बनारस की गंगा-जमुनी तहज़ीब: मुसलमानों की मेहमाननवाज़ी ने महाकुंभ तीर्थयात्रियों का दिल जीता, सौहार्द्र की नई मिसाल-ग्राउंड रिपोर्ट

Written by विजय विनीत | Published on: February 15, 2025
महाकुंभ के दौरान जहां एक ओर अव्यवस्थित भीड़, प्रशासनिक लापरवाही और ठहरने की कठिनाइयों से श्रद्धालु परेशान थे, वहीं दूसरी ओर मुस्लिम समाज के लोग बिना किसी भेदभाव के श्रद्धालुओं की सेवा में जुटे हुए हैं। वे न सिर्फ रास्ता दिखाने और भोजन-पानी की व्यवस्था में मदद कर रहे हैं, बल्कि अपने घरों के दरवाज़े भी श्रद्धालुओं के लिए खोल दिए हैं।

 

उत्तर प्रदेश का बनारस, जिसे काशी भी कहा जाता है, सिर्फ एक शहर नहीं, बल्कि एक जज़्बा है, एक एहसास है, जहां मज़हब से ऊपर इंसानियत बसती है। यह नगरी गंगा के किनारे बसी तो जरूर है, लेकिन इसकी तहज़ीब की धार हर उस दिल को छूती है जो प्रेम, अपनत्व और भाईचारे में यकीन रखता है। महाकुंभ के इस पावन अवसर पर बनारस के मुस्लिम समुदाय ने एक बार फिर यह साबित कर दिया कि इंसानियत से बड़ा कोई धर्म नहीं होता।

महाकुंभ के दौरान जहां एक ओर अव्यवस्थित भीड़, प्रशासनिक लापरवाही और ठहरने की कठिनाइयों से श्रद्धालु परेशान थे, वहीं दूसरी ओर मुस्लिम समाज के लोग बिना किसी भेदभाव के श्रद्धालुओं की सेवा में जुटे हुए हैं। वे न सिर्फ रास्ता दिखाने और भोजन-पानी की व्यवस्था में मदद कर रहे हैं, बल्कि अपने घरों के दरवाज़े भी श्रद्धालुओं के लिए खोल दिए हैं। जब देशभर में नफरत और बंटवारे की राजनीति अपने चरम पर थी, तब कुछ लोग ऐसे भी थे, जिन्होंने मोहब्बत और भाईचारे की मिसाल पेश की। इसी मिसाल के एक किरदार हैं सलीम मर्चेंट, जो छोटी कटिंग में रहते हैं और इन दिनों श्रद्धालुओं के लिए किसी फ़रिश्ते से कम नहीं हैं।

महाकुंभ के चलते बनारस में श्रद्धालुओं का सैलाब उमड़ पड़ा है। हालात ऐसे हैं कि होटल और धर्मशालाएं पूरी तरह भर चुकी हैं, और तमाम तीर्थयात्री या तो गाड़ियों में रात गुजारने को मजबूर हैं या फिर फुटपाथों पर सो रहे हैं। ऐसे कठिन समय में सलीम मर्चेंट जैसे नेकदिल इंसान उम्मीद की किरण बनकर सामने आए हैं। अब तक वे करीब साढ़े चार हजार तीर्थयात्रियों को अपने घर में पनाह दे चुके हैं—सिर्फ रहने की जगह ही नहीं, बल्कि उनके लिए भोजन और सोने का भी पूरा इंतज़ाम किया है।


"काशी में इंसानियत की काशी देखी"

15 फरवरी को नेपाल के सिरा गांव से नौ तीर्थयात्रियों का जत्था बनारस पहुंचा। लेकिन भीड़ और अव्यवस्था के कारण वे असहाय महसूस करने लगे। यहां तक कि उन्हें पीने के पानी तक के लिए भटकना पड़ा। संयोगवश, उनके दल के अगुवा राम इकबाल यादव पानी की तलाश में छोटी कटिंग के सलीम मर्चेंट के घर जा पहुंचे। सलीम ने न सिर्फ पानी दिया, बल्कि अपने घर के दरवाज़े भी उनके लिए खोल दिए।

