हाउसिंग एंड लैंड राइट्स नेटवर्क (एचएलआरएन) की ओर की गई एक स्टडी ने हैरान करने वाली बात को उजागर किया है. स्टडी के मुताबिक, यह बात सामने आयी है कि साल 2018 में दो लाख से अधिक लोगों को जबरदस्ती उनके घरों से बेदखल किया गया है.
स्टडी रिपोर्ट के अनुसार साल 2018 में 41,730 घरों के तोड़े जाने से 2,02,233 लोगों का जीवन प्रभावित हुआ. इस हिसाब से हर दिन 554 लोग और हर घंटे 23 लोग इससे प्रभावित हुए हैं. इनमें से लगभग आधे मामले ‘स्लम क्लीयरेंस’ (बस्तियां हटाना) या ‘सिटी ब्यूटिफिकेशन’(शहरों का सुंदरीकरण) ड्राइव के अंतर्गत सामने आए. कुछ मामलों में विस्थापन के पीछे का कारण- बुनियादी ढांचा परियोजनाएं, पर्यावरण परियोजनाएं और आपदा प्रबंधन परियोजनाएं बताई गई हैं.
रिपोर्ट के मुताबिक, लगभग सभी बेदखली के मामलों में अधिकारियों ने राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार मानकों द्वारा स्थापित प्रक्रिया का पालन नहीं किया है. इसके अलावा, ज्यादातर मामलों में प्रभावित समुदायों को पहले से नोटिस और उनके सामान को शिफ्ट करने के लिए पर्याप्त समय तक नहीं दिया गया था. अध्ययन के मुताबिक, 173 साइटों में से केवल 53 में ही प्रभावित लोगों को पुनर्वास व्यवस्था या वैकल्पिक आवास दिया गया था.
रिपोर्ट में यह भी कहा गया, ‘जबरन बेदखली और घरों को तोड़ने की घटनाओं का विश्लेषण करने से पता चलता है कि ज्यादातर मामले शहरी गरीबों के घरों को हटाने से जुड़े हुए हैं जिन्हें राज्य और उसकी एजेंसियां ‘अवैध’ या ‘अतिक्रमण’ मानती हैं.
साल 2010 के सुदामा सिंह मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले के बावजूद इस तरह के मामले लगातार देखने को मिल रहें हैं. इस फैसले में कोर्ट ने कहा था कि पुनर्वास किए बिना किसी को घर से बेदखल करना मूल अधिकारों का उल्लंघ है.
मार्च, 2019 के फैसले में भी कोर्ट ने कहा था कि जो लोग जबरदस्ती बेदखल होने के बाद शिकायत लेकर आएं हैं उन्हें ‘अतिक्रमणकारी’ और ‘अवैध कब्जा करने वाले’ न कहा जाए.
इस रिपोर्ट के अनुसार, 2018 में सबसे बड़ा निष्कासन अक्टूबर महीने में मुंबई शहर में हुआ, जहां तानसा पाइपलाइन के लिए की गई बेदखली में 3,000 परिवार प्रभावित हुए थे.
रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि भारत में एक करोड़ 10 लाख लोग बेदखली और विस्थापन के खतरे का सामना कर रहे हैं. यह अनुमान एचएलआरएन द्वारा इकट्ठा किए गए प्राथमिक और माध्यमिक रिसर्च दोनों पर आधारित है.
इसमें यह भी कहा गया है, ‘वास्तविक संख्या बहुत अधिक हो सकती है, क्योंकि देश में बेदखली और विस्थापन के खतरों का सामना करने वाले लोगों पर कोई आधिकारिक आंकड़ा नहीं है.’ देहरादून में कथित अवैध निर्माण को हटाने के लिए उत्तराखंड उच्च न्यायालय के आदेश से 30,000 से अधिक घर बेदखली और विस्थापन का सामना कर सकते हैं.
सितंबर 2018 तक लगभग 5,000 अतिक्रमण साइटों को ध्वस्त कर दिया गया था और 8,500 से अधिक की पहचान की गई थी.
रिपोर्ट में कहा गया है, ‘जबरन बेदखली न ही केवल राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय कानूनों एवं नीतियों का उल्लंघन है, बल्कि एक निरंतर व्यवस्थित तरीके से गरीबों की बेदखली को भी दर्शाते हैं. राज्य द्वारा जबरन बेदखली को जारी रखा जाना भारत में आवास संकट को समझने और संबोधित करने में विफलता को दर्शाता है.’
