भारत के मौजूदा हालातों और हिन्दू राष्ट्रवाद के बढ़ते खतरे को समझने के लिए कुछ अन्य बिन्दुओं पर विचार करना आवश्यक है. यूरोप में सार्वभौमिकता सम्राटों/राजाओं से आधुनिक केन्द्रीयकृत राज्य तक पहुंची. ऐेसे राज्यों के उदित होने पर उनका साबका समाज के विभिन्न तबकों से पड़ा जिससे धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा उत्पन्न हुई.

इन दिनों 'दि इंडियन एक्सप्रेस' में हिंदू राष्ट्रवाद के उदय एवं प्रभुत्व पर योगेन्द्र यादव, सुहास पलसीकर एवं अकील बिलग्रामी जैसे मेधावी समाज विज्ञानियों के अत्यंत गहन विचार प्रकाशित हो रहे हैं. वे इस बात से चिंतित हैं कि भारतीय राष्ट्रवाद की वर्तमान अवधारणा यूरोपियन ढंग के राष्ट्रवाद जैसी है. हम इसे हिन्दुत्व की राजनीति या हिंदू राष्ट्रवाद का नाम देते हैं. ये सभी यह स्वीकार करते हैं कि हिन्दू राष्ट्रवाद ही आज विद्यमान राष्ट्रवाद है. इसमें कोई संदेह नहीं कि हिन्दू राष्ट्रवाद अत्यंत मुखर एवं प्रभुत्वशाली है. लेकिन फिर भी भारतीय राष्ट्रवाद का विचार अभी तक भारतीय समाज के बड़े तबके के दिलों में कायम है. यदि हम मतदान प्रतिशत की बात करें तो सन् 2024 के चुनाव में हिन्दू राष्ट्रवादी पार्टी को 36.5 प्रतिशत मत हासिल हुए थे और ऐसे आरोप थे कि इनमें से बहुत से वोट हेराफेरी और जोड़तोड़ के जरिए हासिल किए गए थे.
लेकिन फिर भी इन अध्येताओं की चिंताओं पर गहराई से विचार किया जाना जरूरी है. हिन्दू राष्ट्रवाद न केवल चुनावी राजनीति के माध्यम से सशक्त हो रहा है बल्कि इसने राष्ट्र के विभिन्न अंगों में घुसपैठ कर ली है और मीडिया व सोशल मीडिया के बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया है.
यादव कहते हैं कि "आज के भारत में इस आक्रामक राष्ट्रवाद के बोलबाले के लिए वे सेकुलरवादी, अंतर्राष्ट्रीयतावादी व आधुनिकतावादी आचार-व्यवहार दोषी हैं जिन्हें आजादी के बाद के भारत में बढ़ावा दिया गया. इसके चलते हर किस्म के राष्ट्रवाद से किनारा कर लिया गया. राष्ट्रवाद का एक शून्य उत्पन्न हो गया जिसे आज राष्ट्र के हिन्दुत्वादी विचार ने भर दिया है‘‘. पलसीकर का मानना है कि आज के हिन्दू राष्ट्रवाद की जडें उस राष्ट्रीय आन्दोलन में हैं जो आज से एक सदी से भी ज्यादा पहले भारत में चलाया गया था.
बिलग्रामी भारतीय लोकाचार की प्रशंसा इन शब्दों में करते हैं" "सदियों से भारतीय समाज की यह खासियत रही है कि वह बिना प्रयास किए और बिना ढोल पीटे धर्म और संस्कृति की दृष्टि से बहुवादी बना रहा. इसके विपरीत, आज का यूरोपीय ढंग का राष्ट्रवाद विभाजित करता है और उसे एकता बताता है. पलसीकर के इस टिप्पणी कि हिन्दू राष्ट्रवाद की जड़ें आजादी के संघर्ष के काल में हैं के उत्तर में वे कहते हैं, ‘‘इसमें कोई संदेह नहीं कि यह नजरिया आजादी के संघर्ष के दौरान मौजूद था किंतु गांधी और नेहरू के बोलबाले के कारण वह हाशिए पर रहा और इससे निश्चित ही कई सवाल उलझे हुए रह गए. किंतु यह पक्के तौर पर कहा जा सकता है यह मौजूदा हिन्दुत्व राष्ट्रवाद की जड़ नहीं है‘‘.
