लॉकडाउन- गरीबों का भयानक दुःस्वप्न

Written by Sabrangindia Staff | Published on: April 24, 2020
अब जबकि लॉक डाउन को, अतिमहत्वपूर्ण सेवाओं में थोड़ी छूट के साथ और दिनों के लिए बढ़ा दिया गया है, गरीबों की परेशानियों के जल्दी कम होने की कोई सूरत नजर नहीं आ रही है। लाखों प्रवासी मजदूर, अपने घरों से हजारों किलोमीटर दूर, मेट्रो शहरों में फंस गए हैं। सरकार ने जिस प्रकार की तत्परता से 1800 तीर्थयात्रियों को हरिद्वार से वापस गुजरात, 1000 तीर्थयात्रियों को वाराणसी से वापस महाराष्ट्र, उड़ीसा और दक्षिण भारत में उनके घरों तक या कोटा के कोचिंग संस्थानों में पढ़ने वाले 7500 बच्चों को उत्तर प्रदेश में उनके घरों तक मुफ्त और सुरक्षित पहुँचाया है, उस प्रकार की संवेदनशीलता प्रवासी मजदूरों के मामले में पूरी तरह अनुपस्थित रही। यह बात भी अजीब लगती है कि लॉक डाउन से ठीक पहले या इस दौरान लोगों को पहुँचाने के लिए, सबसे भरोसेमंद यातायात के साधन- रेलवे- का प्रयोग न करके, बसों का इस्तेमाल किया गया, जिसमें दुगने से भी अधिक किराया लगता है, जो कि कामगारों की संख्या की दृष्टि से अपर्याप्त और कई मजदूरों की क्षमता के बाहर था।   



उनकी कमाई शून्य हो गई है और छोटी बचत समाप्त हो गई है। जैसे-जैसे दिन बीत रहे हैं, दिहाड़ी मजदूरों की समस्याएं बदतर होती जा रही हैं। उनके खाद्य भंडार पहले ही समाप्त हो चुके हैं और अब वे पूरी तरह से सरकारी और गैर सरकारी संगठनों की राशन और भोजन की अपर्याप्त आपूर्ति पर निर्भर हैं।

जब छत्तीसगढ़ के एक मजदूर ने भोजन पाने के लिए लखनऊ नगर निगम को फोन किया, तो एक पैकेट परिवार को दिया गया और जब दिन के अगले भोजन के बारे में पूछताछ की गई, तो जवाब मिला कि उन्हें दिन में भोजन मिलने पर कुछ अतिरिक्त ले लेना चाहिए, जो वे रात में भी उपयोग कर सकते हैं। अगले दिन से इस स्थल पर एक बार भी भोजन नहीं पहुंचा। हमने दिल्ली, सूरत और मुंबई में हताशा व आक्रोश की तस्वीरें देखीं। यह असंतोष और भी जगह फैल सकता है क्योंकि भूख किसी कानून का सम्मान नहीं करेगी। शायद सरकार को भी इस चीज का आभास है। तभी तीन हफ्ते पहले लॉक डाउन की घोषणा करने वाले प्रधानमंत्री, जिन्होंने उस समय कहा था कि ’जान है तो जहान है’ को लॉक डाउन की सीमा बढ़ाने की घोषणा करते समय कहना पड़ा कि ’जान भी जरूरी है और जहान भी’।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि उद्योगपति लॉबी सरकार के फैसलों पर भारी असर डालती है और लंबे समय तक लॉकडाउन अवधि उनके हितों को गंभीर रूप से बाधित करेगी। दूसरी ओर, मध्यम और उच्च वर्ग के स्वास्थ्य की चिंता, जो भारतीय जनता पार्टी के प्रमुख समर्थक हैं, सरकार को लॉकडाउन को पूरी तरह से उठाने का कठोर निर्णय लेने की अनुमति नहीं देगा। इसलिए, हम आने वाले हफ्तों में और अधिक कार्यालयों और औद्योगिक क्षेत्रों को, आंशिक तौर, पर पुनः काम शुरू करते हुए देख सकते हैं। यह संगठित क्षेत्र के कर्मचारियों को राहत देगा।

लेकिन असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के लिए आने वाले दिनों में हालात सुधरने वाले नहीं हैं। साथ ही सरकार, भौतिक दूरी बनाये रखने के सुझाव के चलते, कृषि क्षेत्र में भी मजदूरों के बजाय मशीनों के प्रयोग को प्रोत्साहित कर रही है। सबसे गरीब और कमजोर आबादी लॉकडाउन के प्रतिबन्ध से मुक्त होने वाली अंतिम होगी। बिना पर्याप्त भोजन और अन्य जरूरी चीजों के ये लोग कैसे जीवित रहेंगे, यह एक ऐसा सवाल है, जिसका सामना कोई नहीं करना चाहता।

