आज देश को जे पी की नहीं वी पी की जरुरत

Written by विद्या भूषण रावत | Published on: June 24, 2017



आज भारत एक भयवाह दौर से गुजर रहा है . बहुत से लोग आपात काल को याद कर रहे हैं लेकिन उस दौर में लोकतंत्र के नाम पर जिन्होंने नारे लगाये थे वे सभी इस वक़्त भारत के लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गए हैं . देश इस वक़्त कॉर्पोरेट हिंदुत्व के फासीवाद की चपेट में है लेकिन विपक्ष इस वक़्त कुछ कर सकने की स्थिति में भी नहीं क्योंकि ये उनकी राजनैतिक हताशा का ही दौर नहीं है अपितु वैचारिक पंगुता को भी दर्शाता है . भारतीय राजनीती में विचार की राजनीती को पार्टियों ने तिलांजलि दे दी जबकि सांप्रदायिक ब्रह्मवादी शक्तियों ने अपने कुरूप विचारो को ही सबसे महत्वपूर्ण हथियार बनाया .विपक्षी नेता अपने माया जाल में इतना फंसे हैं के मोदी सरकार के लिए सी बी आई या इनकम टैक्स का इस्तेमाल करना आसान है . मीडिया तो पूरे तौर पर न केवल बिक चूका है अपितु विपक्ष मुक्त भारत के मोदी और अमित शाह के सपने को साकार करने के लिए दंडवत होकर प्रयास कर रहा है . हमने इस देश में कम से कम दो बार ऐसा दौर देखा जब लोकतंत्र को खतरा महसूस हुआ . पहले श्रीमती इंदिरा गाँधी का दौर और फिर राजीव गाँधी के प्रधान्मत्रित्व काल . इंदिरा गाँधी की इमरजेंसी का दौर भयावह तो था लेकिन कोई भी उनपर देश में साम्प्रदायिकता या पूंजीपतियों के साथ सांठ गांठ का आरोप नहीं लगा सकता था .

देश में सांप्रदायिक सौहार्द बना रहे उसके लिए इंदिरा गाँधी के प्रयासों को कम करके नहीं आँका जा सकता . राजीव गाँधी को असीमित ताकत मिली. संसद में उनके मुकाबले में विपक्ष-हीनता की स्थिति थी क्योंकि विपक्ष के सभी दिग्गजों को हराने के लिए उन्होंने वो सब किया जो आज मोदी कर रहे हैं . फिल्म स्टारों को राजनीती में बुलाकर प्रमुख विपक्षी नेताओं को उन्होंने संसद से बाहर का रास्ता दिखा दिया जो उनकी कांग्रेस पार्टी के लिए तो बेहतर था लेकिन हमारे देश के लोकतंत्र के लिए बेहद खतरनाक था . लेकिन आज का दौर स्वतंत्र भारत की राजनीती के दौर का सबसे बड़ा दुस्वप्न है हालाँकि हमारे जैसे लोग ये भी मानते हैं के ये मनुवादी मानसकिता के लोगो की पोलखोल का दौर भी है क्योंकि उनकी पुरानी परिभाषाये जैसे ‘उदारवाद’ , ‘अध्यात्मवाद’ ‘सहिष्णुता’ का कच्चा चिटठा पूरी दुनिया के सामने आ चूका है . भारत को ब्राह्मणवादी तालिबान बनाने के लिए उनके प्रयास जारी हैं . 

आज बहुत से लोग इमरजेंसी को याद करेंगे लेकिन उस दौर को याद कर आज के दौर के बारे में कुछ न बोलना सबसे बड़ा पाखंड होगा . कम से कम उस वक्त मीडिया में कुछ लोग थे जिन्होंने उसका विरोध किया . इंडियन एक्सप्रेस जैसे अख़बार थे जिन्होंने लड़ने की कसम खाई थी और पूरा विपक्ष एक था . जय प्रकाश नारायण जैसी सख्सियत थी जिसने पूरे विपक्ष को एक किया और देश के युवाओं को एक नयी दिशा दी . राजीव गाँधी के कार्यकाल में अखबारों की भूमिका बहुत घटिया थी . आज के हमारे  विदेश राज्य मंत्री एम् जे अकबर टेलीग्राफ के संपादक थे और वो नवभारत टाइम्स के सम्पादकीय कॉलम का इस्तेमाल भी कर रहे थे . दिल्ली के द हिंदुस्तान टाइम्स ने भी उन्हें एडिट पेज में साप्ताहिक स्पेस मुहैय्या करवाया था ताकि वो विश्वनाथ प्रताप सिंह को बदनाम कर सके . राजीव गाँधी और उनके सलाहकारों ने मीडिया का मुंह बंद करने के लिए डेफेमेशन बिल भी लाने की कोशिश की लेकिन वो मीडिया के विरोध के बाद बापस लेना पड़ा .