भारत के मौजूदा हालातों और हिन्दू राष्ट्रवाद के बढ़ते खतरे को समझने के लिए कुछ अन्य बिन्दुओं पर विचार करना आवश्यक है. यूरोप में सार्वभौमिकता सम्राटों/राजाओं से आधुनिक केन्द्रीयकृत राज्य तक पहुंची. ऐेसे राज्यों के उदित होने पर उनका साबका समाज के विभिन्न तबकों से पड़ा जिससे धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा उत्पन्न हुई.
भारत में हम औपनिवेशिक शासन के अधीन रहे जिसने ज्यादातर राजाओं की सार्वभौमिकता को समाप्त कर उनके राज्यों को अपने अधीन कर लिया. आजादी के बाद ये औपनिवेशिक राज्य भारत का हिस्सा बने. यह भारत अपने संविधान के प्रावधानों के अनुसार संचालित होना था जो "समावेशी था और किसी को 'दूसरा' नहीं बताता था" (योगेन्द्र यादव के शब्द). भारत इस राह पर चला और कम से कम सैद्धांतिक तौर पर आज भी वह भारतीय राष्ट्रवाद की राह पर चल रहा है. मगर आज हिंदू राष्ट्रवाद, भारतीय राष्ट्रवाद से बड़ा हो गया है. वह संकीर्ण है और यूरोपीय ढंग का है लेकिन जहाँ यूरोप में भाषा, धर्म और संस्कृति आधारित विभाजन और राष्ट्रवाद थे (मुख्यतः भाषा-आधारित), भारत में हिंदू और मुस्लिम राष्ट्रवाद का एकमात्र आधार धर्म था, जिसे साम्प्रदायिकता भी कहा गया.
आधुनिक कल-कारखानों, शिक्षा, परिवहन एवं संचार के साधनों के विकास के साथ ही भारतीय राष्ट्रवाद की जड़ें उभरना प्रारंभ हो गईं. इस राष्ट्रवाद के उभार में सहायक थे वे सामाजिक आंदोलन जो ऊंच-नीच के बंधनों को तोड़ रहे थे. नारायण मेघाजी लोखंडे व कामरेड सिंगरालू के नेतृत्व वाले आंदोलनों ने मजदूरों को संगठित किया. जोतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले, अंबेडकर और पेरियार ने सामाजिक समानता के लिए संघर्ष किया जो भारतीय राष्ट्रवाद का एक महत्वपूर्ण घटक है. गांधी और नेहरू ने औपनिवेशिक शासन के खिलाफ जनांदोलन का नेतृत्व किया. इस आंदोलन का लक्ष्य केवल देश की सार्वभौमिकता अंग्रेजों से छीनकर भारतीय निर्वाचित प्रतिनिधियों को सौंपना नहीं था बल्कि पूर्ण समावेशिता हासिल करना भी था.
इस भारतीय राष्ट्रवाद के सशक्त होने के साथ-साथ ही सामंती तत्वों ने उन प्रवृत्तियों की नींव डाली जिन्होंने अंततः हिंदू और मुस्लिम राष्ट्रवाद का स्वरूप लिया. इन प्रवृत्तियों का विश्वास था कि धर्म ही राष्ट्रवाद का आधार है. उन्हें राजाओं-नवाबों और समाज के कुलीन वर्गों का समर्थन मिला जिन्हें उस समय कायम किंतु अस्त होते सामाजिक ढांचे में ऊंचा दर्जा हासिल था. समय के साथ इसका नतीजा मुस्लिम लीग, हिंदू महासभा और आरएसएस की स्थापना के रूप में सामने आया. इससे अंग्रेजों को ‘फूट डालो और राज करो‘ की अपनी नीति को लागू करने में मदद मिली और बाद में इसी के नतीजे में भारत का विभाजन हुआ.
