"क्या चुनाव आयोग, क्या सीवीसी, क्या सीबीआई........"
60 साल में भारत गर्त में चला गया था. आपके लिए ये फैक्ट हो सकता है. मेरे लिए एक शानदार तरीके से स्थापित पर्सेप्शन. नतीजा, कांग्रेस को आज मांगे मिले न भीख वाली हालत हो गई. लेकिन, वो 60 साल बनाम आज का 5 साल बराबर है. क्यों? क्योंकि तब न मीडिया/सोशल मीडिया का प्रकोप इतना था न जनता के मन में इतनी बेचैनी थी.
एन विठ्ल का नाम तो सुना होगा. वाजपेयी साहब के प्रधानमंत्री रहते हुए वे सेंट्रल विजिलेंस कमिश्नर थे. काफी सख्त सीवीसी. सैकडों भ्रष्ट अधिकारियों की लिस्ट बना कर पीएम को सौंप दिया और कहा कि कार्रवाई करिए. किसी पर कार्रवाई हुई हो तो गूगल कर के नाम बता दीजिए. क्योंकि सीवीसी सिर्फ सुपरवाजर है. खैर, तब भी भाजपा थी, आज भी भाजपा है. आज सीवीसी की सलाह पर पीएमओ एक पदास्थापित सीबीआई डायरेक्टर को फोर्स्ड लीव (जबरन छुट्टी) पर भेज देता है. या यूँ कहे कि सीवीसी की आड में ये काम किया गया, क्योंकि कानून कहता है कि सीबीआई निदेशक को वही हटा सकता है, जिसने उसे नियुक्त किया है. यानी, सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस, पीएम और लीडर अपोजिशन. अब रातोंरात ये तीनों लोग न एक जगह मिलते न ये आदेश पास होता. तो भैया लीजिए, खाता न बही, प्रधानमंत्री जी जो बोले, जो सोचे, वही सही.
लेकिन, आलोक वर्मा के साथ जो हुआ, वह उनके व्यक्तिगत मान-अपमान से अधिक इस देश के संविधान और लोकतंत्र के मान-सम्मान से जुडा हुआ है. आपको नहीं दिखता तो मत देखिए. मुझे क्रिस्टल क्लियर दिख रहा है कि एक-एक कर के देश की संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा को गिराने का काम जिस तरह से पिछले 4 साल में हुआ है, उसकी तुलना सिर्फ और सिर्फ गुजरात मॉडल से ही की जा सकती है. जी, वही गुजरात मॉडल जहां दर्जन भर आईएएस/आईपीएस अधिकारी दंगा के मुद्दे पर जेल में थे या अरोपित थे. फिर भी गुजरात का गवर्नेंस आपको मॉडल दिखता है तो मैं क्या कर सकत हूं, सिवाए इसके कि जो मुझे दिखता रहा है, वह लिखू-बोलू.
देश का वित्त मंत्री कैग को सलाह देता है कि समय की नजाकत (बदलाव) को समझ कर ऑडिटिंग कीजिए. कहां से लाते है आप ये हिम्मत मंत्री जी. ये वही कैग है न जिसके मुखिया ने अपनी हर एक रिपोर्ट से कभी यूपीए के ताबूत में कील पर कील ठोंक दिए थे और तब के प्रधानमंत्री या किसी मंत्री की हिम्मत तक नहीं हुई थी कि कैग पर कोई टिप्पणी कर दे. लेकिन, आप करते है. कौन सा मॉडल है ये गवरनेंस का.
एक चुनाव आयोग है, जो प्रधानमंत्री के भाषण के स्थान और काल की गणना करने के बाद ही चुनाव तारीख की घोषणा करना अपन परम कर्तव्य समझता है. एक चुनाव आयुक्त टीएन शेषण भी थे. किसी मंत्री की औकात नहीं होती थी कि उनके सामने चूँ तक कर सके. लेकिन, आज चुनाव आयुक्त कौन है, आप बिना गूगल किए शायद नाम तक न बता सके.
