'न्याय होना जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी है उसका होते हुए दिखना'

Written by Navnish Kumar | Published on: January 13, 2021
कृषि कानूनों को लेकर जिस तरह सुप्रीम कोर्ट सरकार पर बरसी, उसे लेकर इंडियन एक्सप्रेस में 'उन्नी' का एक कार्टून छपा है। कार्टूनिस्ट पीएम मोदी की ओर इशारा करता हुआ कहता है कि (सुनते हो?) न्यायमूर्तियों ने भी कुछ अपने 'मन की बात' की है। कार्टूनिस्ट ही नहीं, बहुतों को सुप्रीम कोर्ट का रुख हैरान कर गया। लोग अचरज में पड़ गए। समझ नहीं पा रहे थे कि सुप्रीम कोर्ट का यह कायापलट है या फिर इसके पीछे कोई और किस्सा है। जिस तरह कोर्ट ने सरकार को फटकार लगायी वह अपने आप में अभूतपूर्व था। यहां तक कि उसने इस कानून के पारित किए जाने पर संसद के तरीके तक पर सवाल खड़ा किया। केंद्र को न सिर्फ गैरजिम्मेदार बताया बल्कि अक्षम तक करार दे डाला। कई लोगों ने इसे किसानों का दिन तक बता दिया।



दरअसल पिछले कुछ समय से कोर्ट का रुख सरकार के फैसलों के साथ ही दिखता रहा है। जब जब सरकार को जैसी जरूरत पड़ी, कोर्ट का रुख उसके मुताबिक-सा ही दिखा। अयोध्या से कश्मीर, नोटबंदी से लॉकडाउन, राफेल से सेंट्रल विस्टा और सीएए से अर्णब गोस्वामी तक कुछ ऐसा ही देखने को मिला। कोर्ट का रुख पंचायती ज्यादा दिखा। इसी से सोमवार को सुप्रीम कोर्ट के सरकार के रवैये पर सवालों ने लोगों को अचरज में डाल दिया था। खैर, कोर्ट में सरकार ने कहा कि ऐसा संदेश नहीं जाना चाहिए कि सरकार हार गई है। फिर क्या था। कृषि कानूनों पर रोक के साथ कोर्ट अपने समझने के लिए कमेटी आदि की बातें करने लगा। दिन ढलते-ढलते किसानों की समझ में भी माजरा आ ही गया और उन्होंने शाम होते होते, कमेटी की किसी भी प्रक्रिया से खुद को अलग कर लिया। 

शायद किसान भांप गए थे कि सुप्रीम कोर्ट भी कमेटी के माध्यम से कानूनों को कथित तौर से परखने और क्या गलत क्या सही को लेकर आखिर में परोक्ष तौर से संशोधन ही चाहता है। जबकि किसानों के आंदोलन की मात्र और मात्र मांग कानून रद्द करने व एमएसपी को कानूनी गारंटी दिए जाने की है। जबकि सरकार बिना कानून रद्द करे, साम दाम दंड भेद की नीति से किसानों के धरने को समाप्त कराना चाहती है। कोर्ट के कमेटी के फैसले से किसानों की आशंका सच साबित हुई और उन्होंने कोर्ट के निर्णय से पहले ही किसी कमेटी का हिस्सा न होने की घोषणा के अनुरूप कमेटी के सामने पेश होने की बात से इंकार कर दिया है। 

शायद सुप्रीम कोर्ट में दूसरा दिन सरकार का दिन था। भले कानूनों पर स्टे से सरकार को झटका लगा हो लेकिन कोर्ट को कानूनों में थोड़े बहुत संशोधन की ओर जाने ने सरकार की बांछे खिला दी है। जबकि कानूनों पर स्टे के बावजूद किसान एकदम निराश दिखे। सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित कमेटी में ज्यादातर सदस्य पहले ही कानूनों का समर्थन कर चुके हैं। बल्कि गुलाटी की अनुशंसा पर तो सरकार कृषि कानून लाने तक का दावा कई बार कर चुके हैं। बहरहाल, कमेटी ने किसानों के सरकार व कोर्ट पर संशय व अविश्वास को और बढ़ाने का ही काम किया है।

किसानों का कहना है कि सरकार ने अपने स्तर पर इस फैसले को लेने की जगह सुप्रीम कोर्ट को आगे कर दिया है। कारपोरेट को भी यह दिखाने के लिए भी हो जाएगा कि यह सरकार का नहीं, सुप्रीम कोर्ट का फैसला है। इसके साथ ही मोदी के अपने व्यक्तित्व का बचाव भी हो जाएगा और पूरा काम सरकार का ही हो रहा होगा। भले इस सब में अब थोड़ी देर लगे। अगर किसी को याद हो तो किसानों के साथ बातचीत में सरकार सिर्फ दो चीजों पर जोर दे रही थी। पहला कि इस मामले में एक एक्सपर्ट कमेटी बना दी जाए जो किसानों को इस कानून के फायदे समझा सके। दूसरा मसले के हल के लिए एक कमेटी बनाने की बात भी सरकार कह रही थी जिसमें विभिन्न पक्षों के लोगों के साथ ही कुछ विशेषज्ञ और नौकरशाही के लोग शामिल हों और विचार-विमर्श के बाद उसके जो भी नतीजे निकले, दोनों पक्ष उसके लिए तैयार हो जाएं। लेकिन किसान सरकार के इन प्रस्तावों से कभी सहमत नहीं हुए। उनकी बस यही मांग थी कानूनों को रद्द करना व एमएसपी के लिए कानून बनाना। खैर, कोर्ट आदेशों के एक दिन पहले ही कमेटी की संभावनाओं को नकारकर किसान संगठन, अपनी दूरदर्शिता पर जरूर गर्व कर सकते हैं लेकिन उनकी मांगों को मानने की मंशा सरकार की नहीं दिखती है। संशोधन जरूर कर सकती है। 