रिपोर्ट में आगे कहा गया, ‘इसका सीधा मतलब आवास इकाइयों की कमी है और एक बहुत बड़ा तबका पर्याप्त आवास होने के मानवाधिकार वंचित है.’
स्टडी रिपोर्ट के अनुसार साल 2018 में 41,730 घरों के तोड़े जाने से 2,02,233 लोगों का जीवन प्रभावित हुआ. इस हिसाब से हर दिन 554 लोग और हर घंटे 23 लोग इससे प्रभावित हुए हैं. इनमें से लगभग आधे मामले ‘स्लम क्लीयरेंस’ (बस्तियां हटाना) या ‘सिटी ब्यूटिफिकेशन’(शहरों का सुंदरीकरण) ड्राइव के अंतर्गत सामने आए. कुछ मामलों में विस्थापन के पीछे का कारण- बुनियादी ढांचा परियोजनाएं, पर्यावरण परियोजनाएं और आपदा प्रबंधन परियोजनाएं बताई गई हैं.
रिपोर्ट के मुताबिक, लगभग सभी बेदखली के मामलों में अधिकारियों ने राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार मानकों द्वारा स्थापित प्रक्रिया का पालन नहीं किया है. इसके अलावा, ज्यादातर मामलों में प्रभावित समुदायों को पहले से नोटिस और उनके सामान को शिफ्ट करने के लिए पर्याप्त समय तक नहीं दिया गया था. अध्ययन के मुताबिक, 173 साइटों में से केवल 53 में ही प्रभावित लोगों को पुनर्वास व्यवस्था या वैकल्पिक आवास दिया गया था.
रिपोर्ट में यह भी कहा गया, ‘जबरन बेदखली और घरों को तोड़ने की घटनाओं का विश्लेषण करने से पता चलता है कि ज्यादातर मामले शहरी गरीबों के घरों को हटाने से जुड़े हुए हैं जिन्हें राज्य और उसकी एजेंसियां ‘अवैध’ या ‘अतिक्रमण’ मानती हैं.
साल 2010 के सुदामा सिंह मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले के बावजूद इस तरह के मामले लगातार देखने को मिल रहें हैं. इस फैसले में कोर्ट ने कहा था कि पुनर्वास किए बिना किसी को घर से बेदखल करना मूल अधिकारों का उल्लंघ है.
मार्च, 2019 के फैसले में भी कोर्ट ने कहा था कि जो लोग जबरदस्ती बेदखल होने के बाद शिकायत लेकर आएं हैं उन्हें ‘अतिक्रमणकारी’ और ‘अवैध कब्जा करने वाले’ न कहा जाए.
इस रिपोर्ट के अनुसार, 2018 में सबसे बड़ा निष्कासन अक्टूबर महीने में मुंबई शहर में हुआ, जहां तानसा पाइपलाइन के लिए की गई बेदखली में 3,000 परिवार प्रभावित हुए थे.
रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि भारत में एक करोड़ 10 लाख लोग बेदखली और विस्थापन के खतरे का सामना कर रहे हैं. यह अनुमान एचएलआरएन द्वारा इकट्ठा किए गए प्राथमिक और माध्यमिक रिसर्च दोनों पर आधारित है.
इसमें यह भी कहा गया है, ‘वास्तविक संख्या बहुत अधिक हो सकती है, क्योंकि देश में बेदखली और विस्थापन के खतरों का सामना करने वाले लोगों पर कोई आधिकारिक आंकड़ा नहीं है.’ देहरादून में कथित अवैध निर्माण को हटाने के लिए उत्तराखंड उच्च न्यायालय के आदेश से 30,000 से अधिक घर बेदखली और विस्थापन का सामना कर सकते हैं.
सितंबर 2018 तक लगभग 5,000 अतिक्रमण साइटों को ध्वस्त कर दिया गया था और 8,500 से अधिक की पहचान की गई थी.
रिपोर्ट में कहा गया है, ‘जबरन बेदखली न ही केवल राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय कानूनों एवं नीतियों का उल्लंघन है, बल्कि एक निरंतर व्यवस्थित तरीके से गरीबों की बेदखली को भी दर्शाते हैं. राज्य द्वारा जबरन बेदखली को जारी रखा जाना भारत में आवास संकट को समझने और संबोधित करने में विफलता को दर्शाता है.’
रिपोर्ट में आगे कहा गया, ‘इसका सीधा मतलब आवास इकाइयों की कमी है और एक बहुत बड़ा तबका पर्याप्त आवास होने के मानवाधिकार वंचित है.’