भारत कब स्वाधीन हुआ

Written by Ram Puniyani | Published on: January 28, 2025
जेनेटिक अध्ययनों से यह साफ है कि आर्य भी बाहर से भारत आए थे और उनके आने से पहले इस भूमि पर अन्य लोग रहते थे. भारत में आने वाले अलग-अलग नस्लों और क्षेत्रों के लोगों को केवल आक्रांता बताना ठीक नहीं है.

 
फोटो साभार : इंडियन एक्सप्रेस

सांसद और बॉलीवुड कलाकार कंगना रनौत ने भारत की स्वतंत्रता के संबंध में अपनी समझ को पहली बार तब जाहिर किया था जब उन्होंने हमें बताया था कि भारत दरअसल 2014 में तब स्वतंत्र हुआ जब मोदी जी ने देश की सत्ता संभाली. 2014 में पहली बार भाजपा को अपने दम पर लोकसभा में बहुमत हासिल हुआ था. इस टिप्पणी का क्या अर्थ था? इसका अर्थ यह था कि 2014 से पहले तक भारत एक गुलाम देश था. या तो वह विदेशी शासकों का गुलाम था या ऐसी सरकारों का जो धर्मनिरपेक्ष और प्रजातांत्रिक मूल्यों की पैरोकार थीं. कंगना रनौत का मतलब था कि मोदी सरकार के आते ही हिन्दू राष्ट्रवाद का देश में बोलबाला हो गया और यही भारत की असली आजादी थी. एक अन्य फिल्म कलाकार विक्रांत मैसी ने हाल में यही बात दोहराते हुए कहा कि भारत को आजादी सन 2015 में हासिल हुई जब ‘हमें’ अपनी हिन्दू पहचान को अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता मिली.

अब आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत ने देश के ‘असली स्वतंत्रता’ हासिल करने की एक नई तारीख घोषित कर दी है. मध्यप्रदेश के इंदौर में एक कार्यक्रम में बोलते हुए उन्होंने कहा कि भारत को 22 जनवरी 2024 को आजादी मिली थी. उन्होंने कहा कि “इस दिन को प्रतिष्ठा द्वादशी व भारत के असली स्वाधीनता दिवस के रूप में मनाया जाना चाहिए.” उन्होंने कहा कि “भारत को कई सदियों तक विदेशी हमलों का सामना करना पड़ा और इन हमलों से उसे 22 जनवरी 2024 को स्वतंत्रता मिली.” उन्होंने यह भी कहा कि “भगवान राम, कृष्ण और शिव के आदर्श और जीवनमूल्य भारत के ‘स्व’ का हिस्सा हैं और ऐसा नहीं है कि ये केवल उन लोगों के देव हैं जो उनकी आराधना करते हैं.”

भागवत ने आगे बताया कि बाहरी हमलावरों ने देश के मंदिरों को नष्ट किया ताकि भारत का ‘स्व’  मर जाए. राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा को हमारी सारी सामाजिक समस्याओं का हल बताते हुए भागवत ने कहा कि “मैं लोगों से पूछता हूँ कि 1947 में स्वतंत्रता हासिल करने के बाद से ही हमने समाजवाद की बात कही, हमने गरीबी हटाओ का नारा दिया, हम लगातार यह कहते रहे कि हमें लोगों की आजीविका की चिंता है. मगर इस सब के बाद भी 1980 के दशक में भारत कहाँ था और इजराईल और जापान जैसे देश कहाँ पहुंच गए थे.” आरएसएस के मुखिया ने यह भी कहा कि वे ऐसे लोगों से कहा करते थे कि उन्हें यह याद रखना चाहिए कि “खुशहाली और रोजगार का रास्ता भी राम मंदिर से होकर जाता है.”

भागवत तो कंगना रनौत और विक्रांत मैसी से एक कदम और आगे बढ़ गए हैं.  वे बाबरी मस्जिद को ढहाने के अपराध को औचित्यपूर्ण ठहराना चाहते हैं. वे इस देश की विविध सांस्कृतिक और धार्मिक परंपराओं को दरकिनार कर केवल भगवान राम को देश का एकमात्र सांस्कृतिक प्रतीक साबित करना चाहते हैं. हिन्दू धर्म में भी शिव, कृष्ण और काली जैसे अन्य देवी-देवता हैं. फिर हमें भगवान महावीर, गौतम बुद्ध, नानक और कबीर की परंपराओं को भी याद रखना होगा. वे भी उस विशाल कैनवास का हिस्सा हैं जिसे हम भारत कहते हैं.

