मध्यरात्रि के दौरान छापेमारी में प्रवासी मजदूरों के गायब हो जाने से लेकर कोलकाता के एक व्यक्ति का डर के चलते आत्महत्या करने तक, बिना सही जांच के लोगों को निकाले जाने की चिंताजनक कहानी बताती हैं और अब ये मामले भारत के अदालतों में देखे जा रहे हैं।

मई 2025 से भारत में एक चिंताजनक प्रवृत्ति देखी जा रही है, जिसे मानवाधिकार संगठनों ने "अवैध निर्वासन" या "पुश-आउट" कहा है-यानी बांग्ला भाषी मुस्लिम समुदाय के लोगों को जबरन बांग्लादेश भेजा जा रहा है। जिन लोगों को निशाना बनाया जा रहा है, वे ज्यादातर पश्चिम बंगाल से आए गरीब प्रवासी मजदूर हैं, जो रोजगार की तलाश में मुंबई, दिल्ली और अहमदाबाद जैसे शहरों में बसे थे। पीड़ित परिवारों का कहना है कि छापेमारी कर पुरुषों और महिलाओं को अचानक उठाया जा रहा है, फिर उन्हें हवाई या सड़क मार्ग से असम ले जाकर, सीमा सुरक्षा बल (BSF) द्वारा बांग्लादेश सीमा के असुरक्षित हिस्सों से जबरन पार कराया जा रहा है।
25 जुलाई को द हिंदू ने रिपोर्ट किया कि ह्यूमन राइट्स वाच ने यह दस्तावेज तैयार किया है कि लोगों को नागरिकता की कोई भी पुष्टि किए बिना देश से बाहर निकाला जा रहा है। बांग्लादेश की अपनी सीमा सुरक्षा बल ने भी पुष्टि की कि केवल पांच हफ्तों में 1,500 से अधिक लोगों को सीमा पार धकेला गया। Deutsche Welle की रिपोर्ट ने इन घटनाओं को और पुख्ता किया, जिसमें ऐसे मजदूरों के बयान शामिल थे जिनके आधार कार्ड फाड़ दिए गए, उन्हें पीटा गया और फिर बंदूक की नोक पर जबरन सीमा पार करवा दिया गया।
Article 14 ने अहमदाबाद के चांदोलिया क्षेत्र का माहौल जिक्र किया, जहां के लोग कहते हैं कि उनके पड़ोसी रातों-रात गायब हो जाते हैं। जैसा कि एक महिला ने कहा, "उन्हें ले जाया जाता है, और हमें तो उन्हें दोबारा देखने का मौका भी नहीं मिलता।"
न्यायालय: सतर्क लेकिन सक्रिय
कई हफ्तों तक निर्वासन (deportations) की कार्रवाइयां न्यायपालिका की नजर से लगभग बाहर ही होती रहीं। लेकिन अगस्त में यह स्थिति बदल गई।
14 अगस्त को LiveLaw ने रिपोर्ट किया कि सुप्रीम कोर्ट ने पश्चिम बंगाल प्रवासी श्रमिक कल्याण बोर्ड द्वारा दायर याचिका पर केंद्र सरकार और नौ राज्यों को नोटिस जारी किया है। बोर्ड ने आरोप लगाया कि गृह मंत्रालय के मई महीने के एक निर्देश के तहत, कई राज्य पुलिस बलों द्वारा मनमाने तरीके से बंगाली भाषी मजदूरों को निशाना बनाकर निर्वासित किया जा रहा है।
न्यायमूर्ति सूर्यकांत और जॉयमाल्य बागची की पीठ ने केंद्र सरकार से जवाब देने को कहा। जबकि सॉलिसिटर जनरल ने भाषा के आधार पर किसी भी तरह के निशाने बगाने से इनकार किया, कोर्ट ने उन्हें कहा कि "कार्रवाई भाषा के आधार पर नहीं हो सकती।" पीठ ने अंतरिम राहत देने से इनकार कर दिया, लेकिन केंद्रीय समन्वय तंत्र की आवश्यकता की ओर संकेत दिया।
इसी बीच, कोलकाता उच्च न्यायालय ने ज्यादा उपयुक्त कदम उठाया है। 17 जुलाई को Scroll ने रिपोर्ट किया कि न्यायालय ने सुनाली बीबी के मामले में जवाब मांगे हैं, जिन्हें कथित तौर पर आठ महीने की गर्भवती होने के बावजूद दिल्ली से निर्वासित किया गया। यह याचिका उनकी परिवार ने दायर की है, जिनका कहना है कि उन्होंने आधार और अन्य दस्तावेज दिखाने के बाद भी सुनाली बीबी को दिल्ली में हिरासत में रखा गया था।