आज की मोदी सरकार पूरे तरीके से राजीव गाँधी की उस सरकार की तरह चल रही है के जिसने विश्वनाथ प्रताप सिंह को बदनाम करने और उनके कार्यक्रमों में रोड़े अटकाने के लिए पूरी सरकारी मशीनरी और मीडिया का दुरुपयोग किया लेकिन विश्वनाथ प्रताप जितने सुलझे नेता थे उनकी जनता की भावनाओं को समझने की ताकत किसी दूसरे समकालीन नेता से ज्यादा थी . आज जिस संवाद शैली में मोदी बोल रहे हैं वी पी उसे पहले ही इस्तेमाल कर चुके थे . उत्तर प्रदेश के अलग अलग अंचलो की लोकभाषाओ का उन्हें अंदाज था और इसलिए वो बहुत ही सहज तरीके से लोगो से बात कर पाते थे .राजीव की हर चाल को उन्होंने अपनी राजनैतिक दूरदर्शिता से ने केवल काटा अपितु वो दांव अंततः राजीव गाँधी और कांग्रेस को भारी पड़ा . ऐसा कहा जाता है के कांग्रेस से बाहर निकलने पर अमूमन नेताओं का हाल बुरा होता है लेकिन वी पी ने वो मिथ भी तोड़ डाला . कांग्रेस आज भी वी पी को अपना दुश्मन नंबर एक मानती है लेकिन अगर उनके मंडल मन्त्र को स्वीकारती तो कांग्रेस की ऐसे दुर्गति नहीं होती . क्या ये हताशा नहीं के कांग्रेस आज भी अपने को ब्राह्मणों की मुख्य पार्टी मानती है और पिछड़ी जातियों, दलितों और मुसलमानों के प्रश्नों पर कांग्रेस ने देश के बदलते हालातो पर इन तबको को भरोषा दिलाने का कोई काम नहीं किया है .

आज मोदी की ताकत संघ नहीं है अपितु हमारे विपक्षी नेताओं का वैचारिक दिवालियापन है क्योंकि सभी सॉफ्ट हिंदुत्व को अपनाकर अपना पल्ला झाड़ना चाहते हैं . कोई भी इस समय ‘देशद्रोही’ नहीं दिखना चाहता क्योंकि हकीकत तो ये है के भारत की राजनैतिक व्यवस्था पूर्णतः ब्राह्मणवादी है और उसे बचाने के लिए न केवल संघ परिवार पूरा जोर लगाएगा अपितु समय आने पर कांग्रेस और अन्य पार्टिया भी उसी में अपनी शक्ति पाएंगी . विश्वनाथ प्रताप आज़ादी के बाद के सबसे प्रभाव्कारी नेताओं में माने जायेंगे जिन पर जनता का भरोषा था और जिन्होंने कम से कम दो बार देश में संघ के सरकारों को बनने से रोका चाहे उसकी परणीती के तौर पर देवेगौडा या इन्दर गुजराल जैसे लोग प्रधानमंत्री बने . वी पी सिंह के सबसे बड़ी ताकत उनके बहुत से नेताओं के साथ आत्मीय सम्बन्ध थे जो उनकी वैचारिक निष्ठा के कारण बने थे . उत्तर प्रदेश और बिहार के कद्दावर नेताओं ने बाद के दौर में वी पी को इगनोर करना शुरू किया और उसकी परिणामस्वरूप जब कांग्रेस दुबारा दिल्ली की सत्ता में आई तो सामाजिक न्याय के नारे और मंडलवादी ताकतों की पराजय हो चुकी थी और कांग्रेस नरेगा या मिड डे मिल का लौली पॉप देकर जनता को ‘अच्छे दिन ‘ दे रही थी . देशभर में किसानो की जमीने लूटी जा रही थी, विशेष आर्थिक क्षेत्र के नाम पर चिदम्बरम, मोंटेक और मनमोहन की तिकड़ी ने किसानो की कमर तोड़ थी . कांग्रेस ही नहीं ‘समाजवादी’ ‘किसान’ मुलायम सिंह को भी ‘विकास’ का नारा पसंद आ गया और नोएडा में अनिल अम्बानी के पॉवर प्लांट को कौड़ी के भाव जमीन दे दी गयी . जब किसानो ने इसका विरोध किया तो उन पर गोलिया चली . वी पी सिंह का प्रधानमंत्री कार्यकाल बहुत छोटा था लेकिन उसने कांग्रेस की मौका परस्ती और कभी न सुधरने वाली छबि को और पुख्ता किया . जब मंडल और अयोध्या के आन्दोलन के बाद भाजपा ने वी पी की सरकार से समर्थन वापसी ली तो राजीव ने मंडल विरोधियो को समर्थन कर उस सरकार को गिराया जो अयोध्या में बाबरी मस्जिद को बचाने के लिए कटिबद्ध थी . दुर्भाग्यवश मुलायम सिंह यादव की महत्वाकांक्षा भी उन्हें चंद्रशेखर के खेमे में ले गयी . उनकी ये भूल सामाजिक न्याय की शंक्तियो के लिए सबसे बड़ा धोखा थी .