राम इकबाल यादव नेपाल कांग्रेस के प्रदेश स्तरीय सदस्य हैं। उनके साथ बेटा रामकरण, पोता आदर्श यादव, पत्नी दौलत यादव, अनीता देवी और सीता शाह भी थीं। तीर्थयात्रियों के पास अपने खाने-पीने का इंतजाम था, लेकिन सलीम मर्चेंट ने उनके लिए नहाने और सोने की व्यवस्था कर दी। उनके परिवार के सभी सदस्यों ने मिलकर मेहमानों को पूरा सम्मान दिया।

नेपाली कांग्रेस के प्रदेश स्तरीय सदस्य राम इकबाल यादव की आंखों में एक नई रोशनी थी, जब उन्होंने कहा, "बनारस आने से पहले जो सुना था, और जो यहां देखा, उसमें ज़मीन-आसमान का फर्क है। समाज में हिंदू-मुस्लिम के बीच जो नफरत फैलाई जा रही है, वह केवल राजनीति का हिस्सा है। असल सच्चाई यह है कि भारत की गली-गली में इंसानियत ज़िंदा है।" उनके शब्दों में एक नई आशा थी, एक नई सोच, एक नई सच्चाई। बनारस ने उन्हें दिखा दिया कि राजनीति भले ही दीवारें खड़ी कर दे, लेकिन दिलों में आज भी प्रेम बहता है, गंगा की अविरल धारा की तरह।

राम इकबाल कहते हैं, "आज टीवी और मोबाइल पर अक्सर हिंदू-मुस्लिम के बीच टकराव की तस्वीरें देखने को मिलती हैं। लेकिन काशी में उन्होंने जो देखा, वह इन सबसे अलग था।" उन्होंने आगे कहा, "हमने कभी नहीं सोचा था कि हमें मुसलमान भाई के घर इतना सम्मान मिलेगा। मेरे लिए यह एक चौंकाने वाला लेकिन सुकून देने वाला अनुभव था।"

तीर्थयात्रियों ने खुद बनाया खाना

"हमें घर ही नहीं, दिल में भी जगह मिली"

नेपाल से आई अनीता देवी यादव की आंखें नम हो गईं जब उन्होंने सलीम मर्चेंट और उनके परिवार के व्यवहार के बारे में बताया। उन्होंने कहा, "हम तो सोच भी नहीं सकते थे कि कोई हमें इतना अपनापन देगा। सलीम मर्चेंट और उनके परिवार ने सिर्फ अपने घर का दरवाज़ा नहीं खोला, बल्कि अपने दिल में भी हमें जगह दी। जो पूर्व धारणाएं थीं, वो अब मिट चुकी हैं।"

अनीता यह भी कहती हैं, "बनारस की यह कहानी सिर्फ एक इंसान की दरियादिली की नहीं, बल्कि इस शहर की गंगा-जमनी तहज़ीब की है। यह वही बनारस है, जहां मंदिर की घंटियों और मस्जिद की अज़ानों की गूंज मिलकर प्रेम और भाईचारे का गीत गाती है। यहां कोई मज़हब बड़ा नहीं होता, यहां सिर्फ इंसानियत की इबादत होती है। बनारस आज भी वही है, जो कबीर के समय में था—जहां राम और रहीम के बीच कोई फासला नहीं, जहां हर कोई गंगा की तरह सबको अपनाने को तैयार रहता है।"

