केरल: आदिवासी बस्तियों में बाहरी लोगों के प्रवेश पर रोक, आदिवासी बोले- बस्तियां हैं, चिड़ियाघर नहीं

Written by Navnish Kumar | Published on: June 13, 2022
अभी तक आपने सुना होगा कि वन विभाग या प्रशासन ने आदिवासियों को जंगल से बेदखल कर दिया है या उनके जंगल में जाने और लकड़ी चुनने आदि पर रोक लगा दी है लेकिन केरल सरकार का नया फरमान बहुत ही अजीबोगरीब है। केरल सरकार ने आदिवासियों की बस्तियों में बाहरी लोगों के जाने पर रोक लगा दी है। इसके लिए बाकायदा आदेश निकाला गया है। इस नए आदेश में सरकार ने कहा है कि प्रशासन की अनुमति के बिना केरल की आदिवासी बस्तियों में बाहरी लोगों के प्रवेश पर रोक लगा दी गई है। 



केरल सरकार के अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति कल्याण निदेशालय ने 12 मई को एक आदेश जारी किया है जिसके अनुसार कोई भी बाहरी व्यक्ति आदिवासी बस्तियों में बिना प्रशासनिक अनुमति के नहीं जा सकता है। आदेश में कहा गया है कि शोध के लिए भी अगर कोई आदिवासी गांव में जाना चाहता है तो उसके लिए भी अधिकारियों से अनुमति ज़रूरी होगी।

प्रथम दृष्टया अटपटे से लगने वाले इस आदेश से आदिवासियों के बीच काम करने वाले संगठन और लोग परेशान और नाराज हैं। वहीं आदिवासियों का भी कहना है कि यह आदेश अजीबोग़रीब है। वो कहते हैं कि क्या सरकार हमें चिड़ियाघर में रहने वाला मानती है जो उसके लिए टिकट लगेगा। उधर, आदिवासियों के बीच काम करने वाले कार्यकर्ताओं में भी आदेश को लेकर काफ़ी नाराज़गी है, क्योंकि वो मानते हैं कि ‘यह केरल में आदिवासियों के ज़रूरी मुद्दों पर पर्दा डालने की कोशिश है, और इससे आदिवासी समुदाय शक्तिहीन हो जाएंगे।’ 

हालांकि पिछले साल कोविड 19 को लेकर जरूर बहुत सी आदिवासी बस्तियों में बाहरियों के प्रवेश पर रोक लगा दी गई थी। लेकिन कोविड़ संक्रमण को देखते हुए यह व्यवस्था आदिवासियों द्वारा खुद अपनी ओर से की गई थी। केरल की ही आदिवासी ग्राम पंचायत, एडमालक्कुडी में आदिवासी परिषद के ऐसे ही एक निर्णय ने सभी का ध्यान आकर्षित किया था। क्योंकि यह कोविड-19 को काबू में रखने में कामयाब रहा था। एराविकुलम राष्ट्रीय उद्यान पहली आदिवासी पंचायत एडमालक्कुडी का प्रवेश बिंदु है। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, परप्पायारकुडी के जनजाति प्रमुख ने खुद एडमालक्कुडी में बाहरी लोगों के प्रवेश पर प्रतिबंध लगाने का अनुरोध किया था। एराविकुलम नेशनल पार्क रेंज के अधिकारी जॉब जे नेरियाम्पराम्पिल ने कहा, वन विभाग ने पहले ही एडामालक्कुडी में बाहरी लोगों के प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया है। एडामालक्कुडी तमिलनाडु की सीमा से लगे मुन्नार वन प्रभाग में है। दरअसल गत वर्ष जब महामारी फैली, तो आदिवासी परिषद ने फैसला किया कि बाहरी लोगों को बस्ती में प्रवेश करने की अनुमति नहीं दी जाएगी। 