एक विदेशी मूल के भारतीय अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज ने पहली बार ’द हिंदू’ के एक लेख में सुझाव दिया कि लोगों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए सरकार को भारतीय खाद्य निगम के गोदामों में रखा 7.7 करोड़ टन खाद्य भंडार खोलना चाहिए। राष्ट्रीय चेतना पर यह बात दर्ज नहीं हुई। तब तीन भारतीय अर्थशास्त्रियों, जिनमें से दो नोबेल पुरस्कार विजेता और तीनों संयुक्त राज्य अमेरिका के शीर्ष विश्वविद्यालयों में शिक्षण कार्य करते हैं, ने ’इंडियन एक्सप्रेस’ में एक संयुक्त लेख में यही बात पुनः दोहराई। सरकार ने घोषणा की थी कि प्रत्येक राशन कार्ड धारक परिवार के सदस्य को तीन माह तक मुफ्त में 5 किलो अनाज मिलेगा। इसका वितरण संकट के 3 सप्ताह के बाद - मध्य अप्रैल में शुरू हुआ।

अब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने घोषणा की है कि बिना आधार कार्ड या राशन कार्ड के लोगों को भी राशन मिलेगा। हालाँकि अच्छे इरादों के बावजूद लाल फीताशाही की असंवेदनशीलता के कारण जमीनी स्तर पर इसका क्रियान्वयन ठीक से नहीं हो पाता।

विभिन्न स्थानों से  राशन कार्ड धारकों को राशन मिलने में परेशानियों की शिकायत आ रही है। ’पात्र गृहस्थी’ श्रेणी के परिवार कम कीमत - गेहूं 2 रूपये और चावल 3 रूपये प्रति किलोग्राम की दर से 5 किलो प्रति सदस्य और ’अंत्योदय’ श्रेणी के परिवार उसी दर पर प्रति माह 35 किलो राशन प्राप्त करने के हकदार हैं। जब जिला हरदोई के ग्राम पिपरी नारायणपुर के तीन परिवारों ने आवश्यक दस्तावेजों के साथ राशन कार्ड के लिए ऑनलाइन आवेदन किया तो उचित मूल्य की दुकान के मालिक द्वारा सूचित किया गया कि उनके नाम अस्थाई रूप से राशन वितरित किए जाने वालों की सूची में शामिल किए गए हैं, लेकिन वे 3 महीने बाद राशन प्राप्त कर सकेंगे। गांव चांदपुर फरीदपुर, जिला सीतापुर, के 20 अनुसूचित जातियों के सदस्यों ने राशन कार्ड के लिए आवेदन दिया था। इनमे से केवल 7 परिवारों, जिनकी महिला मुखिया के आधार कार्ड और बैंक खाते थे, के ही आवेदनों को मंजूर किया गया। शेष में से 5 परिवारों जिनकी महिला मुखिया के पतियों के पास आधार कार्ड थे और एक बैंक अकाउंट धारक भी था, और अन्य 8 परिवारों के पास आधार या बैंक खाते कुछ भी नहीं थे, उन सबके आवेदन खारिज कर दिये गये। इसके साथ ही वे सब कम कीमत के राशन और साथ में बैंक खाते में मिलने वाले रूपये 1000 के लाभ जो प्रत्येक राशन कार्ड, श्रमिक कार्ड या जॉब कार्ड धारक को मिल रहा है, से भी वंचित रह गए। लखनऊ शहर की रजिया जिनके पति छोटे पिकअप वाहन के चालक थे एक पक्षाघात के बाद आश्रित हो गए हैं।  रजिया को, मुख्यमंत्री कार्यालय के हस्तक्षेप के बाद, अपने बैंक खाते में रूपये 1000 प्राप्त हो सका। मगर  इसके एक सप्ताह बाद ही वे फिर से फिक्रमंद हैं कि आखिर घर चलाने के लिए और कहां से व्यवस्था करें। इसी तरह जनधन खाते में मिलने वाली रूपये 500 की धनराशि भी अपर्याप्त है।   

