क्या सरकारी कर्मचारियों की संख्या कम करना शानदार उपलब्धि है?

Written by Ravish Kumar | Published on: July 18, 2019
फाइनेंशियल एक्सप्रेस की ख़बर है कि मंगलवार को गृहमंत्री अमित शाह की अध्यक्षता में मंत्रियों के समूह की बैठक हुई थी। इसमें BSNL और MTNL जैसी सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को पटरी पर लाने के उपायों पर विचार किया गया। अब स्पेक्ट्रम बेचकर पैसा कमाने के सरकार के दिन लद गए हैं। अब इसकी संभावना बहुत कमज़ोर हो चुकी है कि सरकार टेलिकाम स्पेक्ट्रम अधिक दाम पर बेचकर खज़ाना भर सकेगी। सरकार के सामने यह सवाल है कि क्या इन कंपनियों में पैसा डाला जाए या फिर बंद कर दिया जाए।



एक विकल्प है कि BSNL और MTNL को 4 जी स्पेक्ट्रम दे दिया जाए। लेकिन इससे भी ये कंपनियां पटरी पर नहीं आएंगी। BSNL ने आखिरी बार 2008 में मुनाफा कमाया था। उसके बाद से यह कंपनी 82,000 करोड़ का घाटा झेल चुकी है। दिसंबर 2018 तक यह आंकड़ा 90,000 करोड़ के पार जा सकता है। इसके कर्मचारियों पर राजस्व का 66 प्रतिशत खर्च होने लगा है जो 2006 में 21 फीसदी था और 2008 में 27 फीसदी था।

प्राइवेट टेलिकाम कंपनियों में कर्मचारियों पर राजस्व का 5 प्रतिशत ही ख़र्च होता है। कभी BSNL के पास 37,200 करोड़ का कैश भंडार था। आज यह 8600 करोड़ के घाटे में है। इसी पर फाइनेंशियल एक्सप्रेस के संपादक सुनील जैन ने ट्विट किया है कि एक ही रास्ता है कि 80 फीसदी कर्मचारी हटा दिए जाएं। इस 80 फीसदी में कई हज़ार कर्मचारी आते हैं।

बिजनेस स्टैंडर्ड में एक के भट्टाचार्य का लेख है। 2014 में जब मनमोहन सिंह ने सरकार छोड़ी तब कर्मचारियों की संख्या 34.5 लाख थी। मोदी सरकार ने तीन साल तक शानदार काम किया और कर्मचारियों की संख्या घटाकर 32.3 लाख कर दिया। कर्मचारियों की संख्या घटाने की तारीफ़ की गई है। भट्टाचार्य लिख रहे हैं कि मोदी सरकार ने 2014-15 में कर्मचारियों की संख्या में 4 प्रतिशत की कटौती कर दी। मगर उसके बाद कर्मचारियों की संख्या घटाने की रफ्तार कम होती चली गई। फिर भी तीन साल के भीतर ढाई लाख कर्मचारियों की संख्या घटना शानदार उपलब्धि थी। फिर भी मोदी सरकार सरकारी कर्मचारियों की संख्या घटाने में वाजपेयी सरकार के आगे कहीं नहीं ठहरती है। वाजपेयी सरकार ने 2000-01 में 13 प्रतिशत कर्मचारी कम कर दिए थे। 2011-12 में मनमोहन सिंह ने 6.2 प्रतिशत की कटौती की थी।

लेखक को चिन्ता है कि मोदी सरकार ने अपनी उपलब्धियों को आखिर के दो साल में पानी फेर दिया। जब सरकारी कर्मचारियों की संख्या बढ़ने लगी। 2018-19 तक आते आते सरकारी कर्मचारियों की संख्या 36 लाख से अधिक हो गई। इस बात पर ए के भट्टाचार्य चिंतित हैं। आयकर विभाग, पुलिस, रेलवे और नागरिक सुरक्षा में आखिरी साल में दो लाख से अधिक कर्मचारी भर्ती किए गए। रेलवे में 99,000 वेकेंसी आई।