नेपाल से आए तीर्थयात्रियों के अलावा हिसार से आए श्रद्धालुओं के लिए भी यह अनुभव किसी चमत्कार से कम नहीं था। हिसार से आए डॉ. वेद शर्मा, जो स्वयं भी धर्म और आध्यात्म में गहरी रुचि रखते हैं, यह देखकर आश्चर्यचकित और भावुक थे कि एक मुस्लिम परिवार ने न सिर्फ उन्हें अपने घर में जगह दी, बल्कि उन्हें पूरी श्रद्धा और सम्मान के साथ ठहराया। उनके शब्दों में उनके हृदय की गहराई से निकला सच था, "काशी में हमें एक मुसलमान भाई के घर में वह अपनापन मिला, जो शायद हमारे अपने घरों में भी नहीं मिलता। हमने यहां रामायण का पाठ किया, जो हमारे घर में भी शायद कभी इतना विधिपूर्वक नहीं हुआ था।"

हरियाणा के एक सरकारी शिक्षक उमेश शर्मा, जो अपने परिवार और दोस्तों के साथ बाबा विश्वनाथ के दर्शन के लिए बनारस पहुंचे थे, यहां के हालात देखकर परेशान हो गए। महाकुंभ और शिवरात्रि के कारण शहर में इतनी भीड़ थी कि होटल और धर्मशालाएं पूरी तरह भरी हुई थीं। सड़क के किनारे या गाड़ियों में रात बिताने के अलावा कोई और विकल्प नहीं था। लेकिन तभी बनारस के सलीम मर्चेंट, जो छोटी कटिंग इलाके में रहते हैं, एक मसीहा बनकर सामने आए।


डॉ. वेद शर्मा की आँखों में आभार और विस्मय था, जब उन्होंने कहा, "हमने कभी नहीं सोचा था कि एक मुसलमान के घर हमें इतनी इज़्ज़त और मोहब्बत मिलेगी। हमने यहाँ आकर रामायण का पाठ किया, जो शायद अपने घर में भी नहीं कर पाए थे।" यह सिर्फ़ रामायण का पाठ नहीं था, यह उस सोच के खिलाफ़ एक सशक्त जवाब था जो धर्म के नाम पर नफ़रत फैलाती है।"

उमेश शर्मा के साथ आए श्रद्धालुओं में से एक ने भावुक होते हुए कहा, "हमने काशी में सिर्फ मंदिरों के दर्शन की उम्मीद की थी, लेकिन यहां आकर असली ईश्वर से मिले—इंसानियत के रूप में। धर्म और जाति की दीवारें सिर्फ समाज को बांटने का काम करती हैं, लेकिन असलियत यह है कि लोग एक-दूसरे से प्रेम और एकता के साथ रहना चाहते हैं।"

महाकुंभ में हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और अन्य राज्यों से आए हज़ारों श्रद्धालु परेशान थे। ठहरने की जगह नहीं मिल रही थी, भोजन की व्यवस्था लड़खड़ा गई थी, लेकिन बनारस के लोगों ने आगे बढ़कर उन्हें सहारा दिया। उन्होंने कहा, "यह जो हिंदू-मुस्लिम के नाम पर समाज को बांटने की राजनीति हो रही है, यह बेकार है। हम हरियाणा जाकर सबको बताएंगे कि मुसलमान भाई भी उतने ही स्नेही और दयालु होते हैं जितने हम। "बनारस की गंगा-जमुनी तहज़ीब ने यह फिर साबित कर दिया कि धर्म से बड़ा इंसानियत का रिश्ता होता है। "

काशी की धरती बाबा विश्वनाथ की नगरी है, जहां ज्ञानवापी मस्जिद और काशी विश्वनाथ मंदिर दोनों हैं। यह शहर एकता और मोहब्बत की मिसाल रहा है और आगे भी रहेगा। यही वजह है कि जब कुछ लोग समाज में ज़हर घोलने की कोशिश कर रहे थे, तब बनारस के आम लोग मोहब्बत और भाईचारे का संदेश दे रहे थे।


"अतिथि देवो भवः हमारी संस्कृति"

