VICTIMHOOD की बीमार सोच से पीछा छुड़ाएं मुसलमान

Written by एच. आई. पाशा | Published on: April 20, 2018
हिन्दू समुदाय का सांस्कृतिक और सामाजिक ताना बाना बुनियादी तौर पर कुछ ऐसा है जो उसे सारे मतों और धर्मों के प्रति विनम्र और उदार बनाता है. मगर पिछले कुछ समय में कुछ ऐसी उग्रवादी ताकतें उभरी हैं जो दूसरे धर्मों और उनके अनुनाईयों को देखने के उनके पुराने नज़रिए को बदल देना चाहती हैं. इसके पीछे उनका एक मकसद है और वह मक़सद है भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाना ... उनका एक पुराना सपना, और उनको लगता है कि जो काम अब तक नहीं हुआ उसे अब किया जा सकता है. इन ताकतों को लगता है कि बहुसंख्यकों के सामने जितना ज़्यादा अल्पसंख्यकों को हव्वा बना कर पेश किया जाएगा मक़सद पूरा करने का रास्ता उतना हमवार होगा. अल्पसंख्यक समुदायों में चूंकि मुसलामानों की तादाद सबसे ज़्यादा है वही सबसे ख़ास निशाना हैं. अच्छा यह है कि आज भी ज़्यादातर हिन्दू हिन्दुत्ववादियों की बातों से सहमत नहीं हैं पर बुरा यह है कि हिन्दुत्ववादियों का असर बढ़ रहा है.


ऐसे मुश्किल हालात में बहुत ज़रूरी हो गया है कि मुसलमान गंभीरता से सोचें कि उनके खिलाफ माहौल बनाने वाले लोग कामयाब क्यों हो रहे हैं ? उन्हें अपनी उन कमियों पर गौर करना होगा और, मानना भी होगा, जिन्होंने उन्हें विपरीत शक्तियों की नज़र में इतना कमज़ोर बना दिया है कि उन्हें लगने लगा है कि इनके ख़िलाफ़ कुछ भी किया जा सकता है और इन पर कोई भी आरोप मढ़ा जा सकता है. काफी हद तक इन्हीं आरोपों से वे अपने मक़सद को सही ठहराते हैं. जब हम अपनी कमियों को मानेंगे तभी उन्हें दूर करने के रास्ते भी तलाश कर सकते हैं.

मुसलामानों के इतना कमज़ोर होने और नज़र आने के पीछे कारण एक नहीं, अनेक हैं. उनकी एक बड़ी ख़ास समस्या तो है उनका आपस में ही न पटना. स्वाभाविक है कि कैसे कोई और उम्मीद करे कि मुसलामानों की उनसे निभ सकती है ? सुन्नी शिया को नापसंद करते हैं, शिया सुन्नी को. बरेलवियों और देवबंदियों के बीच कितनी मोहब्बत है, यह कोई गहरा राज़ नहीं है. हिन्दू हिन्दू से नहीं कहता कि तुम हिन्दू नहीं हो, ईसाई ईसाई से नहीं कहता कि तुम ईसाई नहीं हो लेकिन एक मुसलमान बेतकल्लुफ हो कर दूसरे मुसलमान को काफ़िर ठहरा सकता है. कहने को तो भारत में मुसलमान 18 करोड़ हैं लेकिन  ये 18 करोड़ कितने फिरकों में बटे हुए हैं और उन सब फिरकों में एक दूसरे के प्रति कितनी गहरी असहजता है, यह दुनिया में कौन नहीं जानता ! यह सच मुसलामानों को अब मान ही लेना चाहिए कि वे आपस में जितना बटेंगे उतना कमज़ोर होंगे और उतना ही उन्हें नापसंद करने वालों की नज़र में वे आसान शिकार होंगे. 

दूसरी बड़ी समस्या है कि मुस्लिम मज़हबी आलिम जिनकी ज़्यादातर बातों को आम मुसलमान बड़ी गंभीरता से लेते हैं, जितना ज़्यादा दीनी तरक्क़ी पर जोर देते हैं उस तरह दुनियावी तरक्की की ज़रुरत को अहमियत नहीं देते. अगर  उन्होंने अपनी तक़रीरों में दुनियावी तरक्की की अहमियत भी अपने सुनने वालों को समझाया होता तो उनका असर ज़रूर होता. कहना ग़लत न होगा कि मुसलामानों की दुनियावी तरक्की एक बहुत बड़ा जीरो है. आई आई टी और आई आई एम जैसे उच्च तकनीकी और व्यावसायिक शिक्षा वाले संस्थानों में वे इतना भी नहीं हैं कि नज़र आएं. आई ए एस और आई पी एस जैसी महत्वपूर्ण सरकारी नौकरियों में भी उनका हाल कोई जी खुश करने वाला नहीं है. इस वजह से जिन ऊंचे स्तरों पर राष्ट्रीय महत्व के फैसले लिए जाते हैं, भविष्य की योजनाएं बनती हैं, नीतियाँ तय होती हैं वहां तक वे पहुंचेगे ही नहीं तो उनका ख़सारे में रहना क़ुदरती है. अच्छी पढ़ाई की कमी से न वे अपनी बात कहने में समर्थ हो पाते हैं, न बड़ा कारोबार करने की अहलियत रखते हैं और न ऊंचे स्तर की नौकरियां हासिल कर सकते हैं. यह बात साफ़ है कि दुनिया में उन्हीं क़ौमों की पूछ और इज्ज़त होती है जो दुनिया में अपने होने की अहमियत को अपनी आर्थिक और वैज्ञानिक तरक्की से साबित कर देते हैं. जिनके मामले में ऐसा नहीं होता वे धरती का बोझ मान लिए जाते हैं. दो-चार अच्छी मिसालों से काम नहीं चलता. देखा यह जाता है कि आपकी औसत क्या है.

