सरना कोड : तेज हुई अलग धार्मिक पहचान की मांग, आदिवासी पार्टियों ने सीएम सोरेन को लिखा पत्र

Written by sabrang india | Published on: October 31, 2020
वर्षों से राज्य के आदिवासी समुदाय जनगणना और अन्य प्रशासनिक रूपों में एक अलग सरना धर्म कोड की मांग कर रहे हैं। 2021 की जनगणना से पहले उनकी एक अलग धार्मिक पहचान की मांग तेज हो गई है। झारखंड मुक्ति मोर्चा समेत कई आदिवासी पार्टियों और समूहों ने मुख्यमंत्री सोरेन को पत्र लिखकर इसका समर्थन किया है। 



झारखंड मुक्ति मोर्चा महासचिव सुप्रियो भट्टाचार्य ने कहा कि आदि धर्म (आदिवासी धर्म) सनातन धर्म से बहुत पहले प्रचलित था। फिर भी एक अलग धर्म की उनकी मांग को अस्वीकार कर दिया जाता है, बदले में उनकी पहचान को अस्वीकार कर दिया जाता है। आदिवासियों को जबरदस्ती दूसरे धर्म में परिवर्तित किया जाता है। अगर उनके पास कोई पहचान नहीं है तो उनका अस्तित्व किस तरह का हो सकता है। 

सरना प्रार्थना की जगह है और साथ ही आदिवासी समुदायों के बीच एक प्रकृतिवादी धर्म भी है। हिंदू रीति रिवाजों में जहां लोग मूर्तियों की पूजा करते हैं, वहीं सरना धर्म के लोग प्राकृतिक तत्वों जैसे साल के पेड और धरती माता की पूजा करते हैं। दोनों धर्मों के बीच इन समानताओं के कारण इन्हें हिंदू मान लिया जाता है। हालांकि आदिवासियों कादावा है कि हिंदू धर्म में इसके अंधे समूह से उनकी जनगणना पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। 

जनगणना के आंकड़ों के संक्षिप्त विश्लेषण से पता चलता है कि 1931 में राज्य में आदिवासी आबादी 38.03 प्रतिशत थी जो 2011 में घटकर 26.02 प्रतिशत रह गई है। इससे पता चलता है कि अकेले झारखंड में आदिवासी अबादी आठ दशकों में 12 प्रतिशत कम हो गई थी। 

आदिवासी आबादी में कमी को समझने के लिए टीएसी का गठन किया गया, जबकि अन्य समुदाय संपन्न हुए। इसकी उप-समिति ने 2018-19 में स्वदेशी समूहों द्वारा संभावित संभावित समस्याओं को समझने के लिए एक सर्वेक्षण किया।

काउंसिल के सदस्य तिर्की ने सबरंग इंडिया को बताया कि स्रवेक्षण के दौरान आदिवासियों ने सवाल किया कि उनकी कम होती जनसंक्या के प्रमुख कारण में से एक उनकी अलग धार्मिक और सामाजिक पहचान की कमी है। उन्होंने कहा कि आदिवासी आजादी के बाद से एक अलग धार्मिक पहचान की मांग कर रहे हैं। 

तिर्की ने कहा, वे हिंदू धर्म को अपने धर्म के रूप में नहीं पहचानते हैं, फिर भी उन्हें विकल्प चुनने के लिए मजबूर किया जाता है क्योंकि जनगणना प्रपत्र के धर्म वाले कॉल में उनके लिए कोई अलग कॉलम नहीं है। इससे आदिवासी आबादी 73 प्रतिशत कम हो सकती है। उन्होंने तर्क दिया कि सरनाओं को एक अलग विकल्प होना चाहिए जैसा कि ईसाई और जैन करते हैं। 

इसके अलावा आदिवासियों ने मांग की कि उनके फॉर्म पेन से भरे जाएं न कि पेंसिल से। क्योंकि जनगणना कार्यकर्ता अक्सर जबरन उनके धर्म को हिंदू धर्म में बदलते हैं। 

न्यूयॉर्क टाइम्स ने 2013 में झारखंड में धर्म परिवर्तन को लेकर एक रिपोर्ट लिखी थी जिसमें एक आदिवासी परिवार को आर्थिक दबाव कि वजह से हिंदू धर्म से ईसाई धर्म में परिवर्तित किया गया था और इसमे यह भी कहा गया था कि डेमोग्राफिक प्रभाव के लिए पूरे गांव को सामूहिक रूप से परिवर्तित किया गया था।

तिर्की के अनुसार, आदिवासी कल्याण के लिए राज्य के बजट आवंटन पर इसके प्रभाव के कारण आदिवासियों के लिए धार्मिक पहचान एक महत्वपूर्ण मुद्दा बन गया है। इसके अलावा यह संविधान की पांचवीं अनुसूची के तहत आदिवासी समुदायों को दी गई नीतियों और विशेष प्रावधानों को भी प्रभावित करता है। 
पंचायत प्रावधानों (अनुसूचित विस्तार अभियान) के अनुसार, जनसंख्या को अनुसूचित क्षेत्र की प्रत्येक पंचायत के विभिन्न पदों पर आदिवासियों के लिए आरक्षण का आधार माना जाता है। इसी तरह, आबादी यह भी तय करती है कि कौन से क्षेत्र पांचवीं अनुसूची के प्रावधान का लाभ ले सकते हैं।
 

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