काशी में हुए इस अतिथि सत्कार ने पूरे देश को यह संदेश दिया कि हम चाहे किसी भी धर्म के हों, लेकिन हम सबसे पहले इंसान हैं। इस घटना को जिसने भी सुना, उसकी आँखें नम हो गईं। हिसार और नेपाल से आए श्रद्धालुओं का यह अनुभव यह साबित करता है कि धर्म सिर्फ इबादत का नाम नहीं, बल्कि व्यवहार और प्रेम का रूप है। सलीम मर्चेंट और उनके परिवार ने जिस सहजता से इन अजनबी श्रद्धालुओं को अपनाया, बिना किसी भेदभाव के उनकी सेवा की, वह साबित करता है कि काशी में सिर्फ मंदिरों की घंटियां ही नहीं बजतीं, बल्कि इंसानियत की आवाज़ भी गूंजती है।

यह बनारस की वो तहज़ीब है, जो सदियों से चली आ रही है—जहां मंदिरों की आरती और मस्जिदों की अज़ान एक ही सुर में मिलकर प्रेम का संगीत गाते हैं। सलीम मर्चेंट जैसे लोग इस धरती पर इंसानियत के असली पुजारी हैं। उन्होंने साबित कर दिया कि मज़हब दिलों को तोड़ने के लिए नहीं, बल्कि जोड़ने के लिए होता है। काशी में भगवान शिव का आशीर्वाद केवल मंदिरों में नहीं, बल्कि ऐसे नेकदिल इंसानों के रूप में भी मिलता है।

सलीम मर्चेंट ने न सिर्फ श्रद्धालुओं को अपने घर में जगह दी, बल्कि भोजन, पानी और आराम करने की पूरी व्यवस्था भी की। यह देखकर उमेश शर्मा अचरज और भावनाओं के मिश्रण से भर गए। जब सलीम मर्चेंट से पूछा गया कि वे बिना किसी स्वार्थ के इतने लोगों की मदद क्यों कर रहे हैं, जबकि सरकार और अखाड़ा परिषद की तरफ से मुसलमानों को महाकुंभ में जाने से रोका गया था, तो उनका जवाब था, "मैं सामाजिक व्यक्ति हूं। मेरे लिए अतिथि देवो भवः सबसे महत्वपूर्ण संस्कार है। धर्म से पहले इंसानियत आती है, और हमारे घर आए मेहमान का सत्कार करना हमारी परंपरा है।"

उनके इन शब्दों में काशी की विरासत, संस्कृति और असली पहचान झलक रही थी। काशी की यही खासियत इसे सबसे अलग बनाती है—यहां धर्म सिर झुकाने के लिए नहीं, बल्कि दिल जोड़ने के लिए होता है। सलीम मर्चेंट की आवाज़ में एक दर्द था, जब उन्होंने कहा, "यही तो बनारस है। यहाँ मस्जिद की अज़ान और मंदिर की आरती एक ही समय गूंजती है, और हर घर अतिथि देवो भवः की परंपरा निभाता है। फिरकापरस्त ताकतें मुसलमानों पर तमाम झूठी तोहमत लगाती हैं। हमें देशद्रोही कहा जाता है, लेकिन हम हिंदुस्तानी हैं, और हिंदुस्तानी होने का मतलब ही सेवा और भाईचारा है।

सलीम मर्चेंट कहते हैं, "हम काशीवासी हैं, और काशी में कोई भी भूखा या बेघर नहीं सोता। हमारे दरवाज़े हर इंसान के लिए खुले हैं, फिर चाहे वह किसी भी धर्म का हो।" महाकुंभ में कई जगह अव्यवस्था थी, लेकिन बनारस के मुस्लिम समाज ने सेवा को अपना धर्म बना लिया। अमान खान, जो गंगा घाट पर श्रद्धालुओं को पानी पिला रहे थे, ने कहा, "हमारे लिए सबसे बड़ा धर्म सेवा है। प्यासे को पानी पिलाना अल्लाह की इबादत भी है और यही हमारी परंपरा भी।"


नई सड़क पर मोहब्बत का कैंप

जब नफरत की आंधियां तेज होती हैं, तब मोहब्बत की लौ और भी उजली हो जाती है। बनारस में महाकुंभ के दौरान कुछ ऐसा ही देखने को मिला, जहाँ मोहब्बत और इंसानियत के कारवां ने नफरत के हर दावे को झूठा साबित कर दिया। यह महज़ एक सेवा अभियान नहीं था, बल्कि एक पैगाम था कि इंसानियत और भाईचारा किसी भी धार्मिक या राजनीतिक दीवार से बड़ा होता है।

