बहुसंख्यकवादी राष्ट्रवाद: वैज्ञानिक सोच को नकारना

Written by Ram Puniyani | Published on: March 9, 2024


हिन्दू राष्ट्रवादी भारतीय जनता पार्टी के पिछले एक दशक से चले आ रहे शासन के दौरान हमारे देश में शिक्षा के क्षेत्र में ऐसे परिवर्तन किए गए हैं जो आस्था पर अधिक आधारित हैं और तर्क पर कम। ये परिवर्तन ऐसे हैं जो अतीत का महिमामंडन करते हैं और वैज्ञानिक सोच का नकार। तथ्य यह है कि भारत में प्राचीन काल से ही तार्किकता को महत्व दिया जाता रहा है। चार्वाक तार्किकता पर आधारित सोच के बड़े पैरोकारों में से एक थे। चरक और आर्यभट्ट ने चिकित्सा विज्ञान और खगोल शास्त्र के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

मगर आज जो दावे किए जा रहे हैं उनका सच्चाई से कोई संबंध नजर नहीं आता। जैसे हमें बताया जा रहा है कि प्राचीन भारत में प्लास्टिक सर्जरी थी और इसी का उपयोग कर मनुष्य के धड़ पर हाथी का सिर लगाकर भगवान गणेश का सृजन किया गया था। इसी तरह हमें बताया जाता है कि कर्ण के कान से पैदा होने की कथा से यह स्पष्ट है कि प्राचीन भारत में जेनेटिक साईन्स भी थी। यह भी बताया जाता है कि हमारे प्राचीन ऋषि-मुनि हवा में उड़ सकते थे और यह भी कि प्राचीन काल में पुष्पक विमान थे। कहा तो यहां तक जाता है कि प्राचीन भारतीय दूसरे ग्रहों पर भी जाते थे। धर्मग्रन्थों में जो कुछ कहा गया है उसे सही और सच सिद्ध करने के प्रयास हो रहे हैं।

ऐसी चीजें स्कूलों में तो सिखाई ही जा रही हैं उन पर अनुसंधान के लिए बजट भी आवंटित किया जा रहा है। यह बजट विज्ञान एवं टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में अनुसंधान के लिए निर्धारित धनराशि में से उपलब्ध करवाया जा रहा है। आईआईटी दिल्ली के समन्वय में पंचगव्य पर अनुसंधान हो रहा है। पंचगव्य, गाय के पांच उत्पादों का मिश्रण होता है-दूध, दही, घी, गौमूत्र एवं गोबर। ऐसा कहा जाता है कि पंचगव्य से कई रोगों का इलाज हो सकता है। गौमूत्र को भी दवा बताया जा रहा है। भाजपा सरकार आने के पहले भी पार्टी के पितृसंगठन आरएसएस ने आस्था पर आधारित ज्ञान के प्रसार के लिए कई संगठन गठित किए थे।

दीनानाथ बत्रा नाम के एक सज्जन आरएसएस के दो अनुषांगिक संगठनों, शिक्षा बचाओ अभियान समिति एवं शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास के कई दशकों से अध्यक्ष हैं। उन्होंने 9 किताबें लिखी हैं। इन सभी का गुजराती में अनुवाद कर उन्हें गुजरात के 42,000 स्कूलों में पढ़ाया जा रहा है। इन पुस्तकों को पढ़कर हम यह जान सकते हैं कि बच्चों को इन दिनों क्या सिखाया जा रहा है।

इनमें से एक पुस्तक जिसका शीर्षक है ‘तेजोमय भारत’ में एक कोई डॉक्टर बालकृष्ण गणपत मातापुरकर के अनुसंधान की कहानी सुनाई गई है। हमें बताया गया है कि मातापुरकर जी महाभारत में कही गई बातों पर अनुसंधान करते हैं। उनके अनुसार गांधारी के गर्भ से मांस का एक बड़ा लोथड़ा निकला। इस पर ऋषि द्वापायन व्यास को बुलाया गया। उन्होंने मांस के इस कड़े लोथड़े का अवलोकन किया फिर उन्होंने उसे ठंडे पानी में कुछ विशिष्ट दवाओं के साथ रख दिया। कुछ समय बाद उन्होंने इस लोथड़े के 100 टुकड़े किए और उन्हें दो साल की अवधि के लिए घी से भरे हुए 100 मटकों में रख दिया। दो साल बाद इन टुकड़ों से 100 कौरवों का जन्म हुआ। पुस्तक हमें बताती है कि इस विवरण को पढ़ने के बाद मातापुरकर को यह समझ में आया कि स्टेम सेल टेक्नोलॉजी महाभारत काल में मौजूद थी और यह हमारी प्राचीन विरासत का हिस्सा है।

उनके अनुसार, भारतीय ऋषि अपनी योग विद्या का इस्तेमाल कर दिव्य दृष्टि प्राप्त कर लेते थे और यही आज का टेलीविजन है। महाभारत में संजय, हस्तिनापुर के एक महल में बैठकर अपनी दिव्य दृष्टि से कुरूक्षेत्र में चल रहे महाभारत के युद्ध का आंखो-देखा हाल धृतराष्ट्र को सुनाता था, जो कि अंधे थे (पृष्ठ 64)। पुस्तक हमें यह भी बताती है कि आज जिसे हम मोटर कार कहते हैं वह वैदिक काल में मौजूद थी और उसे अनश्व रथ (अर्थात बिना अश्व वाला रथ) या यंत्र रथ कहा जाता था। ऋग्वेद में इसका वृतांत दिया गया है (पृष्ठ 60)।

