सुप्रीम कोर्ट 31 अक्टूबर को चुनावी बॉन्ड के ख़िलाफ़ चुनौतियों को सुनने वाला है। इससे पहले अटॉर्नी जनरल आर। वेंकटरमणी ने अदालत से कहा कि सिर्फ इसलिए कि नागरिकों को उम्मीदवारों का आपराधिक इतिहास जानने का हक़ है, इसे चुनावी बॉन्ड के ज़रिये होने वाली फंडिंग की जानकारी तक नहीं बढ़ाया जा सकता।
नई दिल्ली: भारत के अटॉर्नी जनरल (एजी) आर। वेंकटरमणी ने रविवार (29 अक्टूबर) को सुप्रीम कोर्ट के समक्ष कहा कि नागरिकों को चुनावी बॉन्ड फंड के स्रोतों को जानने का कोई मौलिक अधिकार नहीं है।
रिपोर्ट के अनुसार, एजी चुनावी बॉन्ड की अपारदर्शी प्रकृति को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर अपने विचार से रहे थे। ज्ञात हो कि मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली पीठ 31 अक्टूबर को मामले की सुनवाई करेगी। पीठ में जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस बीआर गवई, जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा भी शामिल हैं।
वेंकटरमणी ने यह भी कहा कि अगर सुप्रीम कोर्ट चुनावी बॉन्ड को विनियमित करने की कोशिश करता है तो यह नीति बनाने के क्षेत्र में प्रवेश करना होगा।
लाइव लॉ के अनुसार, एजी ने कहा, ‘सबसे पहले तो उचित प्रतिबंधों के बगैर किसी भी चीज़ और हर चीज़ को जानने का कोई सामान्य अधिकार नहीं हो सकता है। दूसरे, अभिव्यक्ति के लिए जरूरी जानने का अधिकार विशिष्ट उद्देश्य या इरादे के लिए हो सकता है, अन्यथा नहीं।’
उन्होंने कहा कि सिर्फ इसलिए कि अदालतों ने फैसला दिया है कि नागरिकों को उम्मीदवार का आपराधिक इतिहास जानने का हक़ है, इसे चुनावी बॉन्ड के जरिये होने वाली फंडिंग की जानकारी तक नहीं बढ़ाया जा सकता है।
एजी ने आगे कहा कि चुनावी बॉन्ड योजना किसी भी व्यक्ति के अधिकारों का उल्लंघन नहीं करती है और इसे संविधान के भाग III के तहत आने वाले किसी भी अधिकार के विरुद्ध नहीं कहा जा सकता।
उन्होंने कहा, ‘उक्त योजना योगदानकर्ता को गोपनीयता देती है। यह योगदान किए जा रहे साफ धन को सुनिश्चित करती है और बढ़ावा देती है। यह कर दायित्वों का पालन सुनिश्चित करती है। इस प्रकार, यह किसी भी मौजूदा अधिकार का उल्लंघन नहीं करता है। एक संवैधानिक अदालत सरकार के काम की समीक्षा केवल तभी करती है जब यह मौजूदा अधिकारों पर अतिक्रमण करे, न कि इसलिए कि सरकार की कार्रवाई ने संभावित अधिकार नहीं दिया या कोई वांछित अपेक्षा पूरी नहीं की।’
चुनावी बॉन्ड को लेकर क्यों है विवाद
चुनाव नियमों के मुताबिक, यदि कोई व्यक्ति या संस्थान 2,000 रुपये या इससे अधिक का चंदा किसी पार्टी को देता है तो राजनीतिक दल को दानकर्ता के बारे में पूरी जानकारी देनी पड़ती है।
हालांकि, चुनावी बॉन्ड ने इस बाधा को समाप्त कर दिया है। अब कोई भी एक हजार से लेकर एक करोड़ रुपये तक के चुनावी बॉन्ड के जरिये पार्टियों को चंदा दे सकता है और उसकी पहचान बिल्कुल गोपनीय रहेगी। इस माध्यम से चंदा लेने पर राजनीतिक दलों को सिर्फ ये बताना होता है कि चुनावी बॉन्ड के जरिये उन्हें कितना चंदा प्राप्त हुआ। इसलिए चुनावी बॉन्ड को पारदर्शिता के लिए एक बहुत बड़ा खतरा माना जा रहा है।
इस योजना के आने के बाद से बड़े राजनीतिक दलों को अन्य माध्यमों (जैसे चेक इत्यादि) से मिलने वाले चंदे में गिरावट आई है और चुनावी बॉन्ड के जरिये मिल रहे चंदे में बढ़ोतरी हो रही है।
