फकीरा चल चला चल

Written by Rakesh Kayasth | Published on: February 21, 2017

प्रश्न गहरा है— मांगना क्या है? सवाल अगर दर्शनशास्त्र से जुड़ा हो तो जवाब हो सकता है- मांगना धर्म है। समाजशास्त्र से जुड़ा है तो जवाब होगा— मांगना आदत है। सवाल इतिहास का है तो फिर मांगना हमारी परंपरा है और अगर सवाल व्याकरण का है तो फिर मांगना एक क्रिया है।

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अब अगला प्रश्न- मांगना अच्छा है या बुरा? यह निर्भर इस बात पर है कि क्या मांगा जा रहा है। उदाहरण के लिए वोट मांगना अच्छा है लेकिन भीख मांगना बुरा। लेकिन कोई फकीर वोट मांगने निकल पड़े तो? उसका मांगना अच्छा कहलाएगा या बुरा, मांगी गई चीज़ वोट कहलाएगी शुद्ध भीख? मामला थोड़ा पेचीदा है। अंतिम निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए  देखना पड़ेगा कि फकीर का ट्रैक रिकॉर्ड क्या है। वह फकीर पहले से ही फकीर था या नया-नया बना है। इस केस में कुछ लोग कह सकते हैं कि फकीर ने नया-नया झोला उठाया है, पहले उसे नई दिल्ली रेलवे स्टेशन या मुंबई सेंट्रल जैसी किसी भी जगह पर मांगते हुए किसी ने देखा नहीं। उसके पास कार्ड स्वैपिंग मशीन तक नहीं है जो आजकल मंगता होने की एक अनिवार्य शर्त है।

ऐसे में दलील को मजबूती मिलती है कि सूडो इंटलेक्चुल्स के देश का प्रधान फकीर भी सूडो है। लेकिन एक दूसरा तबका भी है जो फकीर से हमदर्दी रखता है। ये तबका मानता है कि फकीरी का पुराना रिकॉर्ड भले ना हो लेकिन बेचारा जरूरतमंद है, वर्ना नगरी-नगरी द्वारे-द्वारे घूमकर भला कौन इस तरह अपनी छीछालेदर करवाता है। दूसरी उल्लेखनीय बात है, मांगने की शैली जो यकीनन पेशेवर है। कोई भी मान लेगा कि वोट की शक्ल में सचमुच भीख ही मांगी जा रही है। अगर यह भीख है तो फकीर के फकीर होने का दावा सौ प्रतिशत सच्चा है। ज़ाहिर है इस दावे पर सवाल उठाने वाले भारत की महान भिक्षाम देही परंपरा का अपमान  कर रहे हैं जो एक तरह का  देशद्रोह है। 

गौर करें तो पता चलता है कि फकीर की गंगी-जमनी तहजीब में अपार श्रद्धा है। उसका बस चले तो वो दिल्ली के नये नवेले दारा शिकोह मार्ग पर परमानेंटली बैठा रहे, लेकिन अफसोस वहां अभी चुनाव नहीं हो रहे हैं। सूफी परंपरा में उसकी गहरी आस्था है। वह दिवाली-ईद और कब्रिस्तान-श्मशान की बात एक साथ करता है। इतना ही नहीं वह एक माना हुआ नजूमी भी है। पूरे देश की जन्मकुंडली उसकी झोली में है। चिमटा खड़काकर वो दुआएं दे सकता है और खाली हाथ लौटानेवालों की पीठ पर चिमटा जमा भी सकता है। हठयोगी से लेकर अघोरी तमाम भारतीय परंपराओं में साधु-फकीरो के मूड स्विंग की अनगिनत कहानियां प्रचलित हैं। अपना फकीर भी कुछ ऐसा ही है। मूड हो तो लोगो की भीड़ में हज़ारों करोड़ उसी तरह लुटा दे जिस तरह किसी मुजरे में कोई रुपये लुटाता है। फकीर का मूड हो तो अपनी सिद्धियों का प्रयोग करके तिजोरी में रखे तमाम रुपयों को रद्धी कागज बना दे,  ठीक उसी तरह जिस तरह सत्यनारायण भगवान ने दंडी स्वामी बनकर साधु बनिये के संपत्ति को लता पत्रों में बदला था। वैसे सुना है कि यूपी वाले बनिये इस बार फकीर से नाराज़ हैं। भिक्षाम देही की पुकार अनसुनी कर रहे हैं। पुकार अनसुनी करने वालों में कई और वर्गों और समूहों के लोग शामिल हैं। ये सब लोग भारतीय परंपरा से अनजान और फकीर के क्रोध से बेपरवाह हैं। फकीर कह चुका है-  मेरा क्या है, झोला उठाउंगा और चल दूंगा। फकीर वाकई चल भी देता, लेकिन जाएगा नहीं। वह बेचारा अपने लिये कहां मांग रहा है?  साई बाबा भी भिक्षा मांगते थे ताकि रोज़ गरीबों का भंडारा कर सकें। फक़ीर पर अनगिनत आश्रितों के भरण-पोषण की जिम्मेदारी है। इसलिए कोई दे ना दे वह इसी तरह मांगता रहेगा क्योंकि  `जिस दिन सोये देर तक भूखा रहे फकीर’ का मर्म उसे अच्छी तरह पता है।
 

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