उपभोक्ता मामले, खा़द्य एवं सार्वजनिक वितरण मंत्रालय ने जो लोग राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम से बाहर रह गए हैं उन्हें अगले तीन माह तक 5 किलो अनाज, रुपए 21 प्रति किलो की दर से गेहूं व रुपए 22 प्रति किलो की दर से चावल उपलब्ध कराने का निर्णय लिया है। इन्हीं दरों पर राहत कार्यों में संलग्न गैर सरकारी संगठनों को भी खाद्यन्न उपलब्ध कराने का निर्णय लिया गया है। यह इस बात की स्वीकारोक्ति है की नागरिक समाज संगठनों की जरूरतमंद लोगों तक पहुँच, सरकारी तंत्र से बेहतर है। वास्तविकता तो यही है कि प्रवासी मजदूरों, दिहाड़ी मजदूरों, रिक्शे वालों, बंजारों, किन्नरों, यौनकर्मियों- ऐसे हाशिये पर रहने वाले तमाम राशन कार्ड विहीन लोगों को नागरिक समाज संगठनों का ही सहारा है। आज पूरे देश में ये संगठन, सरकार के सहयोग में, पूरे उत्साह से सबसे वंचित लोगों तक राहत सामग्री पहुंचा रहे हैं, जिनके पास कहीं और से कोई मदद नहीं पहुँचती है। इन संगठनों की मुख्य चिंता और प्राथमिकता किसी को भूखा नहीं रहने देना है। उनकी इस प्रतिबद्धता की बराबरी की अपेक्षा सरकारी तंत्र से नहीं है। सरकार आखिर क्यों इन संगठनो से अनाज खरीद जरूरतमंद लोगों को मुफ्त अनाज पहुँचाने की अपेक्षा कर रही है?

यह सच है कि महामारी गंभीर है और कोई भी देश इसे हल्के में नहीं ले सकता है लेकिन भारत की स्थिति बहुत अलग है। हमारी लड़ाई केवल कोरोना के साथ ही नहीं है बल्कि लॉकडाउन के दौरान और बेरोजगारी के कारण पैदा हुई भूख से भी है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के एक सर्वे के अनुसार बेरोजगारी दर 5 अप्रैल 2020 तक बढ़कर 23.4 प्रतिशत हो गई है।

सरकार को उपर्युक्त चार प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों की सलाह पर ध्यान देना चाहिए और उचित मूल्य की दुकानों के सामने कतार में खड़े होने वालों को मुफ्त राशन वितरित करना चाहिए। इस देश में लंबे समय से सार्वजनिक वितरण प्रणाली के सार्वभौमिकीकरण की मांग रही है। आज यह समय की मांग है। संपन्न लोगों से स्वैच्छिक रूप से इस लाभ को त्यागने की अपेक्षा है। यह समझ के बाहर है कि क्यों सरकार ने सार्वजनिक वितरण प्रणाली में अभी भी दो श्रेणियां बना रखी हैं जबकि खाद्यन्न की दर दोनों के लिए समान है और उसने लॉकडाउन के दौरान मुफ्त वितरण के लिए केवल ’अंत्योदय’ श्रेणी को ही क्यों चुना? इसके अलावा एक अतिरिक्त श्रेणी बना दी गयी है, जिसके तहत वे लोग आते हैं जो शायद सबसे अधिक हाशिए पर हैं और इसीलिए बाहर रह गए हैं, जिनसे खुले बाजार की दर पर राशन खरीदने की अपेक्षा की जा रही है। ऐसा प्रतीत होता है कि नौकरशाही अभी भी अपना नियंत्रण नहीं छोड़ना चाहती।

सरकारी आंकड़ों में कहा गया है कि 38.33 करोड़ प्रधान मंत्री जनधन खाते हैं। इसी तरह, महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम के तहत लगभग 12 करोड़ श्रमिक पंजीकृत हैं, जिनके बैंक खाते हैं। पंजीकृत मजदूरों के भी बैंक खाते हैं। अब राशन कार्ड धारकों के बैंक खाते विवरण एकत्र किये जा रहे हैं। सरकार को इन सभी बैंक खातों में लॉकडाउन की अवधि के प्रत्येक दिन के लिए न्यूनतम मजदूरी की दर से राशि हस्तांतरित कर देनी चाहिए। यदि अधिकांश संगठित क्षेत्र लॉकडाउन अवधि के लिए अपना वेतन पाने का हकदार है, तो ऐसा लाभ असंगठित क्षेत्र को भी क्यों नहीं मिलना चाहिए?

संकट और अनिश्चितता की इस घड़ी में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हम सबसे गरीब आबादी को  सुरक्षा का यह भरोसा दे सकें, जैसा कि सरकार ने तीर्थयात्रिओं और विद्यार्थियों के सम्बन्ध में किया है, कि राष्ट्र उनके पीछे खड़ा है और उनको उनके हाल पर नहीं छोड़ा जायेगा।
 
लेखकः प्रवीण श्रीवास्तव, आनंद मैथ्यू, जोसेफ नीतिलाल और संदीप पाण्डेय
(लेखक लखनऊ, वाराणसी के सामाजिक कार्यकर्ता हैं।)

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