भारत में हिंदू राष्ट्रवाद पहले ही काफी सशक्त हो चुका था और जर्मनी और इटली जैसे यूरोपीय राष्ट्रवाद इसके आदर्श थे. प्रशिक्षित स्वयंसेवकों और प्रचारकों के माध्यम से इसकी विचारधारा मुंहजुबानी प्रचार से देश के कोने-कोने में फैल गई. आजादी के तुरंत बाद यह स्पष्ट हो गया कि हिंदू राष्ट्रवाद कितना प्रबल है. उसके पूर्व प्रचारक नाथूराम गोडसे ने उपनिवेश विरोधी आंदोलन के मुखिया, भारतीय राष्ट्रवाद के सबसे बड़े हिमायती, महात्मा गांधी के सीने में तीन गोलियां झोंक दीं.
आरएसएस हिंदू राष्ट्रवाद का समर्थन करने वाला एकमात्र संगठन नहीं था. हिंदू महासभा भी थी और हिंदू राष्ट्रवादी तत्वों के एक तबके ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में भी घुसपैठ कर ली थी. जवाहरलाल नेहरू को इसके कारण भारतीय राष्ट्रवाद के लिए उत्पन्न हुए खतरे का एहसास हो गया था किंतु विभिन्न कारणों से वे इसे जड़ से उखाड़ नहीं पाए, जिनमें से एक था भारत में जमींदारी प्रथा का कायम रहना. यह समाज में बढ़ती धार्मिकता में भी प्रतिबिंबित होता था.
स्पष्टतः हिंदू राष्ट्रवाद जाति एवं लिंग आधारित गैर-बराबरी के मामले में यथास्थिति कायम रखने का पक्षधर है. उसका समाज के कुछ विशिष्ट वर्गों पर प्रभाव तब साफ नजर आया जब गौवध के संबंध में एक कानून बनाने की मांग उठाई गई और हजारों साधु संसद के समक्ष एकत्रित हुए. सन 1980 के दशक में उसका प्रभुत्व तब स्पष्ट दिखा जब यात्राओं के आव्हान किए गए और धार्मिक कट्टरता में जबरदस्त बढ़ोत्तरी हुई. शाहबानो मामले के बहाने मुसलमानों के तुष्टिकरण की बात लोगों के दिल में बिठा दी गई और राम मंदिर आंदोलन ने हिंदू राष्ट्रवाद के ज्वार का मार्ग प्रशस्त कर दिया.