ग्राम पंचायत के एक पूर्व कर्मचारी जॉर्जकुट्टी ने कहा कि परिषद द्वारा लिए गए फैसलों का हमेशा निवासियों द्वारा पालन किया जाता है, जिनमें से अधिकांश मुथुवन समुदाय के सदस्य हैं। हालांकि जनजातीय परिषदें कभी कभी विवादों में आ जाती हैं क्योंकि वे समुदाय के मानदंडों का उल्लंघन करने के लिए परिवारों को सामाजिक बहिष्कार जैसे दंड देते हैं। लेकिन अबकी स्थिति अलग है। बाद में एडमालक्कुडी का अनुकरण करते हुए, जिले के कई अन्य आदिवासी बस्तियों ने भी बाहरी लोगों पर प्रतिबंध लगाने का फैसला किया है। ईएनपी रेंज के अधिकारी जॉब जे. नेरियमपराम्बिल ने कहा कि परप्प्यारकुडी के 'ऊरुमोप्पन' ने पहले ही पार्क के अधिकारियों से कहा था कि वे बाहरी लोगों को गांव में न आने दें। मरयूर रेंज के अधिकारी एमजी विनोद कुमार ने कहा कि वन विभाग के तहत आने वाली बस्तियों ने बाहरी लोगों को प्रतिबंधित करने का फैसला किया। उन्होंने कहा कि कूडलकट्टुकुडी में, जहां लगभग 600 आदिवासी रहते हैं, कोविड-19 के कोई मामले सामने नहीं आए हैं।

लेकिन केरल की आदिवासी बस्तियों में बाहरी लोगों के प्रवेश पर रोक, का ताजा मामला पूर्णतया अलग है और सामाजिक कार्यकर्ता भी सरकार के इस बेतुके आदेश से नाराज़ है। प्रशासनिक अनुमति के बिना केरल की आदिवासी बस्तियों में बाहरी लोगों के प्रवेश पर रोक लगा दी गई है।आदेश से आदिवासियों के बीच काम करने वाले कार्यकर्ता मानते हैं कि ‘यह केरल में आदिवासियों के ज़रूरी मुद्दों पर पर्दा डालने की कोशिश है।

आदिवासियों को लेकर काम करने वाले मीडिया पोर्टल मैं भी भारत, की एक रिपोर्ट के अनुसार हालांकि, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति कल्याण मंत्री के राधाकृष्णन ने सरकार के इस कदम का बचाव करते हुए कहा कि यह आदिवासियों की रक्षा करने और उन्हें माओवादियों से प्रभावित होने से रोकने के लिए है।

क्या कहता है सरकारी आदेश
12 मई, 2022 को अनुसूचित जनजाति विकास विभाग के निदेशालय ने एक आदेश जारी किया था, जिसने केरल में आदिवासी बस्तियों में गैर-आदिवासी या ‘बाहरी लोगों’ के प्रवेश को प्रतिबंधित कर दिया। आदेश में कहा गया है कि जो कोई भी आदिवासी बस्तियों में प्रवेश करता है, उसे अपने प्रवेश की तारीख से 14 दिन पहले संबंधित अधिकारियों को आवेदन देकर अनुमति लेनी होगी। आदेश में यह भी कहा गया है कि बिना अनुमति के रिसर्च, इंटर्नशिप, फील्ड सर्वे और कैंप आयोजित करने, फिल्म शूटिंग और वीडियोग्राफी की अनुमति नहीं दी जाएगी।