चुनावी बॉन्ड योजना को लागू करने के लिए मोदी सरकार ने साल 2017 में विभिन्न कानूनों में संशोधन किया था। चुनाव सुधार की दिशा में काम कर रहे गैर सरकारी संगठन एसोशिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स इन्हीं संशोधनों को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है।
इसकी याचिका में कहा गया है कि इन संशोधनों की वजह से विदेशी कंपनियों से असीमित राजनीतिक चंदे के दरवाजे खुल गए हैं और बड़े पैमाने पर चुनावी भ्रष्टाचार को वैधता प्राप्त हो गई है। साथ ही इस तरह के राजनीतिक चंदे में पूरी तरह अपारदर्शिता है।
याचिकाकर्ताओं का तर्क है कि इनके परिणामस्वरूप हितों के टकराव की संभावनाएं बढ़ेंगी और काले धन और भ्रष्टाचार में भी भारी वृद्धि होगी। याचिकाकर्ताओं का यह भी दावा है कि इससे शेल कंपनियों बनाई जाएंगी और भारत में राजनीतिक और चुनावी प्रक्रिया में बेनामी धन का लेनदेन भी बढ़ेगा।
10 अक्टूबर को प्रारंभिक सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ताओं के वकील प्रशांत भूषण ने आरोप लगाया कि 2017 से लगातार इस मामले पर अदालत द्वारा निर्णय न लेने के कारण सत्तारूढ़ दल हर लोकसभा चुनाव में इस योजना का लाभ उठा रहा है। साथ ही विधानसभा चुनावों में भी गड़बड़ी हुई है।
भूषण का कहना था कि यह योजना, धन विधेयक (मनी बिल) के जरिये धोखाधड़ी से पेश किए जाने के अलावा राजनीतिक फंडिंग के अज्ञात स्रोतों को वैध बनाने का भी प्रयास करती है। उन्होंने आरोप लगाया कि यह योजना राजनीतिक दलों की फंडिंग के बारे में जानकारी के अधिकार का उल्लंघन करती है और भ्रष्टाचार को बढ़ावा देती है। जब सरकार द्वारा कोई विधायी उपाय मनी बिल के तौर पर पेश किया जाता है, तो उसे राज्यसभा से अनुमोदन की जरूरत नहीं होती।
भूषण ने कहा कि राजनीतिक दलों को सबसे अधिक धन उन कंपनियों से प्राप्त होता है जिन्हें उनसे कुछ न कुछ फायदा मिलता है। उन्होंने पीठ से कहा कि चूंकि भ्रष्टाचार मुक्त समाज संविधान के अनुच्छेद 21 का एक पहलू है, जैसा अदालत ने भी माना है, ऐसे में धन का स्रोत गुमनाम नहीं हो सकता है।
मालूम हो कि भारतीय स्टेट बैंक ही 10,000 रुपये से 1 करोड़ रुपये तक के इन बॉन्ड्स को किसी को भी नकद या बैंक ट्रांसफर के माध्यम से बेचता है (कैश जमा के लिए बैंक खाता खोलन होता है) , खरीद के स्रोत को गुप्त रखा गया है। हालांकि, एसबीआई को स्रोत मालूम होता है, लेकिन वह इसका खुलासा न करने के लिए बाध्य है।
कौन किस राजनीतिक दल को कितना चंदा देता है, इसका विवरण सार्वजनिक डोमेन में नहीं है।
उठते रहे हैं सवाल
कई ट्रांसपेरेंसी एक्टिविस्ट, संगठन और राजनीतिक दल वर्षों से इन बॉन्ड की ‘अपारदर्शिता’ और दानदाताओं की पहचान गुप्त रहने को लेकर चिंता व्यक्त करते रहे हैं।
सबसे पहले तो स्वयं चुनाव आयोग ने 2017 में योजना को लेकर गंभीर चिंता व्यक्त की। इसके बाद, 2018 से इनकी वैधता को लेकर सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएं दायर की गईं।
