जालियांवाला बाग़ क़त्लेआम के 100 साल: सरकारी बस्तों में बंद साझी शहादत साझी-साझी विरासत की गौरव गाथा

Written by Shamsul Islam | Published on: May 12, 2020
विश्व इतिहास की पहली साम्राज्यवादी शक्ति अंग्रेज नहीं थे। इतिहास साम्राज्यों की दास्तानों से भरा पड़ा है। हम सब पुर्तगाली, रोमन, फ्रांसीसी, उस्मानियाई, जर्मन इत्यादि साम्राज्यों की रक्त रंजित दास्तानों से बखूबी परिचित हैं, लेकिन यह भी सत्य है कि अंग्रेज साम्राज्य एक विशिष्ट स्थान रखता है। यह साम्राज्य ज्यादा व्यापक स्थायी और निरंतरता लिये था। अंग्रेज़ी  साम्राज्य के ज्यादा टिकाऊ होने का सबसे बड़ा कारण यह था कि उन्होंने साम्राज्य चलाने के काम को एक संस्थागत रूप दिया था। उन्होंने इस काम के लिए दफ्तरों का जाल-सा बिछा दिया था। साम्राज्य द्वारा की जाने वाली हर गतिविधि की सूचना हासिल की जाती थी और उसे संग्रहित किया जाता था। अंग्रेज साम्राज्य पहला साम्राज्य था, जिसने राज-काज से संबंधित तमाम दस्तावेजों और कागजात को अभिलेखागारों में सुरक्षित रखना शुरू किया। ये सब करने के पीछे उनका पुरानी चीजों के प्रति मोह नहीं था, बल्कि वे इतिहास के इन अनुभवों के माध्यम से वर्तमान को समझना और भविष्य को संचालित करना चाहते थे।



भारत में अंग्रेजों ने 1891 में केंद्रीय अभिलेखागार की स्थापना कलकत्ता में की। बाद में इसे दिल्ली लाया गया। इसमें अंग्रेज़ी  शासन के तमाम सरकारी दस्तावेजों का तो संग्रह था ही, इसके अलावा इसमें खुफिया रिपोर्टों, सरकार विरोधी गतिविधियों और प्रतिबंधित साहित्य का भी विशाल भंडार है। अंग्रेज जब भारत छोड़कर गए तो इसको भी भारत सरकार के हवाले कर गए (यह स्वाभाविक है कि उन्होंने अति-खतरनाक दस्तावेजों ख़ासकर अंग्रेज़ों के हिंदुस्तानी दलालों की करतूतों के ब्यौरे वाले दस्तावेजों को भारत छोड़ने से पहले नष्ट कर दिया होगा) । 

राष्ट्रीय अभिलेखागार के बस्तों में बंद जलियांवाला बाग़ क़त्लेआम का इतिहास
ऐतिहासिक दस्तावेजों का यह ख़ज़ाना, जो आज़ादी के बाद राष्ट्रीय अभिलेखागार कहलाया, ऊपरी तौर पर तो गुजरे जमाने से संबंधित बेज़ुबान दस्तावेजों का रिकार्ड ही लगता है । लेकिन जब 1994 में   जलियांवाला बाग़  अमृतसर में 13 अप्रेल 1919 को अँगरेज़ शासकों दुवारा अंजाम दिए गए क़त्लेआम की 75वीं वर्षगांठ के अवसर पर इस विभाग ने मूल दस्तावेजों, व्यक्तिगत कागज-पत्रों, प्रतिबंधित साहित्य और चैंका देने वाले चित्रों की प्रदर्शनी लगाई (जिस को पहली बार 13 अप्रैल, 1994 को जालियांवाला बाग़  में प्रदर्शित किया गया) तो एक तरफ़ गोरे शासकों के बेमिसाल बर्बर दमन और ख़ूंरेज़ी की दास्तानें जानकर दिल दहल उठा तो दूसरी ओर  देश के हिन्दूओं, मुसलमानों, सिखों और अन्य धर्मों के अनुयायों ने किस बहादुरी से इस दमन-बर्बरता का सामना किया और मिलकर बेमिसाल क़ुर्बानियां दीं तो इसे जानकर सीना फ़ख़्र से फूल गया । इस प्रदर्शनी को देश के विभिन्न बड़े शहरों में घुमाया गया तो बेज़ुबान दस्तावेजों में छिपा अँगरेज़ शासकों की बर्बरता और जनता के प्रीतिरोध का इतिहास सजीव हो उठा, मानो दफ़न इतिहास ज़िंदा होकर सामने खड़ा हो। यह प्रदर्शनी अगर एक तरफ अंग्रेज़ी  शासन की बर्बरता, वहशीपन और चालाकी की शर्मनाक दास्तान बयान करती थी तो दूसरी ओर भारत की आजादी के मतवालों की बहादुरी की गाथाओं का भी जीवंत चित्रण करती थी। 

