मधुमेह के रोगियों के पाँव जल्दी ही बहुत ख़ूबसूरत होंगे, ज़मीन पर रखने लायक !

Written by Ravish Kumar | Published on: October 22, 2018
1701 में येल यूनिवर्सिटी की बुनियाद पड़ी थी। चार सौ साल की यात्रा पूरी करने वाली इस यूनिवर्सिटी की आत्मा ब्रिटेन के ऑक्सफ़ोर्ड में बसती है। जबकि है अमरीका के न्यू हेवन शहर में। यहाँ दो दिनों से भटक रहा हूँ । आज भटकते हुए बायो-मेकानिक्स की प्रयोगशाला में पहुँचा। यहाँ तीन भारतीय छात्र नीलिमा, निहव और अली हमारे पाँव और उँगलियों की स्थिरता और उसके ज़रिए लगने वाले बल के बीच संतुलन का अध्ययन कर रहे हैं। अली मेकेनिकल इंजीनियर हैं। निहव फ़िज़िक्स के छात्र और नीलिमा बायो टेक्नॉलजी की। अलग अलग विषयों से स्नातक होने के बाद ये तीन इस लैब में पहुँचे हैं। वत्सल चाहते थे कि इनके लैब में चला जाए वहाँ दूसरी तरह की सोशल साइंस से मुलाक़ात होगी।



आप इन तस्वीरों में जिस छोटे से कमरे को देख रहे हैं उसमें दस करोड़ से भी अधिक के उपकरण लगे हैं। एक सेकेंड में एक लाख फ़्रेम कैप्चर करने वाले महँगे कैमरे हैं तो सपाट पाँवों का अध्ययन करने के लिए बेहद महँगी ट्रेड मिल। यह कमरा इन तीनों का जीवन है जहां हमारे जीवन को बेहतर करने के उपाय खोजे जा रहे हैं। इन तीनों से जो सीखा वो आपसे साझा कर रहा हूँ।

अली हमारे पाँव के तलवे की सपाट सतह ( Flat feet ) का अध्ययन कर रहे हैं। अमरीका में पुराने अध्ययन के अनुसार बीस प्रतिशत लोगों के पाँव के तलवे सपाट हैं। मधुमेह की बीमारी ऐसे सपाट तलवे वालों के लिए तबाही से कम नहीं। भारत में मधुमेह के मरीज़ों की आबादी हम जानते हैं। यह भी जानते हैं कि मधुमेह के कारण पाँव में घाव हो जाते हैं। मगर हम यह नहीं जानते कि सपाट पाँव की वजह से पाँव में अल्सर हो जाता है। जिसके कारण पाँव काटने पड़ जाते हैं। अमरीका में दुर्घटना के बाद अल्सर के कारण सबसे अधिक पाँव काटने की नौबत आती है। भारत में तो यह संख्या और भी ज़्यादा होती होगी लेकिन हम नहीं जानते।

अली ने बताया कि मधुमेह के आख़िरी चरण में भी पाँव सपाट हो जाता है। तब शरीर का भार अलग तरीक़े से पूरे पाँव पर पड़ने लगता है। इसी ग़लत लोडिंग के कारण अल्सर होता है। तो अली का अध्ययन इसका समाधान खोज रहा है कि कैसा जूता बने या शरीर की गतिविधियों में क्या बदलाव लाया जाए कि पाँव सपाट न हो और यदि हो तो ग़लत लोडिंग से घाव न हो। फिर काटने की नौबत न आए। किस तरह से एड़ी और उँगलियों के बीच मेहराबदार ऊँचाई बनी रहे। अली का अध्ययन लक़वे के शिकार मरीज़ों को फिर से खड़ा करने या चलने के लायक बनाने के काम आ सकता है। अली को इंसानी शरीर के चार पाँव मिले हैं। साक्षात। मौत के बाद जो शरीर अस्पतालों को दान दी जाती है उसी से काट कर। अली पता लगा रहे हैं कि कौन सा लिगमेंट रिपेयर हो सकता है जिससे मधुमेह के मरीज़ों के पाँव ठीक हो सके। लिगमेंट दो हड्डियों के बीच जोड़ने वाली कोशिकाएँ होती हैं। जिन्हें अंग्रेज़ी में सेल्स कह सकते हैं। समझने के लिए।

