भारतीय उपमहाद्वीप के समाज की विविधता को तोड़ती नफ़रत की राजनीति

Written by Amir Rizvi | Published on: September 14, 2020
भारतीय उपमहाद्वीप, सांस्कृतिक, धार्मिक, सांप्रदायिक, और भाषाई विविधता वाला क्षेत्र है। हिंदी का प्रचलित मुहावरा ‘कोस-कोस पर बदले पानी, चार कोस पर बदले वाणी’, केवल मुहावरा नहीं है, यही सच्चाई है।



विश्व भर में यहाँ की सभ्यता और संकृति ने कुछ न कुछ छाप छोड़ी है, और विश्व भर की सभ्यता और संस्कृति के आदान प्रदान ने यहाँ के समाज को एक अत्यंत ही सुन्दर और सुसज्जित धरोहर वाला समाज बना दिया है।

जब तक हम इस धरोहर की अनोखी सुन्दरता को सराहना नहीं सीखेंगे, तब तक यहाँ के अजीब-ओ-ग़रीब समाज आपको भ्रमित करते रहेंगे।

यहाँ एक तरफ प्रकृति के साथ जुड़े हुए आदिवासी हैं, जिनकी अलग ही आस्था है, दूसरी तरफ घुमंतू समाज है जिसकी अलग मान्यता है, कहीं मछुआरे हैं तो कहीं पहाड़ों पर खेती करते किसान... दुनिया में शायद ही कोई अन्य जगह ऐसी हो जहाँ इतनी सारी विविधताएं दिखाई दें।

फिर यह भी सवाल उठता है कि क्या सारी परम्पराएँ और मान्यताएं सुन्दर हैं? कौन तय करेगा कि क्या सही है, और कहाँ गलत हो रहा है? इस बात को लेकर विश्व भर के अधिकतर देशों ने एक मापदंड और दिशानिर्देश बनाया है, ताकि उसको आधार बनाते हुए हम समाज से कुरीतियाँ निकाल सकें और साथ ही समाज और संस्कृतियों को आदर करते हुए उन्हें संरक्षित भी रख सकें। इस तरह संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद का गठन हुआ और सर्व सम्मति से मानवाधिकार को सबसे बुनियादी मापदंड बनाया गया।

परंपरा और जीवनशैली तब तक सुन्दर है जबतक मानवाधिकार का उल्लंघन न हो रहा हो।

वैसे संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद् हाल ही (चालीस के दशक) में बना है, परन्तु इस से सैकड़ों वर्ष पहले भी, अलग अलग समय में अलग अलग समाज सुधारकों ने समाज के लिए हानिकारक प्रथाओं को समझने का और उन्हें रोकने प्रयास भी किया है, कई तो इसमें बहुत ही सफल भी रहे हैं। चाहे कबीर हों, बुल्ले शाह हों, राजा राममोहन हों, सावित्रीबाई और ज्योतिबा फुले हों, या फातिमा शेख हों... किसी ने छुआछूत के खिलाफ काम किया, किसी ने बाल विवाह प्रथा के विरुद्ध, किसी ने सती प्रथा रोकी तो किसी ने महिलाओं को सशक्त किया।

मानव के अन्दर भी कुछ कुविचार होते हैं, कईयों को ऐसा लगने लगता है कि वे ही सबसे उत्तम विचारधारा को मानते हैं, और जब ऐसे विचार वाले लोगों के हाथ में सत्ता आ जाती है तो वे अपनी विचारधारा, खान पान, जीवनशैली दूसरों पर थोपने लग जाते हैं। इसे तानाशाही कहते हैं।

तानाशाही से बचने के लिए लोकतंत्र का रास्ता बनाया गया है, जिसका उद्देश्य है कि ऐसी सरकारें बनें जिसमे समाज के विविध और विभिन्न लोगों का प्रतिनिधित्व हो सके।