इस प्रदर्शनी में प्रस्तुत सामग्री चैंका देनेवाली थी और इस बात का शिद्दत से एहसास कराती थी कि जब अंग्रेजों का राज शिखर पर था, तब भी इस देश के लोग अंग्रेज़ी लुटेरों से बराबर का लोहा ले रहे थे। यह कितना दुखद है की इस अभूतपूर्ण पारदर्शिनी को बस्तों में बंद कर दिया गया और बर्बर दमन और विरोध की शानदार दस्तानों पर ताला डल गया जो जालियांवाला बाग़ क़त्लेआम की 100वीं बरसी पर भी नहीं खुला है। 

क़त्लेआम के चश्मदीद दस्तावेज़ 
सबसे दिल दहला देने वाले दस्तावेज और चित्र ‘जालियांवाला बाग़’त्रासदी से संबंधित हैं। जालियांवाला बाग़ के कत्लेआम से पहले के और बाद के मूल चित्र (जो पुलिस रिकार्ड में थे) को दर्शाया गया । रतन देवी जिन्होंने 13 और 14 अप्रैल 1919 की रात जालियांवाला बाग़ में हजारों लाशों और ज़ख़्मियों के बीच अपने पति की लाश के सिरहाने बैठकर बिताई थी, उनका रोंगटे खड़े कर देने वाला मूल बयान भी पढ़ने को मिलता है, "मैं अपने मृतक पति के पास बैठ गई, मेरे हाथ बांस का एक डंडा भी लग गया था, जिससे मैं कुत्तों को भगाती रही। मेरे बराबर में ही तीन और लोग गंभीर रूप से जख्मी पड़े थे, एक भैंस गोलियां लगने के कारण बुरी तरह रेंग रही थी, और लगभग 12 साल का एक बच्चा, जो बुरी तरह से जख्मी था और मौत से लड़ रहा था, मुझसे बार-बार निवेदन करता था कि मैं उसे छोड़ कर न जाऊं। मैंने उसे बताया कि वो फिक्र न करें, क्योंकि मैं अपने मृतक पति की लाश को छोड़कर जा ही नहीं सकती थी। मैंने उससे पूछा कि अगर उसे सर्दी लग रही हो तो मैं उसे अपनी चादर उढ़ा देती हूं, लेकिन वह तो पानी मांगे जा रहा था, लेकिन पानी वहां कहां था।" 

4 अक्टूबर, 1919 के ‘अभ्युदय’अखबार में छपी 18 वर्षीय अब्दुल करीम और 17 वर्षीय रामचंद्र नाम के दो दोस्तों की तस्वीरों और जालियांवाला बाग़ में उनकी शहादत के वृत्तांत को पढ़कर दिल-दिमाग सन्न हो जाता है। ये दोनों ही अमृतसर से नहीं बल्कि लहौरियों के बेटे थे । अब्दुल करीम की शहादत के तुरंत बाद जब परीक्षाफल प्रकाशित हुआ तो पंजाब विश्वविद्यालय की दसवीं की परीक्षा में वह सर्वप्रथम आए । 

निहत्थे देश वासियों पर हवाई बम्बारी
यह शर्मनाक तथ्य भी पहली बार सामने आया कि जालियांवाला बाग़ क़त्लेआम के अगले दिन, 14 अप्रैल, 1919 को अंग्रेज, वायुसेना के एक जहाज नंबर 4491, किस्म बी.ई.जेड.ई. जो कि 31वें स्क्वाड्रन का हिस्सा था, को उड़ाते हुए कैप्टन कारबेरी ने 2.20 मिनट से लेकर 4.45 मिनट तक जबर्दस्त बमबारी की थी। अंग्रेज़ी वायुसेना के रिकॉर्ड में दर्ज इस हवाई बम्बारी के ब्यौरे के अनुसार:

"समय 15.10, जगह गुजरांवाला रेलवे स्टेशन (अब पाकिस्तानी पंजाब में) के आसपास बमबारी से आग की लपटें उठ रही हैं। समय 15.20 स्थान गुजरांवाला के उत्तर पश्चिम में 2 मील दूर एक गांव-लगभग 150 लोगों की भीड़ पर बमबारी, गांव में मशीन गन से 50 राउंड गोली चलाई। समय 15.30, स्थान- पहली वाली जगह से एक मील दक्षिण की ओर पचास लोगों की भीड़ पर बमबारी, गांव में मशीन गन द्वारा 25 राउंड गोलीबारी, एक खेत में 200 लोगों की भीड़ पर बमबारी, लोग भागकर एक घर में घुसे, जिस पर 30 राउंड मशीन गन से गोलीबारी, समय 15.40, स्थान गुजरांवाला नगर शहर के दक्षिण में लोगों की भीड़ पर बमबारी, सड़कों पर चलते हुए ‘देसी’ लोगों पर मशीन गन से 100 राउंड गोलीबारी। 15.50 पर जब बमवर्षक जहाज लाहौर के लिए चला तो कोई प्रणाली सड़कों पर नहीं था। समय, 16.45, लाहौर हवाई अड्डे पर बमवर्षक जहाज की सही सलामत वापसी।"

प्रतिरोध की हैरत-अंगेज़ दास्तानें
इस प्रदर्शनी में सर सिडनी आर्थर टेलर रौलेट की अध्यक्षता में सन् 1917 में गठित राजद्रोह समिति से संबंधित गुप्त दस्तावेजों को पहली बार पेश किया गया । इस समिति ने उस समय में 87020 रुपये खर्च करके कलकत्ता और लाहौर में अनेक गुप्त बैठकें कीं और 18 अप्रैल, 1918 को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। इस रिपोर्ट को सरकार ने स्वीकार करके अराजकता या क्रांतिकारी अपराध अधिनियम (रौलेट एक्ट के नाम से बदनाम) के तौर पर 18 मार्च, 1919 को देश भर में लागू किया। 

देश भर में इसका जबर्दस्त विरोध हुआ। प्रदर्शनी में मोहम्मद अली जिन्नाह का 28 मार्च, 1919 वाला वह पत्र भी प्रदर्शित किया गया, जिसमें उन्होंने सरकार पर ‘सभ्यता का दामन छोड़ देने’का इल्जाम लगाते हुए इम्पीरियल विधान परिषद से इस्तीफा देने की घोषणा की थी। जिन्नाह जो बाद में एक सांप्रदायिक नेता के तौर पर उभरे कभी भारत के आम लोगों की स्वतंत्रता की सुरक्षा के लिए इम्पीरियल विधान परिषद को लात भी मार सकते थे, यह जानकर सुखद एहसास होता है।

इस प्रदर्शनी में केंद्रीय खुफिया विभाग की अति गुप्त रिपोर्टों को भी पहली बार देश के सामने रखा गया। आमतौर पर शांत और अहिंसात्मक माने जाने वाले गुजरातियों ने रौलेट समिति के खिलाफ अहमदाबाद में अंग्रेज़ी  सत्ता के प्रतीकों की जिस तरह होली जलाई थी, वह जानने योग्य है। प्रदर्शित गुप्त रिपोर्टों के अनुसार 11, 12 अप्रैल 1919 को अहमदाबाद में प्रदर्शनकारियों ने कलेक्टर के दफ्तर, नगर मजिस्ट्रेट, फ्लैग स्टाफ, अहमदाबाद जेल, मुख्य टेलीग्राफ केंद्र और 26 पुलिस चैकियों को आग लगाई थी। स्वयं अंग्रेजों की इस रिपोर्ट से यह बात साफ होती है कि अंग्रेज सत्ता के विरोध के केंद्र केवल बंगाल और पंजाब ही नहीं थे। 

गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर का प्रतिरोध
इस प्रदर्शनी में गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर के अपने हाथ से लिखे उस मूल पत्र की प्रति भी दर्शकों के लिए उपलब्ध कराई गई, जो उन्होंने पंजाब में दमन के विरोध में ‘नाइट’की उपाधि त्यागने की घोषणा करते हुए वायसराय को लिखा था। इस पत्र में उन्होंने लिखा: 