अली ने बताया कि कई देशों की सेनाओं में सपाट पाँव वालों की भर्ती नहीं होती है। शायद भारतीय सेना में भी। क्योंकि ऐसे पाँव वाले लोग तेज़ भाग नहीं पाते और जल्दी चोटिल हो जाते हैं। मैक्सिको में ‘तारा हमारा’ नाम की एक जनजाति है जो पथरीली ज़मीन पर दो सौ मील तक भाग लेती है। इनके बीच एक गाँव से दूसरे गाँव दौड़ कर जाने की परंपरा है। इन सब सामाजिक और वैज्ञानिक अनुभवों के आधार पर क्या कोई जूता ऐसा बन सकता है जो सपाट पाँव वाले मधुमेह के मरीज़ों को नया जीवन दान दे सके, इसी का सपना इस कमरे में तैर रहा है।

नीलिमा ने बताया कि कई बार बुजुर्ग लोग या नौजवान भी चीज़ों को उठाते समय संतुलन खो देते हैं। बुज़ुर्गों में हाथ काँपने की बीमारी आम होती है। नीलिमा हमारी माँस-पेशियों की गतिविधियों को जानने में लगी हैं। कई बार हमारी उँगलियाँ संतुलित होती हैं, स्थिर होती हैं मगर बल सही से नहीं लगा पातीं। अगर कमजोर उँगलियों के लिए कुछ ऐसा सहारा बना दिया जाए जिससे गिलास या पेन उठाने के बाद छूट कर नीचे न गिरे। इससे इंसान का आत्म विश्वास लौट आएगा। उठाना और उसे उठाए रखना दो अलग अलग बातें हैं। नीलिमा ने कहा कि उठाने का संबंध स्थिरता ( stability) से है और उठाए रखने का ताक़त ( force) से।

इन दोनों के बीच निहव कृत्रिम पाँव या हाथ बनाने पर रिसर्च कर रहे हैं। कई बार ऐसे पाँव बनाते समय स्थिरता का ध्यान तो रखा जाता है मगर बल( force) का नहीं। तीनों कई साल से इस काम में लगे हैं। इनके प्रोफेसर या गाइड मधुसूदन वेंकटेशन भी भारतीय हैं। तीनों के साथ बात करते करते आज काफ़ी कुछ जाना। कोई भी इनके काम को जानना चाहे तो ज़रूरी नहीं कि आप दोस्त ही हों। बस भटकते हुए इनके लैब आ जाएँ, बाहर बक़ायदा पोस्टर लगा है। स्केच से समझाया गया है कि कमरे के अंदर क्या काम हो रहा है। आप इस पोस्ट के साथ सभी तस्वीरों को ज़रूर देखें।

यह सब इसलिए भी बता रहा हूँ कि भारत में भी कई यूनिवर्सिटी हैं जिनका क्षेत्रफल काफ़ी बड़ा है। लोकेशन भी शानदार है। क़स्बों तक में लोगों ने कालेज के लिए ज़मीन दान दी और अपने जीवन की सारी कमाई लगाई। इनमें से कइयों की उम्र भी सौ साल से अधिक की हो चुकी है मगर इनकी क्या हालत है इसे लेकर कोई चिन्ता ही नहीं है। हमने बहुत जल्दी धीरज खो दिया।दो दिन पहले फ्रांस से एक रिश्तेदार आईं थीं। बता रही थीं कि पन्त नगर कृषि विश्वविद्यालय से ही आर्गेनिक खेती का मॉडल निकला जिसे कई जगहों पर अपनाया गया। आज पन्त नगर कृषि विश्वविद्यालय की कई एकड़ जमीन पर अवैध क़ब्ज़े हो चुके हैं। उसकी तरफ़ किसी का ध्यान भी नहीं आप मद्रास यूनिवर्सिटी, बीएचयू, जेएनयू या विश्वभारती घूम आएँ । क्या नहीं है वहाँ। बस यूनिवर्सिटी की आत्मा नहीं है।

बीएचयू अब सिर्फ धार्मिक भावुकता पैदा करती है। जे एन यू को लेकर दोयम दर्जे की राजनीतिक भावुकता। बाक़ी कई सारी यूनिवर्सिटी कुछ भी पैदा नहीं करती हैं। उन पर कोई सरकार बुलडोज़र भी चलवा दे तो छात्र उफ़्फ़ नहीं करेंगे। लाखों छात्र कालेज में एडमिशन लेते हैं मगर बग़ैर कालेज की ज़िंदगी जी कर बाहर आ जाते हैं। यह पोस्ट येल की महिमा के लिए नहीं है, हमारी आपकी दुर्दशा पर बात करने और रास्ता निकालने पर विचार के लिए है। काश हम सबके जीवन में एक अच्छी यूनिवर्सिटी की यादें होतीं।

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