ए के भट्टाचार्य हिन्दी न्यूज़ की दुनिया से नहीं है वर्ना वे प्राइम टाइम की नौकरी सीरीज़ को भी दोषी ठहराते कि महीनों दिखाने से सरकारें दबाव में आ गईं और चुनाव को देखते हुए भर्तियां निकलाने लगीं। मैं बच गया। इतने पर भी लेखक इस सवाल का जवाब पूछ रहे हैं कि क्या चुनाव के कारण ऐसा किया गया। बिल्कुल चुनाव के कारण किया गया तभी तो युवाओं ने मोदी सरकार को वोट किया। नौकरी मिली और नौकरी मिलने की उम्मीद में। शुरू के तीन साल में जो नौकरियां नहीं निकलीं, उसका गुस्सा बढ़ता जा रहा था। आखिरी वक्त में भर्तियां निकालने से युवाओं की नाराज़गी कम हुई।

ए के भट्टाचार्य को सवाल यह पूछना चाहिए था कि क्या शुरू के तीन साल में युवाओं को नौकरियां नहीं चाहिए। ये और बात है कि इस सवाल से युवाओं को फर्क नहीं पड़ता है। वे तब भी प्रधानमंत्री मोदी को ही वोट देते फिर भी एक लेखक को किसके पक्ष में खड़ा होना चाहिए। नौकरी के या नौकरी की कटौती के। पूछना चाहिए कि सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों का हाल खस्ता किसके कारण हुआ, और इसका लाभ किसे मिला, इनके बेचने पर किसे लाभ मिलेगा। लेखक ने लिखा है कि मोदी सरकार ने एक सार्वजनिक कंपनी की हिस्सेदारी दूसरी सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी को बेचकर दो लाख करोड़ से अधिक की कमाई की मगर निजीकरण नहीं किया। मनमोहन सिंह ने भी 90,000 करोड़ की कमाई की मगर निजीकरण नहीं किया।

आज सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां चरमरा गईं हैं। इनकी नौकरी की चमक फीकी हो गई है। बैंकों की भी हो गई है। यह सब लिखने का यह मतलब नहीं है कि बैंक से लेकर सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारी मोदी विरोधी हो जाएंगे या थे लेकिन आर्थिक प्रक्रियाओं को दर्ज तो करना ही होता है। मैं खुद जानता हूं कि बैंक सेक्टर के लोगों ने मोदी सरकार को पूरा समर्थन दिया है। सवाल यह पूछा जाना चाहिए कि क्या इस समर्थन से उत्साहित होकर इस बार मोदी सरकार इन कर्मचारियों पर मेहरबानी बरसाएगी?

बिजनेस अखबारों को पढ़ा कीजिए। उनमें इसकी वकालत की जा रही है कि कर्मचारियों को निकाला जाए। सरकार के ख़र्चे का बोझ कम किया जाए। तभी कहता हूं कि हिन्दी के पाठकों को बिजनेस की ख़बरों को समझना चाहिए। इस तर्क का अंध विरोध करने से पहले परिस्थितियों को भी समझना होगा। आज सरकार के पास पैसे नहीं है। उसने कमाने के लिए जो बान्ड जारी किए हैं उसी से वह उपभोक्ताओं को मुनाफा नहीं दे पा रही है। अब वह विदेशों से बान्ड खरीदने जा रही है। दुनिया की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है। अगर विदेशों में बान्ड बेचकर पैसा नहीं आया तो सरकार के सामने क्या चुनौतियां होंगी। यह समझना होगा।

बिजनेस स्टैंडर्ड लगातार रिपोर्ट कर रहा है कि सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों और प्राइवेट कंपनियों का मुनाफा घटता जा रहा है। उनके कर्ज़े का बोझ बढ़ता जा रहा है। सभी सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों का कुल कैश 12.8 प्रतिशत कम हो गया। उनका कर्ज़ा 13.5 प्रतिशत बढ़ गया है। इन कंपनियों में सरकार की हिस्सेदारी ही अधिक है। लिहाज़ा घाटा सरकार को होगा। इन कंपनियों का वैल्यू कम होगा, बेचने पर भी दाम कम मिलेंगे। फिर सरकार का घाटा और ज़्यादा बढ़ेगा।