"समय आ गया है जबकि सम्मान के पदक वर्तमान अपमान के संबंध में हमारी लज्जा के प्रतीक बन गए हैं... और मैं अपनी ओर से खड़ा रहना चाहता हूं, हर प्रकार की विशिष्टता के बिना अपने देश के लोगों के साथ, जिनको साधारण आदमी होने के कारण एक ऐसा अपमान और जीवन सहना पड़ रहा है, जो इंसान के लिए किसी भी तरह स्वीकार योग्य नहीं है।" 

सरकारी कर्मचरियों का प्रतिरोध  
भारत सरकार के गृह सचिव का इसी दौर का एक और रोचक पत्र भी यहां उपलब्ध कराया गया, जिससे पता लगता है कि सरकारी दमन के खिलाफ केंद्रीय सचिवालय के सरकारी कर्मचारियों ने भागीदारी की थी। इस गुप्त पत्र में गृह सचिव ने सख्त कार्रवाई की मांग करते हुए यह भी लिखा कि सरकार की भद् पिटने के डर से अनुशासनात्मक कार्रवाई न की जाए।

क़त्लेआम विरोधी साहित्य पर प्रतिबन्ध    
विदेशी शासकों के अत्याचारों और भारतीय जनता के प्रतिरोध के एक पूरे चरण पर प्रकाश डालती इस प्रदर्शनी का सबसे सशक्त हिस्सा था उस प्रतिबंधित साहित्य की उपस्थिति, जो अंग्रेजों ने जब्त करके खुफिया विभाग की फाइलों में नत्थी कर दिया था। ये देश की हर भाषा में लिखा गया था। ‘बा बाग़े जलियां’(रामस्वरूप गुप्ता द्वारा हिंदी में लिखित संगीतात्मक नाटक), ‘जालियांवाला बाग़’ (फिरोजुद्दीन शर्फ द्वारा गुरमुखी में एक लंबी कविता), ‘पंजाब का हत्याकांड’ (उर्दू में लम्बा नाटक) और ‘जालियांवाला बाग़’ (एक लम्बा गुजराती नाटक) तो किताबों के रूप में ही प्रदर्शनी में पेश किया गया । यह कितना दुखद है कि आजादी के 70 साल बाद भी हमारी यह गौरवशाली परंपरा धूल  से अटे बस्तों में बंद है। यह वे साहित्यिक रचनाएँ थीं जिनसे दुनिया का सबसे शक्तिशाली अंग्रेज साम्राज्य भी थर्राता था। इस साहित्यिक प्रतिरोध के कुछ नमूने यहाँ पेश हैं:
    "बेगुनाहों पर बमों की बेखतर बौछारों की दे रहे हैं धमकियां बंदूक-तलवार की। बाग़ की जलियां में निहत्थों पर चलाई गोलियां/पेट के बल भी रेंगाया, जुल्म की हद पार की।"
 "जुल्म डायर ने किया था रंग जमाने के लिए/हिंद वालों को मुसीबत में फंसाने के लिए।
खून से पंजाब के डायर की लिखी डायरी/रुबरु रख दी मेरी तबियत जलाने के लिए। 
बागे जलियां में शहीदों की बने गर यादगार/जायेंगे अशिके-वतन आंसू बहाने के लिए।" 
"हम उजड़ते हैं तो उजड़ें, वतन आबाद रहे। मर मिटे हैं हम के अब वतन आजाद रहे। वतन की खातिर जो अपनी जान दिया करते हैं/मरते नहीं हैं वो हमेशा के लिए जिया करते हैं।"

शहीद उधम सिंह जिन्हों ने जलियांवाला बाग़ क़त्लेआम का बदला लिया  
इस क़त्लेआम पर देश के लोगों को प्यार करने वाले जांबाज़ खामोश नहीं रहे, उन्हों ने उन शैतानों से बदला लिया जिन्हों ने इसे अंजाम दिया था। इस सिलसिले में शहीद उधम सिंह का ज़िक्र न हो यह कैसे हो सकता है।     
    