भारतीय राजनीती में मुलायम सिंह और नितीश कुमार, जॉर्ज फ़र्नान्डिस जैसे लोग ऐसे हैं जिनके अगले कदम के बारे में कोई नहीं बता सकता और उनकी अपनी महत्वकंशाओ ने बड़े आन्दोलनों की नींव खोद डाली .
राजीव गाँधी की सरकार ने वी पी सिंह को राजनैतिक तौर पर ख़त्म करने के लिए पूरे प्रयास किये . उनको बदनाम करने के लिए चंद्रास्वामी तक की मदद ली गयी और उनके नाम से फर्जी खाता सेंट किट्स द्वीप समूह में खोल दिया गया . इस कार्य में हमारे ‘महान पत्रकार’ एम् जे अकबर की घटिया और भ्रष्ट पत्रकारिता का उल्लेख करना जरुरी है . अकबर आज ही अचानक वैचारिक तौर पर भ्रष्ट नहीं हुए अपितु उन्होंने राजीव गाँधी को खुश करने हेतु मीडिया के हर एथिक या नैतिकता को त्याग दिया . 

प्रश्न ये है ४०५ सदस्यों के साथ तीन चौथाई बहुमत वाले राजीव जो कि नरेन्द्र मोदी से बहुत ज्यादा शंक्तिशाली थे, को वी पी ने कैसे ध्वस्त किया ? ये समझना बहुत जरुरी है . आज सत्ताये अपने विपक्षियो को ख़त्म करने के लिए सी बी आई और इनकम टैक्स के नोटिस भिजवाती है और अगर उनके साथ हैं तो चुप रहती है ये काम राजीव ने भी बखूबी किया लेकिन वी पी एक मामले में किसी भी दूसरे राजनेता से भिन्न थे और इसीलिये जब वह भ्रस्ताचार के विरुद्ध बोलते थे तो लोगो को लगता था के ये आदमी सच कह रहा है क्योंकि उनका अपना दामन बिलकुल साफ़ था और एक राज घराने से होने के बावजूद भी वह बहुत सौम्य और असाधारण रूप से साधारण थे . उन्होंने कभी भी शाही राजनीती नहीं की अपितु राजनीती में नए नए प्रयोग किये, सामाजिक आन्दोलनों के साथ जुड़े और हर रोज उनका इन आन्दोलनों के लोगो से संपर्क रहता है . कई साल डाइलिसिस के होने के बावजूद भी वह लगातार जनांदोलनो से जुड़े रहे और उनको शक्ति प्रदान की . वो पहली ऐसे शख्सियत थी जो छोटे छोटे धरना प्रदर्शनों, सेमिनारो में बिना किसी ताम झाम के बैठते थे और लोगो को सुनते थे . राजनीती में इतना नम्र होना शायद खतरनाक होता है क्योंकि वो लोग भी आपको छोटा समझने लगते हैं या छोड़ देते हैं जिन्हें आपने खड़ा किया लेकिन जो सत्ता के नशे में डूबकर अपने आप को जनता से दूर कर लेते हैं . 