'मध्यमम' की रिपोर्ट के अनुसार, यह सामने आया कि दिल्ली FRRO ने 24 जून को एक आदेश जारी किया था और इसे दो दिन बाद लागू किया गया। दिल्ली पुलिस ने कहा कि सभी उचित कानूनी प्रक्रियाओं का पालन किया गया। हालांकि, कोलकाता उच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार से पूछा है कि जून महीने में निर्वासन की घटनाएं अचानक क्यों बढ़ गईं। इस मामले की सुनवाई 20 अगस्त को निर्धारित है।
राज्य तेजी से कदम बढ़ा रहे हैं
जहां न्यायालय इन निर्वासनों की जांच कर रहे हैं, वहीं राज्य सरकारें तेजी से कार्रवाई कर रही हैं।
● महाराष्ट्र: 8 अगस्त को Indian Express ने रिपोर्ट किया कि मुंबई पुलिस ने एक ही ऑपरेशन में 112 लोगों को असम–बांग्लादेश सीमा तक भारतीय वायु सेना के विमान से निर्वासित किया। इससे 2025 में मुंबई में निर्वासित लोगों की संख्या 719 हो गई जो 2024 में कुल 152 से काफी ज्यादा है। अधिकारियों ने कहा कि उन्होंने विदेशियों की पहचान के लिए कॉल रिकॉर्ड, बैंक लेन-देन और साइट विज़िट्स को आधार बनाया। लेकिन वही रिपोर्ट चिंताजनक प्रवृत्तियां भी उजागर करती है: पूरे परिवारों को निशाना बनाना, और कम उम्र के बच्चों वाली माताओं को बिना बच्चों की नागरिकता की स्पष्टता के निर्वासित करना।
● तमिलनाडु: 12 अगस्त को The New Indian Express ने रिपोर्ट किया कि सेलम जिले की अत्तूर जेल को एक विशेष शिविर घोषित किया गया है, जहां लगभग 200 बांग्लादेशी नागरिकों को निर्वासन के लिए रखा गया है। चूंकि मौजूदा शिविर पहले से ही भीड़भाड़ वाले हैं, तमिलनाडु की यह पहल दिखाती है कि कैसे राज्य सरकारें सीमा पार निष्कासन (cross-border removals) के लिए हिरासत स्थल को औपचारिक रूप दे रही हैं और उसका विस्तार कर रही हैं।
● पश्चिम बंगाल: इसके उलट, पश्चिम बंगाल विरोध कर रहा है। 17 जून को The Telegraph ने रिपोर्ट किया कि पांच मजदूरों में से तीन, जिन्हें जबरन बांग्लादेश भेजा गया था, उन्हें वापस लाया गया - यह कार्रवाई तब हुई जब राज्य सरकार ने बीएसएफ पर दबाव डाला कि वह यह मामला अपने बांग्लादेशी समकक्षों के साथ उठाए। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने सार्वजनिक रूप से आरोप लगाया है कि भाजपा-शासित राज्य बंगाली भाषी भारतीयों को प्रताड़ित करने के लिए निर्वासन की नीति का इस्तेमाल कर रहे हैं। 19 जुलाई को The Hindu ने उनकी यह बात रिपोर्ट की कि यह पूरी प्रक्रिया एक राजनीतिक अभियान का हिस्सा है। उसी दिन, The Hindu में स्वीटी बीबी की गवाही भी प्रकाशित हुई, जिन्होंने बताया कि उन्हें और उनके परिवार को दिल्ली के रोहिणी क्षेत्र से उठाया गया और आधार कार्ड होने के बावजूद निर्वासित कर दिया गया।
"निर्वासन" की प्रक्रिया की परतें
इन निर्वासनों को जो चीज सबसे अलग बनाती है, वह है उनकी प्रक्रिया। Citizens for Justice and Peace की रिपोर्टों में पहले यह विस्तार से बताया गया है कि कैसे लोगों को दूर-दराज के शहरों से हिरासत में लिया जाता है, सुरक्षा के बीच उन्हें असम लाया जाता है, और फिर BSF द्वारा उन्हें गैर-आधिकारिक सीमाओं से -कभी-कभी नदी के रास्तों से - ज़बरन सीमा पार करवा दिया जाता है। इन मामलों में न तो कोई FIR दर्ज होती है, न मजिस्ट्रेट के सामने पेशी, और न ही किसी ट्रिब्यूनल की सुनवाई होती है। परिवारों को अक्सर सूचित तक नहीं किया जाता और संबंधित व्यक्ति भारत की कानूनी प्रणाली से पूरी तरह गायब हो जाते हैं।
