्यक्त करने में पूरी तरह से असफल साबित हुई है। और ये बात मैं इसलिए कह रहा हूँ कि इन अम्बेडकरी युवाओं की पहली पसंद अभी भी बसपा है लेकिन उनकी भावनाओं का सम्मान करने के लिए पार्टी न केवल राजनीतिक दर मजबूत करे अपितु सांस्कृतिक पक्ष को भी मजबूत करे।
क्या बसपा पर भाजपा की बी टीम का आरोप सही है
बहुत से लोग ये कह रहे हैं कि बसपा ने उत्तर प्रदेश में वोट कटुआ की भूमिका निभाई और उसके चलते काँग्रेस सपा गठबंधन बहुत सी सीटें हार गया। इस प्रकार के आरोप लगाने वाले असल में न तो राजनीति को समझते हैं और न ही वैचारिक रूप से ईमानदार हैं। बसपा एक राष्ट्रीय पार्टी है। उत्तर प्रदेश में अभी भी उसका व्यापक जनाधार रहा है। सुश्री मायावती उत्तर प्रदेश में चार बार सरकार की मुखिया रही हैं। यदि बसपा का किसी के साथ गठबंधन नहीं हुआ तो इसका अर्थ यह नहीं कि पार्टी चुनाव नहीं लड़ेगी। वोट कटुआ के आरोप बसपा पर कोई पहली बार नहीं लगे हैं। मान्यवर कांशीराम के समय भी ऐसे आरोप लगाए जाते थे लेकिन उनके पास इन सबके बेहतरीन जवाब थे। वह इस बात में भी बसपा की ताकत का अहसास करवाते थे कि बसपा को गंभीरता से लें क्योंकि यदि वह चुनाव नहीं जीत सकती तो आपको चुनाव हरा भी सकती है। चुनाव में विभिन्न दल भाग लेते हैं। कई बार उनके गठबंधन होते हैं और कई बार नहीं बन पाते लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि पार्टी चुनाव न लड़े और उस पर आरोप लगा देना कि वो भाजपा से पैसे लेके चुनाव लड़ी है उस आंदोलन का भी अपमान है जहां से बसपा निकली है। बसपा ने राजनीतिक गलतियां की हों लेकिन उसके खात्मे की जो उम्मीद कर रहे हैं वो जनतंत्र और दलितों के साथ न्याय नहीं कर रहे। जब भी बसपा की उपलब्धियों की बात आएगी तो उसे केवल पार्टी की सरकार और वोट शेयर तक सीमित नहीं किया जा सकता। आज अखिलेश, मोदी, राहुल, तेजस्वी जो बाबा साहब की जय जय कार कर रहे हैं वो बसपा के प्रभाव का ही कमाल है। बसपा न होती तो भारत के राजनीतिक दलों में दलित केवल ‘अनुसूचित जाति’ के ‘पिंजरे’ (‘सेल’) में कैद होते और उनकी भूमिका केवल नेताओं के लिए भीड़ जुटाने की होती। मान्यवर कांशीराम जी ने बसपा के जरिए बहुजन समाज को उनकी शक्ति का एहसास करवाया।
क्या बसपा का भविष्य खत्म है ?
इन चुनावों के पहले से ही मैंने कहा कि बसपा नेरेटिव की लड़ाई पहले ही हार चुकी थी। पार्टी प्रमुख द्वारा हार का ठीकरा मुस्लिम संप्रदाय पर फोड़ना बेहद ही निराशाजनक है। पार्टी को अपना जनाधार बपास लाने के लिए अति दलित अति पिछड़ों के साथ तथाकथित उच्च वर्गों के भी उन लोगों से सहयोग लेना चाहिए जो जातिभेद के विरुद्ध हैं। यदि अधिकांश सवर्ण समूह आज भाजपा के साथ हैं तो भी उन लोगों का सहयोग लिया जाना जरूरी है जो सांप्रदायिक और जातिवादी राजनीति का विरोध करते हैं। बाबा साहब का जाति उन्मूलन का सिद्धांत अभी भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना पहले था। पार्टी युवाओं से जुड़े और चंद्रशेखर आजाद जैसे युवा को साथ जोड़े जाने की आवश्यकता है क्योंकि उनके अलग राजनीतिक दल बनाने से कोई ब्राह्मणवादी दल तो कमजोर नही होंगे लेकिन उसका नकारात्मक असर बसपा पर ही पड़ेगा। बसपा का उत्तर प्रदेश मे अभी भी जनाधार है लेकिन उसके मिशन के सिपाहियों मे गहन निराशा है। उन्होंने ‘सीने पर पत्थर’ रखकर कुछ ऐसे दलों को भी वोट दिया है जिन्हे बसपा का कार्यकर्ता कभी वोट नहीं दे सकता। इसका कारण केवल एक था कि बसपा के