लोकतंत्र में निर्वाचन की प्रक्रिया महत्वपूर्ण है। मनोनयन की नहीं। इस लिहाज़ से राहुल गांधी और अमित शाह दोनों ही मनोनयन से अध्यक्ष बने हैं।निर्वाचन से नहीं। यानी कोई चुनाव नहीं हुआ है। बेशक राहुल गांधी परिवार से आते हैं लेकिन ऐसा नहीं है कि अमित शाह चुनाव से अध्यक्ष बन गए हैं। वे परिवार की जगह किसी की ख़ास पसंद के कारण बनते हैं। मैं इसे यारवाद कहता हूं। परिवारवाद और यारवाद में अंतर हो सकता है मगर दोनों के अध्यक्ष बनने की प्रक्रिया में कोई अंतर नहीं है। दोनों मनोनित हैं। निर्वाचित नहीं।
अध्यक्ष के तौर पर ख़ुद को राहुल गांधी से अलग बताने वाले अमित शाह बता दें कि वे किसके ख़िलाफ़ चुनाव लड़कर अध्यक्ष बने थे? क्या वे संघ और मोदी की पसंद के बग़ैर एक मिनट भी अध्यक्ष पद पर बने रह सकते हैं।
भारत के किसी भी दल में आंतरिक लोकतंत्र नहीं है। सिद्धांत रूप में इसे स्वीकार कर लेने में किसी को दिक्कत नहीं होनी चाहिए। आंतरिक लोकतंत्र का मतलब चयन की प्रक्रिया से है। किसी भी दल में चुनाव नहीं होता है। इस आधार पर भारत के सभी दलों ने निराश किया है, अगर उनके समर्थकों को इन बातों से निराशा होती है तो।
राहुल गांधी ने यूथ कांग्रेस में चुनाव कराने का प्रयास किया और के जे राव पूर्व चुनाव अधिकारी को चुनाव आयुक्त नियुक्त किया था। कई नेता उस चुनाव की प्रक्रिया से चुने गए और बाद में राहुल गांधी ने यह प्रयोग छोड़ दिया। मोदी और अमित शाह बता सकते हैं कि उन दोनों ने इस तरह का प्रयोग किया है या नहीं।
कांग्रेस में सोनिया गांधी को अध्यक्ष बनने के लिए चुनाव का सामना करना पड़ा था। वो चुनाव गंभीर हो गया था। जितेंद्र प्रसाद ने सोनिया गांधी को चुनौती दी थी। जितेंद्र प्रसाद हारे मगर कांग्रेस से निकाले नहीं गए। जितेंत्र प्रसाद कांग्रेस में ही रहे और उनकी पत्नी सांसद चुनाव लड़ी। उनके बेटे शाहजहांपुर से सांसद बने और मंत्री भी बने। मगर सोनिया गांधी को चुनौती देने वाले जितिन प्रसाद का भी एक परिवार बन गया। राजेश पायलट ने भी अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ा था। उनके निधन के बाद पत्नी सांसद बनीं और बेटे सचिन पायलट इस वक्त उप मुख्यमंत्री हैं। गांधी परिवार को चुनौती देने वालों का भी एक परिवार है।
कांग्रेस में परिवारवाद ज़्यादा है मगर किसी और दल में कम है ऐसा नहीं है। भारतीय जनता पार्टी में इस वक्त जयंत सिन्हा खानदानी हैं। निर्मला सीतारमण के ससुर कांग्रेस की सरकार में मंत्री रहे हैं। पति दो बार कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़े। एक बार भाजपा से चुनाव लड़े। तीनों में हार गए। पीयूष गोयल के पिता वेद प्रकाश गोयल भाजपा में थे। रविशंकर प्रसाद के पिता ठाकुर प्रसाद बिहार में संघ को स्थापित करने वाले लोगों में गिने जाते हैं। बीजेपी के उपाध्यक्ष वसुंधरा राजे की मां विजयाराजे बीजेपी की संस्थापक सदस्य थीं। वसुंधरा के बेटे दुष्यंत सांसद हैं। अनुराग ठाकुर प्रेम कुमार धूमल के बेटे हैं। पिता मुख्यमंत्री रहे हैं और पुत्र सांसद। 2017 में यूपी में चुनाव हो रहा था। चंद रोज़ पहले कल्याण सिंह के पोते संदीप को टिकट मिलता है। चुनाव जीतते हैं और सीधे मंत्री बन जाते हैं। संदीप के पिता सांसद हैं। कल्याण सिंह राजस्थान के राज्यपाल हैं। कैलाश विजयवर्गीय ने मध्य प्रदेश विधान सभा चुनाव में अपने बेटे को टिकट दिलवाया। वे विधायक बन गए हैं।