The Indian Express ने स्पष्ट किया है, विदेशी अधिनियम, 1946 नागरिकता साबित करने का दायित्व व्यक्ति पर डालता है, लेकिन साथ ही यह एक विधिसम्मत प्रक्रिया को भी अनिवार्य बनाता है - जिसमें नोटिस देना, जांच करना और ट्रिब्यूनल के माध्यम से निर्णय लेना शामिल है। कई विशेषज्ञों का तर्क है कि जब इन प्रक्रियाओं को दरकिनार कर दिया जाता है, तो ऐसा निर्वासन गैरकानूनी निष्कासन (unlawful expulsion) बन जाता है।
मानवीय त्रासदियां
कानूनी बहसों के पीछे छिपी हैं मानवीय त्रासदियां हैं। Deutsche Welle ने मुंबई के उन लोगों की आपबीती साझा की जिन्हें पीटा गया, उनकी पहचान से जुड़े दस्तावेज छीन लिए गए और फिर उन्हें बसों में भरकर असम भेज दिया गया। दिल्ली में सुनाली बीबी का मामला एक और गंभीर सवाल खड़े करता है यदि वह बांग्लादेश में बच्चे को जन्म देती हैं, तो उस अजन्मे बच्चे के अधिकारों का क्या होगा?
Article 14 ने रिपोर्ट किया कि अहमदाबाद में चांदोलिया क्षेत्र के लोगों को -जिन्हें एक अवैध निर्माण हटाने की कार्रवाई के बाद “बांग्लादेशी” करार दे दिया गया - अब किराए के घर, पानी की आपूर्ति और यहां तक कि बच्चों के लिए स्कूलों तक से वंचित कर दिया गया है। निर्वासन का डर अब वहां के लोगों के रोजमर्रा की जिंदगी में समा चुका है।
भावनात्मक नतीजे कानूनी नतीजों जैसे ही विनाशकारी हो सकते हैं। इंडिया टुडे, द इंडियन एक्सप्रेस, एनडीटीवी और द टेलीग्राफ द्वारा प्रकाशित एक बेहद दुखद मामले में, दिलीप कुमार साहा नाम के 63 वर्षीय कोलकाता निवासी - जो ढाका से आकर 1972 से इस शहर में रह रहे थे- ने प्रस्तावित एनआरसी द्वारा निशाना बनाए जाने के भारी डर के बीच आत्महत्या कर ली। उनके परिवार ने कहा कि उनके पास वैध मतदाता पहचान पत्र और अन्य दस्तावेज होने के बावजूद, वह हिरासत में लिए जाने या बांग्लादेश "भेज दिए जाने" की संभावना को लेकर चिंतित थे। उनके नोट में एनआरसी का कोई स्पष्ट जिक्र नहीं था, लेकिन उनकी पत्नी और स्थानीय राजनेताओं ने अनिश्चितता के माहौल को उनके अवसाद में जाने के लिए जिम्मेदार ठहराया।
निष्कर्ष
भारत में दशकों में पहली बार इतनी बड़ी संख्या में लोगों को बाहर निकाला जा रहा है। महाराष्ट्र और तमिलनाडु जैसी राज्य सरकारें बुनियादी ढांचे का विस्तार कर रही हैं और निर्वासन में तेजी ला रही हैं; पश्चिम बंगाल इनका विरोध कर रहा है और निर्वासित श्रमिकों की वापसी भी सुनिश्चित कर रहा है। सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय इस पर ध्यान देने लगे हैं, लेकिन अभी तक इस प्रक्रिया पर रोक नहीं लगा पाए हैं।
कई मीडिया रिपोर्टों और Citizens for Justice and Peace (CJP) की जमीनी रिपोर्टों में लिखा गया है कि इन सभी मामलों में एक चिंताजनक बात समान है यानी कानूनी प्रक्रिया का पूरी तरह अभाव। नागरिक और प्रवासी दोनों ही बिना किसी सही जांच-पड़ताल के गिरफ्तार किए जा रहे हैं, सीमा पार लापता हो जाते हैं और अपनी पहचान व अधिकारों के लिए संघर्ष करने पर मजबूर हैं।
आने वाले दिनों में यह सामने आएगा कि भारत की न्यायपालिका संवैधानिक सुरक्षा उपायों को पुनः स्थापित करती है या फिर “पुश-आउट” सीमा पर शासन का एक गहराता हुआ और मौन हिस्सा बन जाता है।