नई सड़क पर शमशाद अहमद खान के नेतृत्व में हिन्दू तीर्थ यात्रियों के लिए एक विशेष कैंप लगाया गया, जिसमें ठहरने की सुविधा के अलावा अन्य आवश्यक व्यवस्थाएँ भी की गईं। इस पहल का मकसद सिर्फ सेवा नहीं, बल्कि एकता और सौहार्द्र का संदेश देना भी था। शमशाद अहमद खान का कहना है, "हमारे हुजूर का पैगाम यही था कि अगर कोई तुम्हें लाठी मारे तो तुम उसे मोहब्बत दो। आज हम वही कर रहे हैं। नफरत फैलाने वालों के लिए हमारे पास सिर्फ मोहब्बत है।" यह शब्द केवल जज़्बात नहीं, बल्कि एक ठोस अमल की गवाही देते हैं। यह कैंप हर उस व्यक्ति के लिए खुला था, जिसे मदद की जरूरत थी, चाहे वह किसी भी धर्म, जाति या संप्रदाय से ताल्लुक रखता हो।

बनारस के गोलगड्डा इलाके में इम्तियाज अहमद बबलू के नेतृत्व में एक भंडारे का आयोजन किया गया, जिसमें सभी धर्मों के लोगों के लिए भोजन की व्यवस्था की गई। यह आयोजन सिर्फ भोजन वितरण तक सीमित नहीं था, बल्कि यह दर्शाने के लिए था कि धर्म से बड़ा कोई नहीं और इंसानियत सबसे ऊँचा मूल्य है।

इम्तियाज अहमद बबलू कहते हैं, "हमने किसी के लिए कोई पाबंदी नहीं रखी। चाहे हिंदू भाई हों, मुस्लिम हों या कोई भी राहगीर, हमारे दरवाजे सबके लिए खुले हैं। जब भूख और प्यास का कोई धर्म नहीं होता, तो सेवा करने वालों का भी कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए।"

जब इस भंडारे को लेकर कुछ लोगों ने सवाल उठाए और कहा कि जब महाकुंभ में मुसलमानों की भूमिका को सीमित करने की कोशिश की गई है, तो फिर वे सेवा क्यों कर रहे हैं, इस पर इम्तियाज अहमद का जवाब था, "हम रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु वसल्लम की उम्मत से हैं। हमारी पहचान मोहब्बत और सेवा से है, न कि नफरत से। हम उस तहज़ीब को आगे बढ़ा रहे हैं, जो गंगा-जमुनी संस्कृति का हिस्सा रही है।"


बनारस का पैगाम

महाकुंभ जैसे धार्मिक आयोजन में जहां सियासत ने कुछ दीवारें खड़ी करने की कोशिश की, वहीं बनारस के इन इंसानियत के सिपाहियों ने यह सिद्ध कर दिया कि मोहब्बत और सेवा किसी भी तरह की पाबंदियों से बड़ी होती है। यह आयोजन केवल एक सामाजिक पहल नहीं, बल्कि एक संदेश था कि हम एक हैं, हमारी पहचान नफरत से नहीं, बल्कि आपसी प्रेम और सेवा से बनती है।

इस महाकुंभ में बनारस ने एक बार फिर साबित कर दिया कि सियासत चाहे जितनी भी नफ़रत फैलाए, मोहब्बत के पैरोकार कभी हार नहीं मानते। काशी से निकला यह संदेश सिर्फ़ बनारस तक सीमित नहीं रहेगा, यह दूर-दूर तक जाएगा और हर उस दिल को छुएगा जो प्रेम और सौहार्द्र में यकीन रखता है। यह उस हर इंसान के लिए सबक है, जो मज़हब के नाम पर दीवारें खड़ी करता है। बनारस कहता है, "धर्म से पहले इंसानियत आती है, और जब तक इंसानियत ज़िंदा है, तब तक मोहब्बत ही जीतेगी।"