सुविख्यात क्रांतिकारी ऊधम सिंह का जन्म एक दलित सिख परिवार में हुआ और एक अनाथालय में उनकी परवरिश हुई । वे ख़ूनी बैसाखी वाले दिन जलियांवाले बाग़ में सभा में मौजूद थे और क़त्लेआम के साक्षी भी। तभी से उनके दिल में इसका बदला लेने की ज्वाला धधक रही थी। इस बीच वे कम्युनिस्ट विचारों को ग्रहण कर चुके थे। उनके जीवन का एक ही मक़सद था की किसी तरह लंदन (इंग्लैंड) पहुंचा जाये जहाँ इस क़त्लेआम को अंजाम देने वाले 2 सब से बड़े अफ़सर, माईकल ओ डायर (Michael O'Dyer जो उस समय पंजाब का अँगरेज़ शासक था) और रेगीनाल्ड डायर (Reginald Dyer जिस ने में क़त्लेआम का हुक्म दिया था) को जान से मारा जाये।  

इस काम को अंजाम देने के लिए और इंग्लैंड में प्रवेश पाने की जुगत में मिस्र, कीनिया, उगांडा, अमरीका और समाजवादी रूस में वहां की कम्युनिस्ट तहरीकों में काम करते रहे। आखिरकार 21 साल बाद उन्हें सफलता मिली, जब उन्होंने 13 मार्च 1940 को लंदन में माइकल ओ डायर (पंजाब का पूर्व गवर्नर तथा जलियांवाला बाग हत्याकांड के जिम्मेदार अफसरों में से एक)। की हत्या कर दी। मजिस्ट्रेट के सामने पेश किए जाने पर जब ऊधम सिंह से नाम पूछा गया, तो उन्होंने अपना नाम ऊधम सिंह नहीं बताया बल्कि अपना नाम मुहम्मद सिंह आज़ाद बताया। ऐसा नाम जिसमें मुस्लिम, सिख और हिंदू तीनों के नाम शामिल हैं। इस तरह उपनिवेशवादी सामंतों के विरुद्ध जारी संघर्ष में एक बार फिर भारत में सभी धर्मों के बीच एकता का संदेश जबर्दस्त तरीके से प्रस्तुत किया गया। 

उधम सिंह को 31 जुलाई 1940 को पेंटोनविल्ल (Pentonville) जेल में फांसी दे दी गयी। मौत की सजा सुनाये जाने के बाद अदालत में उन्हों ने जो जवाब दिया वह उनके गोरे शासकों के ज़ुल्म और लूट के खिलाफ उनकी प्रतिबद्धता को ही रेखांकित करता है:

"मुझे मौत की सज़ा की क़तई चिंता नहीं है। इस से मैं ख़ौफ़ज़दा नहीं हूँ और न ही मुझे इस की परवाह है । मैं एक उद्देश्य के लिए जान दे रहा हूँ। अँगरेज़ साम्राज्य ने हमें बर्बाद कर दिया है। मुझे अपने वतन की आज़ादी के लिए जान देते वक़्त गर्व हो रहा है और मुझे पूरा विश्वास है कि मेरे बाद मेरे वतन के हज़ारों लोग मेरी जगह लेंगे और वेह्शी दरिंदों (अंग्रेज़ों) के देश से खदेड़ कर देश आज़ाद कराएँगे। अंग्रेज़ी साम्राजयवाद का विनाश हो गा । मेरा निशाना अँगरेज़ सरकार है, मेरा अँगरेज़ जनता से कोई बेर नहीं है। मुझे इंग्लैंड की मेहनतकश जनता से गहरी हमदर्दी है, मैं इंग्लैंड की साम्राजयवादी सरकार के विरोध में हूँ।  "      

राष्ट्रीय अभिलेखागार के संग्रह से पुलिस और खुफिया विभागों एवं अखबारों के उन चित्रों को देखकर कलेजा मुंह को आ जाता है, जिनमें पंजाब में सन् 1919 में फौजी कानून के लागू होने पर आम नागरिकों को सजा के तौर पर सार्वजनिक रूप से कोड़े खाते हुए और सड़कों पर रेंगते हुए दिखाया गया है। आत्मसम्मान को भयानक चोट पहुंचाने वाली ये तस्वीरें देखकर इस बात को समझना जरा भी मुश्किल नहीं रहता कि पंजाब ने भगतसिंह जैसे शहीदों को क्यों पैदा किया!