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25 जुलाई को द हिंदू ने रिपोर्ट किया कि ह्यूमन राइट्स वाच ने यह दस्तावेज तैयार किया है कि लोगों को नागरिकता की कोई भी पुष्टि किए बिना देश से बाहर निकाला जा रहा है। बांग्लादेश की अपनी सीमा सुरक्षा बल ने भी पुष्टि की कि केवल पांच हफ्तों में 1,500 से अधिक लोगों को सीमा पार धकेला गया। Deutsche Welle की रिपोर्ट ने इन घटनाओं को और पुख्ता किया, जिसमें ऐसे मजदूरों के बयान शामिल थे जिनके आधार कार्ड फाड़ दिए गए, उन्हें पीटा गया और फिर बंदूक की नोक पर जबरन सीमा पार करवा दिया गया।
Article 14 ने अहमदाबाद के चांदोलिया क्षेत्र का माहौल जिक्र किया, जहां के लोग कहते हैं कि उनके पड़ोसी रातों-रात गायब हो जाते हैं। जैसा कि एक महिला ने कहा, "उन्हें ले जाया जाता है, और हमें तो उन्हें दोबारा देखने का मौका भी नहीं मिलता।"
न्यायालय: सतर्क लेकिन सक्रिय
कई हफ्तों तक निर्वासन (deportations) की कार्रवाइयां न्यायपालिका की नजर से लगभग बाहर ही होती रहीं। लेकिन अगस्त में यह स्थिति बदल गई।
14 अगस्त को LiveLaw ने रिपोर्ट किया कि सुप्रीम कोर्ट ने पश्चिम बंगाल प्रवासी श्रमिक कल्याण बोर्ड द्वारा दायर याचिका पर केंद्र सरकार और नौ राज्यों को नोटिस जारी किया है। बोर्ड ने आरोप लगाया कि गृह मंत्रालय के मई महीने के एक निर्देश के तहत, कई राज्य पुलिस बलों द्वारा मनमाने तरीके से बंगाली भाषी मजदूरों को निशाना बनाकर निर्वासित किया जा रहा है।
न्यायमूर्ति सूर्यकांत और जॉयमाल्य बागची की पीठ ने केंद्र सरकार से जवाब देने को कहा। जबकि सॉलिसिटर जनरल ने भाषा के आधार पर किसी भी तरह के निशाने बगाने से इनकार किया, कोर्ट ने उन्हें कहा कि "कार्रवाई भाषा के आधार पर नहीं हो सकती।" पीठ ने अंतरिम राहत देने से इनकार कर दिया, लेकिन केंद्रीय समन्वय तंत्र की आवश्यकता की ओर संकेत दिया।
इसी बीच, कोलकाता उच्च न्यायालय ने ज्यादा उपयुक्त कदम उठाया है। 17 जुलाई को Scroll ने रिपोर्ट किया कि न्यायालय ने सुनाली बीबी के मामले में जवाब मांगे हैं, जिन्हें कथित तौर पर आठ महीने की गर्भवती होने के बावजूद दिल्ली से निर्वासित किया गया। यह याचिका उनकी परिवार ने दायर की है, जिनका कहना है कि उन्होंने आधार और अन्य दस्तावेज दिखाने के बाद भी सुनाली बीबी को दिल्ली में हिरासत में रखा गया था।
'मध्यमम' की रिपोर्ट के अनुसार, यह सामने आया कि दिल्ली FRRO ने 24 जून को एक आदेश जारी किया था और इसे दो दिन बाद लागू किया गया। दिल्ली पुलिस ने कहा कि सभी उचित कानूनी प्रक्रियाओं का पालन किया गया। हालांकि, कोलकाता उच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार से पूछा है कि जून महीने में निर्वासन की घटनाएं अचानक क्यों बढ़ गईं। इस मामले की सुनवाई 20 अगस्त को निर्धारित है।
राज्य तेजी से कदम बढ़ा रहे हैं
जहां न्यायालय इन निर्वासनों की जांच कर रहे हैं, वहीं राज्य सरकारें तेजी से कार्रवाई कर रही हैं।
● महाराष्ट्र: 8 अगस्त को Indian Express ने रिपोर्ट किया कि मुंबई पुलिस ने एक ही ऑपरेशन में 112 लोगों को असम–बांग्लादेश सीमा तक भारतीय वायु सेना के विमान से निर्वासित किया। इससे 2025 में मुंबई में निर्वासित लोगों की संख्या 719 हो गई जो 2024 में कुल 152 से काफी ज्यादा है। अधिकारियों ने कहा कि उन्होंने विदेशियों की पहचान के लिए कॉल रिकॉर्ड, बैंक लेन-देन और साइट विज़िट्स को आधार बनाया। लेकिन वही रिपोर्ट चिंताजनक प्रवृत्तियां भी उजागर करती है: पूरे परिवारों को निशाना बनाना, और कम उम्र के बच्चों वाली माताओं को बिना बच्चों की नागरिकता की स्पष्टता के निर्वासित करना।