काशी विश्वनाथ मंदिर के पूर्व महंत राजेंद्र तिवारी कहते हैं, "काशी में सेवा और सौहार्द्र: इंसानियत से बड़ा कोई धर्म नहीं। भारतीय संस्कृति में काशी का स्थान सर्वोच्च है। यह केवल आस्था और आध्यात्मिकता की नगरी नहीं, बल्कि सेवा, समर्पण और इंसानियत की पराकाष्ठा का जीवंत प्रमाण भी है। यहां शिव की कृपा जितनी बरसती है, उतना ही प्रेम और भाईचारे का भाव भी उमड़ता है। काशी के घाटों पर डुबकी लगाने वाले श्रद्धालु हों या गलियों में भटकते राहगीर—हर किसी को यहाँ अपनापन और परोपकार का दर्शन होता है। यही वजह है कि काशी केवल एक शहर नहीं, बल्कि एक जिंदा संस्कृति है, जहां धर्म की परिभाषा सेवा से शुरू होकर सेवा पर ही खत्म होती है।"

"काशी की एक खासियत यह भी है कि यहाँ कोई भूखा नहीं सोता। विभिन्न धर्मों और समुदायों के लोग हर रोज़ गंगा घाटों पर जरूरतमंदों को भोजन कराते हैं। जब भी कोई बड़ा धार्मिक आयोजन होता है, तो यहाँ के मुसलमान भाई भी पीछे नहीं रहते। लंगरों और भंडारों में वे उतनी ही श्रद्धा से सेवा करते हैं, जितनी श्रद्धा से कोई संत भजन-कीर्तन में लीन होता है। मुस्लिम समुदाय के कई युवा घाटों पर घूम-घूमकर उन लोगों की सहायता करते हैं, जो पहली बार काशी आए होते हैं और गलियों के जाल में उलझ जाते हैं। कई जगहों पर इन्होंने निशुल्क पानी और भोजन की व्यवस्था की, ताकि कोई भी श्रद्धालु भूखा या प्यासा न रहे। यह पहल बताती है कि इंसानियत से बड़ा कोई धर्म नहीं और मदद करने के लिए किसी विशेष जाति या मजहब की जरूरत नहीं पड़ती।"

सेवा में सौहार्द्र की गूंज

काशी की गंगा-जमुनी तहज़ीब का एक और सुंदर दृश्य घाटों पर देखने को मिलता है, जब हिंदू-मुस्लिम एक साथ मिलकर किसी बड़े आयोजन की तैयारी में जुटते हैं। कई जगहों पर मुस्लिम युवाओं ने शिवभक्तों की सेवा में भाग लिया—कभी भंडारे में रोटियां सेंकते दिखे, तो कभी दर्शनार्थियों को मार्गदर्शन देते हुए। यही वह परंपरा है, जिसने काशी को सिर्फ एक धार्मिक नगरी नहीं, बल्कि समरसता और आपसी सहयोग का केंद्र बना दिया है। यह पहल उन लोगों के लिए भी जवाब है, जो समाज को बांटने की राजनीति करते हैं। काशी ने हमेशा से नफरत का जवाब प्रेम से दिया है और यही इसकी आत्मा भी है।

काशी विश्वनाथ मंदिर में नियमित पूजा-अर्चना करने वाले वैभव कुमार त्रिपाठी कहते हैं, " काशी में अगर कोई भूखा है, तो उसे खाना खिलाना सबसे बड़ा पुण्य है। चाहे वह किसी भी जाति या धर्म का हो, भूख सबको एक जैसी लगती है। यह भावना बताती है कि असली भारतीय संस्कृति क्या है—वह प्रेम, सहयोग और समर्पण में बसती है। काशी की गलियों से लेकर उसके घाटों तक यही संदेश गूंजता है कि जब हम जाति-धर्म से ऊपर उठकर मानवता को प्राथमिकता देंगे, तभी एक सशक्त और समरस समाज का निर्माण होगा। सेवा का कोई धर्म नहीं होता—यह बात बनारस में हर रोज़ साबित होती है।"