सामाजिक न्याय की जिन शक्तियों को वी पी सिंह ने ताकत दी और उनके होने का एहसास करवाया उन्होंने सत्ता में आकर सामाजिक न्याय को जातीय राजनीती में बदल दिया और धीरे धीरे उससे दूरी भी बनाने लगे . सामाजिक न्याय जातीय जमावड़ा बन गया जिसने उन जातियों को भी कुछ नहीं दिया जिनके नेता उन जातियों के नाम लेकर मजबूत बने . २००९ का आम चुनाव और फिर विधान सभा के चुनावो ने सामाजिक न्याय की ताकतों को पुर्णतः ख़त्म कर दिया.

वी पी कहते थे के अभी आप मुझे गाली दे दो लेकिन एक समय आयेगा जब हर एक पार्टी मंडल मंडल करेगी और उनकी बात सही साबित हुई . मंडल वाली ताकते मंडल भूल गयी और कमंडल वालो ने मंडल का जाप कर उत्तर प्रदेश से सबकी हवा निकाल दी . कांग्रेस तो कभी मंडल की हुई नहीं क्योंकि उसको तो अभी भी ग़लतफ़हमी है के ब्राह्मण उसकी नैय्या पार लगायेंगे . ऐसा नहीं है के सामाजिक न्याय की अब जरुरत नहीं या इसकी राजनितिक ताकत नहीं लेकिन उसके लिए नेताओं में ईमानदारी होनी पड़ेगी . नितीश कुमार, मुलायम और ममता के भरोसे तो सामाजिक न्याय आने से रहा . इस कड़ी में सबसे बड़ी ताकत है लालू यादव जो मोदी को उनकी भाषा में जवाब दे सकते हैं लेकिन सत्ता में परिवार को हर जगह फिट करने से उनको हर जगह जवाब देने पड़ रहे हैं और कई आरोपों के चलते उनकी उर्जा उसको क्लियर करने में लगेगी . दक्षिण में करुणनिधि तो इस मामले में लीजेंड हैं हालाँकि उत्तर भारतीयों को उनके बारे में बहुत कम पता है लेकिन परिवार वाद उनको भी खाया . मोदी और संघ परिवार की ताकत हमारे नेताओं की व्यक्तिगत कमजोरियां हैं .

जब शिव सेना का बम्बई में १९९३ में तांडव चला तो वी पी भूख हड़ताल पर बैठे थे जिसके कारण उनकी किडनी ख़राब हो गयी लेकिन उन्होंने शिव सेना और ऐसी शक्तियों के खिलाफ खुल करके बोला क्योंकि शरद पवार जैसे लोगो ने मुस्लिम असुरक्षा का केवल लाभ लिया . आज जब मुसलमानों , दलितों पर हमला हो रहा है तो हमारे विपक्षी नेता पता नहीं किस चमत्कार का इंतज़ार कर रहे हैं . जब भी राजनातिक विपक्ष ख़त्म होता है तो देश में अराजकता का दौर आएगा. आज अगर वी पी सिंह होते तो उत्तर से लेकर दक्षिण तक और पूर्व से लेकर पश्छिम तक के सभी दलों को एक करने के क्षमता उनमे थी क्योंकि उसमे उनका अपना स्वार्थ नहीं था . उन्हें प्रधानमंत्री नहीं बन्ना था. 

२५ जून को हमारे सभी नेता इमरजेंसी को याद करेंगे , इंदिरा गाँधी को कोसेंगे और जय प्रकाश नारायण को भी याद करेंगे लेकिन ये दिन वी पी को भी याद करने का है. जे पी और वी पी दोनों ने कांग्रेस को हराने के लिए जनसंघ-भाजपा से हाथ मिलाया ( वो लोहिया ने भी क्या था ) जो उस समय की परिस्थितयो के अनुसार सही था क्योंकि कांग्रेस में भी अधिनायकवादी तत्व थे और देश में विकल्प देने के लिए हमें वो करना पड़ता . जो सबसे बड़ा फर्क था वो ये के जयप्रकाश के आन्दोलन में जनसंघ ही नहीं संघ की बड़ी भागीदारी थी लेकिन वी पी ने अपनी राजनितिक लड़ाई में दोनों का साथ नहीं लिया . उन्होंने भाजपा से सहयोग जरुर लिया लेकिन अपने पार्टी का प्रचार अलग से किया और कही पर उन्होंने भाजपा के साथ मिलकर चुनाव प्रचार नहीं किया .