पिछले कुछ दशकों से भारतीय राष्ट्रवाद की अभिव्यक्ति जितनी होनी चाहिए, उससे बहुत कम हो रही है. दक्षिणपंथी हिंदू राष्ट्रवाद को ही वास्तविक राष्ट्रवाद के रूप में पेश करना चाहते हैं. क्या भारतीय राष्ट्रवाद के उच्चतम दर्जा हासिल करने की उम्मीद की जा सकती है? हां. हमने पिछले कुछ वर्षों में इसकी एक झलक देखी है. 'भारत जोड़ो यात्रा' और 'भारत जोड़ो न्याय यात्रा' ने यह दिखाया कि हिंदू राष्ट्रवाद जहां काबिज हो गया है उस जगह को दुबारा हासिल किया जा सकता है. दलितों, महिलाओं, आदिवासियों, मजदूरों और अल्पसंख्यकों से जुड़े मुद्दों को उठाना और उनकी मांगों के समर्थन में आंदोलन चलाना इसकी नींव बन सकती है. हमारे संविधान के प्रति जनता के मन में गहरा लगाव और सम्मान है. इन दो आंदोलनों और भारतीय संविधान के मूल्यों को कोने-कोने में पहुंचाकर भविष्य में भारतीय राष्ट्रवाद का बोलबाला कायम किया जा सकता है. (अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया. लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)
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इन दिनों 'दि इंडियन एक्सप्रेस' में हिंदू राष्ट्रवाद के उदय एवं प्रभुत्व पर योगेन्द्र यादव, सुहास पलसीकर एवं अकील बिलग्रामी जैसे मेधावी समाज विज्ञानियों के अत्यंत गहन विचार प्रकाशित हो रहे हैं. वे इस बात से चिंतित हैं कि भारतीय राष्ट्रवाद की वर्तमान अवधारणा यूरोपियन ढंग के राष्ट्रवाद जैसी है. हम इसे हिन्दुत्व की राजनीति या हिंदू राष्ट्रवाद का नाम देते हैं. ये सभी यह स्वीकार करते हैं कि हिन्दू राष्ट्रवाद ही आज विद्यमान राष्ट्रवाद है. इसमें कोई संदेह नहीं कि हिन्दू राष्ट्रवाद अत्यंत मुखर एवं प्रभुत्वशाली है. लेकिन फिर भी भारतीय राष्ट्रवाद का विचार अभी तक भारतीय समाज के बड़े तबके के दिलों में कायम है. यदि हम मतदान प्रतिशत की बात करें तो सन् 2024 के चुनाव में हिन्दू राष्ट्रवादी पार्टी को 36.5 प्रतिशत मत हासिल हुए थे और ऐसे आरोप थे कि इनमें से बहुत से वोट हेराफेरी और जोड़तोड़ के जरिए हासिल किए गए थे.
लेकिन फिर भी इन अध्येताओं की चिंताओं पर गहराई से विचार किया जाना जरूरी है. हिन्दू राष्ट्रवाद न केवल चुनावी राजनीति के माध्यम से सशक्त हो रहा है बल्कि इसने राष्ट्र के विभिन्न अंगों में घुसपैठ कर ली है और मीडिया व सोशल मीडिया के बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया है.
यादव कहते हैं कि "आज के भारत में इस आक्रामक राष्ट्रवाद के बोलबाले के लिए वे सेकुलरवादी, अंतर्राष्ट्रीयतावादी व आधुनिकतावादी आचार-व्यवहार दोषी हैं जिन्हें आजादी के बाद के भारत में बढ़ावा दिया गया. इसके चलते हर किस्म के राष्ट्रवाद से किनारा कर लिया गया. राष्ट्रवाद का एक शून्य उत्पन्न हो गया जिसे आज राष्ट्र के हिन्दुत्वादी विचार ने भर दिया है‘‘. पलसीकर का मानना है कि आज के हिन्दू राष्ट्रवाद की जडें उस राष्ट्रीय आन्दोलन में हैं जो आज से एक सदी से भी ज्यादा पहले भारत में चलाया गया था.
बिलग्रामी भारतीय लोकाचार की प्रशंसा इन शब्दों में करते हैं" "सदियों से भारतीय समाज की यह खासियत रही है कि वह बिना प्रयास किए और बिना ढोल पीटे धर्म और संस्कृति की दृष्टि से बहुवादी बना रहा. इसके विपरीत, आज का यूरोपीय ढंग का राष्ट्रवाद विभाजित करता है और उसे एकता बताता है. पलसीकर के इस टिप्पणी कि हिन्दू राष्ट्रवाद की जड़ें आजादी के संघर्ष के काल में हैं के उत्तर में वे कहते हैं, ‘‘इसमें कोई संदेह नहीं कि यह नजरिया आजादी के संघर्ष के दौरान मौजूद था किंतु गांधी और नेहरू के बोलबाले के कारण वह हाशिए पर रहा और इससे निश्चित ही कई सवाल उलझे हुए रह गए. किंतु यह पक्के तौर पर कहा जा सकता है यह मौजूदा हिन्दुत्व राष्ट्रवाद की जड़ नहीं है‘‘.