बनारस के चर्चित चैनल खोज खबरिया के संपादक ओवैद कहते हैं, "महाकुंभ मेला न केवल आस्था और आध्यात्मिकता का संगम है, बल्कि यह भारतीय संस्कृति की समृद्ध विरासत और आपसी सौहार्द्र का प्रतीक भी है। हर बार जब यह महापर्व आयोजित होता है, लाखों-करोड़ों श्रद्धालु प्रयागराज (इलाहाबाद) में गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती के पवित्र संगम में स्नान के लिए उमड़ते हैं। इस दौरान श्रद्धालुओं की यात्रा और उनके ठहरने की व्यवस्था एक बड़ी चुनौती बन जाती है। लेकिन जब प्रशासन की व्यवस्थाएँ सीमित पड़ जाती हैं, तब इंसानियत आगे बढ़कर अपना फर्ज निभाती है।"

"इस बार महाकुंभ से लौटने वाले तीर्थयात्रियों की सहायता के लिए बनारस के कई मुस्लिम परिवारों ने अपने घरों के दरवाजे खोल दिए, यह दर्शाते हुए कि इंसानियत का रिश्ता सियासत से कहीं बड़ा होता है। इस घटना ने यह स्पष्ट कर दिया कि भले ही राजनीति समाज को धर्म और जाति के आधार पर बाँटने की कोशिश करे, लेकिन असली भारत अभी भी प्रेम, भाईचारे और एकता की मिसाल कायम कर रहा है।बनारस की गलियों में एक कहावत प्रचलित है, " बनारस न किसी का था, न किसी का है, बनारस तो बस बनारसियों का है।’ यहाँ गंगा-जमुनी तहज़ीब की जड़ें इतनी गहरी हैं कि इसे कोई राजनीतिक हवा उखाड़ नहीं सकती।"

एक्टिविस्ट मुनीजा खान कहती हैं, "महाकुंभ से लौटने वाले श्रद्धालुओं के लिए जब सार्वजनिक परिवहन और विश्रामगृहों की कमी महसूस हुई, तब बनारस के कई मुस्लिम परिवार आगे आए और उन्होंने श्रद्धालुओं को अपने घर में रुकने का निमंत्रण दिया। उन्होंने न केवल उन्हें विश्राम करने की जगह दी, बल्कि उनके लिए भोजन और अन्य सुविधाओं का भी प्रबंध किया। यह कोई पहली बार नहीं हुआ है जब बनारस ने इंसानियत की ऐसी मिसाल पेश की हो। इतिहास गवाह है कि इस शहर ने हमेशा प्रेम और सद्भाव की मिसालें दी हैं—चाहे वह गंगा तट पर उर्दू शायरों की महफिलें हों या मंदिरों के पास बजती अज़ान की आवाज़।"


"आज के दौर में राजनीति अक्सर धर्म, जाति और संप्रदाय के नाम पर समाज को बाँटने का प्रयास करती है। राजनेताओं के भाषणों में अक्सर नफरत भरी बातें सुनाई देती हैं, जिससे समाज में तनाव उत्पन्न होता है। लेकिन जब भी कोई आपदा आती है या कोई बड़ा आयोजन होता है, तब इंसानियत सियासत से बड़ी साबित होती है।"

मुनीजा यह भी कहती हैं, "जब कोरोना महामारी आई थी, तब हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों के लोगों ने एक-दूसरे की मदद की थी। कई मस्जिदों में लंगर लगाए गए और गुरुद्वारों में जरूरतमंदों के लिए भोजन की व्यवस्था की गई। 2013 की उत्तराखंड बाढ़ में मुस्लिम समुदाय ने कांवड़ यात्रियों को बचाने में अपनी जान लगा दी थी। 1947 के विभाजन के दौरान जब चारों तरफ दंगे हो रहे थे, तब भी बनारस, लखनऊ और अन्य शहरों में हिंदू और मुस्लिम परिवारों ने एक-दूसरे को बचाया था।"