अब चलते हैं उस दौर में जब भारतीय उपमहाद्वीप के लोग अंग्रेजों से आज़ाद हुए, उसके बाद भारत में विश्व भर के देशों की व्यवस्था को समझा गया, उनकी गलतियों को न दोहराया जाए और उनकी अच्छी बातों को अपनाते हुए, और अपने देश की अनोखी संस्कृतियों से उभरे हुए तत्व जमा कर के संविधान लिखे गए ताकि लोगों के अधिकार और कर्तव्य समझे जा सकें, और संविधान लोकतंत्र के लिए दिशानिर्देश बन सके।

जब इस उपमहाद्वीप का विभाजन हुआ तो विभाजन की प्रक्रिया शांतिपूर्ण और सर्वसम्मत न होकर हिंसक और क्रूर थी। विभाजन के समय सारा शासनतंत्र अंग्रेजों के हाथ में था, जिन्हें आदेश था कि लोगों को स्वयं अपनी समस्या सुलझाने दो, अब देश छोड़ कर जाना है।

इसका परिणाम यह हुआ कि लाखों लोग मारे गए, करोड़ों बेघर हो गए और दुनिया का लगभग सबसे बड़ा पालायन हुआ।

इसमें कई प्रकार की हानि हुई, सबसे बड़ा नुक्सान इंसानों के जीवन का हुआ, इसके अलावा कई ऐसे नुक्सान हुए जो दिखाई नहीं देते हैं, मगर विविध प्रकार के समूह, उनकी प्रथा, उनकी भाषाएँ, संस्कृति भी लुप्त हो गईं।

सैकड़ों ऐसे समुदाय थे जिनके धर्म, स्थानीय देवी देवताओं के साथ जुड़े थे, कुछ ऐसे थे जिनकी आस्था कई देवी देवताओं पीरों फकीरों पर थी। कई न हिन्दू थे, न मुसलमान, कई मुसलमान थे मगर थोड़े सिख भी थे, कई सिख थे मगर कुछ कुछ मुसलमानों जैसे थे, कई हिन्दू थे जो मुस्लिम जैसे थे, कई मुस्लिम थे जो हिन्दू जैसे थे। मैं यहाँ हिन्दू मुस्लिम सिख इसलिए लिख रहा हूँ क्योंकि इन्हें हम जानते हैं। मगर कई ऐसे संप्रदाय के लोग भी थे जिन्हें हम न जान सके न समझ सके और वे लुप्त हो गए।

अगर समाज को एक घर समझा जाए तो, मुझे बड़े बड़े परिभाषित धर्म ईंट और पत्थर जैसे लगते हैं, और जो परिभाषित मान्यताओं से परे बीच के संप्रदाय हैं, वे उन ईंट और पत्थरों को जोड़ने वाले सीमेंट की तरह लगते हैं।

मगर हमारा दुर्भाग्य है कि बड़े प्रभावशाली सम्प्रदायों ने इन बीच के अपरिभाषित और इन सब से अलग आस्था रखने वाले समाजों पर अपनी धारणाएं थोपनी शुरू कर दी। एक शुद्धिकरण की मुहिम शुरू हो गई, आरएसएस वाले ब्राह्मणों की विचारधारा, गैर ब्राह्मणों पर थोपने लग गए, मुसलमानों के अशरफ (उच्च जाति) ने अपनी धारणाएं निचली जाति के मुसलमानों पर थोपनी शुरू कर दी।

हर समुदाय के अतिवादी शुद्धिकरण में लग गए, संविधान में लिखी आस्था की आज़ादी और आस्थाओं तथा संस्कृति के संरक्षण की बात केवल संविधान में बंद रह गई। जमीनी हकीकत कुछ और बन गई।

अब आदिवासी आस्थाएं लगभग लुप्त होने की कगार पर हैं, मलंग, सूफी, बाउल लगभग समाप्त हो गए हैं।

पकिस्तान में तो बहुसंख्यकों को खुश करने के लिए, तत्कालीन प्रधान मंत्री ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो की सरकार ने पाकिस्तान के संविधान में संशोधन करते हुए, अहमदी अल्पसंख्यकों को इस्लाम धर्म से कानूनी तौर पर निष्कासित ही कर दिया।