भारत के मौजूदा हालातों और हिन्दू राष्ट्रवाद के बढ़ते खतरे को समझने के लिए कुछ अन्य बिन्दुओं पर विचार करना आवश्यक है. यूरोप में सार्वभौमिकता सम्राटों/राजाओं से आधुनिक केन्द्रीयकृत राज्य तक पहुंची. ऐेसे राज्यों के उदित होने पर उनका साबका समाज के विभिन्न तबकों से पड़ा जिससे धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा उत्पन्न हुई.
भारत में हम औपनिवेशिक शासन के अधीन रहे जिसने ज्यादातर राजाओं की सार्वभौमिकता को समाप्त कर उनके राज्यों को अपने अधीन कर लिया. आजादी के बाद ये औपनिवेशिक राज्य भारत का हिस्सा बने. यह भारत अपने संविधान के प्रावधानों के अनुसार संचालित होना था जो "समावेशी था और किसी को 'दूसरा' नहीं बताता था" (योगेन्द्र यादव के शब्द). भारत इस राह पर चला और कम से कम सैद्धांतिक तौर पर आज भी वह भारतीय राष्ट्रवाद की राह पर चल रहा है. मगर आज हिंदू राष्ट्रवाद, भारतीय राष्ट्रवाद से बड़ा हो गया है. वह संकीर्ण है और यूरोपीय ढंग का है लेकिन जहाँ यूरोप में भाषा, धर्म और संस्कृति आधारित विभाजन और राष्ट्रवाद थे (मुख्यतः भाषा-आधारित), भारत में हिंदू और मुस्लिम राष्ट्रवाद का एकमात्र आधार धर्म था, जिसे साम्प्रदायिकता भी कहा गया.
आधुनिक कल-कारखानों, शिक्षा, परिवहन एवं संचार के साधनों के विकास के साथ ही भारतीय राष्ट्रवाद की जड़ें उभरना प्रारंभ हो गईं. इस राष्ट्रवाद के उभार में सहायक थे वे सामाजिक आंदोलन जो ऊंच-नीच के बंधनों को तोड़ रहे थे. नारायण मेघाजी लोखंडे व कामरेड सिंगरालू के नेतृत्व वाले आंदोलनों ने मजदूरों को संगठित किया. जोतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले, अंबेडकर और पेरियार ने सामाजिक समानता के लिए संघर्ष किया जो भारतीय राष्ट्रवाद का एक महत्वपूर्ण घटक है. गांधी और नेहरू ने औपनिवेशिक शासन के खिलाफ जनांदोलन का नेतृत्व किया. इस आंदोलन का लक्ष्य केवल देश की सार्वभौमिकता अंग्रेजों से छीनकर भारतीय निर्वाचित प्रतिनिधियों को सौंपना नहीं था बल्कि पूर्ण समावेशिता हासिल करना भी था.
इस भारतीय राष्ट्रवाद के सशक्त होने के साथ-साथ ही सामंती तत्वों ने उन प्रवृत्तियों की नींव डाली जिन्होंने अंततः हिंदू और मुस्लिम राष्ट्रवाद का स्वरूप लिया. इन प्रवृत्तियों का विश्वास था कि धर्म ही राष्ट्रवाद का आधार है. उन्हें राजाओं-नवाबों और समाज के कुलीन वर्गों का समर्थन मिला जिन्हें उस समय कायम किंतु अस्त होते सामाजिक ढांचे में ऊंचा दर्जा हासिल था. समय के साथ इसका नतीजा मुस्लिम लीग, हिंदू महासभा और आरएसएस की स्थापना के रूप में सामने आया. इससे अंग्रेजों को ‘फूट डालो और राज करो‘ की अपनी नीति को लागू करने में मदद मिली और बाद में इसी के नतीजे में भारत का विभाजन हुआ.