"बनारस के लिए धर्म केवल आस्था की बात है, न कि किसी के प्रति नफरत या भेदभाव का आधार। यहाँ मस्जिदों की अज़ान और मंदिरों की घंटियाँ एक साथ गूंजती हैं। यहाँ हर साल गंगा महोत्सव और मुहर्रम का जुलूस बिना किसी विवाद के निकलता है। बनारस के पंडित ग़ालिब और मीर को पढ़ते हैं, तो यहाँ के मुस्लिम तुलसीदास की रामचरितमानस सुनते हैं। महाकुंभ से लौटते तीर्थयात्रियों के लिए मुस्लिम परिवारों द्वारा अपने घरों के दरवाजे खोल देना इस बात का प्रमाण है कि सियासत चाहे जितनी भी नफरत फैलाने की कोशिश करे, लेकिन आम जनता के दिलों में इंसानियत की लौ कभी बुझने वाली नहीं है।"

मुस्लिम समुदाय के महाकुंभ से लौटकर बनारस आने वाली भीड़ के बीच जो भाईचारा और इंसानियत की जो मिसाल पेश की है उसकी हर तबका तारीफ कर रहा है। एक्टिविस्ट सौरभ सिंह कहते हैं, "बनारस में उमड़ी भीड़ के बीच मुस्लिम परिवारों ने यह साबित कर दिया कि इंसानियत का रिश्ता सियासत से कहीं बड़ा है। यह केवल एक शहर की नहीं, बल्कि पूरे भारत की सोच होनी चाहिए। राजनीति का मकसद समाज को जोड़ना होना चाहिए, न कि उसे तोड़ना। "

"महाकुंभ से लौटने वालों के लिए मुस्लिम परिवारों का यह कदम हमें याद दिलाता है कि हमें सियासत के बनाए हुए भेदभाव से ऊपर उठकर सोचना चाहिए और मानवता को प्राथमिकता देनी चाहिए। जब तक इंसानियत जीवित है, तब तक कोई भी सियासत हमें पूरी तरह से नहीं बाँट सकती। बनारस ने एक बार फिर यह साबित कर दिया कि "बनारस केवल एक शहर नहीं, बल्कि एक सोच है, जो हमेशा इंसानियत को सियासत से ऊपर रखती है।"

सौरभ कहते हैं, "काशी सिर्फ मंदिरों, घाटों और गलियों की नगरी नहीं, बल्कि यह गंगा-जमुनी तहज़ीब की पहचान भी है। यहाँ हर धर्म के लोग प्रेम और सौहार्द से रहते हैं, एक-दूसरे का सम्मान करते हैं। रेणु जी ने आखिर में कहा, "जब दोबारा काशी आएंगे, तो फिर यहीं आएंगे।" उनका यह अनुभव इस बात का प्रमाण है कि आपसी मेल-जोल, प्रेम और भाईचारे से हर दीवार गिर सकती है। काशी ने फिर से साबित कर दिया कि यह शहर सिर्फ शिव की ही नहीं, बल्कि इंसानियत की भी नगरी है।"

"काशी की धरती से निकला यह संदेश दूर-दूर तक गूंजेगा। यह घटना हमेशा यह याद दिलाएगी कि मज़हब की सीमाओं से ऊपर उठकर इंसानियत ही सबसे बड़ा धर्म है। जो प्रेम और अपनापन बनारस में मिला, वह न तो किसी किताब में लिखा था और न ही किसी उपदेश में सुना था—बल्कि यह सलीम मर्चेंट जैसे इंसानों के कार्यों में देखा गया। काशी ने फिर साबित कर दिया कि यह केवल ईश्वर का शहर नहीं, बल्कि इंसानियत का सबसे बड़ा मंदिर भी है।"

(विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार है)

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