फॉर्मेट से लगती है न्यूज चैनल देखने की लत, आप कंटेंट पर जोर देकर इसे छुड़ाएं- रवीश कुमार

Written by Ravish Kumar | Published on: February 12, 2019
फॉर्मेट और कटेंट में अंतर होता है। फॉर्मेट होता है बक्सा। जो किसी खास म्यूज़िक और नाम से शुरू होता है। एंकर ऐसे आता है जैसे कोई मसीहा आ रहा हो। स्लो मोशन में। पढ़ाई लिखाई और पत्रकारिता साढ़े बाइस मगर आने का रौब ऐसा कि जैसे महान लोकतंत्र अब अपने घुटनों से खड़ा होकर परचम बन जाएगा। चुनाव आते ही या चुनाव के बग़ैर ही चैनलों की दुनिया में आप इस तरह के फॉर्मेट देखेंगे। कंटेंट एक ही है सबके पास। उसी कटेंटे को अलग अलग फॉर्मेट में पेश किया जाता है ताकि आपको लगे कि आप कुछ नया और अलग देख रहे हैं। नया और अलग देखने की अति-चाहत आपको जंक फुड की तरफ ले जाती है। आप कब बर्गर गटक जाते हैं और कब फ्रेंचफ्राई तब तक पता नहीं चलता जब इससे होने वाली बीमारियां आपको नाज़ुक मोड़ पर पहुंचा देती हैं।

चैनलों में कटेंट ख़त्म हो गया है। फॉर्मेट भी ख़त्म हो गया है मगर फिर भी इसमें थोड़ा फर्क होता है। जैसे डिबेट आप स्टुडियो में करते हैं। वही चार फालतू लोग होते हैं। फिर स्टुडियो के दूसरे फॉर्मेट में होता है उसमें वही फालतू चार लोग बुलाए गए नौजवान वक्ताओं से घिरे होते हैं। घटिया किस्म के पत्रकारिता संस्थानों के मासूम बच्चों को ठगने के लिए वहां भेजा जाता है ताकि वे भविष्य में वैसा बनने की चाह में कुछ और पैसों को दांव पर लगा सकें। भ्रम पाल सके कि पत्रकार बन रहे हैं और भविष्य चुन रहे हैं। ऐसे नौजवानों से मिलकर रोना आ जाता है। ठगे वे जाते हैं, कराह मैं रहा होता हूं। जब इससे बोर हो जाते हैं तो एक फॉर्मेट होता है वन टू वन का। इसमें उन चार फालतू वक्ताओं में से एक को छांट कर अलग से इंटरव्यू किया जाता है। वही बातें। वही सवाल। बिना तैयारी। रंग रोगन और साज सज्जा से चमकाकर आपको बताया जाता है कि आप कोई भारी भरकम प्रश्नोत्तरी पत्रकारिता का नमूना देख रहे हैं।

फिर एक फॉर्मेट होता है उसी फालतू चार वक्ताओं को लेकर स्टुडियो से बाहर जाने का। चुनाव शुरू होते ही महापंचायत, महामुकाबला टाइप के फॉर्मेट बन जाते हैं। इसमें शहर से कुछ लोग बुलाए जाते हैं। उन्हें लगता है कि न्यूज़ चैनल ने बुलाया है। मीडिया ने बुलाया है। टीवी पर आएंगे। इसमें जिमी-जिब कैमरा आपके सर से घुमते जाता है तो आप सावधान हो जाते हैं। जैसे बड़ा भारी प्रोग्राम शुरू होने वाला है। एंकर ऐसे एलान करता है जैसे धरती हिलने जा रही हो। एक दो सवाल होते हैं। फालतू दो प्रवक्ता चीखने लगता है। हमारे नेता ऐसे हैं। तुम्हारे नेता वैसे हैं तब तक पब्लिक कुर्सी उठा कर मारा मारी कर देती है। इसे बोला जाता है कि शो में एक्शन हो गया। एनर्जी आ गई। कंटेंट हवा में उड़ गया। आने वाले लोग चुपचाप निकल लिए। जो रह गए एंकर से सेल्फी खिंचाने लगे।

इसी तरह का एक और फॉर्मेट होता है डिबेट को कालेज में ले जाने का। अपनी पढ़ाई का पता नहीं, क्लास में टीचर अच्छा है या है ही नहीं। कालेज के आडिटोरियम में फालतू चार वक्ताओं में छांट कर दो वक्ता आते हैं। एंकर वही बेसिक सवाल करता है। यहां इसलिए जाया जाता है कि ताकि यंग इंडियो को सामने से बेवकूफ बनाते हुए उनसे कहा जाए कि आप ताली बजाएं। या किसी बात पर ठठा कर हंसे। ऐसे डिबेट में शामिल नौजवान यू ट्यूब पर जाकर दोबारा से देखें। सोचें कि उनका इस्तमाल फॉर्मेट बनाने में हुआ या उन्हें कटेंट देने के लिए फॉर्मेट बना।