शीर्ष अदालत दो बार योजना पर अंतरिम रोक लगाने से इनकार कर चुकी है। रोक की मांग एडीआर द्वारा दायर याचिका में की गई थी। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) ने भी जुलाई 2021 में चुनावी बॉन्ड योजना की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं के एक समूह पर तत्काल सुनवाई की मांग करते हुए सुप्रीम कोर्ट का रुख किया था।
इससे पहले साल 2019 में चुनावी बॉन्ड के संबंध में कई सारे खुलासे हुए थे, जिसमें ये पता चला था कि आरबीआई, चुनाव आयोग, कानून मंत्रालय, आरबीआई गवर्नर, मुख्य चुनाव आयुक्त और कई राजनीतिक दलों ने केंद्र सरकार को पत्र लिखकर इस योजना पर आपत्ति जताई थी।
हालांकि, वित्त मंत्रालय ने इन सभी आपत्तियों को खारिज करते हुए चुनावी बॉन्ड योजना को पारित किया।
आरबीआई ने कहा था कि चुनावी बॉन्ड और आरबीआई अधिनियम में संशोधन करने से एक गलत परंपरा शुरू हो जाएगी। इससे मनी लॉन्ड्रिंग को प्रोत्साहन मिलेगा और केंद्रीय बैंकिंग कानून के मूलभूत सिद्धांतों पर ही खतरा उत्पन्न हो जाएगा।
वहीं चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर कर कहा था कि चुनावी बॉन्ड से पार्टियों को मिलने वाला चंद पारदर्शिता के लिए खतरनाक है।
इसके अलावा आरटीआई के तहत प्राप्त किए गए दस्तावेजों से पता चलता है कि जब चुनावी बॉन्ड योजना का ड्राफ्ट तैयार किया गया था तो उसमें राजनीति दलों एवं आम जनता के साथ विचार-विमर्श का प्रावधान रखा गया था। हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ बैठक के बाद इसे हटा दिया गया।
इसके अलावा चुनावी बॉन्ड योजना का ड्राफ्ट बनने से पहले ही भाजपा को इसके बारे में जानकारी थी, बल्कि मोदी के सामने प्रस्तुति देने से चार दिन पहले ही भाजपा महासचिव भूपेंद्र यादव ने तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली (अब दिवंगत) को पत्र लिखकर चुनावी बॉन्ड योजना पर उनकी पार्टी के सुझावों के बारे में बताया था।
नई दिल्ली: भारत के अटॉर्नी जनरल (एजी) आर। वेंकटरमणी ने रविवार (29 अक्टूबर) को सुप्रीम कोर्ट के समक्ष कहा कि नागरिकों को चुनावी बॉन्ड फंड के स्रोतों को जानने का कोई मौलिक अधिकार नहीं है।
रिपोर्ट के अनुसार, एजी चुनावी बॉन्ड की अपारदर्शी प्रकृति को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर अपने विचार से रहे थे। ज्ञात हो कि मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली पीठ 31 अक्टूबर को मामले की सुनवाई करेगी। पीठ में जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस बीआर गवई, जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा भी शामिल हैं।
वेंकटरमणी ने यह भी कहा कि अगर सुप्रीम कोर्ट चुनावी बॉन्ड को विनियमित करने की कोशिश करता है तो यह नीति बनाने के क्षेत्र में प्रवेश करना होगा।
लाइव लॉ के अनुसार, एजी ने कहा, ‘सबसे पहले तो उचित प्रतिबंधों के बगैर किसी भी चीज़ और हर चीज़ को जानने का कोई सामान्य अधिकार नहीं हो सकता है। दूसरे, अभिव्यक्ति के लिए जरूरी जानने का अधिकार विशिष्ट उद्देश्य या इरादे के लिए हो सकता है, अन्यथा नहीं।’
उन्होंने कहा कि सिर्फ इसलिए कि अदालतों ने फैसला दिया है कि नागरिकों को उम्मीदवार का आपराधिक इतिहास जानने का हक़ है, इसे चुनावी बॉन्ड के जरिये होने वाली फंडिंग की जानकारी तक नहीं बढ़ाया जा सकता है।