इसके अलावा आदेश में कहा गया है कि परियोजना अधिकारी/आदिवासी विकास अधिकारी, रिसर्च या इंटर्नशिप के लिए ज़्यादा से ज़्यादा एक महीने की अवधि की अनुमति दे सकते हैं। अधिकारियों को यह तय करने का भी अधिकार होगा कि लोग किस आदिवासी बस्ती में जा सकते हैं। एमबीबी की रिपोर्ट के अनुसार, अनुसंधान, क्षेत्र सर्वेक्षण, इंटर्नशिप, फिल्म शूटिंग और वीडियोग्राफी करने की अनुमति के लिए अनुरोध जिला स्तर के विभागों को भेजे जाने हैं, और इसे आगे निदेशालय को भेजा जाएगा, जिसका इस मामले पर फैसला अंतिम होगा। हालांकि, संबंधित अधिकारी (जिला स्तर पर) चिकित्सा ज़रूरतों और सामाजिक कार्यों से संबंधित शिविर आयोजित करने की अनुमति देंगे अगर प्रस्तावित शिविर तीन दिनों से ज़्यादा का नहीं हैं। आदेश के अनुसार तीन दिन से ज़्यादा के शिविरों को अनुमति देने का अधिकार सिर्फ़ निदेशालय के पास है। साथ ही आदिवासी बस्तियों में रात में ठहरने की अनुमति नहीं दी जाएगी। साथ ही आदेश में कहा गया है कि हर रिसर्च/क्षेत्र सर्वेक्षण की रिपोर्ट की एक कॉपी निदेशालय को दी जाए। जो भी इन निर्देशों का पालन नहीं करेगा उसे दोबारा यात्रा करने की अनुमति नहीं दी जाएगी।

आदेश यह भी कहता है कि ‘वामपंथी उग्रवाद’ प्रभावित क्षेत्रों का दौरा करने के लिए पुलिस विभाग से विशेष अनुमति की ज़रूरत होगी। उधर, आदिवासी कार्यकर्ताओं ने सरकार के इस कदम की निंदा की है। एमबीबी के अनुसार वायनाड की आदिवासी नेता के. अम्मिणी, जो आदिवासी महिला आंदोलन की राज्य अध्यक्ष भी हैं, ने एक पत्रिका से कहा है कि “यह केरल में आदिवासी लोगों के मुद्दों पर पर्दा डालने की कोशिश के अलावा और कुछ नहीं है। शोधकर्ता, मीडियाकर्मी और सामाजिक कार्यकर्ता वो लोग हैं जो हमारी समस्याओं को सुनते हैं और इसे बाहरी दुनिया के सामने पेश करते हैं। सरकार इस कदम से उन्हें ऐसा करने से रोकना चाहती है।”

अम्मिणी का आरोप है कि केरल ने अब तक सिर्फ़ आंशिक रूप से वन अधिकार अधिनियम (2006) को लागू किया है। इसके अलावा वो कहती हैं कि सरकार आदिवासी बस्तियों के मुखियाओं की शक्तियों को हथियाने की कोशिश कर रही है। हालांकि फ़ैसले का बचाव करते हुए अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के कल्याण मंत्री के राधाकृष्णन ने कहा कि गैर-आदिवासियों द्वारा आदिवासियों के यौन शोषण की घटनाएं चिंता की बात हैं। उन्होंने कहा कि बाहरी लोगों की निगरानी करने और उनकी आवाजाही नियंत्रित करने की ज़रूरत है। इसके अलावा आदिवासी समुदायों में माओवादियों की घुसपैठ भी इस फ़ैसले के पीछे की एक बड़ी वजह है।

“केरल के कुछ हिस्सों में आदिवासियों की स्थिति दयनीय है, लेकिन वह अपने घरों से शिफ़्ट नहीं होना चाहते हैं। मैं व्यक्तिगत रूप से उन आदिवासियों से मिला हूं जो बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों और मानव-पशु संघर्ष की घटना वाले इलाक़ों से भी बाहर निकलने को इच्छुक नहीं हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि वे माओवादियों के प्रभाव में हैं,” राधाकृष्णन ने कहा।