आरएसएस ने एक परामर्शदात्री संस्था का गठन भी किया है जिसे भारतीय शिक्षा नीति आयोग कहा जाता है। इस आयोग की नीतियाँ ही मोदी सरकार के भारतीय शिक्षा व्यवस्था में सुधार के प्रयासों का आधार हैं। शिक्षा नीति आयोग, भारत की शिक्षा व्यवस्था का ‘भारतीयकरण’ करना चाहता है।

अब तो भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद (आईसीएचआर), राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान व प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) आदि के मुखिया ऐसे लोग हैं जिनका इन संस्थाओं के कार्यक्षेत्र से कोई लेना देना नहीं है। उन्हें ये पद केवल इसलिए दिए गए हैं क्योंकि वे सत्ताधारी दल की विचारधारा में यकीन रखते हैं।

वाई. सुदर्शन नाम के एक ‘विद्वान’ को भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद का मुखिया बनाया गया था। वे यह साबित करने पर आमादा थे कि हमारे महाकाव्य रामायण और महाभारत ऐतिहासिक घटनाक्रम का वर्णन करते हैं। मतलब यह है कि जो महाभारत और रामायण में लिखा गया है वह सचमुच हुआ था। इस सरकार में तार्किक सोच और वैज्ञानिक पद्धति के लिए कोई जगह नहीं है। सरकार बाबा रामदेव को जमकर बढ़ावा दे रही है। बाबा रामदेव की कंपनी द्वारा बनाई गई एक दवा कोरोनिल को कोविड-19 का इलाज बताया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने अभी हाल में रामदेव को चेतावनी दी है कि वे अपने विज्ञापनों में हवाई दावे न करें और दूसरी चिकित्सा पद्धतियों को कटघरे में खड़ा न करें।


पिछले कुछ सालों से भारतीय विज्ञान कांग्रेस प्रकाशन के लिए ऐसे शोध प्रबंध स्वीकार कर रही है जिनका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है और जो केवल पौराणिक कथाओं पर आधारित हैं। इस स्थिति से व्यथित होकर कुछ प्रमुख वैज्ञानिकों ने एक साथ मिलकर एक संयुक्त बयान जारी किया है, जिसमें सरकार से यह अनुरोध किया गया है कि वह वैज्ञानिक सोच और वैज्ञानिक पद्धतियों को कमज़ोर करने से बाज़ आये। वैज्ञानिकों का कहना है कि ‘‘सरकार का यह दृष्टिकोण उसके द्वारा अवैज्ञानिक एवं अपुष्ट दावों को बढ़ावा देने, भारत के प्राचीन ज्ञान को बढ़ाचढ़ाकर बताने और कोविड-19 महामारी के दौरान किए गए कुछ निर्णयों से स्पष्ट है।’’

वक्तव्य में इस बात पर जोर दिया गया है कि वैज्ञानिक, शिक्षाविद और नीति निर्माता एक साथ मिलकर विज्ञान के प्रति निष्ठा में क्षरण को रोकने व देश में वैज्ञानिक सोच और तार्किक व साक्ष्य-आधारित आख्यान को बढ़ावा देने के लिए कार्य करें।

हमारा संविधान राज्य से यह अपेक्षा करता है कि वह वैज्ञानिक समझ को बढ़ावा दे। मगर वर्तमान सरकार की नीतियां, तार्किकता पर आधारित नहीं हैं। यह बात न केवल विज्ञान और वैज्ञानिक अनुसंधान वरन् शिक्षा और सामाजिक क्षेत्र के बारे में भी सही है। नई शिक्षा नीति 2020 में ‘भारतीय ज्ञान प्रणालियों’ पर ज़ोर दिया गया है। इसका मतलब केवल यह है कि सरकार भौतिक व सामाजिक विज्ञानों में आस्था पर आधारित ज्ञान को बढ़ावा देगी।

वे लोग जो समाजिक समानता चाहते हैं और सामाजिक परिवर्तन के हामी हैं, हमेशा से तार्किक व वैज्ञानिक सोच के पैरोकार रहे हैं। गौतम बुद्ध, भगत सिंह, अम्बेडकर और नेहरू इसके उदाहरण हैं। भारत का इतिहास गवाह है कि जो लोग सामाजिक रिश्तों में यथास्थिति बनाये रखना चाहते थे, जो लोग असमानता को बनाए रखना चाहते थे, वे आस्था पर आधारित ज्ञान को बढ़ावा देते थे, पौराणिक कथाओं को धुव्र सत्य बताते थे और आस्था पर आधारित ज्ञान को समाज पर थोपते थे।

साम्प्रदायिक और कट्टरवादी तत्व टेक्नोलॉजी को पसंद नहीं करते। वे वैज्ञानिक और तार्किक सोच के भी विरोधी होते हैं। हमारा संविधान औपनिवेशिक सत्ता के विरूद्ध संघर्ष से उभरा था और इसके निर्माता समाज में बदलाव के हामी थे। इसलिए संविधान में वैज्ञानिक समझ को बढ़ावा देने की जिम्मेदारी सरकार पर डाली गई है। हमारी वर्तमान सरकार, धार्मिक, जातिगत और लैंगिक समानता की विरोधी है। यही कारण है कि वह संविधान की मूल आत्मा के खिलाफ है।

अनेक प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों ने जो बयान जारी किया है वह स्वागत योग्य है। भारत के लिए यह जरूरी है कि वह विवेक, तर्क और वैज्ञानिक समझ को अपनी नीतियों का आधार बनाये।

(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया; लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)

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