एजी ने आगे कहा कि चुनावी बॉन्ड योजना किसी भी व्यक्ति के अधिकारों का उल्लंघन नहीं करती है और इसे संविधान के भाग III के तहत आने वाले किसी भी अधिकार के विरुद्ध नहीं कहा जा सकता।
उन्होंने कहा, ‘उक्त योजना योगदानकर्ता को गोपनीयता देती है। यह योगदान किए जा रहे साफ धन को सुनिश्चित करती है और बढ़ावा देती है। यह कर दायित्वों का पालन सुनिश्चित करती है। इस प्रकार, यह किसी भी मौजूदा अधिकार का उल्लंघन नहीं करता है। एक संवैधानिक अदालत सरकार के काम की समीक्षा केवल तभी करती है जब यह मौजूदा अधिकारों पर अतिक्रमण करे, न कि इसलिए कि सरकार की कार्रवाई ने संभावित अधिकार नहीं दिया या कोई वांछित अपेक्षा पूरी नहीं की।’
चुनावी बॉन्ड को लेकर क्यों है विवाद
चुनाव नियमों के मुताबिक, यदि कोई व्यक्ति या संस्थान 2,000 रुपये या इससे अधिक का चंदा किसी पार्टी को देता है तो राजनीतिक दल को दानकर्ता के बारे में पूरी जानकारी देनी पड़ती है।
हालांकि, चुनावी बॉन्ड ने इस बाधा को समाप्त कर दिया है। अब कोई भी एक हजार से लेकर एक करोड़ रुपये तक के चुनावी बॉन्ड के जरिये पार्टियों को चंदा दे सकता है और उसकी पहचान बिल्कुल गोपनीय रहेगी। इस माध्यम से चंदा लेने पर राजनीतिक दलों को सिर्फ ये बताना होता है कि चुनावी बॉन्ड के जरिये उन्हें कितना चंदा प्राप्त हुआ। इसलिए चुनावी बॉन्ड को पारदर्शिता के लिए एक बहुत बड़ा खतरा माना जा रहा है।
इस योजना के आने के बाद से बड़े राजनीतिक दलों को अन्य माध्यमों (जैसे चेक इत्यादि) से मिलने वाले चंदे में गिरावट आई है और चुनावी बॉन्ड के जरिये मिल रहे चंदे में बढ़ोतरी हो रही है।
चुनावी बॉन्ड योजना को लागू करने के लिए मोदी सरकार ने साल 2017 में विभिन्न कानूनों में संशोधन किया था। चुनाव सुधार की दिशा में काम कर रहे गैर सरकारी संगठन एसोशिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स इन्हीं संशोधनों को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है।
इसकी याचिका में कहा गया है कि इन संशोधनों की वजह से विदेशी कंपनियों से असीमित राजनीतिक चंदे के दरवाजे खुल गए हैं और बड़े पैमाने पर चुनावी भ्रष्टाचार को वैधता प्राप्त हो गई है। साथ ही इस तरह के राजनीतिक चंदे में पूरी तरह अपारदर्शिता है।
याचिकाकर्ताओं का तर्क है कि इनके परिणामस्वरूप हितों के टकराव की संभावनाएं बढ़ेंगी और काले धन और भ्रष्टाचार में भी भारी वृद्धि होगी। याचिकाकर्ताओं का यह भी दावा है कि इससे शेल कंपनियों बनाई जाएंगी और भारत में राजनीतिक और चुनावी प्रक्रिया में बेनामी धन का लेनदेन भी बढ़ेगा।
10 अक्टूबर को प्रारंभिक सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ताओं के वकील प्रशांत भूषण ने आरोप लगाया कि 2017 से लगातार इस मामले पर अदालत द्वारा निर्णय न लेने के कारण सत्तारूढ़ दल हर लोकसभा चुनाव में इस योजना का लाभ उठा रहा है। साथ ही विधानसभा चुनावों में भी गड़बड़ी हुई है।
भूषण का कहना था कि यह योजना, धन विधेयक (मनी बिल) के जरिये धोखाधड़ी से पेश किए जाने के अलावा राजनीतिक फंडिंग के अज्ञात स्रोतों को वैध बनाने का भी प्रयास करती है। उन्होंने आरोप लगाया कि यह योजना राजनीतिक दलों की फंडिंग के बारे में जानकारी के अधिकार का उल्लंघन करती है और भ्रष्टाचार को बढ़ावा देती है। जब सरकार द्वारा कोई विधायी उपाय मनी बिल के तौर पर पेश किया जाता है, तो उसे राज्यसभा से अनुमोदन की जरूरत नहीं होती।