भारत में भी संविधान से छेड़-छाड़ करने की कोशिश हो रही है, सांप्रदायिक द्वेष से प्रेरित सरकार, ऐसे ऐसे कानून पारित कर रही है जो संविधान तथा संयुक्त राष्ट्र के उस मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा के विरुद्ध है, जिसे मानने का प्रण लेते हुए भारत ने हस्ताक्षर भी किए हैं।

अक्सर ऐसे काले कानून के विरुद्ध हमलोग आवाज़ नहीं उठाते हैं, जो हमें प्रभावित नहीं कर रहे हैं, परन्तु उस से किसी और के अधिकारों का हनन हो रहा हो। कभी कभी नफरत के कारण भी हम ऐसे कानून का साथ दे देते हैं जिस से किसी के अधिकारों का हनन हो रहा हो।

अधिकारों का हनन करने वाले कानून हमेशा संविधान विरोधी होते हैं, इसलिए संविधान में भी संशोधन कर के उस काले कानून को सही ठहराया जाता है।

हाल ही में भारत में प्रस्तावित तथा पारित कई कानून भारत के संविधान के विरुद्ध हैं, जैसे एनआरसी-सीएए वाला नागरिकता संशोधन हो या जम्मू कश्मीर का अनुच्छेद 370 समाप्त किया जाना हो।

ऐसे गैर संवैधानिक कानून हो सकता है कि सीधे तौर पर आपको अभी प्रभावित नहीं कर रहे हों, परन्तु इससे एक रास्ता खुल जाता है, कि यदि सरकार चाहे तो जिस प्रकार से अनुच्छेद 370 हटाया है, वैसे ही केंद्र सरकार किसी भी राज्य की सीमा को वहां की जनता की इच्छा के विरुद्ध विभाजित कर सकती है, या किसी भी क्षेत्र में जो विशेष अधिनियम हैं, जैसे आर्टिकल 371 से ग्यारह राज्यों को विशेष अधिकार मिले हुए हैं, उसे केंद्र सरकार कभी भी हटा सकती है।

एक उदाहरण पाकिस्तान का दे दूं जिस से समझ में आ जाएगा कि मैं कहना क्या चाहता हूँ, पाकिस्तान में वहां की केंद्र सरकार ने अहमदी मुसलमानों को इस्लाम धर्म से निष्कासित कर दिया है, जब यह संशोधन वहां के संविधान में पारित हुआ था, तो अहमदी मुसलमानों से नफरत के कारण वहां के अल्प संख्यक शिया मुसलमान भी खुश हुए थे, और अहमदियों के निष्कासन को सही ठहराया था।

आज लगभग 46 वर्षों के बाद पकिस्तान में शिया विरोधी रैलीयां निकाली जा रही हैं, हर जगह दीवारों पर ‘काफ़िर काफिर शिया काफ़िर’ लिखा जा रहा है, शिया समुदाय पर लगातार आक्रमण बढ़ रहे हैं। पकिस्तान में आज शिया का वही हाल है जो 1970 के दशक में अहमदी समुदाय का था।

तो घूम कर के वही बात शिया समुदाय पर आ गई है जिस बात का समर्थन खुद शिया समुदाय ने 1974 में किया था, यानि अहमदियों को काफिर माना था।

असल में इस उपमहाद्वीप में हो क्या रहा है?

समाज में जो अल्पसंख्यक हैं, जिनकी आस्था बहुसंख्यक आस्था से मेल नहीं खा रही है, उसे बहुसंख्यक या प्रभावशाली समाज, अल्पसंख्यक समाज पर थोप रहा है। चाहे हिंदी को राष्ट्रभाषा के नाम पर गैर हिंदी भाषी पर थोपने की बात हो, या होली, दिवाली को उन समुदायों पर थोपने की बात हो जो उन समुदाय का त्यौहार नहीं है।

शुद्धिकरण के चक्कर में शिर्डी वाले साईं बाबा के खिलाफ भी सनातनी अतिवादी मुहीम छेड़ चुके हैं, उनके हिसाब से एक मुस्लिम फ़कीर को हिन्दू देवता का अवतार नहीं बनाया जा सकता है।