हालांकि, आदिवासी नेता इस विचार से सहमत नहीं हैं। “बाहरी लोगों द्वारा किया गया यौन शोषण और उत्पीड़न कोई नई समस्या नहीं है। इसलिए यह ठोस कारण नहीं हो सकता,” आदिवासी गोत्र महासभा के संस्थापकों में से एक, गीतानंदन ने कहा। गीतानंदन के मुताबिक़ आदिवासी बस्तियों में बाहरी लोगों को प्रवेश करना चाहिए या नहीं, यह फ़ैसला लेने का हक़ सिर्फ़ आदिवासियों को ही है, न कि किसी आदिवासी विभाग के अधिकारी को। इसके अलावा गीतानंदन को लगता है कि सरकार के नए कदम का अधिकारी दुरुपयोग कर सकते हैं, ताकि मीडियाकर्मियों को गांवों में प्रवेश करने से रोका जा सके और दुनिया को सरकार द्वारा उनके साथ किए जा रहे अन्याय के बारे में न बताया जा सके। लेकिन मंत्री राधाकृष्णन ने इस बात का खंडन किया और कहा कि मीडियाकर्मियों को नहीं रोका जाएगा, और सरकार इस बात का ख़ास ख्याल रखेगी।

लंबे समय से आदिवासियों के बीच काम करने वाले वरिष्ठ पत्रकार श्याम सुंदर ने इसे काफी हद तक दमनकारी आदेश बताते हुए, केरल के मुख्यमंत्री के नाम खुला पत्र लिखा और आदेश को रद्द करने की मांग की। वह लिखते है कि यह आदेश अटपटा और काफ़ी हद तक दमनकारी है। क्या आप कोई ऐसा आदेश ला सकते हैं कि गांव के 3 लोग शहर नहीं जाएंगे, क्योंकि शहर में गांव के लोगों के शोषण का ख़तरा रहता है। अगर नहीं ला सकते हैं तो फिर आदिवासी गांवों में बाहर के लोगों का प्रवेश कैसे बंद कर सकते हैं? बताना चाहता हूं कि केरल की तरक़्क़ी से प्रभावित लोगों में से मैं भी एक हूं। इस राज्य ने शिक्षा और स्वास्थ्य में शुरुआत से ही जो निवेश किया, उसके परिणाम नज़र आ रहे हैं। केरल राज्य मानव विकास सूचकांक के मापदंडों पर अगर बेहतरीन प्रदर्शन कर रहा है तो वहाँ की सरकारों, राजनीतिक दलों, संगठनों और लोगों को इसका श्रेय जाता है  आपने जिस तरह से कोविड महामारी में धैर्य और समझदारी से काम किया उसकी तारीफ़ तो दुनिया भर में हुई है। आपकी सरकार ने हाल ही में लाइफ़ नाम की योजना के तहत लाखों लोगों को पक्के मकान दिए हैं। 

मुझे इस पर कोई आपत्ति नहीं है। अगर कोई सरकार अच्छा काम कर रही है तो उसका प्रचार करने का सरकार को पूरा हक़ है। लेकिन जिस क्षेत्र में सरकार उतना अच्छा काम नहीं कर पा रही है, क्या वहां सूचनाओं को दबा दिया जाना चाहिए। वह भी उस वर्ग से जुड़ी सूचनाएं या रिपोर्ट जो तबका वंचित तबकों में भी सबसे नीचे के पायदान पर है। मैं केरल के आदिवासियों और उससे जुड़े आपके प्रशासन के एक ताज़ा आदेश की बात कर रहा हूं। आपकी सरकार में अनुसूचित जनजाति विकास विभाग ने 12 मई, 2022 को आदेश निकाला है। जिसके अनुसार कोई भी ग़ैर आदिवासी बिना प्रशासन की अनुमति के किसी आदिवासी बस्ती में प्रवेश नहीं कर सकता है।

यह आदेश इतना व्यापक है कि जो रिसर्च, इंटर्नशिप, फ़ील्ड सर्वे या फिर वीडियोग्राफ़ी सब पर पाबंदी लगाता है। आदेश के अनुसार, आदिवासी बस्तियों में प्रवेश से 14 दिन पहले संबंधित अधिकारियों से अनुमति लेनी होगी। अनुमति के बिना रिसर्च, इंटर्नशिप, फील्ड सर्वे, किसी तरह का कैंप, फिल्म की शूटिंग या वीडियोग्राफी नहीं हो सकती है। रिसर्च या इंटर्नशिप के लिए ज़्यादा से ज़्यादा एक महीने की अनुमति मिलेगी। अधिकारी तय करेंगे कि लोग किस आदिवासी बस्ती में जा सकते हैं। अनुसंधान, क्षेत्र सर्वेक्षण, इंटर्नशिप, फिल्म शूटिंग, वीडियोग्राफी की अनुमति निदेशालय से मिलेगी।
3 दिन तक के मेडिकल और सोशल शिविर को आयोजित करने की अनुमति दी जाएगी। 