कालेजों में या किसी मॉल में या फिर किसी ऐतिहासिक इमारत की रौशनी में भी वही बातें होती हैं जो चैनलों के भीतर होती हैं। मीडिया का सतहीकरण इसी बात से ऊर्जा प्राप्त करता है कि दशर्कों का भी लगातार सतहीकरण होता रहे। कालेज के ज्यादातर छात्र भी सूचनाविहीन हैं। वही दो चार मुद्दों तक सीमित डिबेट को लेकर धारणा बनाए बैठे हैं और पूछ कर या ताली बजाकर या उसे कंफर्म कर लौट जाते हैं।

एंकर भी छवि लेकर आता है और छवि लेकर चला जाता है। उसकी तैयारी बेसिक होती है। अगर वायर द हिन्दू या स्क्रोल या डाउन टू अर्थ में कुछ न छपे तो एंकरों के पास चार सवाल न हों पूछने के लिए। खुद एंकर हूं तो बता रहा हूं। मगर नौजवान इस बात से खुश रहते हैं कि एंकर से सेल्फी खिंचाने का मौका मिल गया और टीवी पर आने वाले दो वक्ताओं को करीब से देख लिया जो वो घर में ही बैठ कर देख सकते हैं। इस तरह वे एक ज़िम्मेदार दर्शक से ज़िम्मेदार नागरिक होने की प्रक्रिया पूरी नहीं कर पाते। न दर्शक रह पाते हैं और न नागरिक।

इसलिए चैनलों के पास फॉर्मेट ही बचा रह गया है जिसे सब ढो रहे हैं। कटेंट ख़त्म हो गया है। कंटेंटलेस यानी तत्वविहीन मीडिया है। डिबेट जारी रहे इसलिए सूचना की जगह सर्वे की खुराक दी जाती है। सर्वे का भी कटेंट एक ही है। डिबेट का भी कटेंट एक ही है। एक बात बताइये जो इस तरह के ओपिनियन में हिस्सा लेते हैं क्या उन्हें किसी दूसरे संसार से सूचनाएं मिलती हैं? क्या उन्होंने अस्पताल देखे होते हैं, स्कूल देखे होते हैं, पंचायतों में ब्राडबैंड और जनऔषधि केंद्र देखे होते हैं? मुमकिन है कि कुछ ने देखा होगा लेकिन आप कल्पना कर सकते हैं कि हम सबका संस्थाओं से नाता कितना सीमित रह गया है। पता नहीं जिनका अधिक है वो इन सर्वे में किस मात्रा में हैं। तो फिर सर्वे से भी वही बातें निकलेंगी जो डिबेट से निकलती हैं।

आप जो भी न्यूज़ चैनल देखते हैं, जिसे भी पसंद करते हैं, आपका वक्त और पैसा लगता है। आप इन सवालों के साथ इन कार्यक्रमों को देखिए, सोचिए। चैनल बेशक चाहते हैं कि आप एक दर्शक के तौर पर उत्तेजित बातों की जाल में फंस जाएं ताकि आप मूल प्रश्न या गंभीर प्रश्न से कट जाएं। आपका सतही होना बहुत ज़रूरत है। इसलिए ये संघर्ष आपका है कि आप सतही होने से ख़ुद को बचाएं। अब आप सोचिए। फालतू चार प्रवक्ताओं को लेकर हर घंटे एक नए एंकर के साथ एक नया शो करने से क्या यह बेहतर नहीं होता कि दो कार्यक्रम रिकार्ड कर लो और वही दिन भर दिखाते रहो। क्यों हर घंटे नए होने का झांसा दिया जाता है और आप झांसे में हर घंटे आते हैं?

आप इसे पढ़ने के बाद एक डायरी लें। एक हफ्ते तक दो से तीन चैनलों के ऐसे कार्यक्रमों को देखें। अपने हित में एक ईमानदार नोट्स बनाएं। आपको लगता है कि ये आपके लिए ज़रूरी था, आपने कुछ अलग जाना तो देखते रहिए, वर्ना रिमोट उठा कर फेंक दीजिए। टीवी महंगा तो कुछ महीनों के बाद फेंक दीजिएगा। आप इस तरह के निष्क्रिय दर्शक कैसे हो सकते हैं, एंकर कोई देवता नहीं हैं। ज्यादातर आवारा और लोफर किस्म के हैं। आप उनकी तैयारी, पढ़ाई और भाषा से समझ सकते हैं। इसके लिए आक्सफोर्ट कैम्ब्रीज जाने की ज़रूरत नहीं है। बाकी आप समझदार हैं। ये मत कहिएगा कि बताया नहीं। वैसे ये बातें कई साल से बता रहा हूं। न आप बदलें न हम।

बाकी ख़बरें