ऐसे अनेक उदाहऱण बीजेपी से दिये जा सकते हैं। हर दल से दिए जा सकते हैं। बीजेपी के सहयोगी दल अकाली दल, लोक जनशक्ति पार्टी, शिव सेना में भी परिवारवाद है। वहां भी ठाकरे की जगह ठाकरे अध्यक्ष हुए हैं और बादल की जगह बादल और पासवान की जगह पासवान। बीजू जनता दल का भी यही हाल है। बीजेपी ने महबूबा मुफ्ती को मुख्यमंत्री बनाया। महबूबा भी परिवारवाद के कोटे से आती हैं। अपना दल में कोई और अध्यक्ष नहीं बनेगा। अनुप्रिया पटेल ही बनेंगी। इस तरह के उदाहरण और दिए जा सकते हैं। राजद, तृणमूल, नेशनल कांफ्रेंस, सपा। इनमें से किसी भी दल में आंतरिक लोकतंत्र नहीं है यानी अध्यक्ष पद का चुनाव नहीं होता है।
क्या प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह ये लाइन ले सकते हैं कि वे अपनी पार्टी के परिवारवाद को खत्म कर देंगे और परिवारवादी दल से कोई गठबंधन नहीं करेंगे? क्या दोनों के लिए परिवारवाद का मुद्दा सिर्फ राहुल और प्रियंका के लिए है? क्या वे इसी आरोप को गांधी, पासवान, ठाकरे, यादव, पटेल, बादल, नायडू का नाम लेते हुए परिवारवाद को खत्म करने की अपील जनता से कर सकते हैं? दोनों की राजनीति ही ख़त्म हो जाएगी।
प्रधानमंत्री मोदी को प्रचंड बहुमत मिला। उन्होंने राजनीति में पारदर्शिता लाने के लिए कुछ नहीं किया। उल्टा कानून पास करवा दिया कि कौन चंदा देगा अब कोई नहीं जान सकेगा। सभी राजनीतिक दलों को जो चंदा मिलता है उसका 50 फीसदी हिस्सा अज्ञात सोर्स से आता है। क्या ये दोनों व्हीप सिस्टम ख़त्म कर सकते हैं? क्यों लोकसभा या राज्यसभा में वोट के समय व्हीप जारी होता है, किसी सांसद को अपने विवेक के आधार पर खिलाफ वोट करने का अधिकार क्यों नहीं है? इसलिए इन दोनों की दिलचस्पी न तो आंतरिक लोकतंत्र लाने में है और न ही पारदर्शिता लाने में। केवल भाषण देने में हैं।
राहुल गांधी भी ऐसा नहीं करेंगे और न अरविंद केजरीवाल। इस वक्त परिवारवाद से तीन ही दल बचे हैं। जद यू, सीपीएम और आम आदमी पार्टी। बसपा को भी आप इस श्रेणी में डाल सकते हैं। कांशीराम के बाद मायावती अध्यक्ष बनी थीं। वो किसी ख़ानदान की नहीं थीं। कांशीराम तमाम उदाहरणों में सबसे पवित्र हैं। अपने परिवार को राजनीति से दूर रखा। उंगली उठाकर किसी को विधायक बना देने वाले कांशीराम ने अपने परिवार के लोगों को विधानसभा या लोकसभा नहीं भेजा। लेकिन मायावती के रहते मायावती ही अध्यक्ष रहेंगी। बसपा की यह विशेषता संकुचित हो चुकी है।
एक सामान्य कार्यकर्ता और नागरिक को परिवारवाद को लेकर चिन्तित होना चाहिए? बिल्कुल होना चाहिए। अगर राजनीति परिवारों के हवाले होती जाएगी तो इसमें नई प्रतिभा का जन्म नहीं होगा। राजनीति बंधक हो जाएगी। जो कि हो चुकी है। इस सवाल को लेकर बेहद ईमानदारी और गंभीरता की ज़रूरत है। परिवारवाद ही नहीं, पैसावाद भी चुनौती है। पैसा नहीं है तो आप ऊपर तक पहुंच ही नहीं पाएंगे।
न्यूयार्क यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर ने एक किताब लिखी है। अपने शोध में बताया है कि 2004,2009, 2014 में लोकसभा के करीब 20 से 30 सांसदों की पृष्ठभूमि ख़ानदानी थी। गनीमत है कि लोकसभा के स्तर पर यह बीमारी अभी फैली नहीं है। अभी भी 80 फीसदी सांसद ग़ैर पारिवारिक पृष्ठभूमि से आ रहे हैं।