अब सरकार की उसी मंशा को सु्प्रीम कोर्ट पूरा कर रहा है। उसने भी एक कमेटी बनाने का सुझाव दिया है। लेकिन इस कमेटी ने पूरे मामले में कोढ़ में खाज का काम किया है। कमेटी के सभी सदस्य कृषि कानूनों की खुली हिमायत करने वाले हैं।

वैसे भी सु्प्रीम कोर्ट का यह काम नहीं होता है। किसान ठीक ही कह रहे थे कि वे कोर्ट में नहीं जाने वाले। क्योंकि इस मामले में उसकी कोई भूमिका बनती नहीं है। देश के संविधान ने सभी संस्थाओें की भूमिका को परिभाषित कर रखा है। जिसमें कोर्ट की भूमिका कानूनों की इस आधार पर समीक्षा तक सीमित है कि वह संवैधानिक है भी या नहीं। जहां तक नीतिगत मसलों की बात है तो वह सरकार और जनता के बीच का मामला होता है। और नीतिगत संबंधी कोई कानून अगर सरकार ने संसद से पास किया है तो उसकी सीधी जवाबदेही जनता के प्रति होती है। और इस मामले में उसे जनता को ही उसका जवाब देना होगा। इस जिम्मेदारी से वह बच नहीं सकती है। ऐसे में सरकार अगर अपनी जिम्मेदारी की इस कसौटी पर खरी नहीं उतर रही है तो उसे जरूर अपने सत्ता में बने रहने के बारे में सोचना चाहिए।

लेकिन चूंकि सरकार अपनी भूमिका से पीछे हट गई है और उसने सुप्रीम कोर्ट को आगे कर दिया है। साजिशन रचे गए इस जाल में किसानों के फंसने की आशंका है। हालांकि अभी तक किसान सरकार के किसी भी झांसे में नहीं आए हैं और पूरा नेतृत्व बेहद सूझ-बूझ और परिपक्वता से काम कर रहा है। लेकिन जब देश की सभी लोकतांत्रिक संस्थाएं और कारपोरेट मिलकर देश के सबसे सीधे-साधे समझे जाने वाले किसान को शिकस्त देने में जुट जाए तो फिर उसको क्या कहा जा सकता है। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट की साख दांव पर है। न्याय का सिद्धांत भी है कि न्याय होना जितना जरूरी है, उतना ही न्याय का होते हुए दिखना जरूरी है।

हालांकि किसान वह कौम है जिसकी धमक 1857 से लेकर 1947 की आजादी की लड़ाई में सुनी गयी थी। या फिर देश में जब भी कोई बड़ा बदवाल हुआ इसने धुरी का काम किया। ऐसे में एक बार फिर अगर उसने ठान लिया तो यह निजाम क्या पूरी व्यवस्था को बदलने की वह क्षमता रखता है। जहां तक संप्रभुता की बात है तो वह न संविधान में निहित है, न संसद में और न ही न्यायपालिका में। सरकार और कार्यपालिका तो महज कारिंदे हैं। इस देश की संप्रभुता अगर कहीं निहित है तो वह जनता में है। हम भारत के लोग।

सीपीआई (एमएल) ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा है कि कृषि कानूनों पर सुप्रीम कोर्ट का आदेश भारत की जनता के लिए भरोसेमंद नहीं है। पार्टी की केंद्रीय कमेटी की ओर से जारी वक्तव्य में कहा गया है कि कानूनों को किसी भी अदालत द्वारा स्थगित करने या उन पर अस्थायी रोक लगाने के लिए जरूरी होता कि अदालत पाए कि वह कानून संविधान सम्मत नहीं हैं, और अपने आदेश में ऐसा पाने के लिए अपने कारण स्पष्ट करे। कृषि कानून संविधान सम्मत हैं या नहीं, इस बारे में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने आदेश में कुछ नहीं कहा।

पार्टी ने कहा है कि सर्वोच्च न्यायालय ने अपने आदेश में खुद ही इशारा किया है कि स्थगन आदेश का मूल उद्देश्य राजनीतिक है, कानूनी या संवैधानिक नहीं। जैसा कि आदेश में कहा गया है “हम शांतिपूर्ण विरोध को दबा नहीं सकते, लेकिन कृषि कानूनों के स्थगन पर दिया गया यह असाधारण आदेश, किसानों को अपने उद्देश्य में सफ़लता का बोध देगा, कम से कम अभी के लिए किसान संगठनों को प्रेरित करेगा कि वे अपने सदस्यों को रोजमर्रा के जीवन में वापस जाने के लिए मना सके, जिससे उनके जीवन व स्वास्थ्य और अन्यों के जीवन व सम्पत्ति की रक्षा हो सके।”

इस आदेश के इन शब्दों से यह स्पष्ट है कि कानूनों पर रोक लगाने का उद्देश्य केवल कुछ ‘सफ़लता का बोध” देकर आंदोलनकारी किसानों को बिखेर देने का ही है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा संवैधानिक तर्कों की बजाय ऐसे राजनीतिक तर्क के साथ आदेश देना असाधारण घटना है। इस पर सवाल उठने चाहिए और उठेंगे भी।

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