किसान आंदोलन: अविश्वास के कटघरे में राष्ट्रीय जांच एजेंसी

Written by Vimalbhai | Published on: January 18, 2021
पता नहीं राष्ट्रीय एनआईए को इतनी देर क्यों लगी? शायद सरकार इंतजार रही थी या तो किसान ठंड से भाग जाएंगे या उनको तोड़ लिया जाएगा या उनको भड़का दिया जाए या उनकी एकता तोड़ दी जाएगी। मीडिया के सारे तोतों ने पहले दिन से ही एक स्वर में टर्र टर्र करना शुरू कर ही दिया था। तो जब ये सब से कुछ भी नहीं हुआ तो दिल्ली दंगों का खेला हुआ खेल अब किसान आंदोलन के साथ शुरू कर दिया।



ये एनआईए क्या है? नेशनल इन्वेस्टिगेशन एजेंसी यानी राष्ट्रीय अन्वेषण अभिकरण भालकरत में आतंकवाद का मुकाबला करने के लिए भारत सरकार द्वारा स्थापित एक संघीय जाँच एजेंसी है। यह केन्द्रीय आतंकवाद विरोधी कानून प्रवर्तन एजेंसी के रूप में कार्य करती है। मगर आजकल सरकार के खिलाफ आवाज़ उठाने वालों के खिलाफ नागरिकों को घेरने का काम करती है।

सरकार बातचीत तो कर रही है मगर हर बार बातचीत से नतीजा कुछ नहीं निकलता। 15 जनवरी की बातचीत में सरकार कहती है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य पर भी तीनों बिलों पर बात होने के बाद ही बात होगी। 

उधर सर्वोच्च न्यायालय की तरफ से मोर्चा खोल दिया गया है। एनआईए सक्रिय हो गई है। सर्वोच्च न्यायालय में पहले ही बता दिया गया है कि यहां पर हिंसा हो सकती है। एक लाख लोग जुटे हैं। तो क्यों भाई इतने शांति पूर्वक भाईचारे से सिख परंपरा के पालन में सब जगह धरनों पर लंगर चल रहे हैं। इसमें कौन सी हिंसा नजर आ गई ? मांगों के साथ लोगों का इकट्ठा होना, आवाज़ उठाना सरकार को परेशानी की बात लगती है। हरिद्वार में गंगा कुंभ जनवरी 2021 के पहले स्नान में  7 लाख लोगो ने गंगा स्नान किया। कोरोना नियम नहीं, कोई परेशानी नहीं। सब नहाए और भगवान को याद किया। सरकार को याद किया होता तो उनको भी परेशानी हो जाती।

न्यू इंडिया की सरकार जब सब तरह से हार रही है तो विदेशी योजना, विदेशी पैसा, खालिस्तानी आंदोलन से जुड़े तार आदि यह सब निचले दर्ज़े की निचली रणनीतियां इस्तेमाल करेगी ही।

आंदोलन की शुरुआत से ही सरकार ने अपनी ओर से यह सारे मोहरे आगे कर दिए थे। दूसरी तरफ बातचीत का ढोंग भी चालू है।

देश की सर्वोच्च अदालत ने इस बीच कहा कि वह कौन हैं ? हम सुप्रीम है, सब कुछ कर सकते हैं।

मैं पूरे सम्मान कहूं कि मुझे लगता है कि सर्वोच्च अदालत कमजोर हुई है। लोगों का विश्वास कमजोर हुआ है। सर्वोच्च अदालत से कहूंगा कि आंदोलन रत किसान आप में सुप्रीम ताकत तो देखते हैं मगर वह उसको किसी पक्ष में देखते हैं। आपने बहुत दयाद्र्  होकर किसानों के मुद्दे पर केंद्र सरकार को डांटा। दूसरी तरफ किसानों के वकीलों को भी उतने ही दयाद्र होकर बताया कि आप सुप्रीम कोर्ट हैं। और आपने महिलाओं के प्रति सहानुभूति रखकर उन्हें घर वापस भेजने की सलाह दे दी। 