एक नागरिक और कार्यकर्ता के रूप में सतर्क रहना चाहिए कि राजनीति चंद परिवारों के हाथ में न रह जाए। लेकिन इस सवाल पर बहस करने के लिए योग्य न तो अमित शाह हैं, न नरेंद्र मोदी और न राहुल गांधी। सिर्फ जनता इसकी योग्यता रखती है जिसका कोई परिवार नहीं होता है। जब तक ये नेता कोई साफ लाइन नहीं लेते हैं, परिवारवाद के नाम पर इनके बकवास न सुनें। टीवी बंद कर दें। क्या जनता परिवारवाद, यारवाद और पैसावाद को लेकर चिन्तित है? जनता ही बता सकती है।
अध्यक्ष के तौर पर ख़ुद को राहुल गांधी से अलग बताने वाले अमित शाह बता दें कि वे किसके ख़िलाफ़ चुनाव लड़कर अध्यक्ष बने थे? क्या वे संघ और मोदी की पसंद के बग़ैर एक मिनट भी अध्यक्ष पद पर बने रह सकते हैं।
भारत के किसी भी दल में आंतरिक लोकतंत्र नहीं है। सिद्धांत रूप में इसे स्वीकार कर लेने में किसी को दिक्कत नहीं होनी चाहिए। आंतरिक लोकतंत्र का मतलब चयन की प्रक्रिया से है। किसी भी दल में चुनाव नहीं होता है। इस आधार पर भारत के सभी दलों ने निराश किया है, अगर उनके समर्थकों को इन बातों से निराशा होती है तो।
राहुल गांधी ने यूथ कांग्रेस में चुनाव कराने का प्रयास किया और के जे राव पूर्व चुनाव अधिकारी को चुनाव आयुक्त नियुक्त किया था। कई नेता उस चुनाव की प्रक्रिया से चुने गए और बाद में राहुल गांधी ने यह प्रयोग छोड़ दिया। मोदी और अमित शाह बता सकते हैं कि उन दोनों ने इस तरह का प्रयोग किया है या नहीं।
कांग्रेस में सोनिया गांधी को अध्यक्ष बनने के लिए चुनाव का सामना करना पड़ा था। वो चुनाव गंभीर हो गया था। जितेंद्र प्रसाद ने सोनिया गांधी को चुनौती दी थी। जितेंद्र प्रसाद हारे मगर कांग्रेस से निकाले नहीं गए। जितेंत्र प्रसाद कांग्रेस में ही रहे और उनकी पत्नी सांसद चुनाव लड़ी। उनके बेटे शाहजहांपुर से सांसद बने और मंत्री भी बने। मगर सोनिया गांधी को चुनौती देने वाले जितिन प्रसाद का भी एक परिवार बन गया। राजेश पायलट ने भी अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ा था। उनके निधन के बाद पत्नी सांसद बनीं और बेटे सचिन पायलट इस वक्त उप मुख्यमंत्री हैं। गांधी परिवार को चुनौती देने वालों का भी एक परिवार है।
कांग्रेस में परिवारवाद ज़्यादा है मगर किसी और दल में कम है ऐसा नहीं है। भारतीय जनता पार्टी में इस वक्त जयंत सिन्हा खानदानी हैं। निर्मला सीतारमण के ससुर कांग्रेस की सरकार में मंत्री रहे हैं। पति दो बार कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़े। एक बार भाजपा से चुनाव लड़े। तीनों में हार गए। पीयूष गोयल के पिता वेद प्रकाश गोयल भाजपा में थे। रविशंकर प्रसाद के पिता ठाकुर प्रसाद बिहार में संघ को स्थापित करने वाले लोगों में गिने जाते हैं। बीजेपी के उपाध्यक्ष वसुंधरा राजे की मां विजयाराजे बीजेपी की संस्थापक सदस्य थीं। वसुंधरा के बेटे दुष्यंत सांसद हैं। अनुराग ठाकुर प्रेम कुमार धूमल के बेटे हैं। पिता मुख्यमंत्री रहे हैं और पुत्र सांसद। 2017 में यूपी में चुनाव हो रहा था। चंद रोज़ पहले कल्याण सिंह के पोते संदीप को टिकट मिलता है। चुनाव जीतते हैं और सीधे मंत्री बन जाते हैं। संदीप के पिता सांसद हैं। कल्याण सिंह राजस्थान के राज्यपाल हैं। कैलाश विजयवर्गीय ने मध्य प्रदेश विधान सभा चुनाव में अपने बेटे को टिकट दिलवाया। वे विधायक बन गए हैं।