कार्यकर्ताओं ने भी ये मान लिया था कि पार्टी भाजपा को हराने में सक्षम नही है। सभी संविधान बचाने और दलितों पर हिंसा और आरक्षण के सवाल पर सरकार की भूमिका को समझ रहे थे इसलिए उन्हें लगा कि इंडिया गठबंधन इसमें अधिक गंभीर और सक्षम है इसलिए वे उस तरफ चले गए। इसलिए मैं यह कह सकता हूँ कि उत्तर प्रदेश में हार के बावजूद भी बसपा अपने पुराने दौर में आ सकती है यदि सुश्री मायावती पुनः मजबूती से जनता से संवाद करें और उत्तर प्रदेश के गाँव तक एक यात्रा करें। मैं उनकी पैदल यात्रा की बात नहीं कर रहा लेकिन यदि 2027 से पहले उन्होंने अपने कैडर को ये संदेश भेज दिया कि पार्टी उनके सवालों पर गंभीर है तो उत्तर प्रदेश को दोनों गठबंधनों को बसपा के पास समझौते के लिए आना पड़ेगा। शायद, सुश्री मायावती इस बात को समझ रही हैं लेकिन उससे पहले उन्हें पुनः बसपा को पुनर्जीवित करना होगा और उन जातियों, समूहों, लोगों को पार्टी से जोड़ना होगा जो बाबा साहब के मिशन के प्रति समर्पित हैं और देश में सांप्रदायिक और जातिवादी राजनीति का विरोध करते हैं।
उत्तर प्रदेश और बिहार के परिणाम क्या संकेत दे रहे हैं ?
इस बात को समझना भी जरूरी है कि सारी समस्याओं की जड़ में बसपा नहीं है। पार्टी ने रणनीति के स्तर पर भूल की हो लेकिन दलित नेतृत्व को हाशिये पर रखने की कोशिशें हमेशा से हुई हैं और इसमें पिछड़े वर्ग की राजनीति और नेताओं का भी रोल लगभग वैसे ही है जैसे वर्णवादी मानसिकता की शिकार पार्टियों का। बसपा को तो आप पानी पी पी कर कोस रहे हैं की उन्होंने जानबूझकर ऐसे प्रत्याशी दिए जो सपा काँग्रेस को नुकसान पहुंचा सकें लेकिन एक राजनीतिक दल अपने प्रत्याशी तो खड़े करेगा ही और ये तो इन दलों को देखना था कि बिना बसपा के वे कुछ कर पाते हैं या नहीं। आखिर बसपा के साथ ही तो ऐसा नहीं हुआ। चंद्रशेखर आजाद को क्यों नहीं अलायेंस में लिया गया। उनके खिलाफ नगीना में चुनाव प्रचार के लिए अखिलेश भी गए। महाराष्ट्र में प्रकाश अंबेडकर को भी महा विकास आघाडी में नहीं लिया गया। नतीजा ये है कि यदि कल प्रकाश अंबेडकर भी रामदास आठवले की राह पकड़ लें तो क्या होगा ?
यदि हम बिहार की राजनीति देखें तो रामविलास पासवान जैसे जुझारू नेता के भाजपा के साथ जुडने के पीछे की राजनीति को बिना लालू नीतीश की राजनीति को समझे हम ईमानदारी से कभी नहीं समझ पाएंगे। बिहार में आज सामाजिक न्याय के एजेंडे में दलित कहीं है ही नहीं और इसलिए दलित राजनीति को स्वयं को वजूद में रखने के लिए अलायेंस करने पड़ेंगे जैसे पिछड़े या सवर्ण नेता कर रहे हैं। तेजस्वी के नेतृत्व में राजद ने और नीतीश के जद ने चिराग पासवान और जीतन राम मांझी को कभी स्वीकार ही नहीं किया और नतीजा ये है कि आज वे न केवल केंद्र सरकार में शामिल हैं अपितु बिहार में भाजपा को भी जिताने में कामयाब हो गए। अब हम जो भी समझें लेकिन जीतन राम मांझी का केन्द्रीय मंत्री बनना मुशहर समाज में एक बहुत बड़ा संदेश भेजेगा और इसका असर बिहार और उत्तर प्रदेश दोनों राज्यों मे होगा। भाजपा जैसी पार्टी इन छोटे कहे जाने वाले दलों को अधिक समझदारी से समझती है। अस्मिताओं की राजनीति के खेल में भाजपा अपने राजनीतिक प्रतिद्वंदीयों से बहुत आगे है। ओडिशा में एक आदिवासी को मुख्यमंत्री बनाकर भाजपा ने ओडिशा में पटनायकों की राजनीतिक मोनोपॉली को तोड़ दिया। काँग्रेस ये काम कभी नहीं कर पाई लिहाज ओडिशा में हासिए पर चली गई।