अपनी बदहाली के लिए उन्हें पूरी तरह से नीति निर्धारकों को ज़िम्मेदार नहीं ठहरा देना चाहिए. सही है कि उनके साथ भेद-भाव होता है लेकिन यह भी तो समझदारी नहीं हो सकती कि कोशिश करना ही बंद कर दिया जाए. जिन चंद मुसलामानों ने कोशिश की, कठिनाइयों से जो जूझे उनका अंजाम अच्छा ही रहा. UPSC में शानदार रैंको से कामयाब होने वाले कश्मीरी युवकों की मिसाल सामने है. सरकारी नौकरियों पर ही मारा-मारी क्यों ? दुनिया भर की बड़ी-कम्पनियां मोटी- मोटी तनख्वाहों की पेशकश के साथ आपका इंतज़ार कर रही हैं. वहां कोई भेद-भाव नहीं है. जाइए. लेकिन पहले वहां जाने के क़ाबिल तो बनिए. कुछ तो ज़िम्मेदार मुसलामानों को अपने आप को और अपने तथाकथित रहनुमाओं को भी मानना होगा. CONSPIRACY THEORY और VICTIMHOOD की बीमार सोच से जितनी जल्दी वे पीछा छुड़ा लें बेहतर होगा. 

DENIAL MODE  से बाहर निकलना मुसलामानों के लिए बेहद ज़रूरी हो चुका है. उन्हें मान लेना चाहिए कि आतंकवाद एक हक़ीक़त है. कुछ लोगों को यह ग़लतफ़हमी हो गयी है कि वे बम और बन्दूक से सारी दुनिया पर एक न एक दिन इस्लाम का झंडा फहरा देंगे. कई देशों में उन्होंने मुसलामानों का इतना ज़्यादा खौफ़ पैदा कर दिया है कि वे कहने लगे हैं कि खुदा के लिए मुसलमान यहाँ न आएं. जो पढ़े-लिखे मुस्लिम नौजवान बेहतर मौक़ों की तलाश में कहीं जाकर अपनी एक जगह बनाने का ख्वाब देख रहे थे उनके ख्वाब इन मेहरबानों की वजह से बिखर रहे हैं. सच है कि अमरीका जैसे ताक़तवर मुल्कों ने अपने लाभ के लिए कमज़ोर मुस्लिम मुल्कों का बहुत ज़्यादा नुक्सान किया, लेकिन अमरीका ने दक्षिण अमरीका के ग़रीब देशों, वियतनाम और जापान को भी तबाह करने की पूरी कोशिश की. वहां अल-काएदा, आई एस आई एस और बोको हराम क्यों नहीं पैदा हो गए ? 

अच्छी बात यह है कि भारत के मुसलमान कुल मिला कर इनके असर में नहीं आए, आरएसएस और उनके भाई बन्धु कुछ भी कहें. लेकिन यह मानना पड़ेगा कि जिस पुरज़ोर आवाज़ में वे फिलिस्तीन और रोहिंगिया मुसलामानों की हमदर्दी में बोलते हैं, मुस्लिम दहशतगर्दों के खिलाफ बोलते हुए उनकी आवाज़ कमज़ोर पड़ जाती है. भारत में मुसलामानों के विरुद्ध जो कुछ हुआ है या हो रहा है दलितों और आदिवासियों के साथ उससे कुछ बेहतर नहीं हो रहा है. लेकिन ज़्यादातर मुसलमानों का रुख कुछ ऐसा रहा है जैसे उन्हें पता ही न हो. उलटे, अफ़सोस की बात है कि जो मुसलमान आज भी खुद को ऊंची ज़ात वाला समझने में गर्व महसूस करते हैं, हालाकि इस्लाम में जातिवाद है ही नहीं, उनका बर्ताव दलितों के साथ खुद भी अच्छा नहीं रहा है. वक़्त है कि वे अपनी उन पिछली भूलों को स्वीकार करें, आगे बढ़ें और भाई की तरह उनके साथ खड़े हों. अपने अहम् से थोड़ा सा समझौता उन्हें ज़रूर करना होगा लेकिन इतने सारे इंसानों को अपने साथ जोड़ना एक अभूतपूर्व ताक़त देने वाला एहसास पैदा करेगा. 