ऐसे अनेक उदाहऱण बीजेपी से दिये जा सकते हैं। हर दल से दिए जा सकते हैं। बीजेपी के सहयोगी दल अकाली दल, लोक जनशक्ति पार्टी, शिव सेना में भी परिवारवाद है। वहां भी ठाकरे की जगह ठाकरे अध्यक्ष हुए हैं और बादल की जगह बादल और पासवान की जगह पासवान। बीजू जनता दल का भी यही हाल है। बीजेपी ने महबूबा मुफ्ती को मुख्यमंत्री बनाया। महबूबा भी परिवारवाद के कोटे से आती हैं। अपना दल में कोई और अध्यक्ष नहीं बनेगा। अनुप्रिया पटेल ही बनेंगी। इस तरह के उदाहरण और दिए जा सकते हैं। राजद, तृणमूल, नेशनल कांफ्रेंस, सपा। इनमें से किसी भी दल में आंतरिक लोकतंत्र नहीं है यानी अध्यक्ष पद का चुनाव नहीं होता है।
क्या प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह ये लाइन ले सकते हैं कि वे अपनी पार्टी के परिवारवाद को खत्म कर देंगे और परिवारवादी दल से कोई गठबंधन नहीं करेंगे? क्या दोनों के लिए परिवारवाद का मुद्दा सिर्फ राहुल और प्रियंका के लिए है? क्या वे इसी आरोप को गांधी, पासवान, ठाकरे, यादव, पटेल, बादल, नायडू का नाम लेते हुए परिवारवाद को खत्म करने की अपील जनता से कर सकते हैं? दोनों की राजनीति ही ख़त्म हो जाएगी।
प्रधानमंत्री मोदी को प्रचंड बहुमत मिला। उन्होंने राजनीति में पारदर्शिता लाने के लिए कुछ नहीं किया। उल्टा कानून पास करवा दिया कि कौन चंदा देगा अब कोई नहीं जान सकेगा। सभी राजनीतिक दलों को जो चंदा मिलता है उसका 50 फीसदी हिस्सा अज्ञात सोर्स से आता है। क्या ये दोनों व्हीप सिस्टम ख़त्म कर सकते हैं? क्यों लोकसभा या राज्यसभा में वोट के समय व्हीप जारी होता है, किसी सांसद को अपने विवेक के आधार पर खिलाफ वोट करने का अधिकार क्यों नहीं है? इसलिए इन दोनों की दिलचस्पी न तो आंतरिक लोकतंत्र लाने में है और न ही पारदर्शिता लाने में। केवल भाषण देने में हैं।
राहुल गांधी भी ऐसा नहीं करेंगे और न अरविंद केजरीवाल। इस वक्त परिवारवाद से तीन ही दल बचे हैं। जद यू, सीपीएम और आम आदमी पार्टी। बसपा को भी आप इस श्रेणी में डाल सकते हैं। कांशीराम के बाद मायावती अध्यक्ष बनी थीं। वो किसी ख़ानदान की नहीं थीं। कांशीराम तमाम उदाहरणों में सबसे पवित्र हैं। अपने परिवार को राजनीति से दूर रखा। उंगली उठाकर किसी को विधायक बना देने वाले कांशीराम ने अपने परिवार के लोगों को विधानसभा या लोकसभा नहीं भेजा। लेकिन मायावती के रहते मायावती ही अध्यक्ष रहेंगी। बसपा की यह विशेषता संकुचित हो चुकी है।
एक सामान्य कार्यकर्ता और नागरिक को परिवारवाद को लेकर चिन्तित होना चाहिए? बिल्कुल होना चाहिए। अगर राजनीति परिवारों के हवाले होती जाएगी तो इसमें नई प्रतिभा का जन्म नहीं होगा। राजनीति बंधक हो जाएगी। जो कि हो चुकी है। इस सवाल को लेकर बेहद ईमानदारी और गंभीरता की ज़रूरत है। परिवारवाद ही नहीं, पैसावाद भी चुनौती है। पैसा नहीं है तो आप ऊपर तक पहुंच ही नहीं पाएंगे।
न्यूयार्क यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर ने एक किताब लिखी है। अपने शोध में बताया है कि 2004,2009, 2014 में लोकसभा के करीब 20 से 30 सांसदों की पृष्ठभूमि ख़ानदानी थी। गनीमत है कि लोकसभा के स्तर पर यह बीमारी अभी फैली नहीं है। अभी भी 80 फीसदी सांसद ग़ैर पारिवारिक पृष्ठभूमि से आ रहे हैं।
एक नागरिक और कार्यकर्ता के रूप में सतर्क रहना चाहिए कि राजनीति चंद परिवारों के हाथ में न रह जाए। लेकिन इस सवाल पर बहस करने के लिए योग्य न तो अमित शाह हैं, न नरेंद्र मोदी और न राहुल गांधी। सिर्फ जनता इसकी योग्यता रखती है जिसका कोई परिवार नहीं होता है। जब तक ये नेता कोई साफ लाइन नहीं लेते हैं, परिवारवाद के नाम पर इनके बकवास न सुनें। टीवी बंद कर दें। क्या जनता परिवारवाद, यारवाद और पैसावाद को लेकर चिन्तित है? जनता ही बता सकती है।