भारत में हिंदू राष्ट्रवाद पहले ही काफी सशक्त हो चुका था और जर्मनी और इटली जैसे यूरोपीय राष्ट्रवाद इसके आदर्श थे. प्रशिक्षित स्वयंसेवकों और प्रचारकों के माध्यम से इसकी विचारधारा मुंहजुबानी प्रचार से देश के कोने-कोने में फैल गई. आजादी के तुरंत बाद यह स्पष्ट हो गया कि हिंदू राष्ट्रवाद कितना प्रबल है. उसके पूर्व प्रचारक नाथूराम गोडसे ने उपनिवेश विरोधी आंदोलन के मुखिया, भारतीय राष्ट्रवाद के सबसे बड़े हिमायती, महात्मा गांधी के सीने में तीन गोलियां झोंक दीं.
आरएसएस हिंदू राष्ट्रवाद का समर्थन करने वाला एकमात्र संगठन नहीं था. हिंदू महासभा भी थी और हिंदू राष्ट्रवादी तत्वों के एक तबके ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में भी घुसपैठ कर ली थी. जवाहरलाल नेहरू को इसके कारण भारतीय राष्ट्रवाद के लिए उत्पन्न हुए खतरे का एहसास हो गया था किंतु विभिन्न कारणों से वे इसे जड़ से उखाड़ नहीं पाए, जिनमें से एक था भारत में जमींदारी प्रथा का कायम रहना. यह समाज में बढ़ती धार्मिकता में भी प्रतिबिंबित होता था.
स्पष्टतः हिंदू राष्ट्रवाद जाति एवं लिंग आधारित गैर-बराबरी के मामले में यथास्थिति कायम रखने का पक्षधर है. उसका समाज के कुछ विशिष्ट वर्गों पर प्रभाव तब साफ नजर आया जब गौवध के संबंध में एक कानून बनाने की मांग उठाई गई और हजारों साधु संसद के समक्ष एकत्रित हुए. सन 1980 के दशक में उसका प्रभुत्व तब स्पष्ट दिखा जब यात्राओं के आव्हान किए गए और धार्मिक कट्टरता में जबरदस्त बढ़ोत्तरी हुई. शाहबानो मामले के बहाने मुसलमानों के तुष्टिकरण की बात लोगों के दिल में बिठा दी गई और राम मंदिर आंदोलन ने हिंदू राष्ट्रवाद के ज्वार का मार्ग प्रशस्त कर दिया.
पिछले कुछ दशकों से भारतीय राष्ट्रवाद की अभिव्यक्ति जितनी होनी चाहिए, उससे बहुत कम हो रही है. दक्षिणपंथी हिंदू राष्ट्रवाद को ही वास्तविक राष्ट्रवाद के रूप में पेश करना चाहते हैं. क्या भारतीय राष्ट्रवाद के उच्चतम दर्जा हासिल करने की उम्मीद की जा सकती है? हां. हमने पिछले कुछ वर्षों में इसकी एक झलक देखी है. 'भारत जोड़ो यात्रा' और 'भारत जोड़ो न्याय यात्रा' ने यह दिखाया कि हिंदू राष्ट्रवाद जहां काबिज हो गया है उस जगह को दुबारा हासिल किया जा सकता है. दलितों, महिलाओं, आदिवासियों, मजदूरों और अल्पसंख्यकों से जुड़े मुद्दों को उठाना और उनकी मांगों के समर्थन में आंदोलन चलाना इसकी नींव बन सकती है. हमारे संविधान के प्रति जनता के मन में गहरा लगाव और सम्मान है. इन दो आंदोलनों और भारतीय संविधान के मूल्यों को कोने-कोने में पहुंचाकर भविष्य में भारतीय राष्ट्रवाद का बोलबाला कायम किया जा सकता है. (अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया. लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)
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