जलियांवाला बाग़ के शहीदों का ब्यौरा उपलब्ध नहीं
भारत सरकार के गृह विभाग के जून 1919 की एक रिपोर्ट, जिसमें पंजाब में मारे गए लोगों के आंकड़े दिये गये हैं, को देखकर यह साफ पता लगता है कि किस तरह अंग्रेज शासकों ने पंजाब में किए गए कत्लेआम पर परदा डालने की कोशिश की। मृतक अंग्रेजों का ब्यौरा तो उपलब्ध है, लेकिन मारे गए भारतीयों के बारे में साफ लिखा गया है कि उनकी संख्या कभी भी पता नहीं की जा सकेगी। इस रिपोर्ट में गृह सचिव की यह टिप्पणी कि अगर मृतक भारतीयों के बारे में हम कोई भी संख्या दें तो वो मानी नहीं जाएगी, अंग्रेज शासकों के नैतिक पतन की छवि को ही रेखांकित करती है।     

इस सिलसिले में एक शर्मनाक पहलू यह है की शहीद हुए देशवासियों की असली तादाद कभी नहीं जानी जा सकी।  हंटर आयोग जिसे हत्यारी अँगरेज़ सरकार ने अक्टूबर 14, 1919 में पंजाब में हुई ज़ियादतियों की जाँच के लिए नियुक्त किया था (जिस में बंबई यूनिवर्सिटी के उपकुलपति और प्रसिद्ध वकील, चिमनलाल हरिलाल सेतलवाड़ भी थे)  के अनुसार 381 अंग्रेज़ी  सेना की  गोलियों का शिकार हुवे थे जिन में एक 6 महीने का बच्चा भी था। शहीदों की हंटर आयोग दुवारा निर्धारित यह संख्या सही नहीं मानी सकती।  अमृतसर एक बड़ा  व्यौपारिक केंद्र था जहाँ दूर-दराज़ से ग्राहक और काम की तलाश में लोग आते  रहते थे, इन में बहुत से गुमनाम शहीदों की लाशों को ग़ायब कर दिया गया, जैसा कि इस तरह के बर्बर दमन की घटनाओं में पुलिस दुवारा किया जाता है। 
 
आज़ादी के बाद जलियांवाला बाग़ शहीदों की विरासत के साथ खिलवाड़
अंग्रेज़ी राज में तो इन शहीदों की अनदेखी की ही गयी जो स्वाभाविक भी था। लेकिन आज़ाद भारत में भी इन शहीदों के परिवारों का त्रिस्कार जारी रहा और है। जिस देश में आपातकाल में सिर्फ एक महीने से भी कम जेल में रहने के लिए दस हज़ार रुपए प्रति माह और 2 माह से कम जेल में रहने के बदले में 20 हज़ार रुपए महीना पारिवारिक पेंशन दी जा रही हो वहां इन शहीदों की किसी ने सुध नहीं ली।     

जलियांवाला बाग़ क़त्लेआम ने स्वतंत्रता आंदोलन के सहधर्मिक और सहजातिए चरित्र को ही रेखांकित किया
शहीदों की सूची से यह सच बहुत साफ़ होकर सामने आती है की बाग़  में हिन्दू, सिख और मुसलमान बडी  तादाद में मौजूद थे। 381 शहीदों में से 222 हिन्दू, 96 सिख और 63 मुसलमान थे।  इस सूची की एक खास बात यह थी की वहां मौजूद जनसमूह हर तरह की जातियों और पेशों  से जुड़ा था, इन में दुकानदार, वकील, सरकरी मुलाज़िम, लेखक और बुद्धिजीवी थे तो लोहार, जुलाहे, तेली, नाई, खलासी, सफाई कर्मचारी, क़साई, बढ़ई, कुम्हार, क़ालीन बुनने वाले, राजमिस्त्री, मोची भी बड़ी तादाद में मौजूद थे। यह सूरत इस गौरवशाली सच को रेखांकित करती थी की साम्राजयवाद विरोधी आंदोलन एक साझा आंदोलन था और अभी मुस्लिम राष्ट्र और हिन्दू राष्ट्र के झंडाबरदार हाशियों पर पड़े थे।         

भारत के लोगों की यह महान जुझारू विरासत, अलमारियों में बंद पड़ी है। हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई, गुजराती, पंजाबी, बंगाली, मद्रासी, और विभिन्न पेशों से जुड़े सब मिलकर दुख, पीड़ा, संघर्ष और बलिदान में सहभागी थे। यह भारत के इतिहास का एक गौरवशाली सच था, लेकिन यह सब फाइलों में बंद पड़ा है। इस का नतीजा यह है की साझी शहादत और साझी विरासत को भूलकर देश आज धार्मिक और जातीय नफ़रत फैलाने वाले गिरोहों की चरागाह में तब्दील हो गया है। 

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