दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में मंगलवार को केंद्र सरकार ने सनसनीखेज कार्यवाई करते हुए हजार और पांच सौ के नोटों पर तत्काल रोक लगा दी। आज से पांच सौ और हजार के नोटों का इस्तेमाल लगभग गैर क़ानूनी हो जाएगा। इस निर्णय के लिए देश के प्रधानमंत्री को खुद जनता के सामने आना पड़ा। कम से काम मेरी यादाश्त में ये इस तरह रातों-रात निर्णय लेने का ये पहला वाकया है। किसी भी देश की मुद्रा उस देश की जान होती है। अगर अच्छे बुरे को दरकिनार कर दिया जाए, तो उसे इस तरह से गैर क़ानूनी घोषित करने के कदम को साहसिक तो जरूर ही कहा जाएगा। इस निर्णय के महत्व को इस बात से भी जाना जा सकता कि सामान्यत: इन फैसलो की घोषणा आर बी आई गवर्नर किया करते है पर इस बार देश के प्रधानमंत्री को इस घोषणा के लिए आना पड़ा।
अगर सरकार की मानें तो काले धन और नकली नोटों पर लगाम लगाने के लिए देश हित में उठाया गया कदम है। आम जनता को थोड़ी परेशानी होगी पर काले धन और नकली नोटों पर ये सर्जिकल स्ट्राइक जैसा काम करेगा।
जिनके पास हजार और पांच सौ के नोट के रूप में काला धन है वो मिटटी हो जाएगा। देश में आर्थिक सुधार होगा।
लेकिन अगर इस फैसले की आलोचना की बात करें तो बहुत सारे सवाल उठते है;
पहला सवाल
इसके समयी और तरीके को लेकर है जो कहीं से भी लोकतान्त्रिक नहीं था। गवर्नर की जगह मोदी जी का आना और आधी रात से निर्णय लागू करना तानाशाही की तरफ इशारा करता है। दुनिया का हर तानाशाह देश की प्रगति का हवाला देकर ही आता है। यहाँ भी कुछ अलग नहीं हुआ है। तो क्या प्रधानमंत्री ही रिज़र्व बैंक के गवर्नर भी हैं, फिर संस्थानों की स्वायत्तता का क्या होगा? आगे किस संस्थान की बारी है?
दूसरा सवाल
ये है कि किसी भी देश की मुद्रा का रातो रात गैर क़ानूनी हो जाना उस देश की प्रतिष्ठा को अंतराष्ट्रीय स्तर पर ठेस पहुंचाता है। उनके प्रति विश्वास को संदेह में लाता है। जहाँ आज रात एक निर्णय हुआ, कल रात दूसरा भी हो सकता है। ऐसी क्या मज़बूरी थी कि ऐसा निर्णय लेने की नौबत आ पड़ी? 30 दिसम्बर तक बैंक में नोट बदलवाए जा सकते है। अगर 30 तारीख तक जनता में इन नोटों का विनिमय जारी रहने दिया जाता तो क्या फर्क पड़ जाता? भारत की आम जनता वैसे भी संदेही है। एक बार दस के सिक्के नकली होने की अफवाह के बाद आज दस के सिक्के बाजार से गायब है, बावजूद सरकार के विश्वास दिलाने के।
तीसरा सवाल
सरकार की अचानक बनी मंशा पर है। नंबर दो में तो वैसे ही कोई डील नहीं होती। कहीं ऐसा तो नहीं इस फैसले से जनता के विवेक का टेस्ट लिया जा रहा हो ? जनता के आरंभिक प्रतिक्रिया से लगता है कि सरकार सफल और जनता फेल रही है।
चौथा सवाल
काले धन की रोक का है। केंद्र की भाजपा सरकार पर बड़े पूंजीपतियो से साठगांठ के आरोप लगातार लगते रहे है। प्रधानमंत्री जी का रिलायंस समूह की मोबाइल कंपनी के प्रचार का चेहरा होने की हर जगह तीखी आलोचना हुई थी। अब सवाल ये है कि ये निर्णय जितना आश्चर्य जनक आम जनता के लिए था, क्या उतना ही आश्चर्य उन समूहों के लिए रहा होगा; जिन पर प्रधानमंत्री कार्यालय के ट्वीटर अकाउंट हैंडलिंग तक के आरोप लगते रहे हैं? काले धन का मुख्य स्रोत और निवेश बेनामी जमीन और स्विस बैंक है, उसपर तो वैसे भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा। दूसरी बात ये काला या सफ़ेद कैसा भी धन देश के मजदूरो और किसानों के पास तो है ही नहीं। ये बड़े या माध्यम वर्ग के व्यापारियों के पास ही है और वो सब आश्चर्यजनक रूप से, इस फैसले के समर्थन में है। ये बात अपने आप में संदेह पैदा करती है कि क्या उनको पहले ही अपना काला धन ठिकाने लगाने का समय मिल गया था, या उनका काला धन नकद के रूप में है ही नहीं।