जेनेटिक अध्ययनों से यह साफ है कि आर्य भी बाहर से भारत आए थे और उनके आने से पहले इस भूमि पर अन्य लोग रहते थे. भारत में आने वाले अलग-अलग नस्लों और क्षेत्रों के लोगों को केवल आक्रांता बताना ठीक नहीं है. चोल राजा श्रीलंका पर राज करते थे. सिकंदर ने भी भारत को जीतने की कोशिश की थी. शक, हूण, खिलजी और मुगल - ये सभी भारतीय उपमहाद्वीप का हिस्सा थे. इन सब को सम्प्रदायवादी ‘हमारी’ सभ्यता पर हमला करने वालों के रूप में देखते हैं. जबकि भारत की स्वाधीनता के लिए लड़ने वाले इस ऐतिहासिक प्रक्रिया को विविध लोगों का एक दूसरे के साथ घुलमिल जाना मानते थे. वे यह भी मानते थे कि इसी कारण भारत की नींव विविधताओं से भरी हुई है. जवाहरलाल नेहरू ने इस स्थिति का बहुत सारगर्भित वर्णन किया है. उन्होंने भारत को एक ऐसी प्राचीन स्लेट बताया है जिस पर एक के बाद एक कई परतों में विचार और आकांक्षाएं दर्ज किए गए. मगर कोई भी परत न तो पिछली परतों को पूरी तरह ढंक सकी और न ही उनमें लिखे को मिटा सकी.

आरएसएस के मुखिया के अनुसार आक्रांता मंदिरों को गिराकर हमारी आत्मा को कुचलना चाहते थे. मध्यकालीन भारत और देश के प्राचीन इतिहास के अंतिम दौर में मंदिरों को केवल सत्ता और दौलत के लिए ढहाया गया. इसके पहले ब्राह्मणवाद के चलते जैन और बौद्ध आराधना स्थलों को ढहाया गया था. इसलिए मंदिरों को गिराने के लिए केवल मुस्लिम शासकों का दानवीकरण करना उचित नहीं है. मगर मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाने के लिए कई तरह के मिथक गढ़ लिए गए हैं, जिनका सच से कोई लेना-देना नहीं है. इस संदर्भ में दो उदाहरण पर्याप्त होंगे. जहां औरंगजेब ने करीब 12 मंदिरों को गिराया वहीं उसने सैंकड़ों हिन्दू मंदिरों को दान भी दिया और कश्मीर के 11वीं सदी के शासक राजा हर्षदेव के दरबार में एक अधिकारी का काम केवल यह था कि वो मंदिरों की मूर्तियां उखाड़कर उनके नीचे जमा सोने और हीरे-जवाहरात के खजाने को खोद निकाले.

भागवत और उनके जैसे अन्य लोग भारत को एक संकीर्ण ब्राह्मणवादी नजरिए से देखते हैं. भारत को एक राष्ट्र का स्वरूप ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में मिला. केवल यही वह काल था जिसे हम भारत की गुलामी का दौर कह सकते हैं. उसके पहले जो आक्रांता यहां आए वे यहीं बस गए और देश के सांस्कृतिक जीवन का अंग बन गए. उनकी पीढ़ियां भारत की धरती पर ही दफन हैं. अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो की नीति के चलते यह प्रचार किया गया कि हमलावरों ने भारत को लूटा और मंदिरों को नष्ट किया. अंग्रेजों के पहले के भारतीय शासक देश की संपत्ति को बाहर नहीं ले गए. केवल अंग्रेज ही भारत से संपत्ति को लूटकर उसे इंग्लैंड ले गए जिससे भारत कंगाल हो गया. अंग्रेजों ने भारत को गुलाम बनाया और उनके विरूद्ध जो संघर्ष हुआ केवल उसे ही स्वाधीनता संग्राम कहा जा सकता है और कहा जाना चाहिए. स्वाधीनता संग्राम के नतीजे में 15 अगस्त 1947 को भारत आज़ाद हुआ और 26 जनवरी 1950 को हमारे देश में हमारा अपना नया संविधान लागू हुआ.

जो लोग 15 अगस्त 1947 के अलावा किसी भी दूसरी तारीख को भारत के स्वतंत्र होना की तारीख बताते हैं वे दरअसल धार्मिक राष्ट्रवादी हैं और स्वाधीनता, समानता और बंधुत्व के उन मूल्यों में आस्था नहीं रखते जो हमारे संविधान का आधार है और जो स्वाधीनता संग्राम से उपजे थे. भागवत ने देश की समृद्धि के बारे में भी अपने विचार साझा किए. उन्होंने कहा कि “हमने हमेशा समाजवाद, रोजगार, और गरीबी की बात की लेकिन हुआ क्या. हमारे साथ चले जापान और इजराईल आज कहां से कहां पहुंच गए.”

भागवत को इस बात पर विचार करना चाहिए कि जापान और इजराईल ने जो हासिल किया है उसके लिए वे किस राह पर चले. क्या ये दोनों देश इसलिए समृद्ध और उन्नत बन सके क्योंकि उन्होंने पुराने धार्मिक स्थलों को गिराकर उनकी जगह नए धार्मिक स्थल बनाए? भागवत को यह भी समझना चाहिए कि राममंदिर आंदोलन से भारत की प्रगति बाधित हुई है और उसकी एकता कमजोर हुई है. स्वास्थ्य, पोषण और शिक्षा के विभिन्न मानकों पर हम खराब स्थिति में हैं.


भारत की आर्थिक, शैक्षणिक, वैज्ञानिक और औद्योगिक प्रगति और समृद्धि की नींव सन 1980 के दशक में राममंदिर के लोगों को बांटने वाले आंदोलन से बहुत पहले रख दी गई थी. 

(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया. लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)

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