बिहार: नियोजित से नियुक्त हुए शिक्षकों की कहानी में कोई कहानी नहीं है

Written by Ravish Kumar | Published on: September 4, 2020
मैं किसी भी ऐसी रिपोर्ट को पढ़ता हूँ तो समस्या से ज़्यादा व्यापक राजनीतिक चेतना को समझने का प्रयास करता हूँ और निराश होता रहता हूँ। धार्मिकता और जातीयता की परत के नीचे ही सब गुंजाइश खोज रहे हैं। मैं यह जानना चाहता हूँ कि लाखों शिक्षकों में से कितनों में धार्मिकता और जातीयता से राजनीति को निकालने का साहस है? जहां सरकारी भर्ती और नौकरी की व्यवस्था में क्रांतिकारी और पारदर्शी बदलाव को अनिवार्य बना दिया जाए। इस रिपोर्ट को पढ़ कर लगा कि शिक्षक ख़ुद ही विकल्पहीन हो चुके हैं। 



तभी सुशील मोदी ठाठ से कहते हैं कि पंद्रह साल में कितना कुछ किया। इनकी सैलरी पाँच हज़ार से पचीस हज़ार कर दी। हर चुनाव से पहले सरकार मानदेय की बोटी फेंक देती होती। इनका पूरा जीवन इसी में निकल गया। इसी के उलट इन्हीं शिक्षकों के पढ़ाए छात्र भी भर्ती बहाली को लेकर विकल्पहीन हो चुके हैं। मगर सब आधी-अधूरी और अपनी-अपनी लड़ाई लड़ रहे हैं। ये होना ही था और यही आगे होगा। 

अगर इनकी सैलरी पाँच हज़ार कम कर दी जाए तो भी सुशील मोदी तारीफ़ के अंदाज में कहेंगे कि हमने इन्हें कम सैलरी पर राष्ट्र निर्माण के लिए प्रेरित किया है। क्या इन लाखों शिक्षकों से पूछना सही होगा कि जातिवाद, धर्मांन्धता और कथित राष्ट्रवाद की राजनीति से गुज़र कर बौद्धिक और सामाजिक सुख प्राप्त हुआ कि नहीं हुआ? उसका वर्णन क्यों नहीं करते हैं? दावे के साथ कह सकता हूँ कि इस चुनाव क्या किसी भी चुनाव में इस सुख से वंचित होने का साहस नहीं बचा है।

इसलिए तकलीफ़देह कथाओं से गुजरते हुए भी मैं उन कारकों को समझता रहा जिनसे ये शिक्षक बाद में, जनता पहले बने हैं। जनता हैं भी कि नहीं। अगर वे यह स्वीकार कर सकते हैं कि पंद्रह साल में पाँच हज़ार से पचीस हज़ार वेतन हो गया है तो इनमें से किसी कोई गणित का भी मास्टर होगा, वही हिसाब लगा ले कि मुद्रा स्फीति से एडजस्ट करने पर वास्तविक वृद्धि कितनी हुई ? इस हालत में अगर शिक्षकों के बीस संगठन हैं तो सरकार को इनकी जनताविहीनता पर भरोसा रखना चाहिए। और अपने विजय का एलान कर देना चाहिए।

आग्रह: इस पोस्ट को पढ़ने वाले शिक्षक मुझे मैसेज न करें। धन्यवाद भी न दें। गाली दे सकते हैं वो तो एक राजनीतिक तंत्र के तहत रोज़ दी जाती है जिसके आप भी साक्षी रहे हैं और क्या पता आपमें से भी मुझे गाली देने वाले रहे हों? जो संस्कृति बनने दी है उसका रस लीजिए। बेहद अफ़सोस के साथ लिख रहा हूँ।

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