क्या जेल में बैठे ही सत्ता के किंगमेकर होंगे लालू यादव ?

Written by Dilip Mandal | Published on: January 18, 2019
इंदिरा गांधी इंटरनेशनल एयरपोर्ट के चमचमाते टर्मिनल-3 में एक स्टोर की मैगज़ीन शेल्फ पर सजी एक इंग्लिश मैगज़ीन का कवर किसी को भी चौंका सकता है. आउटलुक पत्रिका ने अपने कवर पर बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और आरजेडी अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव की तस्वीर छापी है और शीर्षक दिया है – ‘एबसेंटी किंगमेकर.’ इस शीर्षक के नीचे लिखा है कि नया कोटा लाए जाने के बाद पुराने मंडल मसीहा 2019 के चुनाव में चौंका सकते हैं.

ये कवर स्टोरी इस बुनियाद पर लिखी गई है कि 70 साल की उम्र में तमाम बीमारियों को झेलते हुए भी लालू यादव प्रासंगिक बने हुए हैं. कैद के दौरान वे खराब स्वास्थ्य के कारण अस्पताल में हैं, जहां उनसे मिलने देश के बड़े-बड़े विपक्षी नेता आते हैं. साथ ही कोटा को लेकर राजनीति करने में वे माहिर हैं और केंद्र सरकार ने अनरिज़र्व कटेगरी के गरीबों को आरक्षण देकर एक तरह से खेल को जाति की पिच पर पहुंचा दिया है. जेल से ही वे पार्टी को चला रहे हैं और नीतियां बना रहे हैं.

पत्रिका का ये भी मानना है कि उन्हें जमानत मिल सकती है, क्योंकि पार्टी अध्यक्ष होने के नाते वे ही उम्मीदवारों के फॉर्म पर साइन करने के लिए अधिकृत हैं. हालांकि लालू यादव को जमानत मिल पाना न्यायपालिका पर निर्भर करता है और यह कतई ज़रूरी नहीं है कि चुनावों के दौरान लालू यादव बाहर रहें. लेकिन पत्रिका का मानना है कि अगर वे कैद में रहते हैं, तो भी वे राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित करेंगे. अगर लालू यादव बाहर आते हैं और जनसभाओं को संबोधित करते हैं तो ये उनकी पार्टी की ताकत को बढ़ाएगा, क्योंकि वे ज़बर्दस्त वक्ता हैं और जनता से जुड़ने की कला उन्हें आती है.

जिस नेता का मृत्युलेख कई-कई बार लिखा जा चुका है और जिसे राजनीति का चूका हुआ खिलाड़ी बताया जाता है, उस नेता के बारे में देश की एक प्रमुख पत्रिका, जो किसी भी तरह से लालू यादव की समर्थक नहीं है, का लोकसभा चुनाव से ठीक पहले कवर स्टोरी लाना एक महत्वपूर्ण बात है.

इस पत्रिका ने लालू यादव के राष्ट्रीय राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की संभावना जताते हुए जो तर्क दिए हैं, उसके परे देखें तो कुछ और बातें नोट करने लायक हैं.

सेकुलर नेता के तौर पर विश्वसनीयता
लालू यादव भारतीय राजनीति के उन चंद किरदारों में से एक हैं, जिन्होंने बीजेपी से कभी समझौता नहीं किया. चूंकि बीजेपी तीन बार केंद्र में सत्ता में आ चुकी है, इसलिए अलग अलग समय में अलग अलग दल उसके साथ गठबंधन बना चुके हैं या बीजेपी को समर्थन दे चुके हैं. इन दलों की लिस्ट लंबी है. उनमें बसपा, डीएमके, एआईएडीएमके, तेलुगू देशम, पीडीपी, नेशनल कॉन्फ्रेंस, तृणमूल कांग्रेस, राष्ट्रीय लोकदल, अकाली दल, जेडीयू, जेडीएस, एलजेपी, आरएलएसपी, अपना दल, शिव सेना वगैरह शामिल हैं.

सपा ने कभी सीधे बीजेपी से हाथ नहीं मिलाया, लेकिन बीजेपी के विधानसभा अध्यक्ष केशरीनाथ त्रिपाठी की मदद से यूपी में सरकार ज़रूर चलाई है. जिन दलों का बीजेपी से सीधे तौर पर कोई लेना-देना नहीं रहा, उनमें कांग्रेस, वामपंथी दल और आरजेडी ही प्रमुख हैं. यहां लालू कई और नेताओं से अलग नज़र आते हैं. इसलिए किसी भी सेकुलर गठबंधन में लालू प्रसाद यादव की प्रतिष्ठा होती है. ये प्रतिष्ठा नेताओं से लेकर आम जनता तक के स्तर पर है. लालकृष्ण आडवाणी के राम रथ को बिहार में रोकने और आडवाणी को गिरफ्तार करने, नज़रबंद कर लेने के कारण भी लालू यादव की इज़्ज़त है.

बीजेपी से किसी भी कीमत पर हाथ न मिलाने के कारण बीजेपी भी लालू यादव को सच्चे दुश्मन की तरह लेती है. उन्हें बर्बाद करने के लिए कोई कसर बीजेपी ने नहीं छोड़ी है. उनके पीछे सीबीआई लगा दी गई है. हाईकोर्ट ने जब ये कहा कि लालू यादव के खिलाफ सरकारी खजाने से पैसे निकालने के षड़यंत्र में शामिल होने के मुकदमे अलग अलग नहीं चल सकते, तो सीबीआई उनके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट चली गई. केंद्रीय जांच एजेंसियां लालू यादव के परिवार के कई सदस्यों के खिलाफ मुकदमे चला रही है, और उनका जीना मुश्किल कर दिया गया है.

मोदी लहर में बिहार में हार गई बीजेपी
इससे लालू यादव और उनके परिवार की परेशानी बढ़ी है, लेकिन उसी अनुपात में जनता के बीच उनकी स्वीकार्यता बढ़ी है. बाकी कई दलों के नेताओं ने जब सीबीआई से बचने के लिए सरकार के आगे घुटने टेक दिए, तब लालू यादव बीजेपी से भिड़ते रहे. 2015 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने आरक्षण की समीक्षा करने के आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के बयान को चुनाव का प्रमुख मुद्दा बना लिया.

जब देश में तथाकथित मोदी लहर चल रही थी और लोकसभा चुनाव में एनडीए बिहार की 40 में से 31 सीट जीत चुका था, उसके एक साल बाद हुए चुनाव में लालू और नीतीश की जोड़ी ने बीजेपी को चारों खाने चित कर दिया. हालांकि बाद में नीतीश कुमार ने पलटी मार दी, लेकिन वह अलग कहानी है. तीन राज्यों में हाल के विधानसभा चुनाव से पहले, बिहार ही वह राज्य था, जहां नरेंद्र मोदी का विजयी रथ किसी ने रोक दिया था. ज़ाहिर है कि लालू यादव जानते हैं कि बीजेपी को कैसे रोका जा सकता है. धर्म की राजनीति को वे जाति की राजनीति से काट सकते हैं.

इसलिए भी ज़रूरी है कि अगले लोकसभा चुनाव में लालू यादव पर नज़र बनाए रखें. और भी कई लोग ऐसा कर रहे हैं.

(वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल का यह आर्टिकल दिप्रिंट से साभार लिया गया है।)

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