भूषण ने कहा कि राजनीतिक दलों को सबसे अधिक धन उन कंपनियों से प्राप्त होता है जिन्हें उनसे कुछ न कुछ फायदा मिलता है। उन्होंने पीठ से कहा कि चूंकि भ्रष्टाचार मुक्त समाज संविधान के अनुच्छेद 21 का एक पहलू है, जैसा अदालत ने भी माना है, ऐसे में धन का स्रोत गुमनाम नहीं हो सकता है।
मालूम हो कि भारतीय स्टेट बैंक ही 10,000 रुपये से 1 करोड़ रुपये तक के इन बॉन्ड्स को किसी को भी नकद या बैंक ट्रांसफर के माध्यम से बेचता है (कैश जमा के लिए बैंक खाता खोलन होता है) , खरीद के स्रोत को गुप्त रखा गया है। हालांकि, एसबीआई को स्रोत मालूम होता है, लेकिन वह इसका खुलासा न करने के लिए बाध्य है।
कौन किस राजनीतिक दल को कितना चंदा देता है, इसका विवरण सार्वजनिक डोमेन में नहीं है।
उठते रहे हैं सवाल
कई ट्रांसपेरेंसी एक्टिविस्ट, संगठन और राजनीतिक दल वर्षों से इन बॉन्ड की ‘अपारदर्शिता’ और दानदाताओं की पहचान गुप्त रहने को लेकर चिंता व्यक्त करते रहे हैं।
सबसे पहले तो स्वयं चुनाव आयोग ने 2017 में योजना को लेकर गंभीर चिंता व्यक्त की। इसके बाद, 2018 से इनकी वैधता को लेकर सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएं दायर की गईं।
शीर्ष अदालत दो बार योजना पर अंतरिम रोक लगाने से इनकार कर चुकी है। रोक की मांग एडीआर द्वारा दायर याचिका में की गई थी। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) ने भी जुलाई 2021 में चुनावी बॉन्ड योजना की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं के एक समूह पर तत्काल सुनवाई की मांग करते हुए सुप्रीम कोर्ट का रुख किया था।
इससे पहले साल 2019 में चुनावी बॉन्ड के संबंध में कई सारे खुलासे हुए थे, जिसमें ये पता चला था कि आरबीआई, चुनाव आयोग, कानून मंत्रालय, आरबीआई गवर्नर, मुख्य चुनाव आयुक्त और कई राजनीतिक दलों ने केंद्र सरकार को पत्र लिखकर इस योजना पर आपत्ति जताई थी।
हालांकि, वित्त मंत्रालय ने इन सभी आपत्तियों को खारिज करते हुए चुनावी बॉन्ड योजना को पारित किया।
आरबीआई ने कहा था कि चुनावी बॉन्ड और आरबीआई अधिनियम में संशोधन करने से एक गलत परंपरा शुरू हो जाएगी। इससे मनी लॉन्ड्रिंग को प्रोत्साहन मिलेगा और केंद्रीय बैंकिंग कानून के मूलभूत सिद्धांतों पर ही खतरा उत्पन्न हो जाएगा।
वहीं चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर कर कहा था कि चुनावी बॉन्ड से पार्टियों को मिलने वाला चंद पारदर्शिता के लिए खतरनाक है।
इसके अलावा आरटीआई के तहत प्राप्त किए गए दस्तावेजों से पता चलता है कि जब चुनावी बॉन्ड योजना का ड्राफ्ट तैयार किया गया था तो उसमें राजनीति दलों एवं आम जनता के साथ विचार-विमर्श का प्रावधान रखा गया था। हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ बैठक के बाद इसे हटा दिया गया।
इसके अलावा चुनावी बॉन्ड योजना का ड्राफ्ट बनने से पहले ही भाजपा को इसके बारे में जानकारी थी, बल्कि मोदी के सामने प्रस्तुति देने से चार दिन पहले ही भाजपा महासचिव भूपेंद्र यादव ने तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली (अब दिवंगत) को पत्र लिखकर चुनावी बॉन्ड योजना पर उनकी पार्टी के सुझावों के बारे में बताया था।