माननीय आप तो मुद्दे पर बहुत गहरी नजर रखते हैं। आपकी महिलाओं के प्रति सहानुभूति का क्या कारण रहा? क्या आप कभी चुपचाप से किसी बॉर्डर पर जाकर देख कर आए थे? क्या तथाकथित टीवी चैनल समाचार देने वाले भोपू मीडिया को देखा था? या आपकी कोई कमेटी ने वहां पर सैर करके आपको जानकारी दी थी कि महिलाएं बहुत परेशानी में है। संभवत आपकी यह सलाह पुरुष सोच वाली सहानुभूति का नतीजा हो। कुछ समय पूर्व सुप्रीम कोर्ट की एक महिला अधिकारी ने एक पूर्व मुख्यन्यायाधीश को कटघरे में खड़ा किया था। पर मामला अजीबोगरीब तरीके से बन्द हो गया। देखने की बात है लाखो किसानों में सभी उम्र के महिला पुरुष मज़बूती से आंदोलन में खड़े हैं। माई लार्ड से कैसे कहूं कि वह आंदोलनरत महिलाओं के चेहरे देखे, उनकी आवाज सुने, उनके हाथों की मजबूती समझे। मालूम पढ़ जाएगा की वे सब आंदोलन में लाई गई हैं या आंदोलन पर बिठाई गई हैं। या खुद अपने आप में एक दमदार आंदोलन है।



सर्वोच्च अदालत से कहना चाहता हूं कि यह वह महिलाएं हैं जो कि बिना किसी डर अपने विश्वास, अपनी स्वयं की ताकत और किसानी मुद्दे पर अपनी समझ के साथ धरने पर बैठी है। खेतों में काम करती हैं। धरनों में काम करती हैं। भाषण देने हो, आंदोलन के लिए चंदा इकट्ठा करना हो, दूसरी पंक्ति में मोर्चा संभालने के लिए तैयार हैं। पुरुष किसान अगर धरने पर आए तो बड़ी संख्या में महिलाओं ने पूरी खेती संभाली और बड़ी संख्या में अब धरनो पर भी बैठी है।

आपने बहुत जल्दी से तीनो कृषि कानूनों पर फिलहाल रोक लगाई। एक कमेटी बना दी। सब कुछ आपने ही कर दिया। बहुत अच्छी बात है। आप ने किसानों को पूरा सुना भी नहीं।सरकार के वकील को ऐसे डांट लगाई जैसे अपने बच्चे को किसी गलती पर बचाने के लिए खुद ही डांट देना। फिर कमेटी में वही लोग रखे जिन्होंने  तीनो कृषि कानूनों  का समर्थन किया।

शायद सर्वोच्च न्यायालय से अपेक्षा हो सकती थी कि वह अब तक किसानों के साथ किए गए अन्याय पर कोई बड़ी कमेटी बनाता। सरकार को निर्देश देता की बिना किसान संगठनों से चर्चा किये कोई कानून पास नही होगा। अब तक कि किसान समस्याओं का समाधान और लागू की गई नीतियाँ-कानून आदि के लागू करने में आई परेशानियों व इनके पालन में सरकारी त्रुटियों पर समयबद्ध रिपोर्ट दी जाए।

जिसके बारे में पूर्व न्यायाधीश काटजू ने अभी प्रधानमंत्री को लिखे पत्र में इंगित भी किया है। ऐसा होने पर किसानों को सर्वोच्च अदालत पर भरोसा आता।

किंतु अदालत के वर्तमान आदेशों का नतीज़ा सरकार के काले हाथों को मजबूत कर गया।अदालत ने सरकार को इस आंदोलन में खालिस्तान समर्थक, विदेशी पैसा आदि जैसे आरोपों की जांच करके उस पर शपथ पत्र दाखिल करने को कहा। सरकार को एक अच्छा मौका मिल गया कि इससे आंदोलन को एनआईए की जांच के दायरे में लाया सके। 

मगर सर्वोच्च न्यायालय ने अभी तक मंत्रियों तक के स्तर से आंदोलन के बारे में की गलत बयानी पर कोई संज्ञान नहीं लिया। धरने पर बैठे लाखों किसानों को अपमानित करने पर कोई सुओ-मोटो कार्यवाही भी नहीं की गई। जबकि माननीय न्यायधीश जी शब्दों से मान अपमान पर बहुत चिंतित रहते हैं।

एक भी शब्द किसी मंत्री के खिलाफ कहने पर लोगों को जेल में डाला जा रहा है। यहां किसानों के खिलाफ लगातार अनर्गल बोले जाने पर न्यायालय ने कोई संज्ञान क्यों नहीं लिया बल्कि सरकार के आरोपों पर तुरंत उन्हें जांच करने का मौका दिया। लोकतंत्र की भरभरा कर गिरती इमारत का यह खंबा भी कमजोर दिखता है। 

जिंदाबाद किसानों को! जिन्होंने स्पष्ट कर दिया कि हम संसद में पारित हुए इस कानून को संसद में ही रद्द कराएंगे। हम न सर्वोच्च न्यायालय जाएंगे न सर्वोच्च न्यायालय की समिति के सामने जाएंगे।  सर्वोच्च न्यायालय अपने आदेशो व व्यवहार को लेकर खुद ही अविश्वास के कटघरे में नज़र आ रहा है।
 

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