पांचवा सवाल
तो अब बात रही मझोले व्यापारियों की जो कि अपने पास एक से लेकर पांच या दस करोड़ तक का काला धन नोटों के रूप में रखे हुए है। उनके लिए इसका समाधान आसान है, भारत की वयस्क आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा आज भी ऐसा है जिसके पास या तो पैन कार्ड नहीं है या आज तक उन्होंने कभी इनकम टैक्स रिटर्न नहीं भरा। ऐसे व्यापारियों के लिए कितना मुश्किल है सौ-पांच सौ ऐसे आदमी ढूंढना, जिनके अकॉउंट में एक दो महीने के लिए दस से पचास हजार तक रुपये जमा कराये जा सके। आसानी के लिए जन-धन खाता खुलवाया जा सकता है। आज पांच सौ और हजार के नोट जमा कराओ, दो महीने में दो हजार वाले निकाल लो और अपना कुछ हिस्सा ले लो। 2000 के नोट तो रखने में और भी आसान होंगे।
छठा सवाल
रही बात नकली और जाली नोटों की तो वो जरूर एकबारगी बंद हो जाएंगे पर ये भी ध्यान रखा जाए कि नकली नोट बनाने वालों को वो पांच सौ या हजार रुपए में नहीं पड़ता। उनको वक़्ती तौर पर कुछ नुक्सान होगा पर ऐसा तो नहीं है कि भारत बड़े नोट बंद करने जा रहा है। बल्कि अब तो दो हजार का बनाने जा रही है तो नकली नोट भी मार्किट में फिर से आने ही हैं। सरकार के पास उनको रोकने का क्या दीर्घकालिक उपाय है?
सातवां सवाल
नरेंद्र मोदी के चुनाव प्रचार में जो खर्च हुआ था, जाहिर है कि सफेद धन के इस्तेमाल से तो इतना खर्च हो नहीं सकता। तो क्या इस तरह के फैसले से सरकार, अपने ही चुनाव के फंडर्स को नाराज़ करेगी? और नहीं करती, तो क्या उनको पहले ही इसकी इत्तला थी? क्या ऐसा तो नहीं कि इस निर्णय का उपयोग, आने वाले विधानसभा चुनावों में बाकी दलों को कमजोर करने और अपने पास कैपिटल पहले से उपलब्ध रखने के लिए किया गया? क्योंकि चुनाव में जिस तरह भाजपा समेत सभी पार्टियां पैसा खर्च करती हैं, वह किसी भी तरह क़ानूनी पैसे से तो नहीं ही हो सकता है।
ऊपर लिखे संदेहो और सवालो पर एक बार विश्वास किया जाए तो अब प्रश्न उठता है कि सरकार ने इतना साहसिक और रिस्की निर्णय क्यों लिया। इस बारे में सिर्फ कयास ही लगाए जा सकते हैं।
आठवां सवाल
भारत के बैंको की हालात बहुत कमजोर है आज उन्हें एक बार स्थापित करने की कोशिश है ? क्योंकि इससे बैंक के पास पैसा आ जाएगा एक बार.के लिए ही सही। ये खाली पड़े जन-धन खातों की मेंटेनेंस से त्राहि कर रहे बैंकों को थोड़ा राहत देगा।
नवां सवाल
क्या यह भारत की उत्सवधर्मी जनता को बरगलाने और बहलाने की ये कोशिश है ? आज शहर के पॉश इलाको में पटाखे जलाये गए। अधिकतर आवाज उन कोठियो से आ रही थी जिनकी नींव काले धन से ही रखी गई थी। देश की जनता काफी सालो से एक तानाशाह की मांग कर रही है। क्या ये मांग पूरी होने का समय नजदीक है ?
सवाल कई हैं, संदेह कई है। चूंकि हमारे लिए ये एक बिलकुल नई घटना है तो सिर्फ कयास ही लगाए जा सकते है। असल परिणाम क्या होंगे ये तो अभी भविष्य की गर्भ में है। ये भी हो सकता है कि ये कदम, सच में सरकार ने ईमानदारी से देश हित में उठाया हो और देश को निकट भविष्य में इसका लाभ मिले। पर देश में कौन-कौन शामिल है ये एक अलग मसला है। किसान आदिवासी मजदूर दलित, क्या ये भी उसी देश की परिभाषा में शामिल है जिस देश को इस कदम का लाभ मिलेगा?
(लेखक पेशे से चार्टेड अकाउंटेंट हैं और राजनैतिक-सामाजिक रूप से सक्रिय हैं। फिलहाल हरयाणा में रहते हैं।)
अमोल से amolsaharan@gmail.com पर सम्पर्क किया जा सकता