तो महाराज, यही है गुजरात मॉडल. एक आम आदमी की तरह जितना मैं समझता हूं, आज जो वर्मा के साथ हुआ, उसे आज ठीक नहीं किया गया तो आने वाले समय में सीबीआई पिंजडॆ में बंद तोता नहीं द्वार पर बान्ध कर रखे गए बैल की तरह बन जाएगा. और सिर्फ सीबीआई ही क्यों? हर एक संवैधानिक संस्था की हालत ऐसी हो सकती है.
कैसे? सिंपल है. सरकार जब चाहेगी अपने किसी वफादार अधिकारी से किसी संवैधानिक संस्था के मुखिया पर भ्रष्टाचार का अरोप लगवा देगी, एफआईआर करवा देगी और सीवीसी की सिफारिश की आड में उस जबरिया लंबी छुट्टी पर भेजी देगी. जबरिया लंबी छुट्टी ओ सीधे-सीधे पेड सस्पेंशन समझिए. आखिर, जो सरकार अपने ही सीबीआई निदेशक की आईबी से जासूसी करवा सकती है, वो क्या कर सकती है, इसकी कल्पना भी कर पाना मेरी कल्पना से बाहर है.
बहरहाल, आम आदमी को फैक्ट से अधिक पर्सेप्शन से मतलब होता है. राहुल गांधी भाजपा के खिलाफ क्या पर्सेप्शन बना पाते है, मुझे नहीं मालूम. लेकिन, राफेल से ले कर सीबीआई प्रकरण (सबके तार जुडे हुए है) तक में, मौजूदा सरकारण को ले कर पर्सेप्शन तो बन चुका है कि आप खुद को जितना पवित्तर बता रहे थे, उतने है नहीं. आप भी वही है, जो अमूमन राजनीति करने वाले होते है.
वैसे भी, अब 6 महीने बाद चुनाव है. तो ये बडाई-बुराई से काम नहीं चलेगा. बदल सकते है तो पर्सेप्शन बदल लीजिए. वर्ना जनता ने कोई पर्सेप्शन बना लिया तो फिर...
60 साल में भारत गर्त में चला गया था. आपके लिए ये फैक्ट हो सकता है. मेरे लिए एक शानदार तरीके से स्थापित पर्सेप्शन. नतीजा, कांग्रेस को आज मांगे मिले न भीख वाली हालत हो गई. लेकिन, वो 60 साल बनाम आज का 5 साल बराबर है. क्यों? क्योंकि तब न मीडिया/सोशल मीडिया का प्रकोप इतना था न जनता के मन में इतनी बेचैनी थी.
एन विठ्ल का नाम तो सुना होगा. वाजपेयी साहब के प्रधानमंत्री रहते हुए वे सेंट्रल विजिलेंस कमिश्नर थे. काफी सख्त सीवीसी. सैकडों भ्रष्ट अधिकारियों की लिस्ट बना कर पीएम को सौंप दिया और कहा कि कार्रवाई करिए. किसी पर कार्रवाई हुई हो तो गूगल कर के नाम बता दीजिए. क्योंकि सीवीसी सिर्फ सुपरवाजर है. खैर, तब भी भाजपा थी, आज भी भाजपा है. आज सीवीसी की सलाह पर पीएमओ एक पदास्थापित सीबीआई डायरेक्टर को फोर्स्ड लीव (जबरन छुट्टी) पर भेज देता है. या यूँ कहे कि सीवीसी की आड में ये काम किया गया, क्योंकि कानून कहता है कि सीबीआई निदेशक को वही हटा सकता है, जिसने उसे नियुक्त किया है. यानी, सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस, पीएम और लीडर अपोजिशन. अब रातोंरात ये तीनों लोग न एक जगह मिलते न ये आदेश पास होता. तो भैया लीजिए, खाता न बही, प्रधानमंत्री जी जो बोले, जो सोचे, वही सही.