बिहार के नतीजों ने ये दिखा दिया है कि दलितों को हाशिये पर लाने की हर कोशिश नाकामयाब होगी और राजद को इससे सीखना पड़ेगा। कन्हैया कुमार और पप्पू यादव को साइड्लाइन करने और अपने परिवार को राजनीति में थोपना भी लालू यादव जी की ऐसी राजनीति है जिसने उन्हीं को अधिक नुकसान पहुंचाया। नीतीश कुमार का महादलित तब तक कामयाब नहीं होगा जब तक इन समूहों के नेतृत्व को भागीदारी नहीं मिलेगी। उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव ने बहुत सबक सीखा और टिकट वितरण मे अन्य जाति समूहों को वरीयता दी। उन्होंने यह भी कोशिश की कि दलित भावनाओं का सम्मान हो और अयोध्या की सामान्य सीट पर पासी समुदाय के अवधेश प्रसाद को टिकट देकर अखिलेश ने सिद्ध किया कि उत्तर प्रदेश के सामुदायिक समीकरणों की उन्हे व्यापक समझ है। इसका परिणाम यह निकला कि अवधेश प्रसाद की अयोध्या जीत ने उन्हें देश का हीरो बना दिया है।
उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी काँग्रेस के गठबंधन की जीत से लोग ये मतलब निकाल रहे हैं कि 2027 के चुनावों में क्या होगा ? मुझे लगता है कि बसपा को जो लोग राजनीतिक तौर पर खत्म मान रहे हैं वे भयंकर भूल कर रहे हैं। जॉर्ज फर्नांडीस कहते थे कि किसी भी राजनीतिक नेता को तब तक समाप्त नहीं कहा जा सकता जब तक उसका अंतिम संस्कार नही हो जाता। भारतीय राजनीति में ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जब खत्म मान लिए गए राजनीतिक दल और नेता भारी बहुमत से चुनाव जीते हैं। उत्तर प्रदेश के दोनों गठबंधनों को बसपा की जरूरत होगी। तीन वर्ष का समय राजनीति में बहुत होता है। उत्तर प्रदेश में अम्बेडकरी आंदोलन की पृष्ठभूमि बिहार की तुलना में बहुत बड़ी है। बसपा को जरूरत है जनता में अपनी पकड़ बनाने की और सांस्कृतिक आंदोलन को भरोसा दिलाने की। वैसे, यदि सुश्री मायावती एक बार उत्तर प्रदेश की एक जनयात्रा निकाल दें तो उत्तर प्रदेश में दलितों में एक नई आशा का सूत्रपात कर सकती हैं जिसका 2027 के चुनावों में व्यापक असर पड़ सकता है। बसपा को खारिज करने वाले सावधान रहें क्योंकि अंबेडकर राजनीति के युग में उनके विचारों के मूल पर बनी पार्टी बसपा ही है और उसका मजबूत होना जनतंत्र के लिए बहुत जरूरी है। पार्टी नेतृत्व युवाओं और मौजूदा समय की समस्याओं पर लगातार संवाद करे और अपना मिशन विज़न अपडेट करे तो पार्टी फिर से खड़ी हो सकती है।
यदि सपा और काँग्रेस बसपा को हाशिये पर धकलने का प्रयास करेंगे तो मैं यह कह सकता हूँ कि उनकी स्थिति राजद और जदयू की तरह हो सकती है। दलितों को कंधे पर लेकर ‘ब्राह्मणवादी’ तंत्र की आलोचना करना केवल पाखंड होगा यदि हम दलित चेतना की वाहक पार्टियों और स्वतंत्र नेतृत्व को हाशिये पर धकेलते रहेंगे। चाहे मायावती हों या प्रकाश अंबेडकर सभी को अपनी राजनीति के हसिए पर धकेलने की रणनीति तथाकथित धर्मनिरपेक्ष और सामाजिक न्याय की लड़ाई को और कुंद कर देगी और उन्हें हिन्दुत्व के खेमे में जाने के लिए मजबूर कर देगी जिसके दूरगामी परिणाम बेहद घातक होंगे। सभी राजनैतिक दलों को ऐसे प्रयास करने होंगे कि शोषित समाज के दलों और नेताओं को सम्मान मिले और उनकी स्वायत्तता भी बनी रहे तभी लंबे समय तक सांप्रदायिक शक्तियों का मुकाबला हो पाएगा। सामाजिक न्याय के एजेंडे में यदि दलित और आदिवासी प्रश्न और नेतृत्व पीछे कर दिए गए हैं तो वो कभी मुकाम तक नहीं पहुंचेगी और अन्तः पूंजीवादी जातिवादी शक्तियों को ही लाभ पहुंचाएंगे।
(ये लेखक के निजी विचार हैं।)