बिजनेस स्टैंडर्ड अपने संपादकीय में सरकार को श्रेय देता है कि उसने इन कंपनियों को संभालने की बात की है। कहा है कि वह रणनीतिक विनिवेश करेगी। लेकिन सरकार सारा ज़ोर विनिवेश के ज़रिए कैश हासिल करने पर न दे बल्कि इन कंपनियों को आज के बाज़ार से कमाई करने के लिए सक्षम बनाए।

आने वाले दिन चुनौतियों भरे हैं। अगर इस प्रक्रिया में देरी हुई तो नौकरियां और कम होंगी। जिनकी हैं उनकी खराब होगी। सैलरी नहीं बढ़ेगी और उल्टा जा भी सकती है। यह तो किसी के साथ नहीं होना चाहिए।

आज के ही अख़बार में छपा है कि सुज़लॉन कंपनी ने 172 मिलियन डॉलर लोन के डिफाल्ट का एलान किया है। अब इसका असर बैंकों पर तो पड़ेगा ही। आज कल लाख, करोड़ लिखने का चलन बंद हो गया है। सरकार भी मिलियन और ट्रिलियन बोलने लगी है। बिजनेस स्टैंडर्ड में यह भी ख़बर है कि सरकार ने जो बान्ड जारी किए हैं उनका रिटर्न 30 महीने में सबसे कम है।

इस बीच वित्त राज्य मंत्री अनुराग ठाकुर ने राज्य सभा में बताया है कि मुद्रा लोन का 17,651 करोड़ एन पी ए हो गया है। प्रतिशत में तो 2 प्रतिशत ही है लेकिन 17,651 करोड़ का एनपीए कम नहीं होता है। मंत्री ने कारण भी बताए हैं। बिजनेस फेल हो गया। लोन देने की प्रक्रिया का ठीक से पालन नहीं हुआ। अब मंत्री यह तो नहीं बताएंगे कि बैंकों पर मुद्रा लोन देने का दबाव डाला गया। स्थानीय स्तर पर राजनीतिक हस्तक्षेप की मदद से लोन दिलाए गए। बीजेपी यह तो बताती है कि मुद्रा लोन देने से कितनों को रोज़गार मिला लेकिन यह भी बता सकती है कि 17,651 करोड़ का लोन एनपीए हुआ, बिजनेस फेल हुए तो कितनों का काम छिन गया।

आर्थिक ख़बरों में ख़ुद को सक्षम कीजिए। इससे बेहतर समझ मिलेगी कि आपका भविष्य किस दिशा में जा रहा है। सरकार के सामने चुनौतियां हैं मगर उसकी भाषा में चिन्ता बिल्कुल नहीं है। होनी भी नहीं चाहिए। जनता आर्थिक नतीजों को न समझती है और न ही इसके आधार पर जनमत का निर्माण करती है। भले ही नौकरियां न हो, लेकिन जय श्री राम बोलकर राजनीति का टोन सेट तो किया ही जा सकता है। यह एक सफल फार्मूला भी है।

इस सवाल पर सोचिए कभी कि आखिर हिन्दी जगत में इन खबरों पर चर्चा क्यों नहीं होती है। क्यों नहीं बिजनेस के अच्छे अखबार है। होते भी तो उनमें भी यही वकालत होती कि सरकार जल्दी से अपने कर्मचारियों की संख्या घटाए। कर्मचारियों की संख्या घटती तो उनके संपादक लिखते कि सरकार ने शानदार काम किया है। फिर इसे हिन्दी का पाठक और मतदाता कैसे पढ़ता, क्या वह भी इन संपादकों की तरह स्वागत करता है। कस्बों में ये बातें पहुंचनी चाहिए।

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