लेकिन, आलोक वर्मा के साथ जो हुआ, वह उनके व्यक्तिगत मान-अपमान से अधिक इस देश के संविधान और लोकतंत्र के मान-सम्मान से जुडा हुआ है. आपको नहीं दिखता तो मत देखिए. मुझे क्रिस्टल क्लियर दिख रहा है कि एक-एक कर के देश की संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा को गिराने का काम जिस तरह से पिछले 4 साल में हुआ है, उसकी तुलना सिर्फ और सिर्फ गुजरात मॉडल से ही की जा सकती है. जी, वही गुजरात मॉडल जहां दर्जन भर आईएएस/आईपीएस अधिकारी दंगा के मुद्दे पर जेल में थे या अरोपित थे. फिर भी गुजरात का गवर्नेंस आपको मॉडल दिखता है तो मैं क्या कर सकत हूं, सिवाए इसके कि जो मुझे दिखता रहा है, वह लिखू-बोलू.
देश का वित्त मंत्री कैग को सलाह देता है कि समय की नजाकत (बदलाव) को समझ कर ऑडिटिंग कीजिए. कहां से लाते है आप ये हिम्मत मंत्री जी. ये वही कैग है न जिसके मुखिया ने अपनी हर एक रिपोर्ट से कभी यूपीए के ताबूत में कील पर कील ठोंक दिए थे और तब के प्रधानमंत्री या किसी मंत्री की हिम्मत तक नहीं हुई थी कि कैग पर कोई टिप्पणी कर दे. लेकिन, आप करते है. कौन सा मॉडल है ये गवरनेंस का.
एक चुनाव आयोग है, जो प्रधानमंत्री के भाषण के स्थान और काल की गणना करने के बाद ही चुनाव तारीख की घोषणा करना अपन परम कर्तव्य समझता है. एक चुनाव आयुक्त टीएन शेषण भी थे. किसी मंत्री की औकात नहीं होती थी कि उनके सामने चूँ तक कर सके. लेकिन, आज चुनाव आयुक्त कौन है, आप बिना गूगल किए शायद नाम तक न बता सके.
तो महाराज, यही है गुजरात मॉडल. एक आम आदमी की तरह जितना मैं समझता हूं, आज जो वर्मा के साथ हुआ, उसे आज ठीक नहीं किया गया तो आने वाले समय में सीबीआई पिंजडॆ में बंद तोता नहीं द्वार पर बान्ध कर रखे गए बैल की तरह बन जाएगा. और सिर्फ सीबीआई ही क्यों? हर एक संवैधानिक संस्था की हालत ऐसी हो सकती है.
कैसे? सिंपल है. सरकार जब चाहेगी अपने किसी वफादार अधिकारी से किसी संवैधानिक संस्था के मुखिया पर भ्रष्टाचार का अरोप लगवा देगी, एफआईआर करवा देगी और सीवीसी की सिफारिश की आड में उस जबरिया लंबी छुट्टी पर भेजी देगी. जबरिया लंबी छुट्टी ओ सीधे-सीधे पेड सस्पेंशन समझिए. आखिर, जो सरकार अपने ही सीबीआई निदेशक की आईबी से जासूसी करवा सकती है, वो क्या कर सकती है, इसकी कल्पना भी कर पाना मेरी कल्पना से बाहर है.
बहरहाल, आम आदमी को फैक्ट से अधिक पर्सेप्शन से मतलब होता है. राहुल गांधी भाजपा के खिलाफ क्या पर्सेप्शन बना पाते है, मुझे नहीं मालूम. लेकिन, राफेल से ले कर सीबीआई प्रकरण (सबके तार जुडे हुए है) तक में, मौजूदा सरकारण को ले कर पर्सेप्शन तो बन चुका है कि आप खुद को जितना पवित्तर बता रहे थे, उतने है नहीं. आप भी वही है, जो अमूमन राजनीति करने वाले होते है.
वैसे भी, अब 6 महीने बाद चुनाव है. तो ये बडाई-बुराई से काम नहीं चलेगा. बदल सकते है तो पर्सेप्शन बदल लीजिए. वर्ना जनता ने कोई पर्सेप्शन बना लिया तो फिर...