क्योंकि जे पी आन्दोलन से निकले अधिकांश लोग वी पी के साथ आये लेकिन वो उन्हें याद नहीं करते . नितीश, लालू, रामविलास, शरद यादव आदि जे पी आन्दोलन से आये जरुर लेकिन वी पी ने इन्हें निखारा, तराशा और खिलने का स्वतंत्र अवसर दिया. आज इन सभी नेताओं का राजनैतिक कद बहुत बड़ा है और वो अगर सामाजिक न्याय के आन्दोलन को न भूले और अन्य मुद्दों को साथ लेकर चले तो अभी भी देर नहीं हुई है . ब्राह्मणवादी शक्तियों को केवल सामाजिक न्याय और सामाजिक बदलाव की ताकते रोक सकती हैं . वी पी सामाजिक न्याय वाले लोगो को मजबूत किया लेकिन भारतीय राजीनीति का एक बहुत बड़ी दुखद बात ये थी की सामाजिक बदलाव की जिन ताकतों के साथ मान्यवर कांशीराम खड़े थे उधर उनका बहुत संपर्क नहीं बन पाया हालाँकि बाद में कुछ कोशिश भी हुई लेकिन वो कामयाब नहीं हुए लेकिन ये काम आज हो सकता है यदि ये सभी शक्तिया जुड़े और अपनी अपनी पार्टियों का लोकतंत्रीकरण करें , युवाओं को आगे बढ़ाये और परिवारवाद से दूर रहे . देश में दलित, पिछड़े, मुस्लिम युवक और युवतियों की कमी नहीं है बल्कि वो इन परिवारों के नेताओं से बहुत अच्छा बोल रहे हैं और आन्दोलनों में जा भी रहे हैं. आज वी पी होते तो मैं विश्वास के साथ कह रहा हूँ के रोह्ति वेमुला से लेकर, जे एन यू, या अन्य स्थानों पर जो भी आन्दोलन हुए उनसे ही नया नेतृत्व निकाल देते . दुर्भाग्यवश, सामाजिक न्याय की ताकतों ने इन युवाओं के आन्दोलनों को न केवल  नज़रन्दाज किया है, अपितु अपने दलों में युवाओं और छात्रो के लिए कोई जगह नहीं बचाई  है, जे पी और वी पी के आन्दोलनों से अगर सीखना है तो वो ये के छात्रो और युवाओं को नज़रंदाज़ कर राजनीती करना अपने पैरो पर कुल्हाड़ी मारना है . अब लोग वोट पुरानी विरासत के नाम पर नहीं अपितु काम पर देंगे . क्या मायावती, लालू, अखिलेश युवाओं और छात्रो की ताकत को समझ नहीं पा रहे हैं या नए उभरते नेतृत्व से उनकी सियासत को खतरा है ? वी पी को उनके ही लोगो ने भुलाया लेकिन आज भी अगर उनके साथी चाहे तो उन्हें याद करके भारत में राजनितिक बदलाव की पुनः शुरुआत कर सकते हैं नहीं तो अगले चुनावो के बाद के हालत और भी भयावह हो सकते हैं . वी पी अपने आरंभिक दिनों में जरुर क्रन्तिकारी नहीं थे लेकिन उन्होंने स्वच्छ राजनीती की और अपनी पार्टी के घोषणापत्र को ईमानदारी से लागु करने की कोशिश की . मंडल उनका एकमात्र कार्य नहीं थी अपितु बाबा साहेब आंबेडकर और नेल्सन मंडेला जैसे लोगो को भी देश का सबसे बड़ा सम्मान देकर उन्होंने बहुत बड़ा काम किया .मंडल रिपोर्ट लागू कर उन्होंने देश की राजनीती की दिशा बदल दी और जीवन पर्यंत सामाजिक न्याय को समर्पित रहे और सांप्रदायिक राजनीती को रोकने के हर संभव प्रयास किये . आज वी पी सिंह याद आते हैं क्योंकि उनकी स्वच्छ राजनीती की देश के और भी जरुरत है . जब देश में घृणा की राजनीती का प्रचार प्रसार हो रहा है और उसे राजकीय प्रश्रय है वी पी सिंह की राजनितिक ईमानदारी और सुझबुझ की याद आती है . उम्मीद है उनके पुराने सहयोगी उन्हें याद करेंगे और सांप्रदायिक जातिवादी सामंती शक्तियों को परास्त करने के लिए हर संभव प्रयास करेंगे ताकि देश को अघोषित आपातकाल और फासीवाद से बचाया जा सके .

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