3 दिन से ज़्यादा के कैंपों की अनुमति निदेशालय से मिलेगी। आदिवासी बस्तियों में रात में ठहरने की इजाज़त किसी को नहीं दी जाएगी। रिसर्च या क्षेत्र सर्वेक्षण की रिपोर्ट की कॉपी निदेशालय को देना ज़रूरी। उल्लंघन करने वाली व्यक्ति को दोबारा यात्रा करने की अनुमति नहीं मिलेगी। ‘वामपंथी उग्रवाद’ प्रभावित क्षेत्रों के लिए पुलिस विभाग की ख़ास अनुमति की ज़रूरत आपकी सरकार के अनुसूचित जनजाति विभाग के मंत्री राधाकृष्णन ने इस आदेश को सही ठहराने के कई तर्क दिए हैं। उनका कहना है कि आदिवासियों को बाहरी लोगों के शोषण से बचाने के लिए यह आदेश जारी किया गया है।

इसके अलावा एक और तर्क उन्होंने दिया है, वो कहते हैं कि कई आदिवासी समुदाय बेहद ख़राब हालातों में जंगलों में रह रहे हैं। इनमें से कुछ बाढ़ग्रस्त इलाक़ों में भी बसे हैं। सरकार उन्हें एक सुरक्षित स्थान पर बसाना चाहती है लेकिन ये आदिवासी जंगल नहीं छोड़ना चाहते हैं। राधाकृष्णन आगे कहते हैं कि इन इलाक़ों में माओवादियों का असर बढ़ रहा है, इसलिए ये आदिवासी जंगल के बाहर नहीं आना चाहते हैं। 

विजयन जी, मैं आदिवासी मामलों पर एक्सपर्ट तो नहीं हूँ, लेकिन पिछले 6 साल से आदिवासियों के बीच घूम रहा हूं। मैंने मंत्री के बयान में कुछ लॉजिक ढूँढने की कोशिश की है। लेकिन अफ़सोस की इस बयान में मुझे सब तर्क अटपटे लगे। इससे पहले कि मैं अपनी बात ख़त्म करूँ आप नीचे की तस्वीर देखिए। यह तस्वीर आंध्र प्रदेश के आरकु घाटी की है जिसमें आपकी पार्टी की पोलित ब्यूरो सदस्य बृंदा करात ‘गिरिजन संघम’ यानि आपकी पार्टी के आदिवासी मोर्चा की रैली का नेतृत्व कर रही हैं। मेरी यात्राओं के दौरान कई राज्यों में आदिवासी इलाक़ों में आपके पार्टी के कई कार्यकर्ताओं और नेताओं से मेरी मुलाक़ात होती रही है।

अब ज़रा सोचिए कि अगर कल को आंध्र प्रदेश या तेलंगाना सरकार या फिर छत्तीसगढ़ या मध्य प्रदेश और ओडिशा कोई भी राज्य इस तरह के आदेश जारी कर दें तो क्या होगा? क्या आपके संगठन आदिवासी इलाक़ों में काम कर पाएंगे। पिनाराई विजयन जी, यह आदेश अटपटा और काफ़ी हद तक दमनकारी भी है। क्या आप कोई ऐसा आदेश ला सकते हैं कि गांव के लोग शहर नहीं जाएंगे, क्योंकि वहां उनके शोषण का ख़तरा रहता है। अगर नहीं ला सकते हैं तो फिर आदिवासी गांव में बाहर के लोगों का प्रवेश कैसे बंद कर सकते हैं?

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