मज़े की बात यह है कि सनातन अतिवादी और मुस्लिम अतिवादी इस मुद्दे पर एक साथ दिखाई देते हैं, वे कहते हैं कि सारे मुस्लिम एक जैसी आस्था वाले हों और सारे हिन्दू एक जैसी आस्था वाले। उनके हिसाब से जो इन दोनों के बीच वाले मिश्रित समुदाय हैं वे शुद्ध नहीं है और वे पाप कर रहे हैं।

पश्चिम बंगाल के सुंदरबन में बोन-बीबी (एक मुस्लिम महिला) आस्था के केंद्र में रही हैं। बोनबीबी को हिंदू और मुसलमान दोनों पूजते रहे हैं, लेकिन इन दिनों बोनबीबी को एक तरह से हिंदू देवी बताने की ही कोशिश की जा रही है। बोन बीबी अब ध्रुवीकरण के एजेंडे की भेंट चढ़ाई जा रही हैं। कई बयान उन्हें बोन देवी कहकर हिंदू साबित करने की कोशिश के सामने आ चुके हैं। 

झाँसी की रानी के समय से बुंदेलखंड के हिन्दुओं में मुहर्रम मनाने की परंपरा आज भी कायम है, मगर, न तो शुद्ध सनातन हिन्दू इसे सही समझता है, न ही मेरे कई मुसलमान दोस्त इसे पसंद करते हैं।

भारतीय उपमहाद्वीप के समाजों को जोड़ने वाली सीमेंट को ही वहां की ईंटों ने कुरेदना शुरू कर दिया है, बिना यह सोचे कि पूरा घर उसी सीमेंट की बदौलत खड़ा है। रोज़ा रखने वाले हिन्दू लुप्त हो रहे हैं, गणपति और दुर्गा पूजा सजाने वाले मुसलमान समाप्त हो रहे हैं। भजन कीर्तन करने वाले मुसलमानों को खदेड़ा जा रहा है, दरगाह पर नारियल चढाने वाले लोगों को हीन भावना से देखा जा रहा है। धर्म और जाति से ऊपर उठ कर यदि कोई प्रेम विवाह कर लेता है तो समाज उन जोड़ियों से भेदभाव करने लगता है। अब तो सरकारें लव जिहाद के नाम पर ऐसी जोड़ियों के पीछे पड़ी हुई हैं।

मगर अपनी अपनी मूर्खता के कारण असल में समाज को तोड़ने का काम किया जा रहा है, बिलकुल नीरस सा समाज बनता जा रहा है। सांस्कृतिक, धार्मिक, सांप्रदायिक, खान-पान और भाषाई विविधता वाला यह उपद्वीप अपनी विविधता को ही खो रहा है।

हमारे सामने पाकिस्तानी उदाहरण है, जिसने अपनी विविधताओं को लगभग खो ही दिया है, जहाँ जहाँ भी ऐसा होता है, वहां हिंसा बढती है और जिस समाज में हिंसा तथा नफरत हो वह समाज कभी भी तरक्की नहीं कर सकता है।

जिस पागलपन को धर्म और राष्ट्रवाद समझा जा रहा है, असल में वह धर्म और राष्ट्र दोनों के लिए घातक है।

किसी संस्कृति को सराहने और उसका आदर करने के लिए ज़रूरी नहीं कि आप को अपनी आस्था बदलनी पड़े, आप नास्तिक रहते हुए भी मंदिरों की शिल्पकला के चाहने वाले हो सकते हैं, आप हिन्दू रहते हुए भी बुद्ध का आदर कर सकते हैं, आप आर्यसमाजी होते हुए भी मूर्ती पूजकों के हितैषी हो सकते हैं, आप सनातनी होते हुए भी आदिवासी देवी देवताओं और परम्पराओं के रक्षक बन सकते हैं।

केवल एक भाषा, एक ही धर्म, एक ही तरह की आस्था न कभी थी न कभी हो सकती है। विरोधाभास को समझने में और एक दूसरे की धरोहर संजोने में ही पूरे देश और उपमहाद्वीप का भला हो सकता है। अन्यथा द्वेष और हिंसा में सबकुछ स्वाहा हो जायेगा!

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