दसियों करोड़ हिन्दू हैं जो पहले की तरह आज भी मुसलामानों को दोस्त समझते हैं. उन्हें याद रखना चाहिए कि पिछले लोक सभा चुनाव में जिन 69 फीसदी लोगों ने बीजेपी को वोट नहीं दिया था वे सिर्फ मुसलमान नहीं थे. उनमें मुसलामानों के पक्ष में बोलने वालों की कमी नहीं है. मुसलमान ही हैं जो अक्सर खामोश रह जाते हैं जब उन दोस्तों पर कोई मुश्किल आती है. वक़्त है कि उन मुसीबतज़दा लोगों के लिए भी बोलना शुरू कीजिए जो मुसलमान नहीं हैं. दिल से, ईमानदारी के साथ, महज़ अपने फाएदे के लिए नहीं. इतनी बड़ी आबादी के साथ-साथ नज़र आना वैसे कोई कम फाएदे वाली बात नहीं है.

मुसलमान ने अपनी आधी आबादी को तो मज़हब और रवायत के नाम पर दीवारों के पीछे बैठा दिया. यह आबादी मुस्लिम औरतों की है. औरतों के मामले में तो हिन्दू पुरुषवादियों ने भी कोई बहुत बड़ा दिल नहीं दिखाया लेकिन मुस्लिम औरतों की हालत बहुत ज़्यादा तशवीशनाक रही है. सोचिये, आपने अपनी आबादी के बहुद बड़े हिस्से को अउत्पादक बना दिया. संभानाओं से भरपूर कितनी औरतें रहीं होंगी जिनके भीतर की प्रतिभा को न समझा गया, न स्वीकार किया गया. इन्ही में से जिन चंद को मौक़ा और प्रोत्साहन मिला उन्होंने दिखा दिया कि अगर बाहूबल और गरजती-बरसती आवाज़ को एक तरफ रख दिया जाए तो वे किसी भी फील्ड में पुरुष से कम नहीं हैं. अगर इतनी बड़ी स्त्री आबादी के थोड़े से भी हिस्से को घर से निकलने और जीवन में आगे बढ़ कर कुछ कर गुज़रने का मौक़ा मिला होता तो विज्ञान से लेकर आर्थिक खुशहाली तक न जाने कितने मैदानों में एक लहराता झंडा मुसलामानों का भी होता.

मौजूदा वक़्त में मुसलामानों की इमेज क्या है ! इसकी मिसाल टीवी चैनेलों के TALK SHOWS  में मिल जाती है. इनमें बहस के लिए आम तौर सिर्फ ख़ास ढब के मुसलमान नज़र आते हैं. विषय कुछ भी हो, बुलाए जाएंगे यही लोग जो छूटते ही अपनी न जाने किस ज़माने की दलीलों से इस ख्याल को कुछ और मज़बूत कर देते हैं कि मुसलमान कैसे होते हैं. बहुत अभाव के बाद भी अगर आप ढूँढना चाहें तो आपको ऐसे मुस्लिम डॉक्टर, वैज्ञानिक, कलाकार, टेक्नोक्रेट, चिन्तक और पत्रकार मिल ही जाएंगे जो एंकर के सवालों का वह जवाब दे सकते हैं जो होना चाहिए. लेकिन उसमें मज़ा नहीं आता...TRP नहीं बनती. मुसलामानों की जो इमेज बनी है वही उनको चाहिए. ग़रीब, गंवार, सदियों पहले के वक्तों में जीने वाले और कमज़ोर लोग. इतने कमज़ोर कि उनके खिलाफ कुछ भी कहो सब सच लगने लगता है. यह इमेज उन्हें पसंद न करने वालों और उनके खंडहर पर अपने सपनों का महल खड़ा करने का मकसद रखने वालों के लिए बड़े काम की है. लेकिन...ऐसा नहीं है कि इस इमेज को बदला नहीं जा सकता. 

बदलेगा कौन ? खुद मुसलमान ही बदल सकते हैं. वक़्त लगेगा, सब्र करना होगा. मुश्किल तो है, नामुमकिन नहीं है. कमज़ोर होना बहुत बुरा है लेकिन कमज़ोर नज़र आना सबसे बुरा है. जब आप कमज़ोर नज़र आते हैं तो किसी के हाथ में भी खुजली हो सकती है. अपनी इन सारी कमज़ोरियों को मुसलमान नकार दें, लेकिन जॉर्ज ऑरवेल के ‘ बिग ब्रदर ‘ की तरह आर एस एस सब देखता है, सब जानता है. शायद अभी भी वक़्त हो. अपने आप को व्यापक रूप से बदलिए. मज़बूत बनिए, मज़बूत नज़र आइए.

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