● तमिलनाडु: 12 अगस्त को The New Indian Express ने रिपोर्ट किया कि सेलम जिले की अत्तूर जेल को एक विशेष शिविर घोषित किया गया है, जहां लगभग 200 बांग्लादेशी नागरिकों को निर्वासन के लिए रखा गया है। चूंकि मौजूदा शिविर पहले से ही भीड़भाड़ वाले हैं, तमिलनाडु की यह पहल दिखाती है कि कैसे राज्य सरकारें सीमा पार निष्कासन (cross-border removals) के लिए हिरासत स्थल को औपचारिक रूप दे रही हैं और उसका विस्तार कर रही हैं।
● पश्चिम बंगाल: इसके उलट, पश्चिम बंगाल विरोध कर रहा है। 17 जून को The Telegraph ने रिपोर्ट किया कि पांच मजदूरों में से तीन, जिन्हें जबरन बांग्लादेश भेजा गया था, उन्हें वापस लाया गया - यह कार्रवाई तब हुई जब राज्य सरकार ने बीएसएफ पर दबाव डाला कि वह यह मामला अपने बांग्लादेशी समकक्षों के साथ उठाए। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने सार्वजनिक रूप से आरोप लगाया है कि भाजपा-शासित राज्य बंगाली भाषी भारतीयों को प्रताड़ित करने के लिए निर्वासन की नीति का इस्तेमाल कर रहे हैं। 19 जुलाई को The Hindu ने उनकी यह बात रिपोर्ट की कि यह पूरी प्रक्रिया एक राजनीतिक अभियान का हिस्सा है। उसी दिन, The Hindu में स्वीटी बीबी की गवाही भी प्रकाशित हुई, जिन्होंने बताया कि उन्हें और उनके परिवार को दिल्ली के रोहिणी क्षेत्र से उठाया गया और आधार कार्ड होने के बावजूद निर्वासित कर दिया गया।
"निर्वासन" की प्रक्रिया की परतें
इन निर्वासनों को जो चीज सबसे अलग बनाती है, वह है उनकी प्रक्रिया। Citizens for Justice and Peace की रिपोर्टों में पहले यह विस्तार से बताया गया है कि कैसे लोगों को दूर-दराज के शहरों से हिरासत में लिया जाता है, सुरक्षा के बीच उन्हें असम लाया जाता है, और फिर BSF द्वारा उन्हें गैर-आधिकारिक सीमाओं से -कभी-कभी नदी के रास्तों से - ज़बरन सीमा पार करवा दिया जाता है। इन मामलों में न तो कोई FIR दर्ज होती है, न मजिस्ट्रेट के सामने पेशी, और न ही किसी ट्रिब्यूनल की सुनवाई होती है। परिवारों को अक्सर सूचित तक नहीं किया जाता और संबंधित व्यक्ति भारत की कानूनी प्रणाली से पूरी तरह गायब हो जाते हैं।
The Indian Express ने स्पष्ट किया है, विदेशी अधिनियम, 1946 नागरिकता साबित करने का दायित्व व्यक्ति पर डालता है, लेकिन साथ ही यह एक विधिसम्मत प्रक्रिया को भी अनिवार्य बनाता है - जिसमें नोटिस देना, जांच करना और ट्रिब्यूनल के माध्यम से निर्णय लेना शामिल है। कई विशेषज्ञों का तर्क है कि जब इन प्रक्रियाओं को दरकिनार कर दिया जाता है, तो ऐसा निर्वासन गैरकानूनी निष्कासन (unlawful expulsion) बन जाता है।
मानवीय त्रासदियां
कानूनी बहसों के पीछे छिपी हैं मानवीय त्रासदियां हैं। Deutsche Welle ने मुंबई के उन लोगों की आपबीती साझा की जिन्हें पीटा गया, उनकी पहचान से जुड़े दस्तावेज छीन लिए गए और फिर उन्हें बसों में भरकर असम भेज दिया गया। दिल्ली में सुनाली बीबी का मामला एक और गंभीर सवाल खड़े करता है यदि वह बांग्लादेश में बच्चे को जन्म देती हैं, तो उस अजन्मे बच्चे के अधिकारों का क्या होगा?
Article 14 ने रिपोर्ट किया कि अहमदाबाद में चांदोलिया क्षेत्र के लोगों को -जिन्हें एक अवैध निर्माण हटाने की कार्रवाई के बाद “बांग्लादेशी” करार दे दिया गया - अब किराए के घर, पानी की आपूर्ति और यहां तक कि बच्चों के लिए स्कूलों तक से वंचित कर दिया गया है। निर्वासन का डर अब वहां के लोगों के रोजमर्रा की जिंदगी में समा चुका है।
भावनात्मक नतीजे कानूनी नतीजों जैसे ही विनाशकारी हो सकते हैं। इंडिया टुडे, द इंडियन एक्सप्रेस, एनडीटीवी और द टेलीग्राफ द्वारा प्रकाशित एक बेहद दुखद मामले में, दिलीप कुमार साहा नाम के 63 वर्षीय कोलकाता निवासी - जो ढाका से आकर 1972 से इस शहर में रह रहे थे- ने प्रस्तावित एनआरसी द्वारा निशाना बनाए जाने के भारी डर के बीच आत्महत्या कर ली। उनके परिवार ने कहा कि उनके पास वैध मतदाता पहचान पत्र और अन्य दस्तावेज होने के बावजूद, वह हिरासत में लिए जाने या बांग्लादेश "भेज दिए जाने" की संभावना को लेकर चिंतित थे। उनके नोट में एनआरसी का कोई स्पष्ट जिक्र नहीं था, लेकिन उनकी पत्नी और स्थानीय राजनेताओं ने अनिश्चितता के माहौल को उनके अवसाद में जाने के लिए जिम्मेदार ठहराया।
निष्कर्ष
भारत में दशकों में पहली बार इतनी बड़ी संख्या में लोगों को बाहर निकाला जा रहा है। महाराष्ट्र और तमिलनाडु जैसी राज्य सरकारें बुनियादी ढांचे का विस्तार कर रही हैं और निर्वासन में तेजी ला रही हैं; पश्चिम बंगाल इनका विरोध कर रहा है और निर्वासित श्रमिकों की वापसी भी सुनिश्चित कर रहा है। सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय इस पर ध्यान देने लगे हैं, लेकिन अभी तक इस प्रक्रिया पर रोक नहीं लगा पाए हैं।
कई मीडिया रिपोर्टों और Citizens for Justice and Peace (CJP) की जमीनी रिपोर्टों में लिखा गया है कि इन सभी मामलों में एक चिंताजनक बात समान है यानी कानूनी प्रक्रिया का पूरी तरह अभाव। नागरिक और प्रवासी दोनों ही बिना किसी सही जांच-पड़ताल के गिरफ्तार किए जा रहे हैं, सीमा पार लापता हो जाते हैं और अपनी पहचान व अधिकारों के लिए संघर्ष करने पर मजबूर हैं।
आने वाले दिनों में यह सामने आएगा कि भारत की न्यायपालिका संवैधानिक सुरक्षा उपायों को पुनः स्थापित करती है या फिर “पुश-आउट” सीमा पर शासन का एक गहराता हुआ और मौन हिस्सा बन जाता है।
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